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Old 28-09-2013, 07:38 PM   #321
jai_bhardwaj
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Originally Posted by khalid View Post
अति उत्तम जय भाई जी
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Originally Posted by rajnish manga View Post
उपरोक्त आठों मुक्तक रचनाओं में जय जी के श्रेष्ठ कवि रूप के दर्शन तो होते ही हैं, उससे बढ़ कर उनके तत्वदर्शी रूप के भी दर्शन भी होते हैं. जिस बारीकी से उन्होंने अभिषेक जी, जितेन्द्र जी, अलैक जी, पुंडीर जी तथा कुछ अन्य सदस्यों, जिनमे यह खाकसार भी शामिल है, के व्यक्तित्व और कृतित्व का वर्णन किया है वह अद्वितीय है. जय जी का अभिनन्दन करते हुये हम उनके प्रति अपना आभार प्रगट करते हैं.
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Originally Posted by dr.shree vijay View Post



मजेदार शैली में लिक्खी गई मस्त कुंडलिया.......................




प्रतिक्रिया एवं उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार बन्धुओं।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
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Old 28-09-2013, 07:40 PM   #322
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नमन अग्रवाल जी

नमन करूँ मैं नमन बन्धु को,मानस के जो ज्ञाता है
मेरे लिए गुरु जैसे हैं, यद्यपि वह अनुज कहलाता हैं
पुष्पों में भी अभिरुचि 'जय', वह धीर एवं गंभीर रहें
चलचित्र,कला,लेखन में पटु,हर मन वो को हर्षाता है




अनिल (aksh) जी

हिंदी धारा के खोजी, 'जय' मंच में सबके प्यारे हैं
हास्य के इस राजा के, कुछ सूत्र भी बहुत प्यारे हैं
आत्म-निग्रही और नियामक हैं अपनी दुनिया के
अक्ष के अश्क के अक्स नहीं,वे चन्दा-सूरज-तारे हैं

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Old 28-09-2013, 07:41 PM   #323
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अन्ना ने जब बिगुल उठाया, कहीं न कोई आहट उभरी
जैसे ही वह बिगुल बजा, जनजन में क्रान्तिलहर उभरी
जन-लहर सुनामी जैसी थी,दिल्ली की सड़कें उफन गई
नेताओं की लुटिया डूबी, फूट गयी 'जय' पाप की गगरी
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Old 28-09-2013, 07:42 PM   #324
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हम रफ्ता रफ्ता 'जय' अपनी पहचान बदलते जाते हैं
इस भागदौड़ के आलम में,गिरतों को कुचलते जाते हैं
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Old 28-09-2013, 07:44 PM   #325
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तुम अपनी मुस्कराहट को छुपा लोगे, ये हम माने
तुम अपने अश्क आँखों में छुपा पाओ तो हम जाने

सभी गिन लेते हैं उडती हुयी चिड़िया के पर लेकिन
रिमझिम में नचते मोर के गिनो गर पंख, हम जाने

तुम्हारे लाख जलवों को देखा हमने जी भर कर
हमारे इक नज़ारे को जो तुम देखो तो हम जाने

हिदायत हम को देते हो कि सपनों से अलग रहना
अलग अपनों से दो पल को अगर होवो तो हम जाने

गले तुम सबके मिलते हो अपना क्या पराया क्या
मेरी बाहें खुली कब से, समा जाओ तो हम जाने

हमें तुम फूल कहते 'जय',व खुद को जलता अंगारा
मेरी उंगली जो जल जाए तुम्हे छूकर तो हम जाने
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Old 01-10-2013, 12:20 AM   #326
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Default Re: छींटे और बौछार

ग़ज़ल
ज़िन्दगी की चित्रशाला

तल्ख वीराने हटे तो मिल गये कुछ मित्र भी
साथ जब उनका मिला बनने लगे चलचित्र भी

मन के आँगन में है उनकी दोस्ती का इत्र भी
घर की दीवारों पे जिनके दिख रहे हैं चित्र भी

हैं मित्र वो जो मित्रता के धर्म का पालन करें
मान कर इसको विलक्षण उतना ही पवित्र भी

अपने इस संसार में हमको मिली थी कहकशां
कहकशां जो बुलन्द थी, हसीन थी, विचित्र भी

ज़िन्दगी की चित्रशाला नित नये करती प्रयोग
धुर अपरिचित मित्र बनते मित्र हों अमित्र भी

अपनी कथनी और करनी में नहीं अन्तर रहे
मित्रता जब मिल गई हो दृढ़वचन चरित्र भी

जिस जगह से तू गुज़र जाये वहीं सजदे करूं
चार सू देखा किसी से कम नहीं हैं मित्र भी

देवताओं ने जिसे अपनी कृपाओं में रखा हो
वह ‘जय’ है मेरा भाई मेरा मान मेरा मित्र भी

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Old 08-10-2013, 06:53 PM   #327
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ग़ज़ल

ज़िन्दगी की चित्रशाला

ज़िन्दगी की चित्रशाला नित नये करती प्रयोग
धुर अपरिचित मित्र बनते मित्र हों अमित्र भी

देवताओं ने जिसे अपनी कृपाओं में रखा हो
वह ‘जय’ है मेरा भाई मेरा मान मेरा मित्र भी
सूखे हुए उपवन में, घनी बरसात कर गए
जलते हुए दिवस को, ठण्डी रात कर गए ॥
उठता है धुवाँ 'जय'अभी सूखी टहनियों से
सौ बात की एक बात थी,वो बात कह गए॥

इन मनोहारी पंक्तियों के प्रति रजनीश बन्धु, मैं बस यह नन्ही सी शब्दांजलि ही दे सकता हूँ। आभार एवं धन्यवाद।
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Old 08-10-2013, 06:54 PM   #328
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विटपों से सूखे पात गिरे ॥
दौलत से रिश्ते-नात घिरे॥
हृदयंतर 'जय' अस्तव्यस्त,
हरपल मावस सी रात घिरे॥

कब सुबह सुहानी आयेगी
कब मादक वायु बहायेगी
प्रकृति निठल्ली चुप है क्यों
हैं निशि-वासर गूंगे बहरे॥

क्यों श्वास रन्ध्र सहमे सहमे
क्यों रक्त प्रवाह नहीं वश में
क्यों ऊर्जा क्षीण लगे प्रतिपल
हृदय के कम्पन ठहरे ठहरे॥

विटपों से सूखे पात गिरे ॥
दौलत से रिश्ते-नात घिरे॥
हृदयंतर 'जय' अस्तव्यस्त,
हरपल मावस सी रात घिरे॥
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कब नदी ने जल पिया है, कब धरा ने बीज खाए

व्योम ने अपने लिए कब भानु-तारे-शशि सजाये

कब द्रुमों ने खाए हैं फल,कब छुपाये सिन्धु मोती

प्रकृति अपने लिए 'जय' कब मार्ग-पगडंडी बनाए
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Default Re: छींटे और बौछार

चलो उजालों के अन्दर भी चमक आज भर दें
देह - दान कर नश्वरता को सघन अमर कर दें
पञ्चतत्व में मिल कर के, काया तो मिटनी है
मर कर भी 'जय'कई जनों में नवजीवन भर दें
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