22-10-2012, 01:49 AM | #311 |
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Re: कतरनें
नवरात्र के फलाहारी जायके पर अंतर्राष्ट्रीय रंग साबूदाना रिसोटा, कुट्टू पास्ता, फलाहारी पित्जा, कोकोनट बॉल्स, वालनट टैपस .... सुनने में भले ही ये नाम थोड़े नए लगते हैं लेकिन इस बार नवरात्र में इनकी धूम है और लगता है कि नवरात्र पर अंतर्राष्ट्रीय रंग चढ़ रहा है। हालांकि ये व्यंजन नवरात्र के परंपरागत व्यंजनों से अलग हैं लेकिन इन्हें बनाने वालों का दावा है कि ये पूरी तरह फलाहारी हैं। दिल्ली के सागर रत्ना रेस्टोरेंट के प्रोडक्ट डवलपमेंट और क्वालिटी शेफ पारिजात ने कहा, ‘लोग परंपरागत मेनू से कुछ हट कर खाना चाहते हैं। इसीलिए हमने कोशिश की कि नवरात्र में उन्हें सचमुच कुछ नया ही मिले। फ्रूट जूस, फ्रूट सलाद से लेकर पोटैटो पास्ता और अन्य वेरायटी इस बार हमारे नवरात्र मेनू का हिस्सा हैं।’ सुन्दर नगर मार्केट के अनन्दा रेस्तरां में सिंघाड़े के आटे के ‘फ्रूटी गोलगप्पे’ की बहार है। यहां फलों से तैयार की गई ‘फ्रूटी लस्सी’, साबूदाना पुडिंग, फ्रूट पकोड़ा और ‘तंदूरी ग्रिल्ड वेजीज’ भी लोगों को पसंद आ रही है। यहां के शेफ समीर शेल ने बताया, ‘हमारे यहां आलू पनीर टिक्की, फ्रूट चाट, आलू दही चाट, आलू अनारदाना चाट भी है। पेय पदाथो’ में हमने केसर पिस्ता मिल्क, लस्सी, सोडा वाला खस शर्बत तैयार किया है।’ छतरपुर स्थित त्रिवोली गार्डन होटल में सिंघाड़े की टिक्की, तंदूर भरवां आलू, नवरात्र पनीर कबाब, फलाहारी चाट और तिल मखाना खीर मुंह में पानी लाने के लिए पर्याप्त है। यहां के शेफ आशीष चड्ढा ने कहा, ‘पूरे खाने में प्याज लहसुन का कोई उपयोग नहीं किया जा रहा है और सेंधा नमक मिलाया जा रहा है।’ आशीष ने कहा, ‘कुट्टू के आटे की पूरियां, सिंघाड़े के आटे का हलवा और साबूदाने की खीर ... पहले नवरात्र के नौ दिन व्रत करने वाले लोग फलाहार में इसका सेवन करते थे और नवरात्र खत्म होने पर मुंह से निकलता था ‘उब गए उपवास का खाना खा कर, अब हो जाए कुछ जायकेदार ...।’ इसीलिए हमने इस बार नवरात्र की थाली जायकेदार बनाने की कोशिश की है।’ गुड़गांव स्थित जूरा रेस्तरां में कुट्टू पास्ता, फ्रूटकेक, पित्जा ब्रेड नवरात्र के लिए तैयार किए गए हैं। द मेट्रोपोलिस होटल एंड स्पा में कुट्टू के आटे और सूखे मेवे से पाइनैपल कुकीज तैयार की गई तो एशिया किचन ने कोकोनट बॉल्स और कोकोनट आइसक्रीम पेश की है। पिज्जोरियो रोजा ने बिना प्याज लहसुन का फलाहारी पित्जा तैयार किया है। हिल्टन मयूर के कार्यकारी शेफ मयूर थापा ने कहा, ‘हमने नवरात्र के व्यंजनों को इतालवी स्वाद देने की कोशिश की और स्वदेशी बकव्हीट तथा पोटैटो पास्ता तैयार किया। कद्दू का सूप, आलू का सूप भी लोगों को पसंद आ रहा है। परंपरागत व्यंजनों में कद्दू का हलवा, साबूदाने की टिक्की, अरबी पकोड़ा तो हैं ही।’ हौजखास स्थित वेरवे रेस्तरां ने स्पैनिश फूड की तरह नवरात्र में फलाहारी लेमन ग्रीन टैपस, एप्पल टैपस और वालनट टैपस पेश किए हैं। बज रेस्तरां के गगन कपूर ने कहा ‘रसोई एक रसायनिक प्रयोगशाला की तरह है। बस, प्रयोगों की जरूरत है। हमने पहली बार साबूदाना रिसोटो, साबूदाना बॉल्स, ग्रिल्ड कॉटेज चीज पेश किया है।’
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22-10-2012, 01:58 AM | #312 |
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Re: कतरनें
अजूबा
वहां चालीस वर्षों से हो रही है शिव भक्त रावण की पूजा देश में विजयादशमी के पर्व को बेशक असत्य पर सत्य की जीत कहकर पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता हो और इस अवसर पर बुराई के प्रतीक रावण के हजारों की संख्या में पुतले दहन किये जाते हों लेकिन इस बहुचर्चित पौराणिक चरित्र को इंदौर में कुछ लोग लगभग 40 सालों से पूज रहे हैं । हिंदुओं की प्रचलित धार्मिक मान्यताओं से एकदम अलग शिवभक्त रावण की पूजा की यह परंपरा दशहरे पर 24 अक्तूबर को भी जारी रहेगी, जबकि दूसरी ओर त्यौहारी उल्लास के बीच हजारों की संख्या में पूरे देश में रावण के पुतले धू-धू करके जल रहे होंगे। ‘जय लंकेश मित्र मंडल’ के अध्यक्ष महेश गौहर ने बताया, ‘हम इस बार भी दशहरे पर गाजे-बाजे के साथ रावण की पूजा-अर्चना करेंगे। इस मौके पर दशानन की आरती होगी, कन्याओं का पूजन किया जायेगा और प्रसाद भी बांटा जायेगा।’ इसमें काफी संख्या में लोग हिस्सा लेंगे । गौहर ने बताया कि उनकी अगुवाई वाला संगठन 10 सिरों वाले पौराणिक चरित्र को विजयादशमी पर करीब चार दशकों से पूज रहा है और अपने आराध्य रावण की आम छवि बदलने की कोशिशों में भी जुटा है। वह कहते हैं, ‘रावण भगवान शिव के परम भक्त और प्रकांड विद्वान थे। हम चाहते हैं कि दशहरे पर जगह-जगह रावण का दहन नहीं, बल्कि पूजन हो।’ उन्होंने बताया कि शहर में रावण के मंदिर के निर्माण का काम लगभग पूरा हो चुका है। सब कुछ योजना के मुताबिक रहा तो अगले दो महीने के भीतर इस मंदिर में रावण की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हो जायेगी, ताकि विधि-विधान से उनके आराध्य की हर रोज पूजा-अर्चना हो सके। गौहर बताते हैं कि उन्होंने सरकारी या गैर सरकारी संगठनों अथवा किसी आम व्यक्ति से रावण का मंदिर बनवाने के लिए दान में जमीन मांगी थी, लेकिन रावण की आम छवि के चलते कोई भी उन्हें जमीन देने का तैयार नहीं। सही भी है कि इस देश में रावण का मंदिर बनवाने के लिये कौन जमीन देगा । इस कोशिश में नाकामी पर उन्होंंने आखिरकार अपनी पुश्तैनी जमीन पर यह मंदिर बनवाने का काम शुरू करा दिया है। गौहर ने बताया कि उन्होंने रावण के मंदिर के पास उनकी मां ‘कैकेसी’ का भी छोटा सा मंदिर बनवाया है। कैकेसी को दशानन के स्थानीय भक्त ‘दशा माता’ के नाम से पुकारते हैं। करीब 66 वर्षीय गौहर पर रावण की भक्ति का रंग कुछ इस कदर चढा है कि उन्होंने करीब चार साल पहले दशहरे पर अपने पोते का नाम ‘लंकेश्वर’ और पोती का नाम ‘चंद्रनखा’ रखने का फैसला किया। इस मौके पर एक पुरोहित की मदद से बाकायदा नामकरण संस्कार भी किया गया। रावण भक्तों के संगठन के अध्यक्ष की मानें तो दशानन की बहन का असली नाम ‘चंद्रनखा’ ही था। श्रीलक्ष्मण ने जब उसकी नाक काटी तो उसे ‘शूर्पणखा’ के नाम से जाना गया। उन्होंने बताया, ‘हम परिसंवाद जैसे कार्यक्रमों के जरिये रावण के व्यक्तित्व के छिपे पहलुओं को सामने लाकर उनकी आम छवि बदलने की कोशिश करते हैं। इसके साथ ही, जनता से अनुरोध करते हैं कि दशहरे पर रावण के पुतले फूंकने का सिलसिला बंद हो।’ बहरहाल, गौहर बताते हैं कि मध्य प्रदेश में उन जैसे रावण भक्तों की कमी नहीं है। प्रदेश के विदिशा, मंदसौर, पिपलदा (उज्जैन), महेश्वर और अमरवाड़ा (छिंदवाड़ा) में अलग-अलग रूपों में रावण की पूजा होती है।
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22-10-2012, 03:08 AM | #313 |
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Re: कतरनें
नज़ीर/बेनज़ीर
पाकिस्तानी न्यायाधीश के मकान में लगी हैं भारत की मिट्टी और र्इंटें इसे पिता के भारत प्रेम के प्रति अगाध श्रद्धा कहें अथवा पत्नी के प्रति आदर और सम्मान का भाव, पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश खलीलउर रहमान रामदे जब 2005 में पहली बार भारत आए थे तो यहां से अपने पिता और ससुर के घर की मिट्टी और र्इंटें लेकर वापस लौटे थे। हाल ही में यहां आए रामदे ने बताया कि लाहौर स्थित अपने घर में उन्होंने इस मिट्टी और र्इंटों का इस्तेमाल किया है। पंजाब के नवांशहर में स्थित ‘दोआबा आर्य सीनियर सेकंडरी स्कूल’ में अपने पिता तथा पाकिस्तान के एक हाई कोर्ट के न्यायाधीश मोहम्मद सादिक के नाम पर बनवाए आडिटोरियम का उद्घाटन करने आए जस्टिस रामदे ने अपने जज्बात का इजहार करते हुए बताया कि नवांशहर जिले के करियाम गांव में मेरे पूर्वजों का घर था। मेरे पिता का बचपन और जवानी इसी गांव में बीता है। वह यहीं एक अधिवक्ता के तौर पर पै्रक्टिस करते थे। इसी स्कूल से उन्होंने पढ़ाई की थी। हम लोगों से हमेशा उस स्कूल का जिक्र करते थे। पिता के निधन के बाद मैं मार्च, 2005 में भारत आया। अपने पिता के गांव गया। अधिकारियों की इजाजत से मैं वहां की तथा जालंधर के पक्काबाग इलाके में स्थित अपने ससुर के घर की र्इंटें और मिट्टी लेकर वापस लौटा। लाहौर में जब मैंने अपना मकान बनवाया तो उसमें इनका मैंने इस्तेमाल किया। जस्टिस रामदे जब यहां आए थे तो करियाम गांव गए थे। वहां पिता का पुराना मकान देख कर वह इस कदर भावुक हो गए कि उनकी आंखों से आंसू बह निकले। उन्होंने वहां की मिट्टी उठाई और उसे अकीदत से अपने माथे से लगाया। इस बारे में पूछने पर पाक जज ने कहा कि मैं अपने पिता का पुराना घर देखकर बहुत भावुक हो गया था और मेरी आंख भर आर्इं। मैं चाहता था कि किसी भी तरह इस याद को मैं अपने साथ ले जाऊं, इसलिए मैंने उस घर की मिट्टी और र्ईंटें लेने की इच्छा जताई। यहां के मेहरबान लोगों ने मुझे उस याद को सहेजने में मदद की। उन्होंने रुंधे गले से कहा कि मेरे लिए यह संभवत: दुनिया का यह सबसे अनमोल तोहफा था। मेरी पत्नी के पिता का घर जालंधर में था। वहां से भी कुछ र्इंटें मैंने लीं। मेरे ससुर तथा पाक सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस याकूब अली खान भी यहां प्रैक्टिस करते थे। पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ के शासन काल के दौरान पैदा हुए न्यायिक संकट से जुड़े कई महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई करने वाले रामदे ने कहा कि मैं भारत को अपना दूसरा घर मानता हूं। मुझे यहां से काफी मान-सम्मान मिला। गुरु नानक देव विश्वविद्यालय ने मुझे डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी है। जब भी मैं यहां आया, मुझे कभी नहीं लगा कि मैं अपने घर से बाहर हूं। उन्होंने कहा कि एक बार भारत दौरे के दौरान जब मैं पूरी नमाज पढ़ने के बाद उठा तो मेरी पत्नी ने मुझे टोका और कहा आप घर से बाहर हैं तो ‘सुन्नत’ और ‘नफिल’ क्यों पढ़ी? सिर्फ आधी ‘फर्ज’ पढ़नी चाहिए थी। इस पर मैंने कहा कि नहीं, यह भी मेरा घर है और मैं अपने घर से बाहर नहीं हूं। रामदे ने बताया कि मेरे वालिद जस्टिस मोहम्मद सादिक हमेशा कहा करते थे कि उन्हें नवांशहर से जालंधर पढ़ने के लिए जाना पड़ता था। बहुत लोग नहीं जा पाते थे। वहां के कुछ हिंदुओं ने अपने संसाधनों से 1911 में एक स्कूल बनवाया। मेरे पिता ने 1919 में वहां दाखिला लिया। उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और जज की कुर्सी तक पहुंचे। उन्होंने कहा कि मुसलमान होकर उन्होंने हिंदू स्कूल में दाखिला लिया और कभी किसी तरह की दिक्कत नहीं आई। वालिद साहब हमेशा इस स्कूल का जिक्र करते थे। उनसे स्कूल के बारे में सुनकर मेरे मन में वहां उनकी याद में कुछ तामीर कराने की ख्वाहिश जगी। पंजाब सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने मुझसे कहा कि आप जो चाहते हैं उसका निर्माण सरकार करवाएगी और जस्टिस सादिक के नाम पर उसका नामकरण होगा, लेकिन यह मेरी आत्मसंतुष्टि का विषय था। अंतत: मुख्यमंत्री सहमत हो गए। उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तान के अंदरूनी हालात, उनकी नजरबंदी सहित अन्य कारणों से इसके उद्घाटन में देरी हुई। हालांकि, 18 अक्टूबर को इसका उद्घाटन कर दिया गया। रामदे के साथ मौजूद हरिद्वार स्थित गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति स्वतंत्र कुमार ने बताया कि शहीद ए आजम भगत सिंह के खिलाफ मुकदमों की सुनवाई से सम्बंधित सभी दस्तावेज जस्टिस रामदे ने हमें मुहैया कराए हैं, जिन्हें विश्वविद्यालय में रखा गया है।
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22-10-2012, 06:25 AM | #314 |
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Re: कतरनें
श्रद्धांजलि
रोमांस की नई परिभाषा गढ़ी थी यश चोपड़ा ने दुनिया को अलविदा कह गये प्रसिद्ध फिल्म निर्माता निर्देशक यश चोपड़ा ने अपने पांच दशक के बॉलीवुड करियर में कई फिल्मों के जरिये रोमांस की नयी परिभाषा गढी। चोपड़ा ने भारतीय सिनेमा की सबसे सफलतम फिल्मों का निर्देशन किया। ‘एंग्री यंग मैन’ अमिताभ बच्चन की ‘दीवार’ से लेकर ‘बादशाह’ शाहरुख खान की ‘दिल तो पागल है’ जैसी फिल्में देने वाले यश चोपड़ा ने कैमरे के पीछे जाकर दशकों तक दर्शकों की नब्ज को थामे रखा। चोपड़ा और बच्चन की जोड़ी ने बॉलीवुड की ‘कभी कभी’ और ‘त्रिशूल’ जैसी फिल्में भी दीं। यदि शाहरुख खान फिल्मों के बादशाह हैं, तो यश चोपड़ा ‘किंगमेकर’ हैं। उन्होंने ही अपने कैमरे की कलाकारी से कई अभिनेताओं को बॉलीवुड का सुपरस्टार बना दिया। हालांकि उन्होंने अपना करियर अलग तरह की फिल्में बना कर शुरु किया, पर उन्हें हमेशा ‘चांदनी’, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’, ‘सिलसिला’ जैसी फिल्मों के लिये याद रखा जायेगा। उनकी शैली की रोमांटिक फिल्मों के लिये ‘यश चोपड़ा रोमांस’ लफ्ज़ ईजाद हुआ। उन्होंने अपने पांच दशक के करियर में 50 से अधिक फिल्में बनायीं। यश चोपड़ा को उनके फिल्मी करियर में छह राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 11 फिल्मफेयर पुरस्कारों से नवाजा गया। उन्हें उनकी फिल्मों के चार बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। लाहौर में 27 सितंबर 1932 को जन्मे चोपड़ा बंटवारे के बाद भारत आ गये। वह इंजीनियर बनना चाहते थे। हालांकि फिल्म निर्माण के लिये अपने जज्बे के चलते वह मुंबई चले गये, जहां वह आई. एस. जौहर और फिर अपने निर्माता निर्देशक भाई बी. आर. चोपड़ा के साथ सहायक निर्देशक बन गये। फिल्मों की कामयाबी के बाद चोपड़ा बंधुओं ने 50 और 60 के दशक में कई फिल्में बनायीं। यश चोपड़ा की पहली सफल फिल्म ‘वक्त’ को माना जाता है, जो 1965 में आयी थी। इस फिल्म से ही बॉलीवुड में मल्टी स्टारर फिल्मों का चलन शुरु हुआ। उन्होंने फिल्म ‘चांदनी’ से अपनी रोमांटिक फिल्मों की पारी शुरु की। इसके बाद 1991 में उन्होंने ‘लम्हे’ बनायी। बॉलीवुड के बादशाह शाहरुख खान के साथ चोपड़ा का सफर 1993 में शुरु हुआ, जब उन्होंने ‘डर’ बनायी। इस फिल्म में शाहरुख ने एक पागल प्रेमी की दमदार और असरदार भूमिका निभायी थी। ‘डर’ (1993 ) के बाद से उन्होंने तीन फिल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उन्होंने सिर्फ शाहरुख को ही मुख्य अभिनेता के रूप में चुना। 1997 में ‘दिल तो पागल है’... 2004 में ‘वीर जारा’ और इस साल 13 नवंबर को आने वाली फिल्म ‘जब तक है जान’ में चोपड़ा-खान की इस जोड़ी ने पर्दे पर रूमानियत को नया आयाम दिया। पिछले महीने अपने 80 वें जन्म दिन पर एक साक्षात्कार में चोपड़ा ने शाहरुख के बारे में कहा था, ‘मुझे उनके साथ काम कर हमेशा एक अलग अनुभव हुआ। उन्होंने कभी मुझसे यह नहीं पूछा कि कहानी किस बारे में है और उन्हें कितने पैसे मिलेंगे। मैंने जब भी उन्हें चेक भेजा, उन्होंने पूछा कि मैंने उन्हें इतनी भारी रकम क्यों भिजवाई।’ यश राज बैनर तले बनी दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995), ‘दिल तो पागल है’ (1997), ‘मोहब्बतें’ (2000), ‘रब ने बना दी जोड़ी’ (2008) में भी शाहरुख ने ही पर्दे पर रूमानी किरदारों को जीया। चोपड़ा के बेटे आदित्य चोपड़ा भी एक सफल निर्देशक हैं और यश की विरासत को आगे ले जा रहे हैं। कुछ फिल्मों में पर्दे पर दिख चुके उनके दूसरे बेटे उदय चोपड़ा फिल्म निर्माण कंपनी की अंतरराष्ट्रीय शाखा का काम देख रहे हैं।
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22-10-2012, 11:16 PM | #315 |
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Re: कतरनें
Meri mashrufiyat ki had dekhiye
yash sahab ke gujarane ki khabar mujhe abhi pata chali.... strange..
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
23-10-2012, 01:42 AM | #316 |
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Re: कतरनें
जन्मदिवस पर विशेष
आम आदमी की पीड़ा, स्वप्न एवं आक्रोश की आवाज थी ‘अदम’ की कविता हिन्दी साहित्य में अदम गोंडवी एक ऐसे अक्खड़ की आवाज थी, जिसने आशिक..माशूक के मिजाज वाली गजल को आमजन की पीड़ा, स्वप्न और आक्रोश की आवाज बनाया। आलोचक एक स्वर में स्वीकार करते हैं कि अदम ने कविता और गजलों में भाषा की वर्जनाओं और परंपराओं को तोड़ते हुए उसे समाज के बंद और अंधेरे कोनों की तड़प से जोड़ दिया। घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा कुर्ता और गले में सफेद गमछा डाले ठेठ देहाती रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी की गजलों का निपट गंवई अंदाज, आज की महानगरीय और चमकीली कविता को नये सिरे से सोचने का विकल्प देता है। हिन्दी आलोचक मानते हैं कि अदम ने अपने काव्य के जरिये उस परंपरा के सूत्रों को पकड़ने या उसे आगे बढाने का प्रयास किया जो कबीर, निराला या दुष्यंत में देखने को मिलती है। आज के हालात पर अदम का अंदाज कुछ ऐसा है... काजू भुने प्लेट में, व्हिस्की गिलास में । उतरा है रामराज विधायक निवास में । पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत । इतना असर है खादी के उजले लिबास में। पत्रकार एवं दैनिक हिन्दुस्तान लखनउ के संपादक नवीन जोशी ने अदम से संबंधित अपने संस्मरण साझा करते हुये कहा कि इमरजेंसी के बाद सक्रिय और उम्मीद भरे वर्षो में हमारे दौर के अनेक युवा, ‘सौ में सत्तर आदमी और ले मशालें चल पड़े’ जैसे गीतों को सुनकर वाम आंदोलन में कूद पड़े। उत्तराखंड में चलने वाले जनांदोलनों में अदम के गीत बहुत गाये जाते थे। 1984-85 के बाद जब गिर्दा ने संस्था बनाकर सांस्कृतिक और आंदोलनकारी जनगीतों की छोटी पुस्तिकाएं और कैसेट निकाले, तो उसमें अदम के अनेक गीतों को शामिल किया गया। जनांदोलन और विरोध प्रतिरोध के जुलूस में अदम की शायरी नारे की तरह गाई जाती है। हालांकि अदम को नयी पीढी पर पूरा भरोसा है और अपनी रचनाओं के माध्यम से युवाओं से देश को संभालने का आह्वान करते है। उन्होंने कहा, ‘सौ में सत्तर आदमी, फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिए, मुल्क क्या आजाद है। ये नयी पीढी पे निर्भर है, वही जजमेंट दे, फलसफा गांधी का मौजूं है, कि नक्सलवाद में’’ पत्रकार एवं संपादक दयाशंकर राय ने बताया, ‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र जीवन में शहर के प्रमुख स्थानों में ब्रेख्त, नेरूदा, मुक्तिबोध, धूमिल, निराला और गोरख पाण्डेय के साथ अदम की कविताओं के पोस्टर भी लगाये जाते थे।’ उन्होंने कहा कि मार्क्स ने दुनिया और समाज को समझने की सुसंगत दृष्टि दी, तो अदम जैसे कवियों ने हाशिये पर पड़े समाज के सबसे वंचित और उपेक्षित व्यक्ति की पीड़ा से जुड़ने और उसे समझने की संवेदना विकसित की। आमजन की पीड़ा को उन्होंने कुछ ऐसे लिखा... घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है, बताओ कैसे लिख दूं, धूप फाल्गुन की नशीली है। या दूसरी कविता....आंख पर पट्टी और अक्ल पर ताला रहे। अपने शाहे वक्त का यू मर्तबा आला रहे। तालिबे शोहरत है, कैसे भी मिले मिलती रहे। आए दिन अखबार में प्रतिभूति घोटाला रहे। आज के समाज में फैले भ्रष्टाचार पर अदम की कविता... जो उलझ कर रह गयी, फाइलों के जाल मेंं। गांव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में। बूढा बरगद साक्षी है, किस तरह से खो गयी। रामसुध की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में। राय ने कहा कि अदम का ग्रामीण और खुरदुरा जीवन हमारे मध्यवर्गीय सौन्दर्यबोध के खांचे में फिट नहीं बैठता, अदम को समझने के लिए हमें प्याज की गांठ सरीखे व्यक्तित्व से मुक्त होना होगा। प्रख्यात समीक्षक विश्वनाथ त्रिपाठी आजादी के बाद हिन्दी-उर्दू गजलों की परंपरा में अदम के योगदान को रेखांकित करते हैं। त्रिपाठी ने कहा, ‘समकालीन समय में अदम शब्द की परंपरा को पहचानने वाले विरल कवि थे। उनकी गजलों में शेर को पूरा करने के लिए घाल-मेलकर ठूंसे गये शब्दों की जगह उर्दू की जातीय परंपरा से उपजी लय, नाद, ध्वनि और शब्द-मैत्री का साझा संधान है।’ उन्होंने कहा, ‘अदम उर्दू गजल को बीहड़ रास्ते में ले गये और उसे आमजन की पीड़ा, स्वप्न और आक्रोश की व्यंजना की आवाज बनाया।’ सांप्रदायिकता के विषय में अदम की कविता आज भी मौजूं है... हममे कोई शक, कोई हूण कोई मंगोल है। दफ्न है जो बात उस बात को मत छेड़िए। गर गलतियां बाबर की थी, जुम्मन का घर फिर क्यों जला, ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िए। हैं कहां हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज खां। मिट गये सब, कौम की औकात को मत छेड़िए। देश के आज के हालात पर अदम का कहना है ... जो डलहौजी न कर पाया, वो ये हुक्काम कर देंगे। कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे। ये बंदे मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर, मगर बाजार में चीजों का दुगना दाम कर देंगे। सदम में घूस देकर बच गयी कुर्सी तो देखोगे, वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे। अदम गोंडवी का जन्म आजादी के कुछ महीने बाद 22 अक्तूबर 1947 को गोंडा जनपद के परसपुर आटा ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री देवी कलि सिंह और माता का नाम मांडवी सिंह था। उनका असल नाम रामनाथ सिंह था, लेकिन उन्होंने लेखन के लिए अपना नाम अदम गोंडवी रख लिया। अदम कबीर परंपरा के कवि थे और उनकी लिखाई पढाई उतनी ही हुयी थी, जितनी किसी किसान ठाकुर के लिए जरूरी थी। जीवन काल में उनकी दो कृतियां ‘धरती की सतह पर’ और ‘समय से मुठभेड़’ प्रकाशित हुयीं। 18 दिसंबर 2011 को वह अपना शब्द संसार की विरासत छोड़कर इस दुनिया से विदा हो गए।
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23-10-2012, 11:14 PM | #317 |
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Re: कतरनें
this is one of the best post in this thred....
Excellent....
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
24-10-2012, 02:38 AM | #318 |
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Re: कतरनें
धन्यवाद, निशांतजी ! मैं आपके शहर के समानधर्मा दो दिग्गजों पर भी इसी तरह लिखना चाहता हूं, लेकिन समयाभाव करने नहीं देता ! किन्तु कभी लिखूंगा जरूर ! पटना के ये दो दिग्गज हैं कर्मेंदु शिशिर और राणा प्रताप !
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24-10-2012, 11:23 AM | #319 |
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Re: कतरनें
कभी मौका मिले तो अवश्य लिखियेगा
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
24-10-2012, 05:35 PM | #320 |
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Re: कतरनें
25 अक्तूबर को साहिर की पुण्यतिथि पर
‘मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो पल मेरी कहानी है’ जज्बात, अहसास, शिद्दत और सच्चाई के शायर साहिर ने अपनी शायरी से दरबार और सरकार के खिलाफ आवाज तो बुलंद की ही, साथ ही साथ उन्होंने अपने दौर में ही आज के हालात को अपनी नज्मों में बयां कर दिया था। बेरोजगार, शोषित वर्ग और युवाओं के हीरो रहे साहिर के बारे में मशहूर शायर मुनव्वर राना ने कहा कि शायरी में साहिर ने मजहबी कट्टरवाद को तोड़ने की रवायत को पुरजोर तरीके से आगे बढाया। फिल्म 1959 में आयी फिल्म ‘धूल का फूल’ का गीत- ‘तू हिंदू बनेगा, न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा’ और फिल्म हम दोनों (1961) का गीत-‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम’ को हमेशा गंगा जमुनी तहजीब की नजीर माना जाता रहा है। ऊंचे पाए के शायर साहिर ने अपने आक्रोश को जाहिर करने के लिये पैरोडी का सहारा लेने से गुरेज नहीं किया। उन्होंने अल्लामा इकबाल के गीत ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा’ को बेघर और फुटपाथ पर सोेने वालों के हक में बदल कर कहा- ‘चीनो अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा, रहने को घर नहीं है, सारा जहांं हमारा।’ प्रसिद्ध शायर मंसूर उस्मानी का कहना है कि साहिर एक जमींदार परिवार में पैदा हुए थे, फिर भी उन्होंने अपनी जिंदगी और अपने कलाम में सरमायादारों की मुखालफत की। वह हुकूमत और कुदरत के असामान्य बंटवारे के विरोध में शोषितोें और मुफलिसों के लिए लिखते रहे। अब्दुल हई साहिर का जन्म लुधियाना के जागीरदार के परिवार में हुआ था। उनकी तालीम लुधियाना के खालसा कालेज में हुई। 1943 में उनकी पहली किताब ‘तल्खियां’ प्रकाशित हुई जिससे साहिर को पहचान मिली। अपने तखल्लुस के बारे मेें पूछे जाने पर साहिर ने आॅल इंडिया रेडियो को दिए साक्षात्कार में बताया था, ‘क्योंकि कोई ने कोई तखल्लुस रखने का रिवाज था, इसलिए मैं अपनी किताबों के वर्क उलट कर किसी मौजंू लफ्ज की तलाश में था, जिसे मैं अपना तखल्लुस बना सकूं। अचानक मेरी नजर एक शे'र पर पड़ी, जिसे इकबाल ने दागÞ के लिए लिखा था- ‘इस चमन में होंगे पैदा बुलबुल ऐ शीराज भी, सैकड़ों साहिर भी होंगे, साहिब ए एजाज भी।’ मुझे इसमें से साहिर लफ्ज अपने तखल्लुस के लिए मुनासिब लगा।’ इश्क के पुजारी रहे इस शायर की कई नज्मों में रूमानियत की खूबसूरत और भीनी-भीनी महक भी थी। ‘छू लेने दो नाजुक होठों को, कुछ और नहीं हैं जाम हैं ये', ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा’ और ‘ऐ मेरी जोहरा जबीं, तुझे मालूम नहीं’ जैसे गीत लिखे, जिन्हें आज भी गुनगुनाया जाता है। ‘वो भी एक पल का किस्सा थे, मैं भी एक पल का किस्सा हूं, कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा गो आज तुम्हारा हिस्सा हूं’ लिखने वाले साहिर ने 25 अक्तूबर 1980 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया, पर कभी मोहब्बत, कभी फलसफे, कभी विद्रोह, तो कभी सामाजिक मसलों के गीत लिखने वाले साहिर को हमेशा गुनगुनाया जाता रहेगा। एक नज़्म
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
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