08-06-2012, 05:38 PM | #31 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
स्वामी श्रद्धानंद एक दिन अपने कुछ शिष्यों और दर्शनार्थ आए भक्तों के साथ बैठे हुए सत्संग कर रहे थे। वहां जो भी भक्त आ रहा था, वह अपने साथ लाए फल-फूल और मिठाइयां आदि स्वामी श्रद्धानंद के चरणों में भेंट कर रहा था। स्वामी श्रद्धानंद की आदत थी कि जो भक्त फल लाता था, उसे वे वहीं कटवा कर मौजूद लोगों में बंटवा दिया करते थे। हमेशा की तरह उस दिन भी वे फल काटकर उसे प्रसाद के रूप में वहां उपस्थित लोगों को बांट रहे थे। तभी एक बुजुर्ग किसान अपने खेत का एक खरबूज लेकर आया। उसने स्वामी श्रद्धानंद से उसे खाने का अनुरोध किया। स्वामी श्रद्धानंद ने उसका अनुरोध स्वीकार कर खरबूज को काटा और उसकी एक फांक खा ली, लेकिन उस दिन उन्होंने बाकी का खरबूज बांटा नहीं, बल्कि खरबूज की एक-एक फांक काट कर खुद ही पूरा खा लिया। उनका यह व्यवहार वहां मौजूद भक्तों को थोड़ा अटपटा लगा कि आज स्वामी श्रद्धानंद ने ऐसा क्यों किया, पर वे चुप रहे। उधर वह किसान काफी खुश हुआ कि स्वामी श्रद्धानंद ने उसका पूरा खरबूज खा लिया। वह स्वामी श्रद्धानंद को प्रणाम कर वहां से चला गया। उसके जाने के बाद एक भक्त से रहा नहीं गया और उसने पूछा - स्वामी जी, क्षमा करें। एक बात पूछना चाहता हूं। जो भी भक्त आपके पास फल लाता है, आप उसके फल को प्रसाद की तरह सभी में बंटवा देते हैं, पर आपने उस किसान के खरबूज को प्रसाद की तरह काटकर क्यों नहीं बांटा? स्वामी श्रद्धानंद बोले - प्रिय भाई, अब क्या बताऊं? वह फल बहुत फीका था। अगर मैं किसी को भी बांटता, तो तय मानो वह किसी को भी पसंद नहीं आता। अगर मैं इसे आप लोगों के बीच बांटता, तो मुझे भी अच्छा नहीं लगता और अगर उस किसान भाई के सामने ही इसे फीका कह देता, तो उस बेचारे का भी दिल ही टूट जाता। वह बड़े प्रेम से मेरे पास खरबूज लाया था। उसके स्नेह का सम्मान करना मेरे लिए बहुत आवश्यक था। खरबूजे में उसके स्नेह के अद्भुत मधुर रस को मैं अब तक अनुभव कर रहा हूं। यह सुनकर सभी भक्त स्वामी श्रद्धानंद के प्रति श्रद्धा से भर उठे। याद रखें, सच्चा संत वही होता है, जो किसी का दिल नहीं दुखाता।
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09-06-2012, 12:48 AM | #32 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
आपको जो चाहिए, वह बांटो
जिंदगी बूमरैंग की तरह होती है। आपका किया हुआ व्यवहार घूम कर आपके पास आता है। आपके कहे हुए शब्द घूम कर आपके पास आते हैं। आप जो भी दुनिया को देते हैं, वह आपके पास कई गुना होकर लौट आता है; इसलिए जैसा व्यवहार आप अपने साथ चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ कीजिए, क्योंकि आप जो बोएंगे, वही आपको काटना पड़ेगा। जो भी चीज आप सबसे ज्यादा चाहते हैं, उसे सबसे ज्यादा बांटिए। आप चाहते हैं कि दूसरे आपकी मुश्किलों में मदद करें, तो आप उनकी मुश्किलों में उनके साथ खड़े रहिए। यदि आप दूसरों को श्रेय देंगे, तो आपको भी पलटकर श्रेय मिलेगा। यदि आपको सम्मान पसंद है, तो दिल खोल कर दूसरों का सम्मान कीजिए। यदि आप दूसरों का तिरस्कार करेंगे, तो बदले में आपको भी तिरस्कार ही मिलेगा। यदि आप दूसरों की दिल खोल कर प्रशंसा करेंगे, तो आप बदले में वही पाएंगे। जीवन का यह बेहद सरल सिद्धांत है, परन्तु फिर भी अधिकांश लोग इसे अमल में नहीं लाते। आप किसी भी क्षेत्र में कामयाबी पाएं, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि लोग आपको पसंद करें, क्योंकि लोग जिसको पसंद करते हैं, उनके साथ काम करना चाहते हैं। आपको यह बात ध्यान में रखनी होगी। इसके लिए यह जरूरी नहीं कि हम दूसरों के पीछे सब कुछ लुटा दें या जान बिछा दें। इसके लिए जरूरी है कि हमारा व्यवहार संयमित हो। प्रशंसा और खुशी जाहिर करने से पहले हम एक बार भी नहीं सोचें, लेकिन आलोचना या गुस्सा करने से पहले सौ बार सोचें। बिना जरूरत के तर्क-वितर्क नहीं करें, वाद-विवाद में नहीं पड़ें। अपने समग्र लक्ष्य का ध्यान रखें और बढ़ते रहें। यदि आपकी बातों से आपके साथ खड़े लोग थोड़ा बेहतर महसूस करते हैं , खुश होते हैं, प्रफुल्लित होते हैं; तो तय है कि आपको कोई परेशानी नहीं होगी। यदि वे आपके साथ समय गुजार कर अच्छा महसूस करेंगे, तो वही व्यवहार बदले में आपको देंगे। आपके प्रशंसक बनेंगे और जरूरत पड़ने पर आपके काम आएंगे।
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09-06-2012, 12:53 AM | #33 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सबसे बड़ा ज्ञानी
मनुष्य को कभी अपने ज्ञान पर घमंड नहीं करना चाहिए। यदि कोई ऐसा करता है, तो वह महाज्ञानी होने के बावजूद भी दुनिया के सामने साधारण ही हो जाता है। बहुत पुरानी कथा है। यूनान में एक व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करने के लिए जगह-जगह भटक रहा था। वह चाहता था कि उसे कोई ऐसा शख्स मिले, जो उसे ज्ञान दे सके। वह एक संत के पास पहुंचा। उसने संत को प्रणाम किया। कुछ देर झिझकने के बाद उनसे कहा - महात्माजी, मेरे जीवन में कुछ प्रकाश हो जाए, ऐसा कुछ ज्ञान देने की कृपा करें। मैं कई जगह घूमा, पर कामयाब नहीं हो पाया हूं। इस पर संत ने उससे कहा - भाई, मैं तो एक साधारण व्यक्ति हूं। मेरी क्या हैसियत है। मैं भला तुम्हें क्या ज्ञान दूंगा। यह सुन कर उस व्यक्ति को बहुत हैरानी हुई। उसने कहा - ऐसा कैसे हो सकता है। मैंने तो कई लोगों से आपके बारे में सुना है और उसके बाद ही मैने यहां आने का निर्णय किया है। इस पर संत बोले - एक काम करो। तुम्हें अगर ज्ञान चाहिए, तो सुकरात के पास चले जाओ। वही तुम्हें सही ज्ञान दे सकेंगे। वे ही यहां के सबसे बड़े ज्ञानी हैं। कुछ देर बाद वह व्यक्ति सुकरात के पास पहुंचा और बोला - महात्माजी, मुझे पता लगा है कि आप सबसे बड़े ज्ञानी हैं। मुझे आपसे ज्ञान चाहिए। इस पर सुकरात मुस्कराए और उन्होंने पूछा कि यह बात उससे किसने कही है। उस व्यक्ति ने उस महात्मा का नाम लिया और कहा - अब मैं आपकी शरण में आया हूं। इस पर सुकरात ने जवाब दिया - तुम उन्हीं महात्माजी के पास चले जाओ। मैं तो साधारण ज्ञानी भी नहीं हूं, बल्कि मैं तो अज्ञानी हूं। यह सुनने के बाद वह व्यक्ति फिर उस संत के पास पहुंचा। उसने संत को सारी बात कह सुनाई। इस पर संत बोले - भाई, सुकरात जैसे व्यक्ति का यह कहना कि मैं अज्ञानी हूं, उनके सबसे बड़े ज्ञानी होने का प्रमाण है। जिसे अपने ज्ञान का जरा भी अभिमान नहीं होता, वही सच्चा ज्ञानी है। उस व्यक्ति ने इस बात को अपना पहला पाठ मान लिया। ज़ाहिर है कि उसने ज्ञान की राह पर मज़बूत कदम बढ़ाने शुरू कर दिए थे।
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12-06-2012, 12:40 AM | #34 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
पीछे मुड़कर भी देखें
अक्सर कहा जाता है कि पुरानी बातों को भुलाकर हमें भविष्य के बारे में सोचना चाहिए। जीवन में सफलता के लिए दूरदृष्टि अनिवार्य मानी जाती है। मानव जीवन का लक्ष्य है - हमेशा आगे बढ़ते रहना, लेकिन आगे बढ़ने का अर्थ क्या हमेशा भविष्य की ओर यात्रा है ? शायद नहीं। आगे बढ़ने के लिए पीछे भी जाना होता है। हम कई मुद्दों पर पाते हैं कि इंसान पहले ही ठीक था। आंख मूंदकर आगे की ओर बढ़ते हुए हमने अपने लिए कुछ मुसीबतें मोल ले ली हैं। जैसे पर्यावरण को ही लें। आज जब इससे जुड़े कई तरह के संकट हमारे जीवन में उथल-पुथल मचा रहे हैं, तो हमें बीते दिनों की जीवन पद्धति याद आने लगी है। अब कई पुराने तौर-तरीकों को फिर से प्रतिष्ठित किया जाने लगा है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है कि मानव जाति बेहतर जीवन जी सके। उसका भविष्य सुखद हो सके यानी एक सुखद भविष्य के लिए हमें अतीत की ओर जाना पड़ रहा है। अपने जीवन से अतीत को काटकर अच्छा भविष्य भी नहीं गढ़ा जा सकता। दरअसल हर आदमी कोशिश करता है कि वह समय से आगे दिखे। कोई अपने को पिछड़ा नहीं साबित करना चाहता, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि हर आदमी का समय अलग-अलग होता है और आदमी को इसका पता तक नहीं रहता। अक्सर ऐसा होता है कि एक शख्स अपने जानते समय से बहुत आगे की चीज बता रहा होता है, लेकिन उसे इसका अंदाजा नहीं होता कि उसका दिमाग हकीकत में दो दशक पीछे अटका हुआ है। इसका मतलब यह हुआ कि वह असल में बीते दो दशक से आगे की बात कह रहा है, लेकिन वर्तमान के हिसाब से वह पीछे की ही बात साबित होती है। एक समय में रहकर भी लोग अलग-अलग समय में जी रहे होते हैं। यह अंतर इसलिए होता है कि हर व्यक्ति को आगे बढ़ने के बराबर मौके नहीं मिल पाते। इंसान और इंसान के बीच वर्ग, भाषा और शिक्षा के आधार पर काफी फर्क होता है। इसलिए आधुनिकता भी हमेशा दूसरे के संदर्भ में ही होती है। इसका कोई एक मापदंड नहीं। अतः यदि आपको उचित प्रगति करनी है, तो अपने अतीत में निरंतर झांकते रहिए।
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12-06-2012, 12:43 AM | #35 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सफलता का सच्चा रास्ता
प्रसिद्ध स्कॉटिश इतिहासकार और लेखक थॉमस कार्लाइल ने अनेक वर्षों की मेहनत के बाद एक महान पुस्तक 'फ्रांस की क्रांति' की रचना की। उन्होंने अपनी इस अनूठी रचना के बारे में एक बेहद करीबी मित्र से इसकी चर्चा की, तो उसने ग्रंथ की पांडुलिपि पढ़ने के लिए मांगी। कार्लाइल ने खुशी-खुशी वह पांडुलिपि अपने मित्र को दे दी। एक दिन उनका मित्र पांडुलिपि को पुरानी पत्र-पत्रिकाओं के बीच रखकर बाहर चला गया। उस समय उसका नौकर घर की साफ-सफाई में लगा था। उसने पुरानी पत्र-पत्रिकाओं के साथ उस पांडुलिपि को भी रद्दी समझकर जला दिया। लौटने पर मित्र ने जब नौकर से पांडुलिपि के बारे में पूछा, तो नौकर बोला - साहब, मैंने तो उसे भी पुरानी रद्दी व समाचार-पत्रों के साथ बेकार समझकर जला डाला है। यह सुनकर मित्र आपा खो बैठा, किंतु कर भी क्या सकता था; गलती तो उसी की थी। उसने बड़ी मुश्किल से स्वयं को कालाईल को यह बात कहने के लिए तैयार किया। यह खबर पाकर कालाईल की पत्नी के तो आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। कालाईल की वर्षों की मेहनत मानो मिट्टी में मिल गई थी। उधर, मित्र भी डर के मारे थर-थर कांप रहा था। मित्र की हालत को देखते हुए कालाईल ने स्वयं पर पूरी तरह काबू रखा और बोले, कोई बात नहीं। ऐसी दुर्घटनाएं तो होती रहती हैं। धैर्य व साहस के बावजूद कालाईल खुद भी टूट तो रहे थे, लेकिन उन्होंने संकल्प लिया कि वे हार मान कर नहीं बैठेंगे। अपनी इस पुस्तक पर दोबारा काम करेंगे। क्या पता अगली पुस्तक पहले वाली से बेहतर बने। वे फिर से अपनी पुस्तक तैयार करने में जुट गए। दो वर्ष बाद उन्होंने फिर से उसी पुस्तक की रचना की और आज वह एक बेजोड़ किताब के रूप में जानी जाती है। फ्रांस की क्रांति को समझने के लिए वह एक प्रामाणिक किताब है। इस तरह कालाईल ने अपने धैर्य व विपत्ति में न घबराने की प्रवृत्ति के कारण हाथ से छूटी सफलता को फिर से पा लिया।
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13-06-2012, 02:38 AM | #36 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सच्चा साधक
एक बार एक संत के पास सुशांत नामक एक युवक आया। उसने कुछ देर तक तो संत के साथ धर्म चर्चा की, फिर थोड़े संकोच के साथ उनसे कहा - कृपया आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिए। संत ने थोड़े विस्मय के साथ उस युवक से पूछा - मेरा शिष्य बनकर तुम क्या करोगे? उस युवक ने कहा - मैं भी आपकी तरह साधना करूंगा। संत मंद-मंद मुस्कराए और बोले - वत्स, जाओ यह सब कुछ भुलाकर जीवनयापन के लिए अपना कर्म करते रहो। संत की बात सुनकर सुशांत वहां से चला गया, मगर कुछ दिनों बाद फिर संत के पास आया। वह अपने जीवन से संतुष्ट नहीं था। उसने शिष्य बना लेने की अपनी मांग फिर संत के सामने दोहराई। इस बार संत ने उससे कहा - अब तुम स्वयं को भुलाकर घर-घर जाओ और भिक्षा मांगो। ऊंच-नीच, धनी-निर्धन का भेद भुलाकर जहां से जो भी भिक्षा ग्रहण करो; उसी से अपना गुजारा करते रहो। सुशांत संत के आदेशानुसार भिक्षा मांगने निकल पड़ा। भिक्षा लेते समय वह हमेशा अपनी नजरें नीची किए रहता। जो मिल जाता, उसी से संतोष करता। कुछ दिनों तक तो उसने संत के आदेश के तहत भिक्षा मांगी और उसके बाद फिर वह संत के पास आया। उसे आशा थी कि इस बार संत उसके आग्रह के नहीं ठुकराएंगे और उसे अवश्य अपना शिष्य बना लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इस बार संत ने कहा - जाओ नगर में अपने सभी शत्रुओं और विरोधियों से क्षमा मांग कर आओ। शाम को घर-घर घूमकर सुशांत वापस आया और संत के सामने झुककर बोला -प्रभु, अब तो इस नगर में मेरा कोई शत्रु ही नहीं रहा। सभी मेरे प्रिय और अपने हैं और मैं सबका हूं। मैं किससे क्षमा मांगूं। इस पर संत ने उसे गले लगाते हुए कहा - अब तुम स्वयं को भुला चुके हो। तुम्हारा रहा सहा अभिमान भी समाप्त हो चुका है। तुम सच्चे साधक बनने लायक हो गए हो। अब मैं तुम्हें अपना शिष्य बना सकता हूं। यह सुनकर सुशांत की खुशी का ठिकाना न रहा।
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13-06-2012, 02:42 AM | #37 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
कामयाबी के पैमाने
हर दौर में समाज में सफलता का एक निश्चित पैमाना होता है। हम उसी पर लोगों को कसने के आदी हो जाते हैं, लेकिन ज्यों ही कोई उन्हीं पैमानों पर सफल होता है, खुद सफलता का उसका पैमाना बदल जाता है। इसलिए हम बहुत से सफल व्यक्तियों को असंतुष्ट पाते हैं। ऐसे लोग एक समय के बाद खुद को विफल मानना शुरू कर देते हैं। असल में हमारी इच्छाओं का अंत नहीं है। बहुत सी चीजें पा लेने के बाद भी लोग दूसरों से अपनी तुलना करते रहते हैं। जो भी चीज उनके पास नहीं होती, उसे लेकर परेशान हो जाते हैं। संभव है कि एक सफल व्यक्ति किसी को आराम करता देख दुखी हो जाए और यह सोच कर ही खुद को विफल घोषित कर दे कि उसके जीवन में सुकून नहीं है। इसीलिए संतों-विचारकों ने सफलता की अवधारणा को हमेशा संदेह की नजर से देखा, क्योंकि यह हमेशा अस्थिर रहती है। ऊपरी तौर पर भले ही इसका निश्चित रूप दिखाई देता है, किन्तु हमारे मन के भीतर यह रूप बदलती रहती है। सफल होने के लिए जरूरी है कि हम आगे देखते रहें और भविष्य की सोचें। विकसित देश तो पचास वर्ष आगे तक की योजना तैयार करके रखते हैं, लेकिन व्यक्ति के संदर्भ में मामला उलटा है। बाहर की दुनिया में भले ही वह आगे की सोचे, पर आंतरिक दुनिया में वह अक्सर पीछे भी लौटता रहता है। हम जब भी अकेले होते हैं, अपने अतीत के बारे में सोचते हैं। बीते हुए सुख को ही नहीं, दुख को भी याद करते हैं। सफलता के शिखर पर बैठा शख्स भी स्मृति में जरूर लौटता है। कितना अच्छा हो कि हम अपने बाहरी यानी सामाजिक जीवन में भी इसी तरह पीछे लौटते रहें। अगर कोई समृद्ध व्यक्ति अपने पुराने अभाव के दिनों को याद करता रहे, तो संभव है उसका वर्तमान ज्यादा सुखी हो। वह संवेदनशील बने और दूसरों के दुख को भी समझे। हालांकि आम तौर पर लोग दोहरा जीवन जीते हैं। वह अपने मन को अपने रोजमर्रा जीवन से अलग रखते हैं। अगर हर आदमी अंदर और बाहर एक जैसा हो जाए, तो दुनिया अवश्य ही थोड़ी बेहतर हो सकती है।
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13-06-2012, 04:16 AM | #38 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
लिंकन की चाय
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का शुरुआती जीवन अभावों में गुजरा था। जीवनयापन के लिए कम उम्र में उन्हें कई तरह के काम करने पड़े। कुछ दिनों तक उन्होंने चाय की दुकान पर भी नौकरी की। उन्हीं दिनों की बात है। एक महिला उनकी दुकान पर आई। उसने उनसे पाव भर चाय मांगी। लिंकन ने जल्दी-जल्दी उसे चाय तौलकर दी। रात में जब उन्होंने हिसाब-किताब किया, तो उन्हें पता चला कि उन्होंने भूलवश उस महिला को आधा पाव ही चाय दी थी। वह परेशान हो गए। पहले तो उन्होंने सोचा कि कल जब वह फिर आएगी, तो उसे आधा पाव चाय और दे देंगे। लेकिन फिर ख्याल आया कि अगर वह नहीं आई तो...। संभव है वह इधर कदम ही न रखे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें, वह अपराधबोध से घिर गए थे कि उन्होंने उसे सही मात्रा में चाय क्यों नहीं दी। फिर उन्होंने तय किया कि इसी वक्त जाकर उस महिला को बाकी चाय दी जाए। आखिर उसकी चीज है, उसने उसके पूरे पैसे दिए हैं। संयोग से लिंकन उसका घर जानते थे। उन्होंने एक हाथ में चाय ली और दूसरे हाथ में लालटेन लेकर निकल पड़े। उसका घर लिंकन के घर से तीन मील दूर था। उन्होंने उस महिला के घर पहुंचकर दरवाजा खटखटाया। महिला ने दरवाजा खोला तो उन्होंने कहा - क्षमा कीजिए, मैंने गलती से आपको आधा पाव ही चाय दी थी। यह लीजिए बाकी चाय। महिला आश्चर्य से उन्हें देखने लगी। फिर उसने कहा - बेटा, तू आगे चलकर महान आदमी बनेगा। उसकी भविष्यवाणी सच निकली।
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13-06-2012, 04:23 AM | #39 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
समय के पाबन्द रहें
जो आजीवन समय का पाबन्द रहता है, उसे लगातार कामयाबी मिलती रहती है। यदि आप अपने प्रत्येक दिन का शुभारंभ ठीक तरीके से करते हैं, तो उसका परिणाम सुखद ही होगा। प्रत्येक दिन के सुखद परिणाम आपको उन्नति की ओर ही ले जाएंगे। आप अपना लक्षय पा लेंगे। प्रत्येक दिन के सुंदर, सुखद और सरल भाव आपके लिए उन्नति के दरवाजे ही खोलते हैं। हेनरी फोर्ड खेत में पैदा हुए थे। उन्होंने सोलह साल की उम्र में खेत छोड़ा और जाने-माने आविष्कारक थॉमस अल्बा एडिसन की डेट्राइट एडिसन कंपनी में फोरमैन बन गए और प्रगति करने लगे; तब तक, जब तक कि वे चीफ इंजानियर नहीं बन गए। स्पष्ट है एडिसन उनके लिए बहुत बड़े व्यक्ति थे। हेनरी फोर्ड ने खुद से कहा, कभी इस प्रख्यात अविष्कारकर्ता से बात करने का अवसर मिलेगा, तो उनसे एक प्रश्न अवश्य पूछेंगे। हेनरी फोर्ड को 1898 में यह अवसर मिल ही गया। उन्होंने एडिसन को रोका और कहा - मिस्टर एडिसन, क्या मैं आपसे एक सवाल पूछ सकता हूं? क्या आपको लगता है कि मोटरकारों के लिए पेट्रोल ईंधन का अच्छा स्रोत हो सकता है? एडिसन के पास फोर्ड से बात करने का समय नहीं था। उन्होंने केवल हां कहा और वहां से चले गए। बात समाप्त हो गई, लेकिन इस जवाब ने फोर्ड को उत्साहित कर दिया। यहीं से फोर्ड ने एक लक्ष्य तय कर लिया और संकल्प ले लिया। ग्यारह वर्ष बाद उन्होंने 1909 में टिन लिजी नामक एक कार बनाई। उन्होंने अनेक आलोचनाएं झेली, लेकिन उन ग्यारह वर्षों में उन्होंने काम किया और इंतजार किया। उन्होंने ऊर्जा में कमी का अनुभव किया, किंतु थकान का कभी अनुभव नहीं किया। यही कारण है कि वे लक्ष्य तक पहुंचे और कामयाबी हासिल की। यदि उस समय को हाथ से निकल जाने दिया होता, तो क्या वे फोर्ड जैसी कामयाब कार कंपनी खड़ी करने में कामयाब होते? याद रखें। जब तक आप अपने विचारों, धन और समय का प्रबंधन करना नहीं सीखेंगे, तब तक आप कोई भी महत्वपूर्ण चीज हासिल नहीं कर पाएंगे। यदि आप सफल होना चाहते हैं, तो आपको विफलताओं से कभी डरना नहीं चाहिए। न ही आपको विफलताओं के माध्यम से विकास करने से डरना चाहिए।
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13-06-2012, 04:26 AM | #40 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
धूल का कमाल
सही समय पर अपनी अक्ल का इस्तेमाल ही समझदार की सबसे बड़ी निशानी होती है। विकट हालात में घबराए बगैर अपनी बुद्धि के दम पर भी बड़ी से बड़ी आफत को टाला जा सकता है। कभी भी विपरीत हालात में अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। आपकी जीत का सबसे बड़ा हथियार विवेक ही होता है। यह उन दिनों की बात है, जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। जर्मनी के सेनापति रोमेल अपनी खास रणनीतियों के लिए जाने जाते थे। एक बार अफ्रीका के एक रेगिस्तान में जर्मन सेना अंग्रेजों से युद्ध कर रही थी । तब उसके तोपखाने के गोले खत्म हो गए। अंग्रेज सेना सामने से बढ़ी चली आ रही थी। बारूद व गोले न होने से अंग्रेज सेना को रोक पाना असंभव सा हो गया था। ऐसे में साथी सेनाधिकारी दौड़े- दौड़े घबराहट में रोमेल के पास आए और बोले - सर, अंग्रेजों ने हमला बोल दिया है। हमारे पास इस समय खाली तोपों के अलावा और कुछ भी नहीं है। ऐसे में हम क्या करें ? इतनी जल्दी इस समय तो किसी भी चीज की व्यवस्था करना काफी मुश्किल है। साथियों की बातें सुनकर रोमेल थोड़ा भी नहीं घबराए। वह धैर्यपूर्वक बोले - देखो, इस तरह परेशान होने से कुछ नहीं होगा। बुद्धि और चतुराई से काम लेकर दुश्मन सेना के छक्के छुड़ाने होंगे। हमारे पास गोले ओर बारूद न सही, धूल तो है। तोपों में धूल भरो और दनादन दागो। कुछ हवाई जहाजों को भी उड़ने के लिए ऊपर छोड़ दो। रोमेल की बात मानकर ऐसा ही किया गया। तोपों की गड़गड़ाहट से आसमान हिल उठा । चारों ओर धूल ही धूल उड़ती देख कर अंग्रेज डर गए। उन्होंने समझा कि शत्रु की भारी-भरकम सेना आगे बढ़ती चली आ रही है। उड़ती हुई धूल में वे वास्तविकता का पता नहीं लगा सके। इधर जर्मन हवाई जहाजों ने भी खाली उड़ान भरकर शत्रु सेना को आतंकित कर दिया। अचानक दहशत में आ जाने से शीघ्र ही शत्रु सेना के पांव उखड़ गए और वह भाग खड़ी हुई। इस तरह रोमेल की बुद्धि और चतुराई से बिना किसी हथियार के ही सफलता मिल गई। भले ही द्वितीय विश्व युद्ध में निर्णायक जीत जर्मनी को न मिली हो, पर रोमेल को उनके शत्रु देशों के सैन्य अधिकारी भी याद करते हैं।
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