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Old 10-06-2013, 12:36 AM   #31
rajnish manga
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Default Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक

पौराणिक आख्यान / मिस्र
मृत्यु के देवता ओसिरिस का अंत

मिस्र देश की पुरानी सभ्यता में मूर्ति पूजा को व्यापक मान्यता प्राप्त थी और देवी देवताओं के अनन्य रूप देखने को मिलते थे. वहां के पौराणिक आख्यानों के अनुसार सूर्य देवता ‘रा’ मिस्र के देवताओं का प्रमुख था अर्थात वह देवाधिदेव था. उसी ने स्वयं को बनाया और फिर सारी सृष्टि की रचना की. प्राचीन मिस्री साहित्य में ‘रा’ की महिमा तो सर्वव्यापक है ही, किन्तु देवताओं में ओरिसिस का वर्णन भी कम रोमांचक और लोमहर्षक नहीं है. ओसिरिस मृत्यु का देवता है. मृत्यु के बाद जीवन की अभिकल्पना जितनी गहराई से वहा की आस्था और विश्वासों से जुडी हुई है उसे देखते हए ओरिसिस को दिये गये विशेष महत्त्व तथा स्थान को समझना सरल हो जाता है.

माना जाता था कि मरने के बाद राजा परलोक में प्रवेश कर जाता था. वह स्वयं ओरिसिस बन जाता था और मृत्यु के बाद हर व्यक्ति के पाप-पुण्य का विचार करता था.

ओसिरिस के सम्बन्ध में मिस्र में एक मिथक बहुत प्रसिद्ध है. एक बार ‘रा’ को मालूम हुआ कि देवलोक के दो देवता जिनका नाम नुत्र और गेब था एक-दूसरे से प्यार करते हैं. ‘रा’ को क्रोध आ गया. उसने क्रोध में नुत्र को शाप दिया कि वह वर्ष के किसी भी दिन संतान को जन्म नहीं दी सकेगी. अब क्या किया जा सकता था.

इस गंभीर समस्या से निपटने का एक रास्ता थोत नामक देवता ने निकाल लिया. उसने हर रोज थोड़ा थोड़ा समय चुराना शुरू कर दिया. इस चुराए हए समय से उसने अतिरिक्त पांच दिनों का निर्माण कर लिया. इन्हीं अतिरिक्त दिनों में नुत्र ने बच्चों को जन्म दिया. ये बच्चे थे – ओसिरिस, होरस, सेत, आइसिस और नेप्थे. मिस्र देश के प्राचीन निवासी वर्ष के अंतिम पांच दिनों को इन्हीं के नामों से पहचानते थे. नेप्थे और सेत का विवाह हो गया. ओसिरिस और आइसिस भी विवाह के बंधन में बांध गये.

बाद में ओसिरिस मिस्रियों का राजा बना. धीरे धीरे उसे देवताओं में भी महत्वपूर्ण स्थान मिल गया. सेत ओसिरिस से ईर्ष्या करता था. अतः वह ओसिरिस को रास्ते से हटाने की योजना बनाने लगा.

एक बार सेत मिस्र से बाहर दूसरे देश गया. उसने इस बीच एक ऐसा खूबसूरत ताबूत बनवाया जो ओसिरिस के शरीर के नाप से मेल खाता था. जब ओसिरिस वापिस आया तो सेत ने उसे दावत पर बुलाया. जब वह आया तो उसने उपस्थित मेहमानों से मुस्कुरा कर कहा कि आज हम एक खेल खेलते हैं. मुझे यह संदूक भेंट में मिला है. हम बारी बारी से इस संदूक में लेट कर देखते हैं. यह संदूक जिस किसी के नाप के अनुसार पाया जाएगा, संदूक उसी का हो जाएगा. एक एक कर मेहमान उसमे लेटते और उठ कर बाहर आ जाते. अब ओसिरिस की बारी थी. वह अचकचाया लेकिन हार कर उसे भी संदूक में लेटना पड़ा. संदूक तो बना ही उसके नाप का था, अतः वह उसमें ठीक से समा गया. सेत तो इसी घड़ी का इंतज़ार कर रहा था. बिना कोई समय गँवाए, उसने उसका ढक्कन बंद कर दिया और उसके छेदों से पिघला हुआ सीसा डाल दिया. फिर उसने अपने आदमियों को आदेश दिया कि इस ताबूत को नदी में जा कर वहां फेंक दो जहा पानी बहुत अधिक हो. ऐसा ही किया गया. ताबूत बहता हुआ लेबनान के समुद्र तट पर एक जगह किनारे आ लगा. वहां एक विशाल पेड़ उग आया.

इस बीच उसकी पत्नि आइसिस को सारे घटनाक्रम का पता चला. उसे यह भी मालूम हुआ कि और वह उसे ढूंढते ढूंढते लेबनान के नगर बिल्बास पहुँच गई. बिल्बास के राजा ने एक दिन उस वृक्ष को देखा तो उसे काटने का आदेश दिया. वह चाहता था कि इस पेड़ के विशाल तने को काट कर महल में लगाया जाये. आइसिस ने महल में अपनी सेवा से सभी को प्रसन्न किया. बाद में उसने अपनी पहचान बतायी. वहां का राजा उसकी कहानी सुन कर बहुत द्रवित हुआ. बड़े वृक्ष की उस बल्ली में से आइसिस ने ओसिरिस का ताबूत निकलवाया. राजा ने ओसिरिस के सम्मान में एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया.

(एक प्रसंग यह भी है कि सेत ने ताबूत को चोरी कर के ओसिरिस के मृत शरीर के टुकड़े किये और मिस्र के अलग स्थानों पर फिंकवा दिये जिन्हें आइसिस ने अपने वफादारों की सहायता से ढुंढवाया और अंतिम संस्कार करवाया)
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Old 20-06-2013, 01:03 AM   #32
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विन्ध्याचल का साष्टांग प्रणाम

एक बार उत्तर और दक्षिण भारत को बीच से विभाजित करने वाले विन्ध्याचल पर्वत को अहंकार हो गया. उसने सूर्य से कहा कि वह उसकी परिक्रमा करे. सूर्य ने उसकी परिक्रमा करने से मना कर दिया तो उसने सूर्य का रास्ता रोकने के लिए ऊपर की ओर उठना शुरू कर दिया. यह देख कर अगस्त्य ऋषि विन्ध्याचल के पास गये और उससे दक्षिण की ओर जाने का मार्ग मांगा. विन्ध्याचल ने ऋषि को साष्टांग प्रणाम किया तो ऋषि उसे इसी स्थिति में रहने के लिए कह कर चले गये और फिर कभी नहीं लौटे. कहते हैं कि तब से ही विन्ध्याचल पर्वत पृथ्वी पर वैस ही साष्टांग मुद्रा में लेटा हुआ है.
(ब्रह्म पुराण)
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Old 20-06-2013, 01:05 AM   #33
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रक्तबीज

राक्षसराज शुम्भ निशुम्भ का सेनापति था रक्तबीज. रक्त बीज को यह वरदान मिला हुआ था कि युद्धभूमि में जहां कहीं भी उसके रक्त की एक भी बूँद गिरेगी, वहीं से एक राक्षस पैदा हो जाएगा. इस प्रकार वह देवों से युद्ध में विजयी रहा. अंत में देवी दुर्गा ने उसके रक्त को पीकर उसका वध किया

(स्कन्द पुराण)
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Old 20-06-2013, 01:06 AM   #34
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शुकदेव / महान पौराणिक कथाकार

पौराणिक कथाओं के महान कथाकार व्यासपुत्र शुकदेव, जिन्हें अल्प आयु में ही तत्वज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी, ऋषियों में अग्रणी मने जाते हैं. ऐसा प्रसंग आता है कि परम ग्यानी भगवान् शिव जब अपनी पत्नि पार्वती को अमरत्व प्रदान करने के लिए भगvaaन विष्णु के सहस्त्र नानों का रहस्य सुना रहे थे, तो समीप ही एक वृक्ष पर बैठा हुआ शुक भी उनकी बातें सुन रहा था.शिव को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने उसका पीछा किया. उस समय महर्षि व्यास की पत्नि अपने आँगन में खड़ी हो कर जम्हाई ले रही थी. भयभीत शुक ने अविलम्ब अपने शरीर का त्याग किया और उसके पेट में चल गया. वहां वह 12 वर्ष तक रहा. महर्षि व्यास प्रतिदिन महाभारत व गीता का सार अपनी पत्नि को सुनाया करते थे, जिसे शुक्र गर्भ में ही रह कर सुना करते थे. इस प्रकार उन्हें गर्भ में ही तत्व-ज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी. कालान्तर में राजा परीक्षित को ‘श्रीमद्भागवत’ की कथा शुकदेव जी ने ही सुनाई थी.
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Old 20-06-2013, 01:08 AM   #35
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पौराणिक आख्यान / ग्रीस
तीन देवियों की आपसी लड़ाई

नारी सुलभ मनोवृत्ति के फलस्वरूप एक समय वहां की तीन प्रमुख देवियों में इस बात को ले कर बहस छिड़ गयी कि उन तीनों में सबसे सुन्दर कौन है है? तीनों ही स्वयं को दूसरों की तुलना में अधिक सुन्दर ही नहीं बल्कि विश्वसुन्दरी मानती थीं. ये तीन देवियाँ इस प्रकार थीं:

1. हेरा – देवताओं के राजा की पत्नि (वह विवाह की, विवाहित महिलाओं, बच्चों और घर की संरक्षक देवी थी)
2. एथेना (वह विवेक व विद्या की देवी थी)
3. एफ्रोदित (वह प्रणय और सौंदर्य की देवी थी)

कोई देवी भी अपने को कम नहीं मानती थी. अब वे प्रतिस्पर्धा करने के लिए उतर आयीं और कहने लगीं कि इसका निर्णय करवा लिया जाये. अन्ततः देवताओं के राजा ज्यूस ने ही निश्चय किया कि पेरिस नामक मानव को निर्णायक बना कर प्रतियोगिता शुरू की जाये. ऐसा निर्णय होते ही तीनों देवियों ने भागदौड़ शुरू कर दी और पेरिस को अपने पक्ष में निर्णय देने के लिए रिश्वत के ज़रिये या लुभाने, ललचाने के ज़रिये तीनों देवियाँ कोशिश करने लगीं. प्रलोभन भी दिये गये. प्रतियोगिता में एफ्रोदित को विजयी घोषित किया गया. प्रतियोगिता का जो परिणाम आना था वही आया. वास्तव में एफ्रोदित ने पेरिस को प्रलोभन दिया था कि यदि उसने एफ्रोदित को प्रतियोगिता में विजयी घोषित किया तो वह उसका विवाह विश्व में सब से सुन्दर स्त्री से करवा देगी.

एफ्रोदित ने अपना वायदा निभाने के लिए पूरा सहयोग दिया. उस समय संसार की सबसे सुन्दर नारी थी हेलेन जो स्पार्टा के राजा मेनेलाउज की रानी थी. एफ्रोदित ने हेलेन के अपहरण में पेरिस की पूरी सहायता की. हेलेन के अपहरण का बदला लेने के लिये स्पार्टा के राजा ने ट्रॉय पर हमला कर दिया. इस अपहरण काण्ड को ले कर देवताओं में दो गुट बन गये.

देवाधिदेव अर्थात देवताओं के राजा ज्यूस ने कोशिश की कि वह इस लड़ाई से अलग रहे, लेकिन उसकी पत्नि हेरा तो पहले से ही एफ्रोदित के पक्ष में दिये गये फैंसले के कारण पेरिस से नाराज थी, अतः वह पेरिस ऑफ़ ट्रॉय के विरुद्ध ग्रीक पक्ष का समर्थन करती थी. ज्यूस ने हेरा को ऐसा नहीं करने दिया. इस पर हेरा ने एक चाल चली. उसने ऐसा श्रेष्ठ श्रृंगार किया और ऐसी सुगंध लगाईं कि ज्यूस उसे सूंघ कर बेहोश हो कर सो गया. वह अपनी नींद से जब बाहर आया तो उसे मालूम हुआ कि युद्ध में ट्रॉय बुरी तरह परास्त हो चुका था.
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Old 21-06-2013, 12:46 AM   #36
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ग्रीक मिथक
ज्यूस का जन्म

क्रोनोस और रीया दोनों टाइटन थे. ज्यूस उनका पुत्र था. वास्तव में टाइटन भीमकाय मानव थे. ज्यूस का पिता क्रोनोस अपने पिता यूरेनस की हत्या करने के बाद उसके स्थान पर स्वयं देवताओं का अधिष्ठाता बन बैठा था. यूरेनस ने मरने से पहले क्रोनोस को श्राप दिया कि खुद उसका ही एक पुत्र उसको सिंहासन से उतारेगा. तत्पश्चात, आत्म-रक्षा की खातिर, क्रोनोस अपने पुत्रों को जन्म लेते ही निगल जाता था.

किन्तु क्रोनोस की पत्नि रीया युक्तिपूर्वक अपने एक पुत्र ज्यूस को बचाने में कामयाब हो गयी. उसने ज्यूस के जन्म के बाद उस के स्थान पर बच्चे के आकार के पत्थर को कपड़े में लपेट कर क्रोनोस को दे दिया. इस बीच रीया ने ज्यूस को गड़रियों के एक परिवार के पास पालन पोषण हेतु रखवा दिया. इस प्रकार ज्यूस बड़ा हुआ और बड़ा होने पर उसने अपने पिता के विरुद्ध एक भीषण युद्ध किया जिसके अनंतर उसने क्रोनोस के पेट से उगलवा कर अपने भाइयों और बहनों को मुक्त कराया और अपने पिता को अपदस्थ करके स्वयं देवताओं का राजा बन गया.

ग्रीक पुराकथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि सभी महत्वपूर्ण देवी-देवता दिव्य ओलिम्पस पर्वत के ऊंचे शिखरों पर बने हए महलों में निवास करते हैं. इन्हें ओलिंपियन कहा जाता था. ओलिम्पस का प्रवेशद्वार बादलों में से हो कर जाता था. इस प्रवेश द्वार की रक्षा अलग अलग ऋतुएं करती थीं. देवताओं के राजा ज्यूस का सिंघासन ओलिम्पस के ऊपर था. अन्य देवता जो वहां रहते थे वे थे ज्यूस की पत्नि हेरा, उसके भाई पेसिडोन और हेड्स, उसकी बहनें डिमीटर तथा हेस्टिया और उसके बच्चे – अपोलो, आर्टेमिस, एरिस, एफ्रोदित, एथेना, हेरमिस और हेफीस्टस.

ये सभी देवता मानवीय जीवन व प्रकृति के किसी न किसी रूप से जुड़े हए थे. जैसे ज्यूस अंतरिक्ष व आकाश की बिजली, मन और बुद्धि का देवता था, हेरा महिलाओं के जीवन और विवाह की देवी थी, अपोलो सांसारिक नियमों व व्यवस्था का देवता था, एफ्रोदित प्रणय की देवी थी, हेरमिस यात्रियों, नींद, स्वप्नलोक तथा भविष्यवाणी का देवता था, एथेना विवेक की देवी थी, हेफेस्टस कला और अग्नि का देवता था और एरिस मानव प्रकृति के अंधेरे पक्ष का देवता था.
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Old 21-06-2013, 12:54 AM   #37
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भारतीय पौराणिक कथा
समुद्र मंथन

श्री शुकदेव जी बोले, "हे राजन्! राजा बलि के राज्य में दैत्य, असुर तथा दानव अति प्रबल हो उठे थे। उन्हें शुक्राचार्य की शक्ति प्राप्त थी। इसी बीच दुर्वासा ऋषि के शाप से देवराज इन्द्र शक्तिहीन हो गये थे। दैत्यराज बलि का राज्य तीनों लोकों पर था। इन्द्र सहित देवतागण उससे भयभीत रहते थे। इस स्थिति के निवारण का उपाय केवल बैकुण्ठनाथ विष्णु ही बता सकते थे, अतः ब्रह्मा जी के साथ समस्त देवता भगवान नारायण के पास पहुचे। उनकी स्तुति करके उन्होंने भगवान विष्णु को अपनी विपदा सुनाई। तब भगवान मधुर वाणी में बोले कि इस समय तुम लोगों के लिये संकट काल है। दैत्यों, असुरों एवं दानवों का अभ्युत्थान हो रहा है और तुम लोगों की अवनति हो रही है। किन्तु संकट काल को मैत्रीपूर्ण भाव से व्यतीत कर देना चाहिये। तुम दैत्यों से मित्रता कर लो और क्षीर सागर को मथ कर उसमें से अमृत निकाल कर पान कर लो। दैत्यों की सहायता से यह कार्य सुगमता से हो जायेगा। इस कार्य के लिये उनकी हर शर्त मान लो और अन्त में अपना काम निकाल लो। अमृत पीकर तुम अमर हो जाओगे और तुममें दैत्यों को मारने का सामर्थ्य आ जायेगा।

"भगवान के आदेशानुसार इन्द्र ने समुद्र मंथन से अमृत निकलने की बात बलि को बतायी। दैत्यराज बलि ने देवराज इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये। मंदराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी नाग को नेती बनाया गया। स्वयं भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये। भगवान नारायण ने दानव रूप से दानवों में और देवता रूप से देवताओं में शक्ति का संचार किया। वासुकी नाग को भी गहन निद्रा दे कर उसके कष्ट को हर लिया। देवता वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने लगे। इस पर उल्टी बुद्धि वाले दैत्य, असुर, दानवादि ने सोचा कि वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने में अवश्य कुछ न कुछ लाभ होगा। उन्होंने देवताओं से कहा कि हम किसी से शक्ति में कम नहीं हैं, हम मुँह की ओर का स्थान लेंगे। तब देवताओं ने वासुकी नाग की पूँछ की ओर का स्थान ले लिया।

Last edited by rajnish manga; 21-06-2013 at 10:43 AM.
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"समुद्र मंथन आरम्भ हुआ और भगवान कच्छप के एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा। हे राजन! समुद्र मंथन से सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला। उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे और उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को नीलकंठ कहते हैं। उनकी हथेली से थोड़ा सा विष पृथ्वी पर टपक गया था जिसे साँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया।
"विष को शंकर भगवान के द्वारा पान कर लेने के पश्चात् फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। दूसरा रत्न कामधेनु गाय निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर उच्चै:श्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने रख लिया। उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देव राज इन्द्र ने ग्रहण किया। ऐरावत के पश्चात् कौसुभमणि समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर कल्पद्रुम निकला और रम्भा नामक अप्सरा निकली। इन दोनों को देवलोक में रख लिया गया। आगे फिर समु्द्र को मथने से लक्ष्मी जी निकलीं। लक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया। उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया। फिर एक के पश्चात एक चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष तथा शंख निकले और अन्त में धन्वन्तरी वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट हुये।" धन्वन्तरि के हाथ से अमृत को दैत्यों ने छीन लिया और उसके लिये आपस में ही लड़ने लगे। देवताओं के पास दुर्वासा के शापवश इतनी शक्ति रही नहीं थी कि वे दैत्यों से लड़कर उस अमृत को ले सकें इसलिये वे निराश खड़े हुये उनका आपस में लड़ना देखते रहे। देवताओं की निराशा को देखकर भगवान विष्णु तत्काल मोहिनी रूप धारण कर आपस में लड़ते दैत्यों के पास जा पहुँचे। उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर दैत्य तथा देवताओं की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर भी मोहित होकर उनकी ओर बार-बार देखने लगे। जब दैत्यों ने उस नवयौवना सुन्दरी को अपनी ओर आते हुये देखा तब वे अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुन्दरी की ओर कामासक्त होकर एकटक देखने लगे।
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वे दैत्य बोले, "हे सुन्दरी! तुम कौन हो? लगता है कि हमारे झगड़े को देखकर उसका निबटारा करने के लिये ही हम पर कृपा कटाक्ष कर रही हो। आओ शुभगे! तुम्हारा स्वागत है। हमें अपने सुन्दर कर कमलों से यह अमृतपान कराओ।" इस पर विश्वमोहिनी रूपी विष्णु ने कहा, "हे देवताओं और दानवों! आप दोनों ही महर्षि कश्यप जी के पुत्र होने के कारण भाई-भाई हो फिर भी परस्पर लड़ते हो। मैं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री हूँ। बुद्धिमान लोग ऐसी स्त्री पर कभी विश्वास नहीं करते, फिर तुम लोग कैसे मुझ पर विश्वास कर रहे हो? अच्छा यही है कि स्वयं सब मिल कर अमृतपान कर लो।"

विश्वमोहिनी के ऐसे नीति कुशल वचन सुन कर उन कामान्ध दैत्यो, दानवों और असुरों को उस पर और भी विश्वास हो गया। वे बोले, "सुन्दरी! हमें तुम पर पूर्ण विश्वास है। तुम जिस प्रकार बाँटोगी हम उसी प्रकार अमृतपान कर लेंगे। तुम ये घट ले लो और हम सभी में अमृत वितरण करो।" विश्वमोहिनी ने अमृत घट लेकर देवताओं और दैत्यों को अलग-अलग पंक्तियो में बैठने के लिये कहा। उसके बाद दैत्यों को अपने कटाक्ष से मदहोश करते हुये देवताओं को अमृतपान कराने लगे। दैत्य उनके कटाक्ष से ऐसे मदहोश हुये कि अमृत पीना ही भूल गये।

भगवान की इस चाल को राहु नामक दैत्य समझ गया। वह देवता का रूप बना कर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब अमृत उसके कण्ठ में पहुँच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकार कर कहा कि ये राहु दैत्य है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन से अलग कर दिया। अमृत के प्रभाव से उसके सिर और धड़ राहु और केतु नाम के दो ग्रह बन कर अन्तरिक्ष में स्थापित हो गये। वे ही बैर भाव के कारण सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण कराते हैं।

इस तरह देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान विष्णु वहाँ से लोप हो गये। उनके लोप होते ही दैत्यों की मदहोशी समाप्त हो गई। वे अत्यन्त क्रोधित हो देवताओं पर प्रहार करने लगे। भयंकर देवासुर संग्राम आरम्भ हो गया जिसमें देवराज इन्द्र ने दैत्यराज बलि को परास्त कर अपना इन्द्रलोक वापस ले लिया।

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Old 27-06-2013, 11:02 PM   #40
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ग्रीक मिथक
ओडिसियस

ओडिसियस महानतम ग्रीक योद्धाओं में से एक था. उसने ट्रोजन युद्ध में बढ़ चढ़ कर भाग लिया था और बहुत वीरता का परिचय दिया था, लेकिन युद्ध के बाद उसकी घर वापसी की यात्रा बहुत कठिन थी और उसके साहसिक कारनामों से भरपूर थी. यह समझ लें कि उसकी यह यात्रा दस वर्ष तक फैली हुई थी जिसके दौरान आने वाली हर मुसीबत का उसने साहसपूर्वक मुकाबला किया जिसके आधार पर इसे अब तक की महान साहसिक गाथाओं में से एक के रूप में याद किया जाता है.

ट्रोजन युद्ध के दौरान ओडिसियस बहुत सी छोटी बड़ी लड़ाइयों में मुब्तिला रहा और कई मुकाबलों से विजयी हो कर बाहर आया. जिस समय एकीलिस धाराशायी हुआ तो एजेक्स और ओडिसियस ने ही उसकी मृतक देह को उठा कर लाने तथा उसके अस्त्र-शस्त्र और कवच को रणभूमि से खोज निकालने का काम किया. यह निश्चय किया गया कि उसके हथियार व कवच सबसे बड़े योद्धा को दिये जाने चाहियें. इस सम्मान के लिए ओडिसियस को ही चुना गया.

युद्ध के बाद ओडिसियस को वापसी यात्रा आरम्भ करने के बाद एक बार एक गुफा में शरण लेनी पड़ी. उसके साथ उसके साथी भी गुफा में ही ठहरे. दुर्भाग्यवश, इस गुफा में साईक्लोप्स नामक एक आँख वाले दैत्य का निवास स्थान था. ओडिसियस ने उसकी एक आँख फोड़ दी. साईक्लोप्स को तो अपने शत्रु का नाम तक नहीं पाता था क्योंकि ओडिसियस ने उसे अपना नाम भी “कोई नहीं” बताया था. किन्तु जब ओडिसियस अपनी समुद्री यात्रा पर आगे रवाना हुआ तो उसने अपना नाम बताया. अब साईक्लोप्स ने उसके पिता पोज़ीडॉन से सारा माजरा कह सुनाया और ओडिसियस से बदला लेने की बात कही. पोज़िडॉन ने ही ओडिसियस को दस वर्ष तक समुद्र में रहने की सलाह दी. इन्हीं दस वर्षों का वृत्तान्त महान ग्रीक कवि होमर ने अपने महाकाव्य “द ओडिसी’ में लिखा है. यह विश्व की महानतम साहित्यिक कृतियों में से एक मानी जाती है.
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पौराणिक आख्यान, पौराणिक मिथक, greek mythology, indian mythology, myth, mythology, roman mythology


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