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Old 04-11-2017, 11:23 AM   #371
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रूसी अंतरिक्ष यान सोयूज़ 2

आज के दिन का अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक विशेष स्थान है. साठ वर्ष पूर्व आज ही के दिन यानी 3 नवम्बर सन 1957 को रूस (उस समय सोवियत रूस) ने अपना दूसरा अंतरक्ष यान सोयूज़ 2 अंतरिक्ष में भेजा था. इसकी खासियत यह थी कि इसमें पहली बार किसी प्राणी को मानव निर्मित उपग्रह में बैठा कर अन्तरिक्ष में भेजा गया था. यह प्राणी दरअसल एक कुतिया थी जिसका नाम लाईका था. यद्यपि पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगाते लगाते ही उसकी मौत हो गई थी फिर भी उसका नाम उस इतिहास से जुड़ गया है जो अंतरिक्ष की खोज में मील का पत्थर साबित हुआ.

हम लोग उन दिनों उत्तर प्रदेश (आजकल उत्तराखंड) के हल्द्वानी शहर में रहते थे. मेरे पिता वहां कत्था मिल में इंजीनियर थे. सभी लोगों में इस रूसी अंतरिक्ष यान के बारे में बहुत जिज्ञासा थी और उत्सुकता थी की रात को उस यान को आकाश में देखा जाए. हालांकि उस छोटे से अन्तरिक्ष में तारों के झुरमुट में देख पाना और पहचान पाना आसन नहीं था फिर भी मुझे अच्छी तरह याद है कॉलोनी के सभी लोग रात को अपने अपने घरों से निकल कर बाहर आ जाते थे और आकाश में टकटकी लगा कर ऐसे देखते थे जैसे हवाई जहाज की तरह से उन्हें वह अंतरिक्ष यान दिखाई दे जाएगा.

सब लोगों के साथ मैं भी तारों भरे आकाश को देख रहा था. उन दिनों प्रदूषण की समस्या नहीं थी इसलिए आसमान साफ़ नज़र आता था. इतने में लोगों ने देखा कि सैंकड़ों तारों के बीच एक तारा एक दिशा से चलता हुआ दूसरी दिशा में बढ़ता जा रहा था. यह दृश्य लगभग 3-4 मिनट तक सब लोग देखते रहे. उसके बाद वह क्षितिज की ओर जा कर नज़रों से ओझल हो गया. अब वह वास्तव में क्या था, कह नहीं सकते. लेकिन वहां उपस्थित सभी को विश्वास था कि जो कुछ उन्होंने देखा वह रूसी अंतरिक्ष यान ही था.
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Old 09-11-2017, 09:57 PM   #372
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1990 से दिल्ली में प्रदूषण

इधर दिल्ली और उसके आसपास के शहरों में वायु प्रदूषण एक खतरनाक शक्ल अख्तियार करता जा रहा है. प्रदूषण का असर इतना गहरा है कि सड़कों पर पचास मीटर दूर की चीज भी साफ़ नज़र नहीं आती. नॉएडा-आगरा एक्सप्रेसवे पर कल बहुत सी गाड़ियों के एक्सीडेंट हो गए. बच्चों के स्कूल में कुछ दिनों की छुट्टी कर दी गयी है. लोगों को सांस लेने में दिक्कत हो रही है. अस्पतालों में श्वांस संबंधी बीमारियों के मरीज पहले के मुकाबले अधिक संख्या में भारती हो रहे हैं. अखबारों के अलावा टीवी के न्यूज़ चैनल पर भी प्रदूषण का विषय ही प्रमुखता से छाया रहा. डिबेट में भी इसी विषय पर मुख्य रूप से चर्चा हुयी.

इसी पृष्ठ भूमि में मुझे अपनी डायरी में आज से 27 वर्ष पूर्व के यानी सन 1990 की सर्दियों में दर्ज एक आलेख के अंश दिखाई दे गए. उन दिनों मैं इंडियन एक्सप्रेस अखबार पढ़ा करता था (जिसके एडीटर अरुण शौरी थे). इस अंश को पढ़ कर पता चलता है कि उस समय भी सर्दी के दिनों में दिल्ली गंभीर प्रदूषण की गिरफ्त में थी. सम्पादकीय के अंश इस प्रकार हैं:-

Every winter a natural phenomenon called the atmospheric inversion traps cold air over Delhi and along with it a deadly cocktail of gaseous pollutants.

What is worrisome is that with 650 tonnes of noxious fumes spewed out by vehicles daily, the capital effectively turns into a giant gas chamber between November and January.

हाँ, उस समय वाहनों में C N G का उपयोग नहीं होता था और डीज़ल वाले वाहनों पर किसी प्रकार की कोई पाबंदी नहीं थी. लेकिन तब के मुकाबले वाहनों की संख्या सैंकड़ों गुना बढ़ गई है. साथ ही पंजाब, हरियाणा तथा यूपी में खेतों में धान की फसल कटने के बाद किसानों द्वारा पराली जलाने बुरी प्रथा के चलते इस सारे इलाके में धुआं फ़ैल जाता है जो नमीं के कारण धरती के निकट ही तैरता रहता है. राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने इस पर भारी जुर्माना तय कर रखा है लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा.
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Old 20-12-2017, 01:13 PM   #373
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इंसानियत का धर्म सर्वोत्तम धर्म है

आपने हिंदी के विद्वान साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का नाम अवश्य सुना होगा
वे जितने विद्वान् थे उतने ही अपने सरल स्वभाव के लिए जाने जाते हैं उनमें अहंकार लेशमात्र भी न था।

'सरस्वती' पत्रिका के संपादन से सेवानिवृत्त होने के पश्चात् वे अपने गांव चले गए और वहीं खेती-बाड़ी करने लगे। ग्रामवासियों की इच्छा का आदर करते हुए उन्होंने सरपंच का पद स्वीकार कर लिया।

एक दिन जब वे अपने खेतों से होकर गुजर रहे थे, उन्होंने देखा कि एक मजदूर औरत मेड़ पर बैठी रो रही थी। आचार्य द्विवेदी ने जब रोने का कारण पूछा तो उस महिला ने बताया कि उसे सांप ने काट लिया था। द्विवेदी जी ने तुरंत वहीं हंसिए से घाव चीरकर जहर निकाला और फिर अपना जनेऊ तोड़कर उसे कस कर बांध दिया, ताकि विष फैलने न पाए। फिर वे उसे किसी डॉक्टर के पास ले जाने का उपक्रम करने लगे।

इस बीच वहाँ गाँव के अनेक लोग आ पहुंचे। सब कुछ देखने-समझने के बाद कुछ गांव वालों ने द्विवेदी जी से कहा, आप ब्राह्मण हैं, यह महिला अछूत है और आपने पवित्र जनेऊ तोड़कर इसके पांव में बांध दिया। यह आपने ठीक नहीं किया। आचार्य ने कहा, "मनुष्य के जीवन की रक्षा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। जो जनेऊ इस स्त्री की रक्षा नहीं कर सकेगा, वह मेरी रक्षा क्या करेगा?"

इंसानियत का धर्म सर्वोत्तम धर्म है।
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Old 20-12-2017, 01:47 PM   #374
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आचार्यत्व तथा प्रेम
(आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के वक्तव्य से)

मुझे आचार्य्य की पदवी मिली है. क्यों मिली है, मालूम नहीं. कब, किसने दी है, यह भी मुझे मालूम नहीं. मालूम सिर्फ इतना ही है कि मैं बहुधा-इस पदवी से विभूषित किया जाता हूं-

उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः.
संकल्प सरहस्यञच तमाचार्य्य प्रचक्षते.

यह लक्षण मुझ पर तो घटित होता नहीं; क्योंकि मैंने कभी किसी को इक्का एक भी नहीं पढ़ाया. शंकराचार्य्य, मध्वाचार्य्य सांख्याचार्य्य आदि के सदृश किसी आचार्य के चरणरजःकण की बराबरी मैं नहीं कर सकता. बनारस के संस्कृत-कॉलेज या किसी विश्वविद्यालय में भी मैंने कभी कदम नहीं रखा. फिर इस पदवी का मुस्तहक मैं कैसे हो गया? विचार करने पर, मेरी समझ में इसका एक-मात्र कारण मुझ पर कृपा करनेवाले सज्जनों का अनुग्रह ही जान पड़ता है. जो जिसका प्रेम-पात्र होता है उसे उसके दोष नहीं दिखाई देते. जहां दोष देख पड़ते हैं, वहां तो प्रेम का प्रवेश ही नहीं हो सकता. नगरों की बात जाने दीजिए, देहात तक में माता-पिता और गुरुजन अपने लूले, लंगडे, काने, अंधे, जन्मरोगी और महाकुरूप लड़कों का नाम श्यामसुन्दर, मदनमोहन, चारुचन्द्र और नयनसुख रखते हैं. जिनके कब्जे में अंगुल भर भी जमीन नहीं वे पृथ्वीपति और पृथ्वीपाल कहाते हैं. जिनके घर में टका नहीं वे करोड़ीमल कहे जाते हैं. मेरी आचार्य्य-पदवी भी कुछ-कुछ इस तरह की है. अतः इससे पदवीदाता जनों का जो भाव प्रकट होता है उसका अभिनंदन मैं हृदय से करता हूं. यह पदवी उनके प्रेम, उनके औदार्य्य, उनके वात्सल्य-भाव की सूचक है. अतएव प्रेमपात्र मैं अपने इन सभी उदाराशय प्रेमियों का ऋणी हूं. बात यह है कि-

वसन्ति हि प्रेम्णि गुणा न वस्तुनि

अर्थात गुणों का सबसे बड़ा आधार प्रेम होता है, वस्तु-विशेष नहीं. जो जिस पर कृपा करता है-जिसका प्रेम जिसपर होता है-वह उसे आचार्य्य क्या यदि जगद्गुरु समझ ले तो आश्चर्य की बात नहीं.
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Old 24-12-2017, 09:47 PM   #375
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गुजराती थेपला

हमारे यहाँ यह गुजराती थेपला सुबह नाश्ते के समय महीने में कई बार बनाया जाता है. सब लोग इसे लाइक करते हैं और रूचि पूर्वक खाते हैं. अब सवाल उठता है कि गुजराती थेपला पंजाबियों के यहाँ कैसे बनने लगा. सो यह भी एक मजेदार घटना है. लगभग पांच वर्ष पहले मैं और मेरी पत्नि प्रगति मैदान में लगने वाले अंतर्राष्ट्रीय मेले में घूमने गए थे. कई पवेलियन घूमने के बाद हम गुजरात के पवेलियन में पहुंचे. वहां घूमते घूमते शाम के लगभग चार बज गए थे. हमें भूख भी लगने लगी थी. इतने में हमें पता लगा कि छत पर खाने पीने के कई स्टाल लगे हैं. हम ऊपर गए तो एक स्टाल पर सामने थेपला बना रहे थे. काफी लोग खा रहे थे. पूछने पर हमें बताया गया कि यह थेपला है.

हमने दो प्लेट थेपला का आर्डर दिया. एक प्लेट में दो थेपले, आलू की तरीदार सब्जी तथा प्याज टमाटर का रायता दिए गए थे. वहां बैठने की जगह नहीं थी. अतः हम उसे ले कर नीचे आ गए और पवेलियन की तीन फुट ऊंची बाउंड्री वाल पर बैठ कर खाने लगे. सच पूछिए तो यह खाना इतना स्वादिष्ट लगा कि हम उसके हमेशा के लिए मुरीद हो गए.
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Old 01-04-2018, 11:49 AM   #376
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अप्रेल फूल की शुरुआत



हर साल एक अप्रैल पूरी दुनिया में ‘अप्रैल फूल डे’ के रूप में मनाया जाता है. आज के दिन लोग एक दूसरे से मजाक करते हैं और मूर्ख बनाते हैं. कोई अपने मजाक से डरा देता है तो कोई हंसा देता है. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है एक अप्रैल को फूल डे मनाने की परंपरा की शुरुआत क्यों और कैसे हुई? आंकड़ों की मानें तो इसकी शुरुआत 1 अप्रैल 1392 के दिन पहली बार हुई थी. इस बात का सबूत अंग्रेज कवी लेखक चॉसर के कैंटबरी टेल्स में दिया गया है. चलिए हम आपको ‘अप्रैल फूल’ का इतिहास बताते हैं.

सबसे पहला अप्रैल फूल साल 1381 को बनाया गया था. कहा जाता है कि इंग्लैंड के राजा रिचर्ड द्वितीय और बोहेमिया की रानी एनी ने अपनी प्रस्तावित सगाई 32 मार्च 1381 के दिन होने की सूचना दी थी. वहां के लोगो ने इस बात को बिना सोचे समझे गंभीरता से ले लिया और इंतज़ार करने लगे. जब सभी ने अपने घर जाने के बाद इस बात पर गौर किया तब उन्हें पता चला की उन्हें इस तरह से एक अप्रैल के दिन मूर्ख बनाया गया था.
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Last edited by rajnish manga; 01-04-2018 at 11:54 AM.
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Old 03-04-2018, 05:23 PM   #377
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प्रेम परिभाषा में बंधता नहीं
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मस्तिष्क का काम है रहस्य को रहस्य न रहने दे, उसे सुस्पष्ट परिभाषा में बांध ले। मगर कुछ चीजें हैं जो परिभाषा में बंधती नहीं। प्रेम परिभाषा में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, परिभाषा छोटी पड़ जाती है। व्याख्या में समाता नहीं। बड़े बड़े हार गए, सदियां बीत गईं, प्रेम के संबंध में कितनी बातें कही गईं और प्रेम के संबंध में एक भी बात कही नहीं जा सकी है। जो कहा गया, सब ओछा पड़ा। जो कहा गया, सब थोथा सिद्ध हुआ। प्रेम इतना बड़ा है, इतना विराट है कि यह आकाश भी छोटा है।

प्रेम के आकाश से यह आकाश छोटा है। ऐसे कितने ही आकाश उसमें समा जाएं। महावीर ने इस आकाश को अनंत कहा है, और आत्मा के आकाश को अनंतानंत। अगर अनंत को अनंत से गुणा कर दें। असंभव बात। क्योंकि अनंत का अर्थ ही हो गया कि उसकी कोई सीमा नहीं, अब उसका गुणा कैसे करोगे? कोई आंकड़ा नहीं। लेकिन महावीर ने कहा, अगर यह हो सके कि अनंत को हम अनंत से गुणा कर सकें, तो अनंतानंत, तो हमारे भीतर के आकाश की थोड़ीसी रूपरेखा स्पष्ट होगी।
लेकिन मन हर चीज को समझ कर, जान कर स्पष्ट कर लेना चाहता है। क्यों? मस्तिष्क की यह आकांक्षा क्यों है?
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प्रेम परिभाषा में बंधता नहीं
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यह इसलिए कि जो स्पष्ट हो जाता है, मस्तिष्क उसका मालिक हो जाता है। जो राज राज नहीं रह जाते, मस्तिष्क उनका उपयोग करने लगता है साधन की तरह। लेकिन कुछ राज हैं जो राज ही हैं और राज ही रहेंगे। मस्तिष्क उन पर कभी मालकियत नहीं कर सकता और उनका कभी साधन की तरह उपयोग नहीं हो सकता। वे परम साध्य हैं। सभी साधन उनके लिए हैं। प्रेम जिस तरफ इशारा करता है, वह इशारा परमात्मा की तरफ है। प्रेम का तीर जिस तरफ चलता है, वह परमात्मा है।

प्रेम का लक्ष्य सदा परमात्मा है। इसलिए तुम जिससे भी प्रेम करो उसमें तुम्हें परमात्मा की झलक अनुभूत होने लगेगी।

इसीलिए तो प्रेमियों को लोग पागल कहते हैं। मजनू को लोग पागल कहते हैं; क्योंकि उसे लैला परमात्मा मालूम होती है। शीरीं को लोग पागल कहते हैं, क्योंकि फरहाद उसे परमात्मा मालूम होता है। पागल न कहें तो क्या कहें?? एक साधारणसी स्त्री, एक साधारणसा पुरुष परमात्मा कैसे? लेकिन उन्हें प्रेम के रहस्य का कुछ अनुभव नहीं है। प्रेम की जहां भी छाया पड़ती है, वहीं परमात्मा का आविष्कार हो जाता है। प्रेम भरी आंख से फूल को देखोगे तो फूल परमात्मा है। और प्रेम भरी आंख से कांटे को देखोगे तो कांटा भी परमात्मा है। प्रेम की आंख जहां पड़ी, वहीं परमात्मा उघड़ आता है।
(ओशो)
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औरंगज़ेब की कब्र
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संत सिंह मसकीन साहब सिख पंथ के बड़े विद्वान थे। उनका एक बार औरंगजेब की मजार पर जाना हुआ, उस समय का प्रसंग है।
ज्ञानी संत सिंह मस्कीन जी के मुगल शहंशाह औरंगज़ेब के बारे में उन्हीं की जुबानी ....
कुछ अरसा पहले मुझे औरंगाबाद जाने का मौक़ा मिला । कई बार हजूर साहिब (महाराष्ट्र) जाते समय उधर से ही जाना होता था ।
एक बार प्रबन्धकों ने कहा ज्ञानी जी यहाँ से 7-8 किलोमीटर की दूरी पर खुलदाबाद में औरंगज़ेब की क़ब्र है । अगर आप चाहें तो आप को दिखा लायें । कभी उधर से गुज़रते हुए देखी भी थी फिर देखने की इच्छा हुई चलो देख आते हैं ।
हम वहाँ पहुँचे । वहाँ पर मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेर शरीफ़ वाले के पड़पोते के मक़बरे के नज़दीक ही औरंगज़ेब की कच्ची क़ब्र है । निज़ाम हैदराबाद ने चारों ओर जालीनुमा संगमरमर लगवा दिया है ।
मैंने उस क़ब्र को देखा, सामने पत्थर की तख्ती पर कुछ शेर लिखे थे और कुछ थोड़ा बहुत समकालीन इतिहास लिखा था, उसको मैंने नोट किया ।
जैसे ही मैं वहाँ से चलने लगा, वहाँ देखभाल के लिये जो आदमी (मजौर) बैठा था, मुझसे बोला सरदार जी कुछ पैसे दे के जाओ । मैंने पूछा, तुम्हारी आजीविका का कोई मसला है ?
उसने कहा नहीं । यहाँ जो भी लोग (जायरीन) आते हैं, आप जैसे लोग आते हैं, हमें कुछ दे के जाते हैं । उन्हीं पैसों से रात को तेल लाकर यहाँ दिया जलता है। इसलिये तेल के लिए कुछ पैसे चाहिये । आप भी हमें तेल के लिये कुछ पैसे दे कर जाओ ।
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औरंगज़ेब की कब्र
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मैंने जेब से कुछ पैसे निकाले और व्यंग्यात्मक अंदाज़ में कहा : ये लो पैसे, ले आना तेल और जला देना औरंगज़ेब की क़ब्र (मडी) पे दिया । उसके बोल मैंने अपनी डायरी में लिख लिये के कहीं मैं भूल ना जाऊँ । मेरे अन्दर से एक आवाज़ आई : "ऐ औरंगज़ेब, तेरी क़ब्र पर रात को दिया जलाने के लिये तेरी क़ब्र पर बैठा मजौर आने वाले यात्रियों से पैसे माँगता है ...
...परन्तु जिस सतगुरू को तूने दिल्ली की चाँदनी चौक में शहीद किया (करवाया), जिन साहिबजादों को तूने सरहन्द (फतेहगढ साहिब पंजाब) में ज़िन्दा दीवारों में चिनवा दिया...
...जा कर देख वहाँ पैसे के दरिया बहते हैं । भूखों को भोजन मिल रहा है । दिन रात कथा- कीर्तन के परवाह चल रहे हैं । लोग सुन-सुन कर रबी सरूर का आनंद प्राप्त कर रहे हैं ।"
और ये सब देख कर कहना पड़ता है :
"कूड़ निखुटे नानका ओड़कि सचि रही" ।।२।।
( गुरू ग्रन्थ साहिब अंग 953 ) अर्थात् "सच ने हमेशा क़ायम रहना है । सच की आवाज़ हमेशा गूँजती रहेगी । झूठ की अन्ततः हार होती है।"
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