01-12-2012, 09:23 AM | #31 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 09:24 AM | #32 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे आदि नीति हुई है, तैसे ही भासता है | इस पृथ्वी के उत्तर दिशा में सुमेरु पर्वत है, पश्चिम दिशा की ओर लोकालोक पर्वत है और ऊपर तारों और नक्षत्रों का चक्र फिरता है, लोकालोक के जिस ओर वह जाता है उस ओर प्रकाश होता है | भूगोल ऐसे है, जैसे गेंद होता है और इसके एक ओर पाताल है, एक ओर स्वर्ग है, एक ओर मध्यमण्डल है और आकाश सर्व ओर है | आकाशवासी जानते हैं कि हम ऊर्ध्व हैं और मध्यवासी जानते हैं कि हम ऊर्ध्व है | इस प्रकार भूगोल है और उसके ऊपर महातमरूप एक शून्य खात है | जहाँ न पृथ्वी है, न कोई पहाड़ है, स्थावर है न जंगम है और न कुछ उपजा है | उसके ऊपर एक सुवर्ण की दीवार है जिसका दश सहस्त्र योजन विस्तार है और उसके ऊपर दशगुणा जल है सो पृथ्वी को चहुँ फेर से घेरे हैं, उससे परे दशगुण अग्नि है, फिर दशगुण वायु है और उसके आगे आकाश है |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 09:24 AM | #33 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
फिर ब्रह्माकाश महाकाश है जिसमें अनन्त ब्रह्माण्ड स्थित हैं परन्तु ये तत्त्व जैसे तृण के आश्रय कपूर ठहरता है तैसे ही पृथ्वीभाग के आश्रय ठहरे हैं | वास्तव में शुद्ध चैतन्य ब्रह्म का चमत्कार है जो आकाशवत् निर्मल है और उसमें कोई क्षोभ नहीं है, परमशान्त, अन्त और सर्व का अपना आप है | हे रामजी! अब फिर विपश्चित् की वार्ता सुनो | जब वे लोकालोक पर्वत पर जा स्थित हुए तब एक शून्य खात (खाई) उनको दृष्ट आया और पर्वत से उतरकर खात में वे जा पड़े | वह खात भी पर्वत के शिखर पर था और वहाँ शिखर की नाईं बड़े बड़े पक्षी भी रहते थे इस कारण उन पक्षियों ने चोंचों से इनके शरीर चूर्ण किये, तब उन्होंने अपने स्थूल शरीर को त्यागकर अपना सूक्ष्म अन्त वाहक शरीर जाना |
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01-12-2012, 09:24 AM | #34 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
रामजी ने पूछा, हे भगवन्! आधिभौतिक कैसे होती है और अन्तवाहक क्या है? फिर उन्होंने क्या किया? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तैसे कोई संकल्प से दूर से दूर चला जावे तो जिस शरीर से जावे वह अन्तवाहक है और जो पाञ्चभौतिक शरीर प्रत्यक्ष भासता है सो आधिभौतिक है | जब मार्ग से कहीं जाने को चित्त का संकल्प उठता है तब स्थूल शरीर से गए बिना नहीं पहुँच सकता और जब मार्ग में चले तब पहुँचता है सो ही आधिभौतिक है और यह प्रमाद से होता है | जैसे रस्सी के झूलने से सर्प भासता है, तैसे ही आत्मा के अज्ञान से आधिभौतिक शरीर भासता है और जैसे कोई मनोराज का पुर बना के उसमें आप भी एक शरीर बनकर चेष्टा करता फिरे तो उसे जब तक पूर्व का शरीर विस्मरण नहीं हुआ तब तक वह संकल्प शरीर से चेष्टा करता है सो अन्तवाहक है
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01-12-2012, 09:25 AM | #35 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
उस शरीर को संकल्पमात्र जानना-विशेष बुद्धि कहाती है | आत्मबोध हुए बिना जो उस संकल्पशरीर में दृढ़ भावना होती है तो उसका नाम आधि भौतिक होता है-सो घट बढ़ कहाता है | इससे जब तक शरीर का स्मरण है तब तक आधि- भौतिकता निवृत्त नहीं होती और जब शरीर का विस्मरण होता है तब आधिभौतिकता मिट जाती है | विपश्चित् आत्मबोध से रहित थे और जहाँ चाहते थे वहाँ चले जाते थे पर स्वरूप से न कुछ अन्तवाहक है और न कुछ आधिभौतिक है, प्रमाद से ये सब आकार भासते हैं | वास्तव में सब चिदाकाशरूप है, दूसरी वस्तु कुछ नहीं बनी सब वही है और उसी के प्रमाद से विपश्चित् अविद्यक जगत् को देखने चले थे | वह अविद्या भी कुछ दूसरी वस्तु नहीं- ब्रह्म ही है तो ब्रह्म का अन्त कहाँ आवे | वहाँ से वे चले परन्तु जानें कि हमारा अन्तवाहक शरीर है |
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01-12-2012, 09:25 AM | #36 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
निदान वे सब पृथ्वी को लाँघ गये | फिर जल को भी लाँघ गये और उसके परे जो सूर्य व दाहक अग्नि का आवरण प्रकाशवान् है तिसको भी लाँघकर मेघ और वायु के आवरण को भी लाँघे | फिर आकाश को भी लाँघ गये तो उसके परे ब्रह्माकाश था जहाँ उनको संकल्प के अनुसार फिर जगत् भासने लगा पर उसको भी लाँघे | फिर आगे ब्रह्माकाश मिला और फिर उनको पञ्चभूत भासि आये, उसके आवरण को भी लाँघ गये | फिर उस ब्रह्माण्डकपाट के परे तत्त्वों को लाँघकर ब्रह्माकाश आया, उसमें एक और पाञ्चभौतिक ब्रह्माण्ड था | उसको भी लाँघ गये पर अन्त न पाया | स्वरूप के प्रमाद से दृश्य के अन्त लेने को वे भटकते फिरे पर अविद्यारूप संसार का अन्त कैसे आवे? यह जीव तब तक अन्त लेने को भटकता फिरता है जब तक अविद्या नष्ट नहीं होती, जब अविद्या नष्ट होगी तभी अविद्यारूप संसार का अन्त होगा | हे रामजी! जगत् कुछ बना नहीं वही ब्रह्माकाश ज्यों का त्यों स्थित है और उसका न जानना ही संसार है | जब तक उसका प्रमाद है तब तक जगत् का अन्त न आवेगा और जब स्वरूप का ज्ञान होगा तब अन्त आवेगा | सो वह जानना क्या है? चित्त को निर्वाण करना ही जानना है | जब चित्त निर्वाण होगा तब जगत् का अन्त आवेगा | जब तक चित्त भटकता फिरता है तब संसार का अन्त नहीं आता | इससे चित्त का नाम ही संसार है | जब चित्त आत्मपद में स्थित होगा तब जगत् का अन्त होगा इस उपाय बिना शान्ति नहीं प्राप्त होती |
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01-12-2012, 09:25 AM | #37 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
रामजी ने पूछा,हे भगवन्! वे जो दो विपश्चित् थे उनकी क्या दशा हुई, यह भी कहो | वे तो दोनों एक ही थे | वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! एक तो निर्वाण हुआ था और दूसरा ब्रह्माण्डों को लाँघता लाँघता और एक ब्रह्माण्ड में गया तब वहाँ उसको सन्तों का संग प्राप्त हुआ और उनकी संगति से उसको ज्ञान प्राप्त हुआ | ज्ञान को पाकर वह भी निर्वाण हो गया | एक अब तक दूर फिरता है और यहाँ एक पहाड़ की कन्दरा में मृग होकर बिचरता हे | हे रामजी! यह जगत् आत्मा का आभास है | जैसे सूर्य की किरणों में जल भासता है और जब तक किरणें हैं तबतक जलाभास निवृत्त नहीं होता, तैसे ही जब तक आत्मसत्ता है तब तक जगत् का चमत्कार निवृत्त नहीं होता और आत्मा के जाने से जगत् सत्ता नहीं रहती | जैसे किरणों के जाने से जलाभास नहीं रहता और जो जल भासता है तो भी किरणों ही की सत्ता भासती है, तैसे ही आत्मा के जाने से आत्मा की सत्ता ही भासती है-भिन्न जगत् की सत्ता नहीं भासती |
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01-12-2012, 09:25 AM | #38 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
रामजी ने पूछा, हे भगवन्! विपश्चित् एक ही था तो एक ही संवित् में भिन्न भिन्न वासना कैसे हुई? एक मुक्त हो गया, एक मृग होकर फिरता रहा और एक आगे निर्वाण हो गया-यह भिन्नता कैसे हुई? संवित् तो एक ही थी उसमें कम और अधिक फल कैसे हुए सो कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वासना जो होती है सो देशकाल और पदार्थों से होती है | उसमें जिसकी दृढ़ भावना होती है उसकी जय होती है | जैसे एक पुरुष ने मनोराज से अपनी चार मूर्त्तियाँ कल्पीं और उनमें भिन्न भिन्न वासना स्थापित की पर संवित् तो एक है, यदि पूर्व का शरीर भूलकर उसमें दृढ़ हो गये तो जैसी जैसी भावना उनके शरीर में दृढ़ होती है वही प्राप्त है, तैसे ही संवित् में नाना प्रकार की वासना फुरती हैं | जैसे एक ही संवित् स्वप्ने में नाना प्रकार धारती है और भिन्न भिन्न वासना होती है, तैसे ही आकाशरूप संवित् में भिन्न भिन्न वासना होती है | हे रामजी! संवित् उनकी एक थी परन्तु देश, काल और क्रिया से वासना भिन्न भिन्न हो गई और पूर्व की संवित् स्मृति भूल गई उससे उन्होंने न्यून और अधिक फल पाये |
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01-12-2012, 09:25 AM | #39 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
वह संवित् क्या रूप है? हे रामजी! देश से देशान्तर को जो संवेदन जाती है उसके मध्य जो संवित्तसत्ता है सो ब्रह्मसत्ता है | जैसे जाग्रत के आकार को छोड़ा और स्वप्ना नहीं आया उसके मध्य जो ब्रह्मसत्ता है वह किञ्चनरूप जगत् होकर भासती है परन्तु किञ्चन भी कुछ भिन्न वस्तु नहीं! वह एक है न दो है, एक कहना भी नहीं होता तो दो कहाँ हो और जगत् कहाँ हो? यही अविद्या है कि है नहीं और भासती है | जैसी जैसी वासना फुरती है उसमें जो दृढ़ होती है उसकी जय होती है | इस कारण एक विपश्चित् जनार्दन (विष्णु) के स्थान में निर्वाण हो गया और दूसरा दूर से दूर ब्रह्माण्ड को लाँघता गया और उसको सन्तों का संग प्राप्त हुआ जिससे ज्ञान उदय होकर वासना मिट गई और उसका अज्ञान नष्ट हो गया | जैसे सूर्य के उदय हुए अन्धकार नष्ट हो जाता है, तैसे ही जब उसका अज्ञान नष्ट हो गया तब वह उस पद को प्राप्त भया जिसके अज्ञान से दूर से दूर भटकता है |
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01-12-2012, 09:26 AM | #40 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
तीसरा दूर से दूर भटकता फिरता है और चौथा पहाड़ की कन्दरा में मृग होकर बिचरता है | हे राम जी! जगत् कुछ वस्तु नहीं, अज्ञान के वश से भटकता है इसलिये अज्ञान ही जगत् है जबतक अज्ञान है तबतक जगत् है | जब ज्ञान उदय होता है तब वह अज्ञान को नाश करता है और तभी जगत् का अभाव हो जाता है | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह जो मृग हुआ है सो कहाँ कहाँ फिरा है और कहाँ कहाँ स्थित हुआ है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! दो ब्रह्माण्ड को लाँघते दूर से दूर चले गये थे, उनमें से एक अब तक चला जाता है और पृथ्वी, समुद्र, वायु आकाश उसकी संवित् में फुरते हैं | यह तो दूर से चला गया है और हमारी आधिभौतिक दृष्टि का विषय नहीं और एक ब्रह्माण्ड को लाँघता गया था पर अब इस जगत् में पहाड़ की कन्दरा का मृग हुआ है सो हमारी इस दृष्टि का विषय है |
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