12-11-2012, 04:12 PM | #321 |
Special Member
|
Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
__________________
बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
12-11-2012, 04:12 PM | #322 |
Special Member
|
Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
हे लीले! जो कोई असत् पदार्थ सत्*रूप होकर भासते हैं वह अज्ञानकाल में ही भासते हैं, ज्ञानकाल में सब तुल्य हो जाते हैं; न्यूनाधिक कोई नहीं रहता; जाग्रत में स्वप्न मिथ्या भासता और स्वप्न में जाग्रत का अभाव हो जाता है । जाग्रत शरीर मृतक में नष्ट हो जाता है; मृतक जन्म में असत् होजाता है और मृतक में जन्म असत् हो जाता है ।
__________________
बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
12-11-2012, 04:12 PM | #323 |
Special Member
|
Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
हे लीले । जब इस प्रकार इनको विचारकर देखिये तो सब अवस्था भ्रान्तिमात्र हैं, वास्तव में कोई सत्य नहीं । हे लीले! सर्ग से आदि महाप्रलय पर्यन्त कुछ नहीं हुआ! सदा ज्यों का त्यों ब्रह्मसत्ता अपने आपमें स्थित है; जगत् आभासमात्र है और अज्ञान से भासता है । जैसे आकाश में तरुवरे भासते हैं वैसे ही आत्मा में जगत् भ्रम से भासता है और वास्तव में कुछ भी नहीं जैसे समुद्र में तरंग उपजकर लीन होते हैं वैसे ही आत्मा में जगत् उपज कर लीन होते हैं ।
__________________
बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
12-11-2012, 04:12 PM | #324 |
Special Member
|
Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
इससे ‘अहं’‘त्वं’ आदि शब्द भ्रान्तिमात्र हैं । हे लीले! यह जगत् मृगतृष्णा के जलवत् है । इसमें आस्था करनी अज्ञानता है और भ्रान्ति भी कुछ वस्तु नहीं । जैसे घनतम में यक्ष भासता है पर वह यक्ष कोई वस्तु नहीं है, ब्रह्म सत्ता ज्यों की त्यों है, वैसे ही भ्रान्ति भी कुछ वस्तु नहीं । जन्म, मृत्यु और मोह सब असत्*रूप हैं ।
__________________
बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
12-11-2012, 04:12 PM | #325 |
Special Member
|
Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
‘अहं’ ‘त्वं’ आदि जितने शब्द हैं उनका महा प्रलय में अभाव हो जाता है उसके पीछे जो शुद्ध शान्तरूप है अब भी वही जान कि ज्यों की त्यों ब्रह्मसत्ता है । हे लीले! यह जो पृथ्वी आदि भूत भासते हैं सो भी संवित रूप हैं क्योंकि जब चित्तसंवित् स्पन्दरूप होता तब यह जगत् होके भासता है और इसी कारण संवित्*रूप है । हे लीले! जीवरूपी समुद्र में जगत्*रूप तरंग उत्पन्न होते हैं और लीन भी होते हैं, पर वास्तव में जलरूप हैं और कुछ नहीं । जैसे अग्नि में उष्णता होती है वैसे ही जीव में सर्ग है जो ज्ञानवान् है उसको सर्वात्मा भासता है और अज्ञानी को भिन्न भिन्न कल्पना होती है ।
__________________
बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
12-11-2012, 04:13 PM | #326 |
Special Member
|
Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
हे लीले! जैसे सूर्य की किरणों में त्रस रेणुभासते हैं, पवन में स्पन्द होता है और उसमें सुगन्ध होती है सो सब निराकार है वैसे ही जगत् भी आत्मा में निर्वपु है । भाव अभाव; ग्रहण त्याग; सूक्ष्म स्थूल; चर अचर इत्यादि सब ब्रह्म में आभास हैं । हे लीले!यह जगत जो साकाररूप भासता है सो आत्मा से भिन्न नहीं । जैसे वृक्ष के अंग पत्र , फल टासरुप हो भासते हैं वैसे ही ब्रह्मसत्ता ही जगत्*रूप होकर भासती है और कुछ नहीं । जैसे चेतन संवित् में जैसा स्पन्द फुरता है वैसे ही होकर भासता है, पर वह आकाशरुप संवित ज्यों की त्यों है, उसमें और कल्पना भ्रममात्र है ।
__________________
बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
12-11-2012, 04:16 PM | #327 |
Special Member
|
Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
३५ पेज .........
__________________
बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
16-11-2012, 12:29 PM | #328 |
Special Member
|
Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
हे लीले! यह जो जगत् भासता है वह न सत् है और न असत् है । जैसे रस्सी में भ्रम से सर्प भासता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है । जिसको असम्यक्*ज्ञान होता है उसको रस्सी में सर्प भासता है तो वह असत् न हुआ और जिसको सम्यक बोध होता है उसको सर्प सत् नहीं । ऐसे ही अज्ञान से जगत् असत् नहीं भासता और आत्मज्ञान होने से सत् नहीं भासता, क्योंकि कुछ वस्तु नहीं है । हे लीले! जैसे जिसके अन्तःकरण में स्पन्द फुरता है उसका वह अनुभव करता है ।
__________________
बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
16-11-2012, 12:29 PM | #329 |
Special Member
|
Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
जब यह जीव मृतक होता है तब इसको एक क्षण में जगत् फुर आता है । किसी को अपूर्वरुप फुर आता है; किसी को पूर्वरूप फुर आता है और किसी को अपूर्व मिश्रित फुर आता है । इस कारण तेरे भर्ता को भी वही मन्त्री, स्त्री और सभा वासना के अनुसार फुर आये हैं, क्योंकि आत्मा सर्वत्ररूप है, जैसा-जैसा इस में तीव्र स्पन्द फुरता है वैसा ही होकर भासता है । हे लीले! जैसे अपने मनोराज में जो प्रतिभा उदय हो आती है वह सत्*रूप हो भासती है वैसे ही यह जो लीला तेरे सम्मुख बैठी है सो यही हुई है और तेरे भर्ता की जो तेरे में तीव्र वासना थी इससे उसको तेरा प्रतिबिम्बरूप होकर यह लीला प्राप्त हुई और तेरा सा शील, आचार, कुल, वपु इसको प्रतिबिम्बित हुआ है । हे लीले! सर्वगत संवित् आकाश है ।
__________________
बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
16-11-2012, 12:29 PM | #330 |
Special Member
|
Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
जैसा जैसा उसमें होता है वैसा वैसा चिद्रूप आदर्श में प्रतिबिम्ब भासता है । इस सब जगत् का चेतन दर्पण में प्रतिबिम्ब होता है; वास्तव में तू और मैं, जगत्, आकाश, भवन, पृथ्वी, राजा आदि सब आत्मरूप है । आत्मा ही जगत्*रूप हो भासता है । जैसे बेलि से मज्जा भिन्न नहीं वैसे ही यह जगत् ब्रह्मस्वरूप है ।
__________________
बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
Bookmarks |
|
|