07-03-2014, 04:38 PM | #31 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
** यह उन दिनों की बात है जब जोश मलीहाबादी अभी पाकिस्तान जा कर नहीं बसे थे.
जोश साहिब मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के अच्छे दोस्त थे तथा वह प्राय: आज़ाद साहिब से मिलने जाते रहते थे। एक बार जब वह मौलाना से मिलने गए, तो वह अनेक सियासी लोगों में घिरे हुए थे। दस-बीस मिनट इंतज़ार के बाद जोश साहिब ने यह शेर कागज़ पर लिखकर उनके सचिव को दिया और उठकर चल पड़े— नामुनासिब है ख़ून खौलाना फिर किसी और व़क्त मौलाना जोश अभी बाहरी गेट तक भी नहीं पहुंचे थे कि सचिव भागे भागे आए और रुकने को कहा। जोश साहिब ने मुड़कर देखा। मौलाना कमरे के बाहर खड़े मुस्कुरा रहे थे।
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01-05-2014, 04:29 PM | #32 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
'ग़ालिब' और 'ज़ौक़' की नोक झोंक
ग़ालिब और ज़ौक़ के बीच शायराना नोंक-झोंक और हँसी-मज़ाक के कई सारे किस्से मक़बूल हैं। बात एक गोष्ठी की है । मिर्ज़ा ग़ालिब मशहूर शायर मीर तक़ी मीर की तारीफ़ में कसीदे गढ़ रहे थे । शेख इब्राहीम ‘जौक’ भी वहीं मौज़ूद थे । ग़ालिब द्वारा मीर की तारीफ़ सुनकर वे बैचेन हो उठे । वे सौदा नामक शायर को श्रेष्ठ बताने लगे । मिर्ज़ा ने झट से चोट की- “मैं तो आपको मीरी समझता था मगर अब जाकर मालूम हुआ कि आप तो सौदाई हैं ।” यहाँ मीरी और सौदाई दोनों में श्लेष है । मीरी का मायने मीर का समर्थक होता है और नेता या आगे चलने वाला भी । इसी तरह सौदाई का पहला अर्थ है सौदा या अनुयायी, दूसरा है- पागल।
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05-12-2014, 10:25 PM | #33 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
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जिगर मुरादाबादी, शौकत थानवी और मजरूह सुल्तानपुरी दोपहर के समय कहीं काम से निकले थे तो ख़याल आया कि क्यों न नमाज़ अदा कर ली जाये.शौकत साहब किसी काम से चले गए. जिगर साहब किसी मस्जिद के बजाय एक रेस्टोरेंट में घुस गये. मजरूह साहब ने कहा, “ जिगर साहब यह मस्जिद नहीं यह रेस्टोरेंट है.” जिगर साहब में उत्तर दिया, “मुझे मालूम है. सोचा कि वक़्त कम है.अल्लाह को तो खुश कर नहीं सकता, उसके बन्दों को ही खुश कर लूँ. आइये.
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05-12-2014, 10:27 PM | #34 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
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जोश मलीहाबादी ने जिगर मुरादाबादी को छेड़ते हुए कहा, “क्या सबक लेने वाली हालत है आपकी. शराब ने आपको एक शराबी से मौलवी बना दिया और आप अपने स्थान को भूल बैठे. मुझे देखिये. मैं रेल के खंबे की तरह आज भी अपनी जगह पर खड़ा हूँ, जहाँ आज से कई साल पहले था.” जिगर साहब ने जवाब दिया, “बिलकुल आप रेल के खम्बे हैं और मेरी ज़िन्दगी रेलगाड़ी की तरह है, जो आप जैसे हर खम्बे को पीछे छोडती हुई हर जगह से आगे अपना मुकाम बनाती जा रही है.”
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05-12-2014, 10:30 PM | #35 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
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उर्दू के प्रसिद्ध शायर एहसान दानिश से मुशायरे के व्यवस्थापकों ने निवेदन किया कि ‘हम एक मुशायरा करवा रहे हैं. आप उसमें शामिल हो कर मुशायरे की शोभा बढ़ाये.’ एहसान ने पूछ लिया, “कितना पैसा मिलेगा”. व्यवस्थापकों ने नम्रता से जवाब दिया, “आप इस मुशायरे में बिना पैसा लिए आकर हमें धन्यवाद का अवसर प्रदान करें.” एहसान पर उनकी बातों का कोई प्रभाव न पड़ा. उन्होंने कारोबारी लहजे में जवाब दिया, “हुज़ूर आपको धन्यवाद का अवसर प्रदान करने में मुझे कोई ऐतराज़ नहीं था और बिना पैसे के आपके मुशायरे में आ जाता अगर मैं अपने शेरों से अपने बच्चों का पेट भर सकता. आप खुद ही बताइए कि अगर घोड़ा घास से यारी करेगा तो क्या वह आपके धन्यवाद पर जीवित रह सकता है?”
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05-12-2014, 10:35 PM | #36 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
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मिश्र बनाम चटर्जी एक बार का किस्सा है। किसी गोष्ठी में अनेक साहित्यकार बैठे हुए थे। चर्चा चल रही थी। विषयों की विविधता थी। इसी गोष्ठी में प्रसिद्ध हिंदी कवि वीरेंद्र मिश्र भी बैठे थे और बंगाल के सुविख्यात कथाकार सुकुमार चटर्जी भी उपस्थित थे। चर्चा के एक दौर में चटर्जी महाशय ने मिश्रजी को छेड़ते हुए कहा, ‘मिश्रजी! पहले के जमाने में जो वेदपाठी ब्राह्मण थे, उन्हें वेदी कहा जाता था। दो वेदों के ज्ञाता द्विवेदी, तीन के त्रिवेदी और चारों वेदों के ज्ञाता चतुर्वेदी जैसे उपनामों का जन्म हुआ। जो पढ़ाने का काम करते थे, वे उपाध्याय कहलाने लगे और जो न ठीक से पढ़ पाते थे और न ही पढ़ा पाते थे, वे ‘मिश्र’ कहलाए अर्थात ये मिला-जुलाकर काम चलाते थे।’ मिश्रजी ने जब चटर्जी महाशय को अपना सार्वजनिक उपहास करते देखा तो इन शब्दों में करारा जवाब दिया, ‘पहले ब्राह्मण अपने इष्टदेव को पत्री या अर्जी लिखते थे, जैसे तुलसीदास ने ‘विनय पत्रिका’ लिखी। इस प्रकार अर्जी लिखने वाले लोग ‘बनर्जी’ कहलाए। जो लिखकर न देते हुए मुख से कह देते थे वे ‘मुखर्जी’ कहलाए और बिना सोचे-विचारे चट से कह देते थे वे ‘चटर्जी’ कहलाए।’ मिश्रजी की बात पर पूरी सभा हंस पड़ी और चटर्जी महाशय खिसिया गए।
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19-06-2015, 11:32 PM | #37 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
चाय का बिल अहमद नदीम काज़मी और इब्ने इंशा यह उन दिनों की बात है जब अहमद नदीम काज़मी, इब्ने इंशा समेत कई दोस्त एक रेस्तराँ में मुलाक़ात करते और चाय पीते. वे लोग अपना अपना बिल अदा करते और चल देते. एक दिन इब्ने इंशा ने सुझाव दिया कि इस प्रकार वेटर के सामने हम पैसे इकट्ठे करते हैं, यह अच्छा नहीं लगता. आगे से आप लोग मुझे एक एक आना पहले ही दे दिया करो ताकि बिल का भुगतान एकमुश्त कर दिया जाये. इससे इन्हें यह भी पता नहीं चलेगा कि हम कंगाल हैं. ऐसा ही किया जाने लगा. सब लोग वहाँ बैठते ही इंशा को एक एक आना दे देते. इससे हुआ यह कि वे चाय का एक सेट मंगवा लेते जिससे सबके लिए चाय भी पूरी हो जाती थी और इंशा को अपनी चाय के पैसे भी नहीं देने पड़ते. इस पर जब सबने ऐतराज़ किया तो इंशा ने कहा, “उन मजदूरों को भुगतान करने के लिए पेसा इकठ्ठा करने में मैंने जो शारीरिक मेहनत की है, क्या उसके लिए एक आना भी मुआवज़ा नहीं बनता??”
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21-06-2015, 12:12 PM | #38 | |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
Quote:
सभी प्रसंग बहुत खुबसुरती से कहे जा रहें है ईसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद। यह सुत्र जारि रखिएगा।
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Last edited by rajnish manga; 10-01-2017 at 11:08 PM. |
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07-07-2015, 04:17 PM | #39 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
दिनकर की डायरी से साभार
श्री रामधारी सिंह दिनकर एअर-कंडीशंड पोएट [1969, कानपुर] श्रीमती संतोष महेन्द्रजीत सिंह को लगा मैं आराम से नहीं हूँ. आज वे कह बैठीं -"आप एअर-कंडीशंड पोएट हो गए" मैं ने कहा " हाँ, वहाँ दिल्ली में एअर-कन्डीशन में रहता हूँ, ट्रेन में ए.सी. में चलता हूँ और कविता भी ठंडी लिखने लगा हूँ. आपके मजाक में भी सच्चाई है.
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15-08-2015, 05:42 PM | #40 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
हफ़ीज़ जालंधरी और चिराग़ हसन हसरत किसी मुशायरे में हफ़ीज़ जालंधरी अपनी ग़ज़ल सुनाते सुनाते चिराग़ हसन हसरत से बोले, हसरत साहब, मुलाहिजा फरमाइए, मिसरा अर्ज़ किया है.” और मिसरा सुनने से पहले निहायत बेचारगी से हसरत साहब बोले, “फरमाइए हफ़ीज़ साहब, शौक़ से फरमाइए. अपनी तो उम्र ही मिसरा उठाते और मुर्दों को कन्धा देने में कटी है.”
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