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Old 29-10-2012, 02:47 AM   #321
Dark Saint Alaick
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नई किताब
मधुबाला ने मात्र एक रुपया लेकर फिल्म का अनुबंध किया था



हिन्दी फिल्मों के शोमैन राज कपूर की चर्चित फिल्म आवारा में उनके दादाजी यानी पृथ्वीराज कपूर के पिता ने भी अभिनय किया था। उनका नाम बसेसरनाथ था और वह जज बने थे। मधुबाला ने एक फिल्म में काम करने के लिए केवल एक रुपए में अनुबंध किया था। महान निर्देशक बिमल राय ने अपनी प्रसिद्ध फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ का नाम गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता पर रखा था और मदर इंडिया के मशहूर निर्देशक महबूब खान जब मुंबई फिल्मों में काम के लिए पहुंचे तो बिना टिकट लिए ही ट्रेन से गए थे। गुरुदत्त की मशहूर फिल्म ‘प्यासा’ पहले मधुबाला और नर्गिस को लेकर बनने वाली थी, पर वे दोनों तय नहीं कर पार्इं कि वे कौन सी भूमिका निभाएंगी, बाद में उनकी जगह माला सिन्हा और वहीदा रहमान ने निभाई। ऐसी अनेक दुर्लभ जानकारियां हिन्दी सिनेमा के सौ साल पर प्रकाशित पुस्तक ‘हाउस फुल’ में दी गई है, जिसका लोकार्पण 30 अक्टूबर को प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक गुलजार, महेश भट्ट और अनुराग कश्यप करेंगे। इस पुस्तक का संपादन मशहूर फिल्म पत्रकार जिया उल सलाम ने किया है जो अंग्रेजी दैनिक ‘द हिन्दू’ के फीचर संपादक भी हैं। इस पुस्तक की भूमिका महेश भट्ट ने लिखी है और उपसंहार जयाप्रदा ने लिखा है। पुस्तक में हिन्दी सिनेमा के स्वर्णयुग के बारे में स्व. बिमल राय, गुरुदत्त, महबूब खान, व्ही शांताराम के अलावा नवकेतन प्रोडक्शन, शक्ति सामंत, बी. आर. चोपड़ा, यश चोपड़ा के अलावा आजादी के बाद बनी 50 सर्वाधिक हिट फिल्मों के बारे में आलेख दिए गए हैं। इनमें 1951 में बनी फिल्म बैजू बावरा से लेकर 1969 में बनी खामोशी शामिल है। पुस्तक की भूमिका में महेश भट्ट ने लिखा है कि हिन्दी सिनेमा का स्वर्ण युग महबूब खान, बिमल राय, के. आसिफ, गुरुदत्त, राजकपूर और चेतन आनंद ने बनाया था। पुस्तक में संपादक जिया ने बिमल राय की मशहूर फिल्म ‘सुजाता’ के लेखक सुबोध घोष के बारे में जानकारी दी है कि घोष ने न केवल महात्मा गांधी के साथ काम किया था, बल्कि वह बस के कंडक्टर, सर्कस में जोकर और नगर निगम में सफाई कर्मचरी का भी काम कर चुके थे। यही कारण है कि वह जाति व्यवस्था पर प्रहार करने वाली ऐसी फिल्म की कहानी लिख सके थे। पुस्तक में ‘गाइड’ फिल्म के बारे में लिखा गया है कि इस फिल्म में विवाहेतर प्रेम सम्बंधों पर गंभीर आपत्ति व्यक्त की गई थी और इसे मंत्रिमंडल के सामने प्रदर्शित किया गया था। प्रधानमंत्री को छोड़कर शेष सभी मंत्रियों ने यह फिल्म देखी थी। फिल्म के आलोचकों ने भी सूचना प्रसारण मंत्रालय से अनुरोध किया कि इस फिल्म को ‘ए’ सर्टिफिकेट नहीं दिया जाना चाहिए। इस फिल्म की अभिनेत्री वहीदा रहमान ने धमकी भी दी थी कि अगर राज खोसला इस फिल्म को निर्देशित करेंगे तो वह इस फिल्म से हट जाएंगी। पुस्तक के अनुसार, शक्ति सामंत का चयन भरतीय वायुसेना में हो गया था पर उनकी मां ने सेना में नौकरी करने से मना कर दिया। जब शक्ति सामंत ने 1957 में हावड़ा ब्रिज फिल्म बनाई तो मधुबाला को 1001 रुपए की पेशकश की गई थी, लेकिन फिल्म के अनुबंध के लिए मधुबाला ने केवल एक रुपया लिया और कहा कि वह शेष राशि फिल्म बन जाने के बाद लेंगी। इससे पता चलता है कि हिन्दी सिनेमा का स्वर्ण युग उस जमाने के कलाकारों की निष्ठा, लगन और ऊंचे आदर्शों के कारण संभव हुआ।
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Old 30-10-2012, 01:36 AM   #322
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30 अक्टूबर : पुण्यतिथि पर सादर नमन
गजलों में सुर-ताल की ‘बेगम’



आवाज की खूबसूरती, कोमलता और निर्मलता, इन्हीं तमाम खूबियों के चलते आज भी ठुमरी श्रोताओं के बीच बेगम अख्तर खास पहचान रखती हैं। आज के रिमिक्स संगीत और हिप-हॉप पर झूमती युवा पीढ़ी भी इनकी निर्मल आवाज सुनकर यकायक ठहर सी जाती है। बेगम अख्तर की इस खास पहचान के पीछे की वजह थी उनकी पुरसोज आवाज और अनथक रियाज, जिसके चलते उन्हें अमिट पहचान मिली। गजल हो या ठुमरी अथवा दादरा या ख्याल गायकी, बेगम अख्तर को भारतीय शास्त्रीय संगीत में महान गायिका के रूप में जाना जाता है। इसी कारण उन्हें गजलों की रानी कहा जाता था। उनकी प्रथम रिकॉर्डिंग ‘वो असीरे दम...’ से लेकर आल इंडिया रेडियो के लिए की गई थी। उनका पहला ग्रामोफोन रिकॉर्ड मात्र 14 वर्ष की आयु में कोरियन कम्पनी ने तैयार किया। हर गायक-कलाकार की तरह बेगम अख्तर का भी अपना ही अलग अंदाज था। वे अपने गायन की शुरुआत अक्सर किराना शैली में खयाल गायन से करती थीं। उसके बाद ठुमरी, दादरा तथा गजल गाती थीं।
मिठासभरी गजल गायकी
उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में 7 अक्टूबर, 1914 में जन्मीं बेगम अख्तर का बचपन से ही संगीत की ओर रुझान था। वह पार्श्वगायिका बनना चाहती थीं। उनका परिवार उनकी इस इच्छा के सख्त खिलाफ था, लेकिन चाचा ने बेगम अख्तर के संगीत के प्रति लगाव को पहचाना और उन्हें इस राह पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। बेगम अख्तर ने फैजाबाद में सारंगी के उस्ताद इमान खां और अता मोहम्मद खान से संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा ली। इसके अलावा उन्होंने मोहम्मद खान और अब्दुल वहीद खान से भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखा। मेहनत और लगन से उन्होंने शास्त्रीय संगीत में महारत हासिल की, लेकिन उनका मूल झुकाव ठुमरी, दादरा और गजल की ओर ज्यादा रहा। मिठासभरी आवाज से गजल गायकी को एक नई दिशा देने वाली बेगम अख्तर के गायन की कलात्मकता, सौंदर्य एवं शास्त्रीय परिपक्वता ने गजल गायकी को एक नई दिशा प्रदान की। वे अपने गायन की शुरुआत अक्सर किराना शैली में ख्याल गायन से करती थीं। उसके बाद ठुमरी, दादरा तथा गजल गाती थीं।
छाया आवाज का जादू
बिहार में भूकम्प पीड़ितों की सहायता के लिए संगीतज्ञ उस्ताद अता मोहम्मद खान ने जलसे का आयोजन किया था, जिसमें फैयाज खान, विलायत खान, केसरबाई और मोगू बाई कुर्डीकर जैसे नामी-गिरामी कलाकार आमंत्रित थे। कार्यक्रम में पूर्व निश्चित समय पर उनके पहुंचने में विलम्ब होने पर अता मोहम्मद खान ने दर्शकों के मनोरंजन के लिए एक छोटी सी शिष्या बिब्बी को गाने का मौका दिया। बिब्बी ने मंच पर जाकर ऐसा सुर लगाया कि हो-हल्ला करने वाले श्रोता शांत हो गए और बाहर गए श्रोता भी वापस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गए। दूसरे दिन अखबार में उस छोटी लड़की की तारीफ छपी। यही नहीं, कलकत्ता की मशहूर मेगाफोन कम्पनी के अधिकारी भी उस लड़की से आकर मिले और उसके गानों का रिकॉर्ड बनाने की पेशकश की। यही बिब्बी बाद में संगीत जगत की महान गायिका बेगम अख्तर के नाम से मशहूर हुई।
तू सच्ची अदाकारा है बिटिया
तीस के दशक में बेगम अख्तर पारसी थिएटर से जुड़ी। नाटकों में काम करने के कारण उनका रियाज छूट गया, जिससे उनके गुरु मो. अता खान काफी नाराज हुए। उन्होंने कहा कि जब तक तुम नाटक में काम करना नहीं छोड़ती, मैं तुम्हें गाना नहीं सिखाऊंगा। उनकी इस बात पर बेगम अख्तर ने कहा कि आप सिर्फ एक बार मेरा नाटक देखने आ जाए, उसके बाद आप जो कहेंगे मैं करूंगी। उस रात मो. अता खान बेगम अख्तर के नाटक ‘तुर्की हूर’ देखने गए। जब बेगम अख्तर ने उस नाटक का गाना ‘चल री मोरी नैय्या...’ गाया तो उनकी आंखों में आंसू आ गए और नाटक समाप्त होने के बाद बेगम से उन्होंने कहा कि ‘बिटिया तू सच्ची अदाकारा है जब तक चाहो नाटक में काम करो’। नाटकों में मिली शोहरत के बाद बेगम अख्तर को कलकत्ता की ईस्ट इंडिया कम्पनी में अभिनय करने का मौका मिला। बतौर अभिनेत्री बेगम अख्तर ने ‘एक दिन का बादशाह’ से सिने कॅरियर की शुरुआत की। इस फिल्म की असफलता के कारण अभिनेत्री के रुप में वह कुछ खास पहचान नहीं बना पार्इं। वर्ष 1933 में ईस्ट इंडिया के बैनर तले बनी फिल्म ‘नल दमयंती’ की सफलता के बाद बेगम अख्तर बतौर अभिनेत्री पहचान बनाने में सफल रही।
...और लौट आर्इं लखनऊ
वर्ष 1942 में महबूब खान की फिल्म ‘रोटी’ में बेगम अख्तर ने अभिनय करने के साथ ही गाने भी गाए। उस फिल्म के लिए बेगम अख्तर ने छह गाने रिकॉर्ड कराए थे, लेकिन फिल्म निर्माण के दौरान संगीतकार अनिल विस्वास और महबूब खान की अनबन के बाद रिकॉर्ड किए गए तीन गानों को फिल्म से हटा दिया गया। बाद में उनके इन्हीं गानों को ग्रामोफोन डिस्क ने जारी किया गया। कुछ दिनों के बाद बेगम अख्तर को मुम्बई की चकाचौंध अजीब सी लगने लगी और वह लखनऊ वापस चली गर्इं। वर्ष 1945 में बेगम अख्तर का निकाह बैरिस्टर इश्ताक अहमद अब्बासी से हुआ। दोनों की शादी का किस्सा काफी दिलचस्प है। एक कार्यक्रम के दौरान बेगम अख्तर और इश्ताक मोहम्मद की मुलाकात हुई। बेगम अख्तर ने कहा कि मैं शोहरत और पैसे को अच्छी चीज नहीं मानती हूं। औरत की सबसे बड़ी कामयाबी है किसी की अच्छी बीवी बनना। यह सुनकर ब्बासी साहब बोले, क्या आप शादी के लिए कॅरियर छोड़ देंगी। इस पर उन्होंने जवाब दिया हां, यदि आप मुझसे शादी करते है तो मैं गाना-बजाना तो क्या आपके लिए अपनी जान भी दे दूं। बाद में शादी के बाद उन्होंने गाना-बजाना तो दूर गुनगुनाना तक छोड़ दिया। एक दिन जब बेगम अख्तर गा रही थीं, तभी पति के दोस्त सुनील बोस जो लखनऊ रेडियो के स्टेशन डायरेक्टर थे, ने उन्हें गाते देखकर कहा, अब्बासी साहब कम से कम बेगम को रेडियो में तो गाने का मौका दीजिए। दोस्त की बात मानकर उन्होंने बेगम अख्तर को गाने का मौका दिया। पहला गाना अच्छा नहीं रहा, लेकिन बाद में रियाज किया और उनका अगला कार्यक्रम अच्छा हुआ। इसके बाद बेगम अख्तर ने एक बार फिर से संगीत समारोहों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इस बीच उन्होंने फिल्मों में भी अभिनय करना जारी रखा और धीरे-धीरे फिर से खोई हुई पहचान पाने में सफल हो गर्इं।
कह गर्इं अलविदा
70 के दशक में संगीत से जुड़े कार्यक्रमों में लगातार भाग लेने और काम के बढ़ते दबाव के कारण वह बीमार रहने लगीं। इससे उनकी आवाज भी प्रभावित होने लगी। इसके बाद उन्होंने संगीत कार्यक्रमों में हिस्सा लेना कम कर दिया। वर्ष 1972 में संगीत के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अलावा वह पद्मश्री और पद्मभूषण से भी सम्मानित की गर्इं। अपनी जादुई आवाज से श्रोताओं के दिलों पर राज करने वाली यह महान गायिका 30 अक्टूबर, 1974 को इस दुनिया को अलविदा कह गई।
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बेगम अख्तर / कुछ और यादें
सब अजनबी हैं यहां कौन किसको पहचाने

बिहार में भूकंपपीडितों की सहायता के लिये अपने जमाने के संगीतज्ञ उस्ताद अता मोहम्मद खान ने एक जलसे का आयोजन किया था, जिसमें फैयाज खान, विलायत खान, केसरबाई और मोगू बाई कुर्डीकर जैसे नामी गिरामी कलाकार आमंत्रित थे। कार्यक्रम में पूर्व निश्चित समय पर उनके पहुंचने में विलंब होने पर अता मोहम्मद खान ने दर्शकों के मनोरंजन के लिये अपनी एक छोटी सी शिष्या बिब्बी को गाने का मौका दिया। बिब्बी ने मंच पर जाकर ऐसा सुर लगाया कि हो हल्ला करने वाले श्रोता शांत हो गये और बाहर गये श्रोता भी वापस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गये। दूसरे दिन अखबार में उस छोटी लडकी की तारीफ छपी। यही नही कलकत्ता की मशहूर मेगाफोन कंपनी के अधिकारी भी उस लड़की से आकर मिले और उसके गानों का रिकार्ड बनाने की पेशकश की। यही लडकी बिब्बी बाद में संगीत जगत की महान गायिका बेगम अख्तर के नाम से मशहूर हुयी। उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में 07 अक्टूबर ।9।4 में जन्मी बेगम अख्तर का बचपन के दिनों से ही संगीत की ओर रूझान था। वह पार्श्वगायिका बनना चाहती थी। उनके परिवार वाले उनकी इस इच्छा के सख्त खिलाफ थे लेकिन चाचा ने बेगम अख्तर के संगीत के प्रति लगाव को पहचान लिया और उन्हें इस राह पर आगे बढने के लिये प्रेरित किया। बेगम अख्तर ने फैजाबाद में सारंगी के उस्ताद इमान खां और अता मोहम्मद खान से संगीत की प्रारंभिक शिक्षा ली। इसके अलावा उन्होने मोहम्मद खान और अब्दुल वहीद खान से भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखा। तीस के दशक में बेगम अख्तर पारसी थियेटर से जुड गयी। नाटकों में काम करने के कारण उनका रियाज छूट गया जिससे उनके गुरू मोहम्मद अता खान काफी नाराज हुये और कहा, जब तक तुम नाटक में काम करना नही छोडती मैं तुम्हें गाना नहीं सिखाउंगा। उनकी इस बात पर बेगम अख्तर ने कहा ..आप सिर्फ एक बार मेरा नाटक देखने आ जाये उसके बाद आप जो कहेगे मै करूंगी। उस रात मोहम्मद अता खान बेगम अख्तर के नाटक 'तुर्की हूर' देखने गये। जब बेगम अख्तर ने उस नाटक का गाना 'चल री मोरी नैय्या' गाया तो उनकी आंखों में आंसू आ गये और नाटक समाप्त होने के बाद बेगम अख्तर से उन्होंने कहा, बिटिया तू सच्ची अदाकारा है, जब तक चाहो नाटक में काम करो। नाटकों में मिली शोहरत के बाद बेगम अख्तर को कलकत्ता की ईस्ट इंडिया कंपनी में अभिनय करने का मौका मिला। बतौर अभिनेत्री बेगम अख्तर ने 'एक दिन का बादशाह' से अपने सिने कैरियर की शुरूआत की लेकिन इस फिल्म की असफलता के कारण अभिनेत्री के रुप में वह कुछ ख़ास पहचान नहीं बना पायी। वर्ष 1933 में ईस्ट इंडिया के बैनर तले बनी फिल्म नल दमयंती की सफलता के बाद बेगम अख्तर बतौर अभिनेत्री अपनी कुछ पहचान बनाने में सफल रही।
वर्ष 1942 में महबूब खान की फिल्म 'रोटी' में बेगम अख्तर ने अभिनय करने के साथ ही गाने भी गाये। उस फिल्म के लिए बेगम अख्तर ने छह गाने रिकार्ड कराये थे लेकिन फिल्म निर्माण के दौरान संगीतकार अनिल विश्वास और महबूब खान के आपसी अनबन के बाद रिकार्ड किये गये तीन गानों को फिल्म से हटा दिया गया। बाद में उनके इन्हीं गानों को ग्रामोफोन डिस्क ने जारी किया गया। कुछ दिनों के बाद बेगम अख्तर को मुंबई की चकाचौंध कुछ अजीब सी लगने लगी और वह लखनऊ वापस चली गयी। वर्ष 1945 में बेगम अख्तर का निकाह बैरिस्टर इश्ताक अहमद अब्बासी से हो गया। दोनों की शादी का किस्सा काफी दिलचस्प है। एक कार्यक्रम के दौरान बेगम अख्तर और इश्ताक मोहम्मद की मुलाकात हुयी। बेगम अख्तर ने कहा, 'मैं शोहरत और पैसे को अच्छी चीज नहीं मानती हूं.. औरत की सबसे बडी कामयाबी है किसी की अच्छी बीवी बनना। यह सुनकर अब्बासी साहब बोले, 'क्या आप शादी के लिये अपना कैरियर छोड देगी।' इस पर उन्होंने जवाब दिया, 'हां यदि आप मुझसे शादी करते है तो मैं गाना बजाना तो क्या आपके लिये अपनी जान भी दे दूं।' बाद में शादी के बाद उन्होंने गाना बजाना तो दूर गुनगुनाना तक छोड दिया। शादी के बाद पति की इजाजत नहीं मिलने पर बेगम अख्तर ने गायकी से मुख मोड लिया। गायकी से बेइंतहा मोहब्बत रखने वाली बेगम अख्तर को जब लगभग पांच वर्ष तक आवाज की दुनिया से रूखसत होना पडा तो वह इसका सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकीं और हमेशा बीमार रहने लगी। हकीम और वैद्यों की दवाइयां भी उनके स्वास्य को नही सुधार पा रही थी। एक दिन जब बेगम अख्तर गा रही थी। तभी उनके पति के दोस्त सुनील बोस जो लखनऊ रेडियो के स्टेशन डायरेक्टर ने उन्हें गाते देखकर कहा, 'अब्बासी साहब यह तो बहुत नाइंसाफी है। कम से कम अपनी बेगम को रेडियो में तो गाने का मौका दीजिये।' बाद में अपने दोस्त की बात मानकर उन्होंने बेगम अख्तर को गाने का मौका दिया। जब लखनऊ रेडियो स्टेशन में बेगम अख्तर पहली बार गाने गयी तो उनसे ठीक से नही गाया गया। अगले दिन अखबार में निकला ... बेगम अख्तर का गाना बिगडा. बेगम अख्तर नही जमी.. यह सब देखकर बेगम अख्तर ने रियाज करना शुरू कर दिया और बाद में उनका अगला कार्यक्रम अच्छा हुआ। इसके बाद बेगम अख्तर ने एक बार फिर से संगीत समारोहों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इस बीच उन्होंने फिल्मों में भी अभिनय करना जारी रखा और धीरे धीरे फिर से अपनी खोई हुई पहचान पाने में सफल हो गयी।
वर्ष 1958 में सत्यजीत राय द्वारा निर्मित फिल्म 'जलसा घर' बेगम अख्तर के सिने कैरियर की अंतिम फिल्म साबित हुयी। इस फिल्म में उन्होंने एक गायिका की भूमिका निभाकर उसे जीवंत कर दिया था। इस दौरान वह रंगमंच से भी जुड़ी रही और अभिनय करती रही। बेगम अख्तर बहुत स्वाभिमानी गायिका थी। एक बार कश्मीर में वह कार्यक्रम करने के लिये गयी थी। वहां के राज्यपाल ने उन्हें चाय पर आमंत्रित किया था। जब वह वहां पहुंची तो राज्यपाल ने कहा, 'पहले आप गाना सुनाये उसके बात मैं आपको चाय पिलाता हूं।' उनकी इस बात से बेगम अख्तर काफी नाराज हुयी और कहा, 'आपने मुझे चाय पर बुलाया है न कि गाना सुनने..!' और वह वहां से चली गयी। बाद में राज्यपाल ने उनसे इस बात के लिये माफी भी मांगी। सत्तर के दशक में लगातार संगीत से जुड़े कार्यक्रमों मे भाग लेने और काम के बढ़ते दबाव के कारण वह बीमार रहने लगी और इससे उनकी आवाज भी प्रभावित होने लगी। इसके बाद उन्होंने संगीत कार्यक्रमों में हिस्सा लेना काफी कम कर दिया। वर्ष 1972 में संगीत के क्षेत्र मे उनके अप्रतिम योगदान को देखते हुये संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा वह पदम्श्री और पदम भूषण पुरस्कार से भी सम्मानित की गयी। अपनी जादुई आवाज से श्रोताओं के दिलों के तार झंकृत करने वाली यह महान गायिका 30 अक्तूबर 1974 को इस दुनिया को अलविदा कह गयी। अपनी मौत से सात दिन पहले बेगम अख्तर ने कैफी आजमी की गजल गायी थी - सुना करो मेरी जान उनसे उनके अफसाने सब अजनबी है यहां कौन किसको पहचाने।
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आपके इस सूत्र के लिये मेरे पास शब्द कम पड़ रहे हैँ ......!
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आजकल लोग रिश्तों को भूलते जा रहे हैं....!
love is life

Last edited by bhavna singh; 30-10-2012 at 07:31 PM.
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30 अक्टूबर : पुण्यतिथि
शांताराम की फिल्मों की युवराज चार्ल्स ने भी देखी झलक



शांताराम को उनसे जुड़े लोग शांताराम बापू कहते थे। उन्हें 1985 में भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादासाहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया। नागपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी थी। 18 नवंबर 1901 को जन्मे शांताराम ने 30 अक्टूबर 1990 को अंतिम सांस ली।

1980 में भारत के दौरे पर आए युवराज चार्ल्स हिन्दी फिल्मों के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे और उन्होंने न सिर्फ प्रख्यात अभिनेता निर्माता और निर्देशक वी. शांताराम के स्टूडियो राजकमल कला मंदिर को देखा, बल्कि उनकी बनाई कुछ फिल्मों की झलक देखकर उनकी निर्माण तकनीक देखकर अभिभूत हुए और इसके बारे में शांताराम से बातचीत भी की थी। फिल्म समीक्षक चैताली नोन्हारे ने बताया कि 1980 में भारत प्रवास के दौरान युवराज चार्ल्स तय समय पर राजकमल कला मंदिर पहुंचे और वी. शांताराम ने द्वार पर उनकी अगवानी की। उन्होंने कहा कि अंदर जाने के रास्ते पर कई महिलाएं भारी कांजीवरम की साड़ी पहने, हाथों में फूल की थाली लिए खड़ी थीं। राजसी ठाठ वाले स्टूडियो और वैसी ही वेशभूषा वाली महिलाओं को देख कर चार्ल्स ने शांताराम से पूछा तो उन्होंने बताया कि सब उनकी पत्नी की रिश्तेदार हैं और उनका स्वागत करने यहां मौजूद हैं। चैताली ने कहा कि उन दिनों वहां फिल्म आहिस्ता आहिस्ता की शूटिंग चल रही थी, जिसकी वजह से शम्मी कपूर वहां मौजूद थे। चार्ल्स के उत्सुकता जाहिर करने पर उनको शांताराम ने शूटिंग दिखाई और शम्मी कपूर से मिलवाया भी। यह जिक्र शांताराम ने अपनी आत्मकथा ‘शांताराम’ में भी किया है। चैताली ने कहा कि शांताराम ने चार्ल्स से कहा था ‘यह हिन्दी फिल्मों के महान डांसर कलाकारों में से एक हैं, जिनके नृत्य के स्टेप जादू की तरह होते हैं। इनकी नकल कई हीरो ने की, लेकिन नाकाम रहे। शम्मी कपूर एक हैं और एक ही रहेंगे। तब शम्मी कपूर ने अपने वजन की वजह से झुकने में दिक्कत के बावजूद झुक कर शांताराम के पैर छुए और कहा, ‘बापू, मैं सिर्फ सच कहूंगा और सच यह है कि आप जैसा डांसिंग स्टार न कोई है और न कोई होगा। फिल्म समीक्षक अनिरूद्ध ने बताया ‘कभी वेंकूडरे शांताराम फिल्मों के सेट पर कैमरा और अन्य सामान एक जगह से दूसरी जगह लाने ले जाने तक का काम करते थे, लेकिन जब समय बदला तो उन्होंने न केवल राजकमल कला मंदिर स्टूडियो की स्थापना की, बल्कि उस दौर में उनके स्टूडियो के पास अत्याधुनिक कैमरे, ध्वनि रिकॉर्डिंग एवं संपादन के उपकरण, फिल्म डेवलपिंग लेबोरेटॅरी और अन्य आवश्यक उपकरण थे जिन्हें शांताराम अन्य निर्माताओं को किराए पर देने में कोई परहेज नहीं करते थे। करीब 50 साल में राजकमल कला मंदिर ने चानी, पिंजरा, शकुंतला, नवरंग, झनक-झनक पायल बाजे, गीत गाया पत्थरों ने सहित लगभग 35 फिल्में बनाईं।
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सरदार पटेल की जयंती पर
लौह पुरूष के नेतृत्व का दुनिया ने माना लोहा



आजादी के बाद भारत को एक अखंड स्वरूप देने में लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल के योगदान को भुलाया नही जा सकता और माना जाता है कि उनके जैसे धैर्यवान और दूरदर्शी नेतृत्व के कारण ही छोटी छोटी रियासतों में बंटे भारत को एकजुट किया जा सका था। सरदार पटेल के बारे में बताते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर डॉक्टर शरदेंदु मुखर्जी कहते हैं, ‘पटेल दूरदर्शी सोच और व्यवहारिक दृष्टिकोण वाले नेता थे। तभी वे भारत के एकीकरण की बड़ी समस्या को इतने कम समय में हल कर सके थे।’ एक अनुशासित व्यक्तित्व के स्वामी सरदार पटेल ने वी पी मेनन समेत कई सहयोगियों की मदद से 500 से भी ज्यादा रियासतों को भारतीय संघ में शामिल होने के लिए मना लिया था। इनमें से अधिकांश रियासतों ने आजादी की पूर्व संध्या से पहले ही ‘भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947’ पर हस्ताक्षर कर दिए थे। इस ऐतिहासिक एकीकरण के चलते ही भारत को आजादी खंडित टुकड़ों के बजाय एक अखंड राष्ट्र के रूप में मिल सकी। आजादी की घोषणा होने के बाद भारत में मौजूद सैंकड़ों छोटी-बड़ी रियासतों को एक साथ मिलाना सबसे मुश्किल काम था। इस मुश्किल की तीन मुख्य वजहें अधिकांश रियासतों में खुद को स्वतंत्र देश बनाने की चाह, नेहरू के नेतृत्व के प्रति राजाओं में संशय और पाकिस्तान के साथ मिल जाने का विकल्प मौजूद होना थीं। इस मुश्किल स्थिति में पटेल के व्यक्तित्व की एक-एक खूबी काम में आई और उन्होंने इन रियासतों के एकीकरण के लिए अपनी हर तरकीब लगा दी। वे एक ओर इन राजाओं के लिए विशेष भोज आयोजित कर रहे थे वहीं दूसरी ओर राजकीय फैसलों में दखल रखने वाले दीवान लोगों को पत्र लिखकर राजा को मनाने के लिए जोर डाल रहे थे। इंग्लैंड से वकालत पढकर आए पटेल गुजरात के प्रसिद्ध वकीलों में शुमार थे। गांधी जी के व्यक्तित्व और उनके विचारों से प्रभावित होने के बाद वे स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए थे। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने अपने तमाम अंग्रेजीदां कपड़ों को आग के हवाले कर पूरी तरह से खादी अपना ली थी। उनके नेतृत्व के प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1946 में कांग्रेस प्रसीडेंसी के चुनावों में उन्हें राज्यों के 16 प्रतिनिधियों में से 13 का समर्थन मिला था। इन चुनावों को जीतने वाले का आजाद भारत का प्रधानमंत्री बनना लगभग तय था लेकिन पटेल ने गांधी जी के कहने पर प्रधानमंत्री बनने का विचार सोच छोड़ दिया । इस पूरे दौर में ही पटेल और नेहरू के बीच कई मसलों को लेकर मतभेद रहे लेकिन उन्होंने राष्ट्रहित में इन मतभेदों को दरकिनार किया था। इस बारे में राजनैतिक विश्लेषक और सामाजविद् धीरूभाई शेठ कहते हैं, ‘‘अगर पटेल चाहते तो वे देश के पहले प्रधानमंत्री बन सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसी किसी महत्वाकांक्षा को राष्ट्रहित पर हावी नहीं होने दिया। देश के पहले गृह मंत्री व उप प्रधानमंत्री बनकर उन्होंने देश को एक संगठित राष्ट्र की विरासत दी।’’ भारत निर्माण में पटेल के योगदान के कारण उन्हें भारत का अब तक का सफलतम गृह मंत्री और लौह पुरूष कहा जाता है।
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Old 31-10-2012, 01:24 AM   #327
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31 अक्तूबर को पुण्यतिथि पर
‘पंजाबी साहित्य जगत की राजनीति का शिकार बनी थीं अमृता प्रीतम’



पंजाबी साहित्य का सबसे जाना पहचाना चेहरा और देश भर की महिला रचनाकारों की प्रेरणास्रोत अमृता प्रीतम, कभी स्त्री पुरूष के सामाजिक विभेद और स्त्री की प्रेमाभिव्यक्ति को लेकर समाज की रूढिवादी सोच का शिकार बनी थीं। यही वजह थी कि पंजाबी साहित्य को नए मुकाम पर ले जाने वाली अमृता को पंजाबी साहित्य जगत ने उनका योग्य स्थान देने में देर की। साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और उर्दू के वरिष्ठ साहित्यकार गोपीचंद नारंग ने कहा, ‘‘अमृता हम सबके लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। उन्होंने न केवल पंजाबी साहित्य को दुनिया भर में ख्याति दिलायी बल्कि भारतीय साहित्य में भी अपनी एक विशेष जगह बनायी। लेकिन खेद की बात है कि अमृता ने खुद के लिए जो मुकाम बनाया, उन्हें पंजाबी साहित्य जगत ने समुचित स्थान देने में आनाकानी की। अमृता की खुली सोच, और स्त्री-पुरूष के बीच विभेदपूर्ण व्यवहार इसकी वजह थी।’’ नारंग ने कहा, ‘‘अमृता को 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था। यह अपने आप में एक विशेष बात थी क्योंकि अमृता पहली महिला थीं जिन्हें यह पुरस्कार मिला। प्रधानमंत्री और साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने अपने हाथों से अमृता को यह सम्मान दिया था। 1982 में अमृता को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। लेकिन यह पुरस्कार उन्हें बहुत मुश्किल से मिला, क्योंकि पंजाबी साहित्य जगत में उनका प्रतिकार किया जा रहा था, उनका बहिष्कार किया गया। वह पंजाबी साहित्य राजनीति का शिकार हुई थीं।’ नारंग ने कहा, ‘मेरी अमृता के साथ विशेष यादें जुड़ी हैं। वह हौजखास स्थित मेरे घर के पड़ोस में ही रहती थीं। मैं अमृता और उनके साथी इमरोज को एक साथ पार्क में टहलते देखता था। लेकिन आगे की सोच वाली अमृता का यह प्रेम उनके लिए कई बार अवरोध बना था।’ अमृता की रचनाओं में महिला अभिव्यक्ति को विशेष जगह मिली है। अमृता की सर्वाधिक ख्याति प्राप्त कविता ‘अज अक्खां वारिस शाह नूं’ बंटवारे की त्रासदी पर आधारित है जिसमें उन्होंने बंटवारे के दौरान भारत और पाकिस्तान दोनों ओर की महिलाओं और पंजाब की बेटियों के दर्द को अपने शब्दों मेंं उतारा था। अमृता की रचनाएं सामाजिक और राजनीतिक अभिव्यक्तियों को जगह देती हैं। ‘अमृता प्रीतम और पंजाबी साहित्य’ विषय पर दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध कर रही आभा त्रिपाठी ने कहा, ‘अमृता अपने प्रेम को लेकर कभी मौन नहीं रहीं। साहिर लुधियानवी के प्रति उनके प्रेम के बारे में दुनिया जानती है तथा इमरोज और उनका रूमानी साथ अपने आप में प्रेम की खूबसूरत अभिव्यक्ति है जिसे उन्होंने अपनी बेजोड़ कविता ‘मैं तैनूं फिर मिलांगी’ में जगह भी दी।’ अमृता-इमरोज के प्रेम को समर्पित अपनी किताब ‘अमृता-इमरोज : अ लव स्टोरी’ में लेखिका उमा त्रिलोक ने लिखा है, ‘इमरोज ने कहा था कि ‘उनका प्रेम बिना किसी अंह के, बिना किसी द्वंद के, और बिना किसी तरह के बनावटीपन वाला प्रेम है, ऐसा प्रेम जिसमें दोनों ने कोई हिसाब नहीं लगाया’।’ पाकिस्तान के पंजाब के गुजरांवाला में 31 अगस्त, 1919 को जन्मी अमृता ने अपने छह दशक लंबे साहित्यिक करियर में 100 से ज्यादा किताबों की रचनाएं कीं। 31 अक्तूबर, 2005 को 86 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। साहित्य के प्रति उनके योगदान के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी फैलोशिप, ज्ञानपीठ, पद्मश्री और पद्मविभूषण सम्मान सहित अनगिनत पुरस्कारों से सम्मानित किया गया ।
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Old 31-10-2012, 01:41 AM   #328
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पुण्य तिथि 31 अक्टूबर पर
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना



अपने सुरों के जादू से मदहोश करने वाले महान संगीतकार सचिन देव बर्मन उर्फ सचिन दा के संगीतबद्ध गीतों को सुनकर आज भी अनेक संगीत प्रेमी कह उठते हैं - 'ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना'। सचिन देव का रूझान बचपन से ही संगीत की ओर था। उनके पिता नवदीप चंद्रादेव बर्मन जाने माने सितारवादक और ध्रुपद गायक थे। उन्होंने पहले अपने पिता और उसके बाद उस्ताद बादल खान और भीष्मदेव चट्टोपाध्याय से भी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली थी। अपने जीवन के शुरूआती दौर में उन्होंने रेडियो द्वारा प्रसारित पूर्वोत्तर लोकसंगीत के कार्यक्रमो में संगीतकार और गायक दोनों के रूप में काम किया। वर्ष 1930 तक वह लोकसंगीत के गायक के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। वर्ष 1944 में संगीतकार बनने का सपना लिये वह कलकत्ता से मुंबई आये। यहां सबसे पहले उन्हें वर्ष 1946 में फिल्मिस्तान की फिल्म 'एट डेज' में बतौर संगीतकार काम करने का मौका मिला, लेकिन इस फिल्म से कुछ खास बात नहीं बनी। इसके बाद वर्ष 1947 में उनके संगीत से सजी फिल्म 'दो भाई' में पार्श्वगायिका गीता दत्त के गाये गीत 'मेरा सुंदर सपना बीत गया' की कामयाबी के बाद कुछ हद तक बतौर संगीतकार वह अपनी पहचान बनाने में सफल हुये। कुछ ही समय बाद सचिन देव बर्मन को मायानगरी मुंबई की चकाचौध कुछ अजीब सी लगने लगी और फिर वह सब कुछ छोड़कर वापस कोलकाता चले गये, लेकिन वहां भी उनका मन नहीं लगा और वह अपने आप को फिर मुम्बई पहुंचने से नहीं रोक पाये।
सचिन देव बर्मन ने अपने करीब तीन दशक के फिल्मी जीवन में लगभग 90 फिल्मों के लिये संगीत दिया। बर्मन के फिल्मी सफर पर अगर नजर डालें, तो पायेंगे कि उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ ही की हैं। सिने सफर में उनकी जोड़ी प्रसिद्ध गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ खूब जमी और उनके संगीतबद्ध गीत जबर्दस्त हिट हुये। सबसे पहले इस जोड़ी ने वर्ष 1951 में फिल्म 'नौजवान' के गीत 'ठंडी हवाएं लहरा के आएं' के जरिये लोगों का मन मोहा। इसके बाद वर्ष 1951 में ही गुरूदत्त की पहली निर्देशित फिल्म 'बाजी' के गीत 'तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले' में एस. डी. बर्मन और साहिर की जोंड़ी ने संगीतप्रेमियों का दिल जीत लिया। एस. डी. बर्मन की जोड़ी गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के साथ भी बहुत खूब जमी। एस. डी. बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी की जोड़ी के गानों की लंबी फेहरिस्त में शामिल कुछ हैं - 'माना जनाब ने पुकारा नहीं', 'छोड दो आंचल जमाना क्या कहेगा', 'है अपना दिल तो आवारा', 'नजर लागी राजा तोरे बंगले पे', 'जलते हैं जिसके लिये तेरी आंखो के दिये', 'सुन मेरे बंधु रे सुनो मेरे मितवा', 'दीवाना मस्ताना हुआ दिल', 'ना तुम हमें जानो, 'ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत', 'मीत ना मिला रे मन का', 'तेरी बिंदिया रे', 'अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी' आदि।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी एस. डी. बर्मन ने संगीत निर्देशन के अलावा कई फिल्मों के लिये गाने भी गाये। इन फिल्मों में सुजाता, बंदिनी, गाइड, तलाश, अमर प्रेम और अभिमान आदि शामिल हैं। सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक किशोर कुमार के कैरियर को उंचाइयों तक पहुंचाने में एस. डी. बर्मन के संगीतबद्ध गीतों का अहम योगदान रहा है। वर्ष 1969 में प्रदर्शित फिल्म 'आराधना' के पहले किशोर कुमार की आवाज का जादू उतार पर था, लेकिन 'आराधना' की कामयाबी ने किशोर कुमार के सिने कैरियर को नई दिशा दी और उन्हें अपने कैरियर में वह मुकाम हासिल हो गया, जिसकी उन्हें बरसों से तलाश थी। इसके साथ ही किशोर कुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा बैठे। एस. डी. बर्मन को उनके संगीतबद्ध गीतों के लिये दो बार फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के पुरस्कार से नवाजा गया है। एस. डी. बर्मन को सबसे पहले वर्ष 1954 में प्रदर्शित फिल्म 'टैक्सी ड्राइवर' के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया था। इसके बाद वर्ष 1973 में प्रदर्शित फिल्म 'अभिमान' के बेहतरीन संगीत के लिए भी एस. डी. बर्मन सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाजे गए। फिल्म 'मिली' के संगीत 'बड़ी सूनी सूनी है' की रिर्काडिंग के दौरान एस. डी. बर्मन अचेतन अवस्था में चले गये थे। त्रिपुरा में 10 अक्टूबर 1906 को जन्मे सचिन दा करीब तीन दशक तक हिन्दी सिने जगत को अपने मधुर संगीत से सराबोर कर 31 अक्तूबर 1975 को इस दुनिया से रुखसत हो गए।
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31 अक्तूबर को पुण्यतिथि पर
भूगोल बदल कर रख दिया भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री ने



दृढनिश्चयी और किसी भी परिस्थिति से जूझने और जीतने की क्षमता रखने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने न केवल इतिहास, बल्कि पाकिस्तान को विभाजित कर दक्षिण एशिया के भूगोल को ही बदल डाला और 1962 के भारत चीन युद्ध की अपमानजनक पराजय की कड़वाहट धूमिल कर भारतीयों में जोश का संचार किया। रूसी क्रान्ति के साल 1917 में 19 नवंबर को पैदा हुईं इंदिरा गांधी ने 1971 के युद्ध में विश्व शक्तियों के सामने न झुकने के नीतिगत और समयानुकूल निर्णय की क्षमता से पाकिस्तान को परास्त किया और बांग्लादेश को मुक्ति दिलाकर स्वतंत्र भारत को एक नया गौरवपूर्ण क्षण दिलवाया। देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (1917-1984 ) के साथ काम कर चुके और पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने कहा, ‘वह एक बड़ी राजनेता थीं और उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि बांग्लादेश की स्वतंत्रता थी। इसके जरिये उन्होंने भूगोल को ही बदल कर रख दिया।’ उस समय भारत के लिए पूर्वी पाकिस्तान पर आक्रमण करना कोई आसान काम नहीं था। अमेरिका और चीन की तरफ से भी भारत पर दबाव बनाया जा रहा था, लेकिन इंदिरा उस समय आत्मविश्वास से लबरेज थीं। उन्होंने एक कार्यक्रम में बीबीसी से कहा था, ‘हम लोग इस बात पर निर्भर नहीं है कि दूसरे क्या सोचते हैं ... हमें यह पता है कि हम क्या करना चाहते हैं और हम क्या करने जा रहे हैं। चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो।...’
स्वप्नदर्शी राजनेता जवाहरलाल नेहरू ने भारत में कई महत्वपूर्ण पहल कीं, लेकिन उन्हें अमली जामा इंदिरा गांधी ने पहनाया। चाहे रजवाड़ों के प्रिवीपर्स समाप्त करना, बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो अथवा कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण ... इनके जरिये उन्होंने अपने आपको गरीबों और आम आदमी का समर्थक साबित करने की कोशिश की। राजनीति में कदम रखने पर कुछ लोगों ने इंदिरा को ‘गूंगी गुड़िया’ कहा था, लेकिन वह सदैव अपने विरोधियों पर बीस साबित होती थीं। नटवर सिंह ने कहा, ‘इंदिरा गांधी हमेशा अपने विरोधियों पर भारी पड़ती थीं। चौथे राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी की जगह वी. वी. गिरी को जिता कर उन्होंने इसे और पुख्ता किया था।’ बीबीसी के पूर्व संवाददाता मार्क टली ने कहा, ‘इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’, ‘लौह महिला’, ‘भारत की सम्राज्ञी’ और भी न जाने कि कितने विशेषण दिए गए थे, जो एक ऐसी नेता की ओर इशारा करते थे, जो आज्ञा का पालन करवाने और डंडे के जोर पर शासन करने की क्षमता रखती थी।’ मौजूदा जटिल दौर में देश के कई कोनों से नेतृत्व संकट की आवाज उठ रही हैं । वरिष्ठ समाजशास्त्री आशीष नंदी ने कहा, ‘नेतृत्व की पहचान गुडी गुडी छवि के लिए नहीं, उसके मजबूत समर्थन और विरोध से बनती है। ऐसा न उसके चाहने से होता है, न उनके विरोधियों के। कठिन चुनौतियों का सामना करते हुए उन्हें मजबूती से कुछ चीजों के, कुछ मूल्यों के पक्ष में खड़ा होना होता है और कुछ की उतनी ही तीव्रता से मुखालफत करनी होती है। आज भारत के इतिहास में इंदिरा गांधी की छवि कुछ ऐसे ही संकल्पशील नेता की है।’
इंदिरा गांधी 16 वर्ष देश की प्रधानमंत्री रहीं और उनके शासनकाल में कई उतार-चढाव आए, लेकिन 1975 में आपातकाल लागू करने के फैसले को लेकर इंदिरा गांधी को भारी विरोध-प्रदर्शन और तीखी आलोचनाएं झेलनी पड़ी थी। आलोचकों ने इसे लोकतंत्र और मीडिया पर हमला बताया और कहीं न कहीं भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि भी प्रभावित हुई। नटवर सिंह ने कहा, ‘इंदिरा गांधी ने खुद ही आपातकाल खत्म कर आम चुनाव करवाया। हालांकि कांग्रेस को 1977 के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, लेकिन 1980 में उन्होंने भारी बहुमत से वापसी की। फिर 1983 में उन्होंने नई दिल्ली में निर्गुट सम्मेलन और उसी साल नवंबर में राष्ट्रमंडल राष्ट्राध्यक्षों के सम्मेलन का आयोजन किया। इनसे भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि सशक्त हुई।’ आशीष नंदी ने कहा, ‘अंतरिक्ष, परमाणु विज्ञान, कंप्यूटर विज्ञान में भारत की आज जैसी स्थिति की कल्पना इंदिरा गांधी के बगैर नहीं की जा सकती थी। हर राजनेता की तरह इंदिरा गांधी की भी कमजोरियां हो सकती हैं, लेकिन एक राष्ट्र के रूप में भारत को यूटोपिया से निकालकर यथार्थ के धरातल पर उतारने का श्रेय उन्हें ही जाता है।’ आपरेशन ब्लूस्टार के बाद उपजे तनाव के बीच उनके निजी अंगरक्षकों ने ही 31 अक्तूबर 1984 को गोली मार कर इंदिरा गांधी की हत्या कर दी थी।
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बकलमखुद / इंदिरा गांधी
जब मैंने मांस को स्वादिष्ट सब्जी समझकर खाया



महात्मा गांधी से प्रभावित होकर मांसाहारी भोजन छोड़ने वाले जवाहरलाल नेहरू और उनकी पत्नी अपनी बेटी इंदिरा को भी शाकाहारी बनाना चाहते थे लेकिन एक घटना ने उनकी इस हसरत को कभी पूरा नहीं होने दिया। इंदिरा गांधी ने अपने संस्मरण ‘बचपन के दिन’ में लिखा, ‘गांधीजी से प्रभावित होकर मेरे माता-पिता ने मांस खाना छोड़ दिया था और यह निर्णय किया गया कि मुझे भी शाकाहारी बनायेंगे। मैं चूंकि बड़ों के खाने से पहले खा लेती थी, इसलिए मुझे पता ही नहीं था कि उनका खाना मेरे से भिन्न होता था।’ ‘एक दिन, मैं अपनी सहेली लीला के घर खेलने गई और उसने मुझे दोपहर के खाने पर रूकने को कहा। खाने में मांस परोसा गया। अगली बार जब मेरी दादी ने मुझसे पूछा कि मेरे लिए क्या मंगाया जाए, तो मैंने उस स्वादिष्ट नई सब्जी के बारे में बताया, जो मैंने लीला के घर खाई थी।’ उन्होंने लिखा, ‘दादी ने सभी सब्जियों के नाम लिए लेकिन ऐसी कोई सब्जी हमारे घर में नहीं परोसी जाती थी । आखिर में लीला की मां को फोन करके यह पहेली सुलझाई गई । इसके साथ ही मेरे शाकाहारी भोजन का भी अंत हो गया।’ इंदिरा को खिलौनों का ज्यादा शौक नहीं था । ‘शुरू में मेरा मनपसंद खिलौना एक भालू था, जो उस पुरानी कहावत को याद दिलाता है कि दया से कोई मर भी सकता है क्योंकि प्यार के कारण ही मैंने उसे नहलाया था और अपनी आंटी की चहेरे पर लगाने वाली नई और महंगी फ्रेंच क्रीम को उस पर पोत दिया था । अपनी रूआंसी हो आई आंटी से डांट खाने के अलावा मेरे सुन्दर भालू के बाल हमेशा के लिए खराब हो गए।’ इंदिरा ने बचपन के दिनों को याद करते हुए लिखा, ‘गर्मी का लाभ यह था कि हम तारों से चमकते आकाश के नीचे सोते थे जिससे तारों के बारे में ढेर सारी जानकारी मिलती थी और दूसरा लाभ था आम, जो उन दिनों हम एक या दो नहीं बल्कि टोकरी भर कर खाते थे। मैं कम ही खाती थी क्योंकि मैं खाने और सोने को निरर्थक बर्बादी मानती थी।’ उन्होंने लिखा है, ‘मुझे अंधेरे से डर लगता था, जैसा कि शायद प्रत्येक छोटे बच्चे को लगता है। रोज शाम को अकेले ही निचली मंजिल के खाने के कमरे से उपरी मंजिल के शयनकक्ष तक की यात्रा मुझे बहुत भयभीत करती थी । लम्बे, फैले हुए बरामदे को पार करना, चरमराती हुई लकड़ी की सीढियों पर चढना और एक स्टूल पर चढकर दरवाजे के हैंडिल और बत्ती के स्विच तक पहुंचना।’ उन्होंने लिखा है, ‘अगर मैंने अपने इस डर की बात किसी से कही होती तो मुझे पूरा विश्वास है कि कोई न कोई मेरे साथ उपर आ जाता या देख लेता कि बत्ती जल रही है या नहीं। लेकिन उस उम्र में भी साहस का ऐसा महत्व था कि मैंने निश्चय किया कि मुझे इस अकेलेपन के भय से अपने आप ही छुटकारा पाना होगा।’ इंदिरा ने लिखा है, ‘मेरे दादा परिवार के मुख्यिा थे, इसलिए नहीं कि वह उम्र में सबसे बड़े थे बल्कि इसलिए कि उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। लेकिन मेरी छोटी सी दुनिया के केन्द्रबिन्दु में मेरे पिता थे । मैं उनको प्यार, उनकी प्रशांसा और सम्मान करती थी। वही एकमात्र व्यक्ति थे जिनके पास मेरे अन्तहीन प्रश्नों को गंभीरता से सुनने का समय होता था। उन्होंने ही आसपास की चीजों के प्रति मेरी रूचि जाग्रत कर मेरी विचारधारा को दिशा दी।’
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