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Old 11-11-2012, 09:46 AM   #21
omkumar
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Default Re: गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

गीत


चलो फिर से मुस्कुराएँ
चलो फिर से दिल जलाएँ


जो गुज़र गयी हैं रातें
उन्हें फिर जगा के लाएँ
जो बिसर गयी हैं बातें
उन्हें याद में बुलाएँ


चलो फिर से दिल लगाएँ
चलो फिर से मुस्कुराएँ


किसी शह-नशीं पे झलकी
वो धनक किसी क़बा की
किसी रग में कसमसाई
वो कसक किसी अदा की
कोई हर्फ़े-बे-मुरव्वत
किसी कुंजे-लब से फूटा
वो छनक के शीशा-ए-दिल
तहे-बाम फिर से टूटा
ये मिलन की, ना-मिलन की
ये लगन की और जलन की
जो सही हैं वारदातें
जो गुज़र गई हैं रातें
जो बिसर गई हैं बातें
कोई इनकी धुन बनाएँ
कोई इनका गीत गाएँ


चलो फिर से मुस्कुराएँ
चलो फिर से दिल लगाएँ
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Old 11-11-2012, 09:47 AM   #22
omkumar
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Default Re: गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़



चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास है माज़ूर हैं हम
जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरें है
फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
लेकिन अब ज़ुल्म की मीयाद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं
अर्सा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में
हमको रहना है पर यूँ ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों के बेनाम गराँबार सितम
आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है
ये तेरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
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Old 11-11-2012, 09:47 AM   #23
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Default Re: गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था

गो सबको बहम साग़र-ओ-वादा तो नहीं था
ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था
गलियों में फिरा करते थे दो-चार दिवाने
हर शख़्स का सद चाक लबादा तो नहीं था
वाइज़ से रह-ओ-रस्म रही रिंद से सोहबत
फ़र्क़ इनमें कोई इतना ज़ियादा तो नहीं था
थक कर यूँ ही पल भर के लिए आँख लगी थी
सो कर ही न उट्ठें ये इरादा तो नहीं था
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Old 11-11-2012, 09:47 AM   #24
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Default Re: गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले

गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-ख़ुदा आज ज़िक्रे-यार चले
कभी तो सुब्ह तेरे कुंजे-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सरे-काकुल से मुश्के-बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़मगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शबे-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आक़बत सँवार चले
हुज़ूरे-यार हुई दफ़्तरे-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार तार चले
मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
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Old 11-11-2012, 09:48 AM   #25
omkumar
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Default Re: गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़्ज़ारा का असर तो देखो


गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़्ज़ारा का असर तो देखो
गुल खिले जाते हैं वो साया-ए-दर तो देखो
ऐसे नादाँ तो न थे जाँ से गुज़रने वाले
नासिहो, रहबर-ओ-राहगुज़र तो देखो
वो तो वो हैं तुम्हें हो जाएगी उल्फ़त मुझसे
एक नज़र तुम मेरा महबूबे-नज़र तो देखो
वो जो अब चाक गरेबाँ भी नहीं करते हैं
देखने वालो कभी उनका जिगर तो देखो
दामने-दर्द को गुलज़ार बना रखा है
आओ एक दिन दिले-पुरख़ूँ का हुनर तो देखो
सुबह की तरह झमकता है शबे-ग़म का उफ़क़
फ़ैज ताबिंदगी-ए-दीदा-ए-तर तो देखो
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Old 11-11-2012, 09:50 AM   #26
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Default Re: गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

गरानी-ए-शबे-हिज़्रां दुचंद क्या करते

गरानी-ए-शबे-हिज्राँ दुचंद क्या करते
इलाजे-दर्द तेरे दर्दमंद क्या करते
वहीं लगी है जो नाज़ुक मकाम थे दिल के
ये फ़र्क़ दस्ते-अदू के गज़ंद क्या करते
जगह-जगह पे थे नासेह तो कू-ब-कू दिलबर
इन्हें पसंद, उन्हें नापसंद क्या करते
हमीं ने रोक लिया पंजा-ए-जुनूँ को वरना
हमें असीर ये कोताहकमंद क्या करते
जिन्हें ख़बर थी कि शर्ते-नवागरी क्या है
वो ख़ुशनवा गिला-ए-क़ैदो-बंद क्या करते
गुलू-ए-इश्क़ को दारो-रसन पहुँच न सके
तो लौट आए तेरे सरबलंद, क्या करते
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Old 11-11-2012, 09:50 AM   #27
omkumar
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Default Re: गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है


इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अँधेरा न सवेरा

आँखों के दरीचे में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा

मुमकिन है कोई वोम हो मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का एक आख़िरी फेरा

शाख़ों में ख़यालों के घने पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा

इक बैर न इक महर न इक रब्त न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा

माना कि ये सुनसान घड़ी सख़्त बड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है

हिम्मत करो जीने को अभी उम्र पड़ी है
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Old 11-11-2012, 09:50 AM   #28
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Default Re: गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि सोगवार हो तू


ख़ुदा वो वक़्त न लाए कि सोगवार हो तू
सुकूँ की नींद तुझे भी हराम हो जाए
तेरी मसर्रते-पैहम तमाम हो जाए
तेरी हयात तुझे तल्ख़ जाम हो जाए

ग़मों से आईना-ए-दिल गुदाज़ हो तेरा
हुजूमे-यास से बेताब होके रह जाए
वफ़ूरे-दर्द से सीमाब होके रह जाए
तेरा शबाब फ़क़त ख़्वाब होके रह जाए

ग़ुरूरे-हुस्न सरापा नियाज़ हो तेरा
तवील रातों में तू भी क़रार को तरसे
तेरी निगाह किसी ग़मगुसार को तरसे
ख़िज़ाँरसीदा तमन्ना बहार को तरसे

कोई जबीं न तेरे संग-ए-आस्ताँ पे झुके
कि जिंसे-इज़्ज़ो-अक़ीदत से तुझको शाद करे
फ़रेबे-वादा-ए-फ़र्दा पे ए'तमाद करे
ख़ुदा वो वक़्त न लाए कि तुझको याद आए

वो दिल जो तेरे लिए बे-क़रार अब भी है
वो आँख जिसको तेरा इंतज़ार अब भी है
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Old 11-11-2012, 10:18 AM   #29
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Default Re: गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मेरी तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं

मेरी-तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं
जो मेरे-तेरे तन-बदन में लाख दिल फ़िग़ार हैं
जो मेरी-तेरी उँगलियों की बेहिसी से सब क़लम नज़ार हैं

जो मेरे-तेरे शहर की हर इक गली में
मेरे-तेरे नक़्श-ए-पा के बे-निशाँ मज़ार हैं
जो मेरी-तेरी रात के सितारे ज़ख़्म ज़ख़्म हैं
जो मेरी-तेरी सुबह के गुलाब चाक चाक हैं

ये ज़ख़्म सारे बे-दवा ये चाक सारे बे-रफ़ू
किसी पे राख चाँद की किसी पे ओस का लहू

ये हैं भी या नहीं बता
ये है कि महज़ जाल है
मेरे-तुम्हारे अंकबूते-वोम का बुना हुआ

जो है तो इसका क्या करें
नहीं है तो भी क्या करें
बता, बता, बता, बता
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Old 11-11-2012, 10:18 AM   #30
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Default Re: गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

कोई आशिक़ किसी महबूब से


याद की राहगुज़र जिसपे इसी सूरत से
मुद्दतें बीत गईं हैं तुम्हें चलते-चलते
ख़त्म हो जाए जो दो-चार क़दम और चलो
मोड़ पड़ता है जहाँ दश्ते-फ़रामोशी का

जिससे आगे न कोई मैं हूँ, न कोई तुम हो
साँस थामें हैं निग़ाहें, कि न जाने किस दम
तुम पलट आओ, गुज़र जाओ, या मुड़ कर देखो
गरचे वाकिफ़ हैं निगाहें, के ये सब धोखा है

गर कहीं तुमसे हम-आग़ोश हुई फिर से नज़र
फूट निकलेगी वहाँ और कोई राहगुज़र
फिर इसी तरह जहाँ होगा मुकाबिल पैहम
साया-ए-ज़ुल्फ़ का और ज़ुंबिश-ए-बाजू का सफ़र

दूसरी बात भी झूठी है कि दिल जानता है
याँ कोई मोड़, कोई दश्त, कोई घात नहीं
जिसके परदे में मेरा माहे-रवाँ डूब सके

तुमसे चलती रहे ये राह, यूँ ही अच्छा है
तुमने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं!

तुम आए हो न शबे-इंतज़ार गुज़री है

तुम आए हो न शबे-इंतज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार-बार गुज़री है

जुनूँ में जितनी भी गुज़री बकार गुज़री है
अगर्चे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है

हुई है हज़रते-नासेह से गुफ़्तगू जिस शब
वो शब ज़रूर सरे-कू-ए-यार गुज़री है

वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है

न गुल खिले हैं, न उनसे मिले, न मय पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है

चमन पे ग़ारते-गुलचीं से जाने क्या गुज़री
क़फ़स से आज सबा बेक़रार गुज़री है
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