16-12-2014, 10:27 PM | #291 |
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Re: इधर-उधर से
साभार: ममता कालिया जी विख्यात कवि कुँवर नारायण ने घर से बेघर होने की प्रक्रिया को बेहद मर्मस्पर्शी शब्दों में यूँ व्यक्त किया है: घर रहेंगे हमीं उनमें रह न पायेंगे समय होगा हम अचानक बीत जायेंगे पापा की नौकरी ने हमें कई शहरों की हवा खिलाई. हम कहीं के न बचे या हर जगह के हो लिए. आखिर कई वजह होती हैं अपना घर छोड़ने की. वर्ना अपना ठिया कौन छोड़ना चाहता है. मुनव्वर राना ने सच ही कहा है: अपने गाँव में भैया सब कुछ अच्छा लगता है पेड़ पे बैठा एक गवैया अच्छा लगता है हर विस्थापित के लिए अपना शहर एक सपना बन जाता है. वह नए शहर में लाख किल्लतों में रह लेता है कि एक दिन लौटेगा अपने प्यारे शहर में. उसके मन के दो हिस्से बन जाते हैं, एक उसकी रोजी-रोटी का शहर, दूसरा उसके नेह-नाते का शहर. अनजान शहर को अपना बनाना कोई खेल नहीं होता. शुरू में तो पानी भी बेस्वाद और बेगाना लगता है. धीरे-धीरे शहर खुलता है, किताब की तरह, हिजाब की तरह, एक ख्वाब की तरह.
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18-12-2014, 05:44 PM | #292 |
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Re: इधर-उधर से
मेरे लिए बहुत गंभीर विषय है रजनीश जी ...
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18-12-2014, 09:33 PM | #293 |
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Re: इधर-उधर से
प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिये आपका धन्यवाद करता हूँ, देवराज जी.
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30-12-2014, 02:53 PM | #294 |
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Re: इधर-उधर से
अली सरदार जाफ़री
जन्म: 29 नवम्बर 1913 मृत्यु: 1 अगस्त 2000 (पिछले वर्ष ही उनकी जन्म शताब्दी मनाई गई थी) मशहूर उर्दू शायर और कथाकार अली सरदार जाफरी साहब का एक बेटा उस वक़्त कोई चार पाँच बरस का होगा. उसने किसी बात से नाराज़ हो कर अपने बावर्ची के मुंह पर थप्पड़ मार दिया. वह (सरदार साहब) सामने बैठे थे. जब बात खत्म हो गयी तो सरदार साहब ने अपने बेटे को बुला कर कहा कि जाओ और मुंह हाथ धो कर मेरे पास आओ. तुमसे कुछ जरुरी बात करनी है. जब वह हाथ मुंह धो कर आया तो उन्होंने उससे कहा, “देखो, तुमने जिनके साथ यह गलत सुलूक किया है, वह मुझसे भी ज्यादा उम्र के हैं. तुम्हें उनके पास जा कर उनसे माफ़ी मांगनी चाहिए. अगर तुमने ऐसा न किया तो मैं तुमसे न तो बात करूँगा और न ही तुमसे प्यार करूँगा. बेटे ने उसी समय उस बुजुर्ग बावर्ची के आमने जाकर माफ़ी मांग ली. उसके बाद घर के किसी सदस्य ने घर में काम करने वाले कर्मचारियों से कभी अपमानजनक व्यवहार नहीं किया.
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30-12-2014, 02:55 PM | #295 |
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Re: इधर-उधर से
अली सरदार जाफ़री
सरदार साहब ने अपने नौकरों को कभी किसी गलती के लिए कोई सजा नहीं दी. एक बार उनकी बीवी के सोने के झुमके घर से गायब हो गए. कुछ दिन बाद इस बात का पता लगा. उनकी बीवी को एक नौकर पर शक़ था. सरदार साहब ने नौकर को अलग ले जा कर बात की. नौकर ने अपना कसूर मान लिया और रोने लगा. यह पूछने पर कि उसने ऐसा क्यों किया तो उसने बताया कि ‘मेरी बीवी कई दिनों से उसके पीछे पड़ी थी कि मुझे सोने के झुमके लाकर दो. मेरे पार इतने पैसे नहीं थे कि मैं इन्हें खरीद सकता. इसलिए मैंने यह झुमके उठा लिए. घर के कुछ लोग उसे पुलिस में देने की बात करने लगे. लेकिन सरदार साहब ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया. सिर्फ उसको अच्छी तरह समझा कर और ताकीद करने के बाद उसे छोड़ दिया. उन्होंने कहा कि “आदमी मजबूरी में ही ऐसा काम करता है”.
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10-01-2015, 08:46 AM | #296 |
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Re: इधर-उधर से
हे ईश्वर
विष्णु नागर के लेख से साभार बेइमानों, चोरों, डाकुओं, लफंगों, घोटालेबाजों, रिश्वतखोरों, दलालों, साम्प्रदायिकों और जातिवादियों को कई जगह चुनाव में खड़ा होते देख ईश्वर इतने परेशान हो गये कि एक पूरी रात तो उन्हें नींद ही नहीं आई. उनका ब्लड प्रेशर इतना बढ़ गया कि वे खुद घबराहट में ‘हे ईश्वर, हे ईश्वर’ पुकारने लगे. लेकिन अगले दिन उनकी हालत सुधरी और उन्होंने निश्चय किया कि वे स्थिति का मुकाबला करके रहेंगे. बहुत ठंडे दिमाग से सोचने पर उन्होंने पाया कि उसका सर्वोत्तम उपाय यही है कि वे स्वयं चुनाव में खड़े हो जाएं तो शरम तथा डर के मारे ये लोग खुद ही बैठ जायेंगे और ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ भारत में लोकतंत्र की रक्षा हो जायेगी. तो ईश्वर चुनाव में खड़े हो गए मगर कोई लफंगा नहीं बैठा. वे पूरे एक दिन खड़े रहे मगर कोई घोटालेबाज नहीं बैठा. वे दो दिन तक खड़े रहे मगर कोई दलाल नहीं बैठा. वे चार दिन और चार रात खड़े रहे मगर बैठना तो दूर किसी चोर ने उनकी तरफ झांककर भी नहीं देखा. किसी बेईमान ने नहीं कहा, प्रभो, अब आप बैठ जाइए. अंत में ईश्वर धड़ाम से जमीन पर गिर गए और होश आया तो अस्पताल में थे. वे सब चुनाव जीत गए, जिनसे भारतीय लोकतंत्र की रक्षा के लिये ईश्वर चुनाव में खड़े हुए थे. यहां तक कि उनकी जीत की खुशी में इनका एक समर्थक अस्पताल के पलंग पर लेटे ईश्वर के मुंह में लड्डू ठूंस गया था.
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10-01-2015, 04:57 PM | #297 |
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Re: इधर-उधर से
छोटी छोटी कहानिया है लेकिन सारगर्भित हैं रजनीश जी , रचना का बड़ा होना मायने नही रखता उसमे कोई अर्थ हों , और शब्द एइसे हों जो साधारण इन्सान के मन तक और दिमाग तक पहुँच सके .
पहली कहानी हर साल शहर बदलने का दुःख इन्सान के जीवन की अस्थिरता को जताती है . दूसरी कहानी में एक पिता के द्वारा बच्चे को दिए गए अच्छे संस्कार का वर्णन जो की बच्चे का जीवन सवारने के लिए जरुरी है . अतिसय अन्याय के बाद अंत में जीत सच्चाई और अछे की हुई इसका वर्णनहै. पाठक को समझने लायक कहानिया हैं रजनीश जी.. शेयर के लिए धय्न्वाद . |
10-01-2015, 11:26 PM | #298 | |
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Re: इधर-उधर से
Quote:
उपरोक्त प्रसंग पढ़ने और उन पर अपने मूल्यवान विचार रखने के लिए मेरा धन्यवाद स्वीकार करें, सोनी जी. मैं आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूँ कि जब भी किसी प्रसंग में सरल शब्दों में कोई सार्थक बात कही जाती है तो पढ़ने वाले पर प्रभाव छोडती है. आपका पुनः धन्यवाद.
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11-01-2015, 08:38 PM | #299 |
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Re: इधर-उधर से
प्रिय रजनीश जी कृपा करके जल्दी जल्दी अपडेट दिया करें ...मुझे ऐसी कहानियां बहुत अछि लगती हैं ..
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11-02-2015, 11:09 PM | #300 |
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Re: इधर-उधर से
प्रेममय समर्पण
आभार: कमल किशोर जैन प्रेम में ऐसा मुकाम मिल पाना हर किसी के नसीब मे कहाँ... जहाँ "मैं" ख़तम हो जाए वहीं से सच्चे इश्क़ की शुरुआत होती है.. इसी समर्पण भाव के चलते "मीरा" को तो उसके "श्याम" मिल गये.. पर हम सब किसी ना किसी दुनियादारी के खेल मे इस कदर फँसे है की अपने कृष्ण को पाना तो दूर... उसे पहचान तक नही पाते है. दरअसल प्रेम का स्वरूप ही इतना उदात्त है कि उसमे व्यक्ति का अहंकार, उसका अहम् सब मिट जाते है. पर उसके लिए जरुरी है की प्रेम में समर्पण का भाव आये. क्यूंकि जब तक हमारे मन में अपने प्रियतम पर अधिकार की भावना रहेगी.. प्रेम में इर्ष्या और जलन का भी स्थान रहेगा.. और ये इर्ष्या और जलन ही एक दिन शक और संदेह को जन्म दे देते है. और जब ये भाव किसी रिश्ते में आ जाये तो उसका ख़तम हो जाना भी सुनिश्चित सा हो जाता है. इसलिए प्रेम में कभी अधिकार का भाव न आये. दूसरा हम सभी इन्सान है ऐसे में हममे इंसानी गुण-दोषों का होना भी लाज़मी है.. इसलिए हमें कभी ये आशा नहीं करनी चाहिए की हमारे प्रिय में सिर्फ खूबियाँ ही हो, खामियां न हो.. साथ ही उसका फिजूल विश्लेषण भी न करें.. बस समर्पित कर दें अपने आप को अपने प्रिय के लिए, अपने प्रेम के लिए.. बिना किसी सोच विचार के... फिर देखिये.
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