24-10-2011, 08:00 PM | #31 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
पछवा चली आँधी खड़ी है गाँव में उखड़े कलश, है कँपकँपी इन मंदिरों के पाँव में। जड़ से हिले बरगद कई पीपल झुके, तुलसी झरी पन्ने उड़े सद्ग्रंथ के दीपक बुझे, बाती गिरी मिट्टी हुआ मीठा कुआँ भटके सभी अँधियाव में उखड़े कलश, है कँपकँपी इन मंदिरों के पाँव में। बँधकर कलावों में बनी जो देवता, 'पीली डली' वह भी हटी, सतिए मिटे ओंधी पड़ी गंगाजली किंरचें हुआ तन शंख का सीपी गिरी तालाब में उखड़े कलश, है कँपकँपी इन मंदिरों के पाँव में।
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25-10-2011, 02:44 AM | #32 | |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
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अद्भुत पंक्तियां ! प्रस्तुति के लिए आभार !
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25-10-2011, 09:33 AM | #33 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
भावना जी
आपका सूत्र हिँदी साहित्य का एक अनमोल मोती है ऐसे ही हम सबको महान साहित्यकारोँ की रचनाओँ से रू-ब-रू करती रहिए |
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08-11-2011, 12:21 PM | #34 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
सर्दियाँ (1)
छत हुई बातून वातायन मुखर हैं सर्दियाँ हैं। एक तुतला शोर सड़कें कूटता है हर गली का मौन क्रमशः टूटता है बालकों के खेल घर से बेख़बर हैं सर्दियाँ हैं। दोपहर भी श्वेत स्वेटर बुन रही है बहू बुड्ढी सास का दुःख सुन रही है बात उनकी और है जो हमउमर हैं सर्दियाँ हैं। चाँदनी रातें बरफ़ की सिल्लियाँ हैं ये सुबह, ये शाम भीगी बिल्लियाँ हैं साहब दफ़्तर में नहीं हैं आज घर हैं सर्दियाँ हैं।
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08-11-2011, 12:24 PM | #35 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
सर्दियाँ (2)
मुँह में धुँआ, आँख में पानी लेकर अपनी रामकहानी बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिए लिहाफ़ दिसंबर। मेरी कुटिया के सम्मुख ही ऊँचे घर में बड़ी धूप है गली हमारी बर्फ़ हुई क्यों आँगन सारा अंधकूप है? सिर्फ़ यही चढ़ते सूरज से माँग रहा इंसाफ़ दिसंबर। पेट सभी की है मज़बूरी भरती नहीं जिसे मज़बूरी फुटपाथों पर नंगे तन क्या- हमें लेटना बहुत ज़रूरी? इस सब चाँदी की साज़िश को कैसे करदे माफ़ दिसंबर। छाया, धूप, हवा, नभ सारा इनका सही-सही बँटवारा हो न सका यदि तो भुगतेगी यह अति क्रूर समय की धारा लिपटी-लगी छोड़कर अब तो कहता बिल्कुल साफ़ दिसंबर।
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08-11-2011, 12:26 PM | #36 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
हम सुपारी-से
दिन सरौता हम सुपारी-से। ज़िंदगी-है तश्तरी का पान काल-घर जाता हुआ मेहमान चार कंधों की सवारी-से। जन्म-अंकुर में बदलता बीज़ मृत्यु है कोई ख़रीदी चीज़ साँस वाली रेजगारी-से। बचपना-ज्यों सूर, कवि रसखान है बुढ़ापा-रहिमना का ग्यान दिन जवानी के बिहारी-से।
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01-12-2011, 09:41 PM | #37 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
खान साहब ,अलैक जी आप दोनों का हार्दिक आभार............!
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01-12-2011, 09:42 PM | #38 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने
दादी की हँसुली ने, माँ की पायल ने उस सच्चे घर की कच्ची दीवारों पर मेरी टाई टँगने से कतराती है। माँ को और पिता को यह कच्चा घर भी एक बड़ी अनुभूति, मुझे केवल घटना यह अंतर ही संबंधों की गलियों में ला देता है कोई निर्मम दुर्घटना जिन्हें रँगा जलते दीपक के काजल ने बूढ़ी गागर से छलके गंगाजल ने उन दीवारों पर टँगने से पहले ही पत्नी के कर से साड़ी गिर जाती है। जब से युग की चकाचौंध के कुहरे ने छीनी है आँगन से नित्य दिया-बाती तबसे लिपे आँगनों से, दीवारों से बंद नाक को सोंधी गंध नहीं आती जिसे चिना था घुटनों तक की दलदल ने सने-पुते-झीने ममता के आँचल ने पुस्तक के पन्नों में पिची हुई राखी उस घर को घर कहने में शरमाती है। साड़ी-टाई बदलें, या ये घर बदलें प्रश्नचिह्न नित और बड़ा होता जाता कारण केवल यही, दिखावों से जुड़ हम तोड़ रहे अनुभूति, भावना से नाता जिन्हें दिया संगीत द्वार की साँकल ने खाँसी के ठनके, चूड़ी की हलचल ने उन संकेतों वाले भावुक घूँघट पर दरवाज़े की 'कॉल बैल' हँस जाती है।
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01-12-2011, 09:45 PM | #39 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
अधर-अधर को ढूँढ रही है
ये भोली मुस्कान जैसे कोई महानगर में ढूँढे नया मकान नयन-गेह से निकले आँसू ऐसे डरे-डरे भीड़ भरा चौराहा जैसे कोई पार करे मन है एक, हजारों जिसमें बैठे हैं तूफान जैसे एक कक्ष के घर में रुकें कई मेहमान साँसों के पीछे बैठे हैं नये-नये खतरे जैसे लगें जेब के पीछे कई जेब-कतरे तन-मन में रहती है हरदम कोई नयी थकान जैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान
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29-12-2011, 06:59 PM | #40 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
तुम्हारे हाथ में टँककर बने हीरे, बने मोती बटन, मेरी कमीज़ों के।
नयन को जागरण देतीं नहायी देह की छुअनें कभी भीगी हुईं अलकें कभी ये चुंबनों के फूल केसर-गंध-सी पलकें सवेरे ही सपन झूले बने ये सावनी लोचन कई त्यौहार तीजों के। बनी झंकार वीणा की तुम्हारी चूड़ियों के हाथ में यह चाय की प्याली थकावट की चिलकती धूप को दो नैन, हरियाली तुम्हारी दृष्टियाँ छूकर उभरने और ज्यादा लग गए ये रंग चीज़ों के।
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