28-09-2013, 07:38 PM | #321 | ||
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Re: छींटे और बौछार
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प्रतिक्रिया एवं उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार बन्धुओं।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
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28-09-2013, 07:40 PM | #322 |
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Re: छींटे और बौछार
नमन अग्रवाल जी
नमन करूँ मैं नमन बन्धु को,मानस के जो ज्ञाता है मेरे लिए गुरु जैसे हैं, यद्यपि वह अनुज कहलाता हैं पुष्पों में भी अभिरुचि 'जय', वह धीर एवं गंभीर रहें चलचित्र,कला,लेखन में पटु,हर मन वो को हर्षाता है अनिल (aksh) जी हिंदी धारा के खोजी, 'जय' मंच में सबके प्यारे हैं हास्य के इस राजा के, कुछ सूत्र भी बहुत प्यारे हैं आत्म-निग्रही और नियामक हैं अपनी दुनिया के अक्ष के अश्क के अक्स नहीं,वे चन्दा-सूरज-तारे हैं
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28-09-2013, 07:41 PM | #323 |
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Re: छींटे और बौछार
अन्ना ने जब बिगुल उठाया, कहीं न कोई आहट उभरी
जैसे ही वह बिगुल बजा, जनजन में क्रान्तिलहर उभरी जन-लहर सुनामी जैसी थी,दिल्ली की सड़कें उफन गई नेताओं की लुटिया डूबी, फूट गयी 'जय' पाप की गगरी
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28-09-2013, 07:42 PM | #324 |
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Re: छींटे और बौछार
हम रफ्ता रफ्ता 'जय' अपनी पहचान बदलते जाते हैं
इस भागदौड़ के आलम में,गिरतों को कुचलते जाते हैं
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28-09-2013, 07:44 PM | #325 |
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Re: छींटे और बौछार
तुम अपनी मुस्कराहट को छुपा लोगे, ये हम माने
तुम अपने अश्क आँखों में छुपा पाओ तो हम जाने सभी गिन लेते हैं उडती हुयी चिड़िया के पर लेकिन रिमझिम में नचते मोर के गिनो गर पंख, हम जाने तुम्हारे लाख जलवों को देखा हमने जी भर कर हमारे इक नज़ारे को जो तुम देखो तो हम जाने हिदायत हम को देते हो कि सपनों से अलग रहना अलग अपनों से दो पल को अगर होवो तो हम जाने गले तुम सबके मिलते हो अपना क्या पराया क्या मेरी बाहें खुली कब से, समा जाओ तो हम जाने हमें तुम फूल कहते 'जय',व खुद को जलता अंगारा मेरी उंगली जो जल जाए तुम्हे छूकर तो हम जाने
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01-10-2013, 12:20 AM | #326 |
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Re: छींटे और बौछार
ग़ज़ल |
08-10-2013, 06:53 PM | #327 | |
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Re: छींटे और बौछार
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जलते हुए दिवस को, ठण्डी रात कर गए ॥ उठता है धुवाँ 'जय'अभी सूखी टहनियों से सौ बात की एक बात थी,वो बात कह गए॥ इन मनोहारी पंक्तियों के प्रति रजनीश बन्धु, मैं बस यह नन्ही सी शब्दांजलि ही दे सकता हूँ। आभार एवं धन्यवाद।
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08-10-2013, 06:54 PM | #328 |
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Re: छींटे और बौछार
विटपों से सूखे पात गिरे ॥ दौलत से रिश्ते-नात घिरे॥ हृदयंतर 'जय' अस्तव्यस्त, हरपल मावस सी रात घिरे॥ कब सुबह सुहानी आयेगी कब मादक वायु बहायेगी प्रकृति निठल्ली चुप है क्यों हैं निशि-वासर गूंगे बहरे॥ क्यों श्वास रन्ध्र सहमे सहमे क्यों रक्त प्रवाह नहीं वश में क्यों ऊर्जा क्षीण लगे प्रतिपल हृदय के कम्पन ठहरे ठहरे॥ विटपों से सूखे पात गिरे ॥ दौलत से रिश्ते-नात घिरे॥ हृदयंतर 'जय' अस्तव्यस्त, हरपल मावस सी रात घिरे॥
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08-10-2013, 06:55 PM | #329 |
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Re: छींटे और बौछार
कब नदी ने जल पिया है, कब धरा ने बीज खाए
व्योम ने अपने लिए कब भानु-तारे-शशि सजाये कब द्रुमों ने खाए हैं फल,कब छुपाये सिन्धु मोती प्रकृति अपने लिए 'जय' कब मार्ग-पगडंडी बनाए
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08-10-2013, 06:55 PM | #330 |
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Re: छींटे और बौछार
चलो उजालों के अन्दर भी चमक आज भर दें
देह - दान कर नश्वरता को सघन अमर कर दें पञ्चतत्व में मिल कर के, काया तो मिटनी है मर कर भी 'जय'कई जनों में नवजीवन भर दें
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