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Old 16-01-2017, 11:27 PM   #31
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और आज की हमारी शख्सियत हैं (16 जनवरी)
संगीतकार ओ पी नय्यर / O P Nayyar




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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
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Old 16-01-2017, 11:31 PM   #32
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और आज की हमारी शख्सियत हैं (16 जनवरी)
संगीतकार ओ पी नय्यर / O P Nayyar
चार दशक से अधिक समय तक बॉलीवुड में अपने संगीत की कभी धूमिल न पड़ने वाली छाप छोड़ने वाले मस्तमौला संगीतकार ओ पी नय्यर संगीत की अपनी अलग शैली, अपने अक्खड़पन और अपने ज़िद्दी स्वभाव के कारण सदा याद किये जायेंगे. वे अपना अलग मुकाम बनाने में कामयाब रहे. उनकी फिल्मों तथा संगीत में पंजाबी जन जीवन का अल्हड़पन, उमंग तथा उत्साह बहुत खूबसूरती से उभर कर सामने आता है.

उन्होंने सन 1949 में बनी फिल्म ‘कनीज़’ से अपने फिल्म कैरियर की शुरुआत की लेकिन स्वतंत्र संगीतकार के रूप में 1952 में बनी फिल्म ‘आसमान’ उनकी पहली फिल्म थी. इसके बाद ‘छम छमा छम’ और ‘बाज़’ जैसी कुछ फिल्मे आयीं लेकिन यह सभी फिल्मे बुरी तरह फ्लॉप रहीं. पार्श्वगायिका गीता राय (बाद में गीता दत्त) की सिफ़ारिश पर गुरुदत्त ने अपनी फिल्म ‘आर-पार’ तथा कुछ अन्य फिल्मों में उन्हें बतौर संगीतकार लिया. यहाँ से उनका कैरियर ग्राफ ऊपर की ओर जाना शुरू हो गया. अन्य निर्माता निर्देशकों के साथ भी वे बहुत कामयाब रहे.

उन्होंने गीत की सिचुएशन के हिसाब काफ़ी समय तक आशा भोंसले, शमशाद बेगम और मोहम्मद रफ़ी से पार्श्वगायन करवाया और वे उनके पसंदीदा कलाकार बने रहे. आशा से अनबन होने के बाद उन्होंने कई नई गायिकाओं से पार्श्व गायन करवाया. फिल्म ‘आसमान’ के समय ही उस समय की सर्वाधिक चर्चित गायिका लता मंगेशकर से उनका विवाद हो गया और यह दोनों कभी साथ नहीं आये.

फ़िल्म सी.आई.डी. (1956), नया दौर (1957) और फ़ागुन (1958) को बॉक्स ऑफिस पर ज़बरदस्त सफलता प्राप्त हुई. इनमे से नय्यर साहब को ‘नया दौर’ के लिये बेस्ट संगीतकार के फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड से भी नवाज़ा गया. सी आई डी और फ़ागुन को भी नोमिनेशन मिला. फिल्म ‘सावन की घटा’ तथा ‘प्राण जाये पर वचन न जाये’ में उनके द्वारा संगीतबद्ध गीतों को फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड प्राप्त हुआ. ये दोनों गीत आशा भोंसले द्वारा गए गए थे.

उनकी अन्य प्रमुख फिल्मों में हावड़ा बृज (1958), फिर वही दिल लाया हूँ (1963), कश्मीर की कली (1964), मेरे सनम (1965), सावन की घटा तथा बहारें फिर भी आयेंगी (1966), किस्मत (1968), संबंध (1969), और प्राण जाये पर वचन न जाये (1974) आदि शामिल हैं. नय्यर साहब का अंतिम समय एकाकी बीता. आज उनके जन्मदिन पर हम उन्हें आदर पूर्वक याद करते हैं.

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Old 16-01-2017, 11:51 PM   #33
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और आज की हमारी शख्सियत हैं (16 जनवरी)
संगीतकार ओ पी नय्यर / O P Nayyar

संगीतकार ओ पी नय्यर का अनोखा स्वभाव
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कहते हैं कि प्रतिभा के अपने साइड इफेक्ट होते हैं। ओ पी नैय्यर ने केवल एक ही फ़िल्म में गीतकार प्रदीप से गीत लिखवाए। ये थी एस. मुखर्जी प्रोडक्शन की 1969 में आई फ़िल्मसंबंध। नैय्यर साहब को प्रदीप की शक्ल पसंद नहीं थी। इसलिए वो सिटिंग में प्रदीप को नहीं बुलाते थे। कवि प्रदीप एकदम सरल हृदय सज्जन व्यक्ति। नैय्यर एकदम मुंहफट अक्खड़। संबंधके गाने प्रदीप किसी हरकारे के हाथों भिजवा दिया करते थे और उनकी धुन बना ली जाती थीं।

इसी तरह गीतकार अनजान से नैय्यर ने फ़िल्म बहारें फिर भी आएंगीके गीत लिखवाए थे। अनजान के बेटे समीर ने ख़ुद बताया कि नैय्यर साहब ने अनजान से निवेदन किया था कि अनजान नैय्यर के पास न आया करें। अनजान ने कारण पूछा। नैय्यर ने कहा- यार, तुम बहुत शरीफ़ आदमी हो और मैं गालियां-शालियां देकर बात करता हूं। मुझे अच्छा नहीं लगता।

शरारतऔर रागिनी’- ये दो ऐसी फ़िल्में थीं, जिसमें किशोर कुमार के लिए मोहम्मद रफ़ी ने पार्श्वगायन किया था। 1958 में आई फ़िल्म रागिनीके निर्माता स्वयं अशोक कुमार थे। और किशोर के साथ वह भी इस फ़िल्म में अभिनय कर रहे थे। इस फ़िल्म का गाना मन मोरा बावराशास्त्रीय-संगीत पर आधारित था। इसलिए नैय्यर ने तय किया कि ये गाना वह रफ़ी से गवाएंगे। किशोर कुमार को मंज़ूर नहीं था कि पर्दे पर वह रफ़ी की आवाज़ लें। वह बड़े भैया के पास गए। पर दादामुनि ने दख़लअंदाज़ी से साफ़ इंकार कर दिया।

उनके स्वरबद्ध किये हुये कुछ लोकप्रिय गीत
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ओ लेके पहला पहला प्यार / ये देश है वीर जवानों का / उड़े जब जब ज़ुल्फ़ें तेरी / रेशमी सलवार कुर्ता जाली का / इक परदेसी मेरा दिल ले गया / दीवाना हुआ बादल / इशारों इशारों में दिल लेने वाले / ये चाँद सा रोशन चेहरा / चल अकेला ....चल अकेला / पुकारता चला हूँ मैं / ये है रेशमी ज़ुल्फ़ों का अंधेरा ना घबराइये / आपके हसीन रूख़ पे आज नया नूर है/ आओ हुज़ूर तुमको बहारों में ले चलूँ / कजरा मोहब्बत वाला अखियों में ऐसा डाला.... आदि आदि.
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Old 17-01-2017, 10:43 AM   #34
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फिल्मी हस्तीयों के साथ साथ ओर कई व्यक्तियों से रुबरु करवाने के लिए रजनीश जी को बहुत बहुत धन्यवाद ।
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Old 18-01-2017, 11:12 PM   #35
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और आज की हमारी शख्सियत हैं (17 जनवरी)
मुहम्मद अली / Muhammad Ali




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Old 18-01-2017, 11:17 PM   #36
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और आज की हमारी शख्सियत हैं (17 जनवरी)
मुहम्मद अली / Muhammad Ali

मुहम्मद अली (मूल नाम- कैसियस क्ले) ने सन 1960 में मुक्केबाज़ी का ओलिंपिक स्वर्ण पदक हासिल किया. उसके बाद सन 1964 में वे विश्व हैवी वेट चैंपियन बने. बाद में, सन 70 के दशक में उन्होंने दो बार यह चैंपियनशिप जीती जब उन्होंने जो फ्रेज़ियर और जॉर्ज फ्रीमैन को पराजित किया. 1984 में वे पार्किंसन रोग से ग्रस्त हो गए. लेकिन इस सब के बीच वे समाज की भलाई के कामों से जुड़े रहे और दान दाता के रूप में भी जाने जाते थे. 2005 में उन्हें राष्ट्रपति का स्वतंत्रता पदक भी प्रदान किया. अपनी बिमारी से वे हार गए और 74 वर्ष की आयु में 3 जून 2016 को वे इस संसार को अलविदा कह गए.
उनके कहे हुये शब्द न सिर्फ़ खिलाड़ियों को प्रेरित करते रहेंगे बल्कि सामान्य व्यक्तियों को भी आगे बढ़ने में मदद करते रहेंगे. उनमे आत्मविश्वास का यह हाल था कि वे खुद को ‘I Am The Greatest’ कह कर प्रचारित करते थे. अपने चाहने वालों के दिल में में वे हमेशा ‘महानतम मुक्केबाज’ के रूप में आसीन रहेंगे.

उनके कुछ उल्लेखनीय विचार:

मैं ट्रैनिंग के हर एक मिनट से नफरत करता था, लेकिन मैंने खुद से कहा, हार मत मानो। अभी सह लोगे तो अपनी बाकी की ज़िन्दगी एक चैंपियन की तरह
बिता सकोगे ।

वह जो जोखिम उठाने का साहस नहीं करता वो अपने जीवन में कुछ भी हासिल नहीं कर सकता।

मैं एक साधारण इंसान हूँ जिसने खुद में मौजूद प्रतिभा के विकास में कड़ी मेहनत की मैने खुद पर विश्वास रखा और मैने दूसरों की अच्छाई पर भी विश्वास रखा।

लोगो की सेवा करना, धरती पर आपके कमरे का किराया है।

चेम्पियन किसी जिम में नहीं बनाये जाते है। चेम्पियन तो एक ऐसी चीज से बनाये जाते हैं, जो उनके अंदर होती है एक इच्छा, सपना, विज़न ।बस उनके पास कौशल होना चाहिये।
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Old 18-01-2017, 11:44 PM   #37
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और आज की हमारी शख्सियत हैं (18 जनवरी)
कुंदनलाल सहगल /Kundan Lal Saigal
अभिनेता-गायक / Actor-Singer





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Old 18-01-2017, 11:49 PM   #38
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और आज की हमारी शख्सियत हैं (18 जनवरी)
कुंदनलाल सहगल /Kundan Lal Saigal

11 अप्रैल 1904 को जम्मू के नवाशहर में जन्मे कुंदनलाल सहगल सहगल ने किसी उस्ताद से संगीत की शिक्षा नहीं ली थी, लेकिन सबसे पहले उन्होंने संगीत के गुर एक सूफी संत सलमान युसूफ से सीखे थे। सहगल की प्रारंभिक शिक्षा बहुत ही साधारण तरीके से हुई थी। उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ी थी और जीवन यापन के लिए उन्होंने रेलवे में टाईमकीपर की मामूली नौकरी भी की थी। बाद में उन्होंने रेमिंगटन नामक टाइपराइटिंग मशीन की कंपनी में सेल्समैन की नौकरी भी की।

वर्ष 1930 में कोलकाता के न्यू थियेटर के बी.एन.सरकार ने उन्हें 200 रूपए मासिक पर अपने यहां काम करने का मौका दिया। यहां उनकी मुलकात संगीतकार आर.सी.बोराल से हुई, जो सहगल की प्रतिभा से काफी प्रभावित हुए। शुरूआती दौर में बतौर अभिनेता वर्ष 1932 में प्रदर्शित एक उर्दू फिल्म ‘मोहब्बत के आंसू’ में उन्हें काम करने का मौका मिला। वर्ष 1932 में ही बतौर कलाकार उनकी दो और फिल्में ‘सुबह का सितारा’ और ‘जिंदा लाश’ भी प्रदर्शित हुई, लेकिन इन फिल्मों से उन्हें कोई खास पहचान नहीं मिली।

वर्ष 1933 में प्रदर्शित फिल्म ‘पूरन भगत’ की कामयाबी के बाद बतौर गायक सहगल कुछ हद तक फिल्म उद्योग में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। वर्ष 1933 में ही प्रदर्शित फिल्म ‘यहूदी की लड़की’, ‘चंडीदास’ और ‘रूपलेखा’ जैसी फिल्मों की कामयाबी से उन्होंने दर्शकों का ध्यान अपनी गायकी और अदाकारी की ओर आकर्षित किया। उन दिनों अभिनेता को अपने गाने स्वयं गाने पड़ते थे. पार्श्वगायन का कांसेप्ट अभी शुरू नहीं हुआ था.

वर्ष 1935 में शरत चंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित पी.सी.बरूआ निर्देशित फिल्म ‘देवदास’ की कामयाबी के बाद बतौर गायक-अभिनेता सहगल शोहरत की बुलंदियों पर जा पहुंचे। कई बंगाली फिल्मों के साथ-साथ न्यू थियेटर के लिए उन्होंने 1937 में ‘प्रेंसिडेंट’, 1938 में ‘साथी’ और ‘स्ट्रीट सिंगर’ तथा वर्ष 1940 में ‘जिंदगी’ जैसी कामयाब फिल्मों को अपनी गायिकी और अदाकारी से सजाया।

वर्ष 1941 में सहगल मुंबई के रणजीत स्टूडियो से जुड़ गए। वर्ष 1942 में प्रदर्शित उनकी ‘सूरदास’ और 1943 में ‘तानसेन’ ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता का नया इतिहास रचा। वर्ष 1944 में उन्होंने न्यू थियेटर की ही निर्मित फिल्म ‘मेरी बहन’ में भी काम किया।

वर्ष 1946 में सहगल ने संगीत सम्राट नौशाद के संगीत निर्देशन में फिल्म ‘शाहजहां’ में ‘गम दिए मुस्तकिल’ और ‘जब दिल ही टूट गया’ जैसे गीत गाकर अपना अलग समां बांधा। सहगल के सिने करियर में उनकी संगीतकार पंकज मलिक के साथ बहुत खूब जमी। सहगल और पंकज मलिक की जोड़ी वाली फिल्मों में ‘यहूदी की लड़की’(1933), ‘धरती माता’ (1938), ‘दुश्मन’ (1938), ‘जिंदगी’ (1940) और ‘मेरी बहन’ (1944) जैसी फिल्में शामिल हैं।

(इसी फोरम पर सागर की पोस्ट से साभार)

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और आज की हमारी शख्सियत हैं (18 जनवरी)
कुंदनलाल सहगल /Kundan Lal Saigal

अपने समय में सहगल अपनी मधुर आवाज़, गायकी, और अभिनय क्षमता के बल पर हिन्दुस्तानी फिल्म उद्योग पर एकछत्र राज्य किया. सन् 1937 में उनकी पहली बंगला फिल्म ‘दीदी’ रिलीज़ हुई थी जिसके बाद वे बंगाली संभ्रांत वर्ग के भी ह्रदय सम्राट बन गए थे. कहते हैं कि उनका बांग्ला गायन सुन कर गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोरे ने कहा था ‘की शुंदर गला तोमार ... आगे जानले कोतोई ना आनंद पेताम’..”

फिल्म ‘देवदास’ में सहगल के स्वर में एक ठुमरी रेकॉर्ड की गयी ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन’ जो पूर्व में उस्ताद करीम खां द्वारा गाई गयी थी. उस्ताद फ़िल्में देखना पसंद नहीं करते थे. किन्तु अपने कलकत्ता प्रवास के दौरान वह जिन नवाब साहब के यहाँ ठहरे थे उनके बहुत इसरार करने पर वह ‘देवदास फिल्म देखने के लिए तैयार हो गए. वह बेमन से गए थे लेकिन फिल्म देखते-देखते उनकी आँखें नम हो गई और जब वह गाना आया ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन’ तो सहगल की दर्द भरी आवाज़ में राग झिंझोटी में उक्त ठुमरी सुन कर उनकी आँखों से बेइख्तियार आंसू बहने लगे.

पिक्चर की समाप्ति पर उन्होंने इस नौजवान (सहगल) से मिलने की इच्छा व्यक्त की. नवाब साहब ने सहगल को बुलाने की पेशकश की. उस्ताद ने कहा कि नहीं, मैं खुद उसके पास चल कर जाऊंगा. कदाचित यह गौरव किसी फिल्म कलाकार को न मिला होगा कि इतना बड़ा गवैय्या खुद चल कर उसका गाना सुनने जाए. खां साहब ने मिल कर सहगल का गाना सुनने की अपनी ख्वाहिश बतायी. सहगल यह सुन कर मानो ज़मीन में गड़ गए. बोले कि यह आप क्या फरमा रहे है, मैं नाचीज़ तो आपके सामने गाना तो क्या जुबान भी नहीं खोल सकता. खां साहब ने कहा कि नहीं, यह मेरा हुक्म है.

सहगल इसे कैसे टाल सकते थे. उन्होंने उस्ताद के चरणों में सर झुकाया और हारमोनियम ले कर जैसे ही गाना शुरू किया, खां साहब की आँखों से फिर आंसुओं की धार बहने लगी. गाना ख़त्म हो जाने के बाद उस्ताद ने सहगल को गले लगा लिया और भावुक हो कर बोले कि तुम्हारे गाने में वो जादू है जो किसी भी रूह को बैचेन कर देगा.

उनकी गाई ग़ज़ल ‘ए कातिबे तकदीर मुझे इतना बता दे... ‘ (फिल्म: माई सिस्टर/ बेनर: न्यू थिएटर्स/ गीत: पंडित भूषन/ संगीत: पंकज मलिक) आज भी ग़ज़ल गायकों के लिए मार्ग दर्शक का स्थान रखती है. इसके अलावा सहगल द्वारा गाई गयी ग़ालिब की दो ग़जलें ‘नुक्ताचीं है ग़मे दिल ... ‘ (फिल्म: यहूदी के लडकी) तथा ‘दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गयी’ (फिल्म: कारवाने हयात) को उन्होंने जिस तर्ज़े बयानी और सोज़ में भीगी हुयी आवाज़ में गाया है कि आज भी सुनने वालों पर अपना जादू कायम रखे हुए हैं.

अंत में फिल्म स्ट्रीट सिंगर का सब से महत्वपूर्ण गीत ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए’ एक पारंपरिक ठुमरी है जिसे उस्ताद फैय्याज़ खां तथा अन्य कई उस्ताद गाया करते थे. किन्तु सहगल ने इसे शुद्ध भैरवी में गा कर सब को आश्चर्यचकित कर दिया. सहगल की मृत्यु के 65 साल बाद भी सहगल की आवाज़ का जादू ज्यों का त्यों बरकरार है.

(शरद दत्त जी की पुस्तक ‘के.एल.सहगल की जीवनी’ से प्रेरित).
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हरिवंशराय बच्चन / Harivansh Rai Bachchan
लेखक कवि और व्याख्याता



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