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Old 10-11-2012, 03:33 PM   #31
teji
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teji is a splendid one to beholdteji is a splendid one to beholdteji is a splendid one to beholdteji is a splendid one to beholdteji is a splendid one to beholdteji is a splendid one to beholdteji is a splendid one to behold
Default Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश

पुरुष तीन : पूछो नहीं। यह कहो - गिंजा।
स्त्री : या यार्क्स ? वहाँ इस वक्त ज्यादा लोग नहीं होते।
पुरुष तीन : मैंने कहा न...
स्त्री : अच्छा, उस छोटे रेस्तराँ में चले जहाँ के कबाब तुम्हें बहुत पसंद हैं? मैं तब के बाद कभी वहाँ नहीं गई।
पुरुष तीन : (हिचकिचाट के साथ) वहाँ ? जाता नहीं वैसे मैं वहाँ अब। …पर तुम्हारा वहीं के लिए मन हो तो चल भी सकते हैं।
स्त्री : देखो एक बात तो बता ही दूँ तुम्हें चलने से पहले।
पुरुष तीन : (छल्ले छोड़ता) क्या बात?
स्त्री : मैंने...कल एक फैसला कर लिया है मन में।
पुरुष तीन : हाँ-हाँ ?
स्त्री : वैसे उन दिनों भी सुनी होगी तुमने ऐसी बात मेरे मुँह से...पर इस बार सचमुच कर लिया है।
पुरुष तीन : (जैसे बात को आत्मसात करता) हूँ ।
पल-भर की खामोशी जिसमें वह कुछ सोचता हुआ इधर-उधर देखता है फिर जैसे किसी किताब पर आँख अटक जाने से उठ कर शेल्फ की तरफ चला जाता है।
स्त्री : उधर क्यों चले गए ?
पुरुष तीन : (शेल्फ से किताब निकलता) ऐसे ही ।...यह किताब देखना चाहता था जरा।
स्त्री : तुम्हें शायद विश्वास नहीं आया मेरी बात पर ?
पुरुष तीन : सुन रहा हूँ मैं।
स्त्री : मेरे लिए पहले भी असंभव था यहाँ यह सब सहना। तुम जानते ही हो। पर आ कर बिलकुल-बिलकुल असंभव हो गया है।
पुरुष तीन : (पन्ने पलटता) तो मतलब है....?
स्त्री : ठीक सोच रहे हो तुम।
पुरुष तीन : (किताब वापस रखता) हूँ !
स्त्री उठ कर उसकी तरफ आती है।
स्त्री : मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि मुझे हमेशा कितना अफसोस रहा है इस बात का कि मेरी वजह से तुम्हें भी...तुम्हें भी इतनी तकलीफ उठानी पड़ी है जिंदगी में।
पुरुष तीन : (अपनी गरदन सहलाता) देखो...सच पूछो, तो मैं अब ज्यादा सोचता ही नहीं इस बारे में।
टहलता हुआ उसके पास से आगे निकाल आता है।
स्त्री : मुझे याद है तुम कहा करते थे, 'सोचने से कुछ होना हो, तब तो सोचे भी आदमी।'
पुरुष तीन : हाँ...वही तो।
स्त्री : पर यह भी कि कल और आज में फर्क होता है। होता है न
पुरुष तीन : हाँ...होता है। बहुत-बहुत।
स्त्री : इसीलिए कहना चाहती हूँ तुमसे कि....।
बड़ी लड़की अंदर से आती है।
बड़ी लड़की : ममा, अंदर जो कपड़े इस्तरी के लिए रखे हैं... (पुरुष तीन को देख कर) हलो अंकल !
पुरुष तीन : हलो, हलो !...अरे वह ! यह तू ही है क्या ?
बड़ी लड़की : आपको क्या लगता है ?
पुरुष तीन : इतनी-सी थी तू तो ! (स्त्री से) कितनी बड़ी नजर आने लगी अब
स्त्री : हाँ...यह चेहरा निकल आया है !
पुरुष तीन : उन दिनों फ्राक पहना करती थी... ।
बड़ी लड़की : (सकुचाती) पता नहीं किन दिनों !
पुरुष तीन : याद है, कैसे मेरे हाथ पर काटा था इसने एक बार ? बहुत ही शैतान थी ।
स्त्री : (सिर हिला कर) धरी रह जाती है सारी शैतानी आखिर ।
बड़ी लड़की : बैठिए आप । मैं अभी आती हूँ उधर से ।
अहाते के दरवाजे की तरफ चल देती है।
पुरुष तीन : भाग कहाँ रही है ?
बड़ी लड़की : आ रही हूँ बस ।
चली जाती है
पुरुष तीन : कितनी गदराई हुई लड़की थी ! गाल इस तरह फुले-फुले थे...
स्त्री : सब पिचक जाते हैं गाल-वाल !
पुरुष तीन : पर मैंने तो सुना था कि...अपनी मर्जी से ही इसने...?
स्त्री : हाँ, अपनी मर्जी से ही। अपनी मर्जी का ही तो फल है यह कि...
पुरुष तीन : बात लेकिन काफी बड़प्पन से करती है?...
स्त्री : यह उम्र और इतना बड़प्पन ?... हाँ, तो चलें अब फिर ?
पुरुष तीन : जैसा कहो ।
स्त्री : (अपने पर्स में रूमाल ढूँढ़ती) कहाँ गया ? (रूमाल मिल जाने से पर्स बंद करती है।) है यह इसमें...तो कब तक लौट आऊँगी मैं ? इसलिए पूछ रही हूँ कि उसी तरह कह जाऊँ इससे ताकि...
पुरुष तीन : तुम पर है यह। जैसा भी कह दो ।
स्त्री : कह देती हूँ-शायद देर हो जाए मुझे । कोई आनेवाला है, उसे भी बता देगी ।
पुरुष तीन : कोई और आनेवाला है ?
स्त्री : जुनेजा। वही आदमी जिसकी वजह से...तुम जानते ही हो सब । (अहाते की तरफ देखती) बिन्नी!(जवाब न मिलने से) बिन्नी! ...कहाँ चली गई यह ?
अहाते के दरवाजे से जा कर उधर देख लेती है और कुछ उत्तेजित-सी हो कर लौट आती है।
: पता नहीं कहाँ चली गई यह लड़की भी अब... !
पुरुष तीन : इंतजार कर लो ।
स्त्री : नहीं, वह आदमी आ गया तो, मुश्किल हो जाएगी । मुझे बहुत जरूरी बात करनी है तुमसे। आज ही। अभी ।
पुरुष तीन : (नया सिगरेट सुलगता) तो ठीक है। एट योर डिस्पोजल ।
स्त्री : (इस तरह कमरे को देखती जैसे कि कोई चीज वहाँ छूटी जा रही हो) हाँ...आओ ।
पुरुष तीन : (चलते-चलते रुक कर ) लेकिन...घर इस तरह अकेला छोड़ जाओगी ?
स्त्री : नहीं, अभी आ जाएगा कोई-न-कोई ।
पुरुष तीन : (छल्ले छोड़ता ) तुम्हारे ऊपर है जैसा भी ठीक समझो ।
स्त्री : (फिर एक नजर कमरे पर डाल कर) मेरे लिए तो...आओ
पुरुष तीन पहले निकल जाता है। स्त्री फिर से पर्स खोल कर उसमें कोई चीज ढूँढ़ती पीछे -पीछे। कुछ क्षण मंच खाली रहता है। फिर बाहर से छोटी लड़की के सिसक कर रोने का स्वर सुनाई देता है। वह रोती हुई अंदर आ कर सोफे पर औंधे हो जाती है। फिर उठ कर कमरे के खालीपन पर नजर डालती है और उसी तरह रोती-सिसकती अंदर के कमरे में चली जाती है। मंच फिर दो-एक क्षण खाली रहता है। उसके बाद बड़ी लड़की चाय की ट्रे के लिए अहाते के दरवाजे से आती है।
बड़ी लड़की : अरे ! चले भी गए ये लोग ?
ट्रे डायनिंग टेबल पर छोड़ कर बाहर के दरवाजे तक आती है , एक बार बाहर देख लेती है और कुछ क्षण अंतमुख भाव से वहीं रुकी रहती है। फिर अपने की झटक कर वापस डायनिंग टेबल की तरफ चल देती है।
: कैसे पथरा जाता है सिर कभी-कभी।
रास्ते में ड्रेसिंग टेबल के बिखराव को देख कर रुक जाती है और जल्दी से वहाँ की चीजों को सहेज देती है।
: जरा ध्यान न दे आदमी...जंगल हो जाता है सब।
वहाँ से हट कर डायनिंग टेबल के पास आ जाती है और अपने लिए चाय की प्याली बनाने लगती है। छोटी लड़की उसी तरह सिसकती अंदर से आती है।
छोटी लड़की : जब नहीं हो-होना होता, तो सब लोग होते हैं सिर पर। और जब हो-होना होता है तो कोई भी नहीं दि-दिखता कहीं।
बड़ी लड़की चाय बनाना बीच में छोड़ कर उसकी तरफ बढ़ आती है।
बड़ी लड़की : किन्नी ! यह फिर क्या हुआ तुझे ? बाहर से कब आई तू ?
छोटी लड़की : कब आई मैं ! यहाँ पर को- कोई भी क्यों नहीं था ? तू-तुम भी कहाँ थी थोड़ी देर पहले ?
बड़ी लड़की : मैं चाय की पत्ती लाने चली गई थी ।...किसने, अशोक ने मारा है तुझे ?
छोटी लड़की : वह भी क-कहाँ था इस वक्त ? मेरे कान खिंचने के लिए तो पता नहीं क-कहाँ से चला आएगा। पर ज-जब सुरेखा की ममी से बात करने की बात की थी, त-त्तो ?
बड़ी लड़की : सुरेखा की ममी ने कुछ कहा है तुमसे ?
छोटी लड़की : ममा कहाँ हैं ? मुझे उन्हें स-साथ ले कर जाना है वहाँ।
बड़ी लड़की : कहाँ ? सुरेखा के घर ?
छोटी लड़की : सुरेखा की ममी बुला रही हैं उन्हें। कहती हैं, अभी ले-ले कर आ।
बड़ी लड़की : पर किस बात के लिए ?
छोटी लड़की : अशोक को देख लिया था सबने हम लोगों को डाँटते। सुरेखा की ममी ने सुरखा को घ-घर में ले जा कर पिटा, तो उसने...उसने म-मेरा नाम लगा दिया।
बड़ी लड़की : क्या कहा ?
छोटी लड़की : कि मैं सिखाती हूँ उसे वे सब ब-बातें।
बड़ी लड़की : तो...सुरेखा कि ममी ने मुझे बुलाया इस तरह डाँटा है जैसे...पहले बताओ, ममा कहाँ हैं ? मैं उन्हें अभी स-साथ ले कर जाऊँगी। क-कहती हैं, मैं उनकी लड़की को बिगाड़ रही हूँ। और भी बु-बुरी बातें हमारे घर को ले कर।
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Old 10-11-2012, 03:36 PM   #32
teji
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बड़ी लड़की : ममा बाहर गई हैं।
छोटी लड़की : बाहर कहाँ ?
बड़ी लड़की : तुझे सब जगह का पता है कि कहाँ-कहाँ जाया जा सकता है बाहर ?
छोटी लड़की : (और बिफरती) तु-तुम भी मुझी को डाँट रही हो ? ममा नहीं हैं तो तुम चलो मेरे साथ।
बड़ी लड़की : मैं नहीं चल सकती।
छोटी लड़की : (ताव में) क्यों नहीं चल सकती ?
बड़ी लड़की : नहीं चल सकती कह दिया न।
छोटी लड़की : (उसे परे धकेलती) मत चलो, नहीं चल सकती तो।
बड़ी लड़की : (गुस्से से) किन्नी !
छोटी लड़की : बात मत करो मुझसे। किन्नी !
बड़ी लड़की : तुझे बिलकुल तमीज नहीं है क्या ?
छोटी लड़की : नहीं है मुझे तमीज।
ड़ी लड़की : देख, तू मुझसे ही मार खा बैठेगी आज।
छोटी लड़की : मार लो न तुम।...इनसे ही म-मार खा बैठूँगी आज।
बड़ी लड़की : तू इस वक्त यह रोना बंद करेगी या नहीं।
छोटी लड़की : नहीं करूँगी।...रोना बंद करेगी या नहीं ?
बड़ी लड़की : तो ठीक है। रोती रह बैठ कर।
छोटी लड़की : रो-रोती रह बैठ कर।
अहाते के पीछे से दरवाजे की कुंडी खटखटाने की आवाज सुनाई देती है।
बड़ी लड़की : (उधर देख कर) यह...यह इधर से कौन आया हो सकता है इस वक्त ?
जल्दी से अहाते के दरवाजे से चली जाती है। छोटी लड़की विद्रोह के भाव से कुरसी पर जम जाती है। बड़ी लड़की पुरुष चार के साथ वापस आती है।
: (आती हुई) मैंने सोचा कि कौन हो सकता है पीछे का दरवाजा खटखटाए। आपका पता था, आप आनेवाले हैं। पर आप तो हमेशा आगे के दरवाजे से ही आते हैं, इसलिए...।
पुरुष चार : मैं उसी दरवाजे से आता, लेकिन...(छोटी लड़की को देख कर) इसे क्या हुआ है ? इस तरह क्यों बैठी है वहाँ ?
बड़ी लड़की : (छोटी लड़की से) जुनेजा अंकल आए हैं, इधर आ कर बात तो कर इनसे।
छोटी लड़की मुँह फेर कर कुरसी की पीठ पर बैठ कर बाँह फैला लेती है।
पुरुष चार : (छोटी लड़की के पास आता) अरे ! यह तो रो रही है। (उसके सिर पर हाथ फेरता) क्यों ? क्या हुआ मुनिया को ? किसने नाराज कर दिया ? (पुचकारता) उठो बेटे, इस तरह अच्छा नहीं लगता। अब आप बड़े हो गए हैं, इसलिए....।
छोटी लड़की : (सहसा उठ कर बाहर को चलती) हाँ...बड़े हो गए हैं। पता नहीं किस वक्त छोटे हो जाते हैं, किस वक्त बड़े हो जाते हैं ! (बाहर के दरवाजे के पास से) हम नहीं लौट कर आएँगे अब...जब तक ममा नहीं आ जातीं ।
चली जाती है।
पुरुष चार : (लौट कर बड़ी लड़की के तरफ आता) सावित्री बाहर गई है?
बड़ी लड़की सिर्फ सिर हिला देती है।
: मैं थोड़ी देर पहले गया था। बाहर सड़क पर न्यू इंडिया की गाड़ी देखी, तो कुछ देर पीछे को घूमने निकल गया। तेरे डैडी ने बताया था, जगमोहन आजकल यहीं है - फिर से ट्रांसफर हो कर आ गया है।...वह ऐसे ही आया था मिलने, या...?
बड़ी लड़की : ममा को पता होगा। मैं नहीं जानती ।
पुरुष चार : अशोक ने जिक्र नहीं किया मुझसे। उसे भी पता नहीं होगा शायद।
बड़ी लड़की : अशोक मिला है आपसे ?
पुरुष चार : बस स्टाप पर खड़ा था। मैंने पूछा, तो बोला कि आप ही के यहाँ जा रहा हूँ डैडी का हालचाल पता करने। कहने लगा, आप भी चलिए, बाद में साथ ही आएँगे पर मैंने सोचा कि एक बार जब इतनी दूर आ ही गया हूँ, तो सावित्री से मिल कर ही जाऊँ । फिर उसे भी जिस हाल में छोड़ आया हूँ, उसकी वजह से... ।
बड़ी लड़की : किसकी बात कर रहे हैं....डैडी की ?
पुरुष चार : हाँ, महेंद्रनाथ की ही। एक तो सारी रात सोया नहीं वह। दूसरे...।
बड़ी लड़की : तबीयत ठीक नहीं उनकी ?
पुरुष चार : तबीयत भी ठीक नहीं और वैसे भी...मैं तो समझता हूँ, महेंद्रनाथ खुद जिम्मेदार है अपनी यह हालत करने के लिए ।
बड़ी लड़की : (उस प्रकरण से बचना चाहती) चाय बनाऊँ आपके लिए ?
पुरुष चार : (चाय का समान देख कर) किसके लिए बनाई बैठी थी इतनी चाय ? पी नहीं लगता किसी ने ?
बड़ी लड़की : (असमंजस में) यह मैंने बनाई थी क्योंकि...क्योंकि सोच रही थी कि...
पुरुष चार : (जैसे बात को समझ कर) वे लोग चले गए होंगे।...सावित्री को पता था न, मैं आनेवाला हूँ ?
बड़ी लड़की : (आहिस्ता से) पता था।
पुरुष चार : यह भी बताया नहीं मुझे अशोक ने...पर उसके लहजे से ही मुझे लग गया था कि...(फिर जैसे कोई बात समझ में आ जाने से) अच्छा, अच्छा, अच्छा ! काफी समझदार लड़का है ।
बड़ी लड़की : (चीनीदानी हाथ में लिए) चीनी कितनी ?
पुरुष चार : चीनी बिलकुल नहीं। मुझे मना है चीनी। वह शायद इसीलिए मुझे वापस ले चलना चाहता था कि...कि उसे मालूम होगा जगमोहन का।
बड़ी लड़की : दूध ?
पुरुष चार : हमेशा जितना।
बड़ी लड़की : कुछ नमकीन लाऊँ अंदर से ?
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Old 10-11-2012, 03:37 PM   #33
teji
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पुरुष चार : नहीं।
बड़ी लड़की : बैठ जाइए ।
पुरुष चार : ओ, हाँ !
वही एक कुरसी खींच कर बैठ जाता है। बड़ी लड़की एक प्याली उसे दे कर दूसरी प्याली खुद ले कर बैठ जाती है। कुछ पल खामोशी।
बड़ी लड़की : कहाँ-कहाँ घूम आए इस बीच? सुना था कहीं बाहर गए थे ?
पुरुष चार : हैं, गया था बाहर। पर किसी नई जगह नहीं गया।
फिर कुछ पल खामोशी।
बड़ी लड़की : सुषमा का क्या हाल है ?
पुरुष चार : ठीक-ठाक है अपने घर में।
बड़ी लड़की : कोई बच्चा-अच्चा ?
पुरुष चार : अभी नहीं।
फिर कुछ पल खामोशी।
बड़ी लड़की : आप तो बिलकुल चुप बैठे हैं। कोई बात कीजिए न !
पुरुष चार : (उसाँस के साथ) क्या बात करूँ ?
बड़ी लड़की : कुछ भी ।
पुरुष चार : सोच कर तो बहुत-सी बातें आया था। सावित्री होती तो शायद कुछ बात करता भी पर अब लग रहा है बेकार ही है सब।
फिर कुछ पल खामोशी। दोनों लगभग एक साथ अपनी-अपनी प्याली खाली करके रख देते हैं।
बड़ी लड़की : एक बात पूछूँ - डैडी को फिर से वही दौरा तो नहीं पड़ा, ब्लड प्रेशर का ?
पुरुष चार : यह भी पूछने की बात है ?
बड़ी लड़की : आप उन्हें समझाते क्यों नहीं कि....
पुरुष चार : (उठता हुआ) कोई समझा सकता है उसे ? वह इस औरत को इतना चाहता है अंदर से कि...
बड़ी लड़की : यह आप कैसे कह सकते हैं ?
पुरुष चार : तुझे लगता है यह बात सही नहीं है ?
बड़ी लड़की : (उठती हुई) कैसे सही हो सकती है? (अंतर्मुख भाव से)...आप नहीं जानते, हमने इन दोनों के बीच क्या-क्या गुजरते देखा है इस घर में।
पुरुष चार : देखा जो कुछ भी हो....
बड़ी लड़की : इतने साधारण ढंग से उड़ा देने की बात नहीं है, अंकल ! मैं यहाँ थी, तो मुझे कई बार लगता था कि मैं एक घर में नहीं, चिड़ियाघर के एक पिंजरे में रहती हूँ जहाँ...आप शायद सोच भी नहीं सकते कि क्या-क्या होता रहा है यहाँ। डैडी का चीखते हुए ममा के कपड़े तार-तार कर देना...उनके मुँह पर पट्टी बाँध कर उन्हें बंद कमरे में पीटना...खींचते हुए गुसलखाने में कमोड पर ले जा कर...(सिहर कर) मैं तो बयान भी नहीं कर सकती कि कितने-कितने भयानक दृश्य देखे हैं इस घर में मैंने। कोई भी बाहर का आदमी उस सबको देखता-जानता, तो यही कहता कि क्यों नहीं बहुत पहले ही ये लोग...?
पुरुष चार : तूने नई बात नहीं बताई कोई। महेन्द्रनाथ खुद मुझे बताता रहा है यह सब।
बड़ी लड़की : बताते रहे हैं ? फिर भी आप कहते हैं कि... ?
पुरुष चार : फिर भी कहता हूँ कि वह इसे बहुत प्यार करता है।
ड़ी लड़की : कैसे कहते हैं यह आप ? दो आदमी जो रात-दिन एक-दूसरे की जान नोंचने में लगे रहते हों ...?
पुरुष चार : मैं दोनों की नहीं, एक की बात कह रहा हूँ ।
बड़ी लड़की : तो आप सचमुच मानते हैं कि...?
पुरुष चार : बिलकुल मानता हूँ, इसीलिए कहता हूँ कि अपनी आज की हलात के लिए जिम्मेदार महेन्द्र नाथ खुद है। अगर ऐसा न होता, तो आज सुबह से ही रिरिया कर मुझसे न कह रहा होता कि जैसा भी हो मैं इससे बात करके इसे समझाऊँ। मै इस वक्त यहाँ न आया होता, तो पता है क्या होता ?
बड़ी लड़की : क्या होता ?
पुरुष चार : महेन्द्र खुद यहाँ चला आया होता। बिना परवाह किए कि यहाँ आ कर इस ब्लेड प्रेशर में उसका क्या हाल होता और ऐसा पहली बार न होता, तुझे पता ही है। मैने कितनी मुश्किल से समझा-बुझा कर उसे रोका है, मैं ही जानता हूँ। मेरे मन में थोड़ा-सा भरोसा बाकी था कि शायद अब भी कुछ हो सके... मेरे बात करने से ही कुछ बात बन सके। पर आ कर बाहर न्यू इंडिया की गाड़ी देखी, तो मुझे लगा कि नही, कुछ नहीं हो सकता। कुछ नही हो सकता। बात करके मै सिर्फ आपको...मेरा खयाल है चलना चाहिए अब। जाते हुए मुझे उसके लिए दवाई भी ले जानी है।...अच्छा।
बाहर के दरवाजे की तरफ चल देता है। बड़ी लड़की अपनी जगह पर जड़-सी खड़ी रहती है। फिर-एक कदम उसकी तरफ बढ़ जाती है।
बड़ी लड़की : अंकल !
पुरुष चार : (रुक कर) कहो।
बड़ी लड़की : आप जा कर डैडी को यह बात बता देंगे ?
पुरुष चार : कौन-सी ?
बड़ी लड़की : यही ...जगमोहन अंकल के आने की ?
पुरुष चार : क्यों...नही बतानी चाहिए ?
बड़ी लड़की : ऐसा है कि...
पुरुष चार : (हलके से आँख मूँद कर खोलता) मैं न भी बताऊँ शायद पर कुछ फर्क नहीं पड़ने का उससे।...बैठ तू।
दरवाजे से बाहर जाने लगता है।
बड़ी लड़की : अंकल ?
पुरुष चार : (और फिर रुक कर) हाँ, बेटे !
बड़ी लड़की : सचमुच कुछ नही हो सकता क्या ?
पुरुष चार : एक दिन के लिए हो सकता है शायद। दो दिन के लिए हो सकता है। पर हमेशा के लिए... कुछ भी नहीं।
बड़ी लड़की : तो उस हालत से क्या यहीं बेहतर नहीं कि... ?
बाहर से स्त्री के स्वर सुनाई देते हैं।
स्त्री : छोड़ दे मेरा हाथ। छोड़ भी ।
बड़ी लड़की : आ गई हैं वे लौट कर।
पुरुष चार : हाँ।
बाहर जाने के बजाय होंठ चबाता डाइनिंग टेबल की तरफ बढ़ जाता है। स्त्री छोटी लड़की के साथ आती है। छोटी लड़की उसे बाँह से बाहर खींच रही है।
छोटी लड़की : चलती क्यों नहीं तुम मेरे साथ ? चलो न !
स्त्री : (बाँह छुड़ाती) तू हटेगी या नहीं ?
छोटी लड़की : नहीं हटूँगी। उस वक्त तो घर पर नहीं थी, और अब कहती हो... ।
स्त्री : छोड़ मेरी बाँह ।
छोटी लड़की : नहीं छोड़ूँगी ।
स्त्री : नहीं छोड़ेगी ? (गुस्से से बाँह छुड़ा कर उसे परे धकेलती) बड़ा जोम चढ़ने लगा है तुझे !
छोटी लड़की : हाँ, चढ़ने लगा है। जब-जब कोई बात कहता मुझसे, यहाँ किसी को फुरसत नहीं होती चल कर उससे पूछने की।
बड़ी लड़की : उन्हें साँस तो लेने दे। वे अभी घर में दाखिल नहीं हुई कि तूने...।
छोटी लड़की : तुम बात मत करो। मिट्टी के लोंदे की तरह हिली नहीं जब मैंने...।
स्त्री : (उसे फ्राक से पकड़ कर) फिर से कह जो कहा है तूने !
छोटी लड़की : (अपने को छुड़ाने के लिए संघर्ष करती) क्या कहा है मैंने ? पूछो इनसे जब मैंने आ कर इन्हें बताया था, तो...।
पल-भर की खामोशी जिसमें सबकी नजरें स्थिर हो रहती हैं - छोटी लड़की की स्त्री पर और शेष सबकी छोटी लड़की पर।
छोटी लड़की : (अपने आवेश से बेबस) मिट्टी के लोंदे !...सब-के-सब मिट्टी के लोंदे !
पुरुष चार : (उनकी तरफ आता) छोड़ दो लड़की को, सावित्री ! उस पर इस वक्त पागलपन सवार है, इसलिए...।
स्त्री : आप मत पड़िए बीच में।
पुरुष चार : देखो...।
स्त्री : आपसे कहा है, आप मत पड़िए बीच में। मुझे अपने घर में किससे किस तरह बरतना चाहिए, यह मैं औरों से बेहतर जानती हूँ। (छोटी लड़की के एक और चपत जड़ती) इस वक्त चुपचाप चली जा उस कमरे में। मुँह से एक लफ्ज भी और कहा, तो खैर नहीं तेरी।
छोटी लड़की के केवल होंठ हिलते हैं। शब्द उसके मुँह से कोई नहीं निकल पाता। वह घायल नजर से स्त्री को देखती उसी तरह खड़ी रहती है।
: जा उस कमरे में। सुना नहीं ?
छोटी लड़की फिर भी खड़ी रहती है।
: नहीं जाएगी ?
छोटी लड़की दाँत पीस कर बिना कुछ कहे एकाएक झटके से अंदर के कमरे में चली जाती है। स्त्री जा कर पीछे से दरवाजे की कुंडी लगा देती है।
: तुझसे समझूँगी अभी थोड़ी देर में।
बड़ी लड़की : बैठिए, अंकल !
पुरुष चार : नहीं, मैं अभी जाऊँगा।
स्त्री : (उसकी तरफ आती) आपको कुछ बात करनी थी मुझसे...बताया था इसने।
पुरुष चार : हाँ...पर इस वक्त तुम ठीक मूड में नहीं हो...।
स्त्री : मैं बिलकुल ठीक मूड में हूँ। बताइए आप।
बड़ी लड़की : अंकल कह रहे थे, डैडी की तबीयत फिर ठीक नहीं है।
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स्त्री : घर से जा कर तबीयत ठीक कब रहती है उनकी ? हर बार का यही एक किस्सा नहीं है ?
बड़ी लड़की : तुम थकी हुई हो। अच्छा होगा जो भी बात करनी हो, बैठ कर आराम से कर लो।
स्त्री : मैं बहुत आराम से हूँ (पुरुष चार से) बताइए आप ।
पुरुष चार : ज्यादा बात अब नहीं करना चाहता। सिर्फ एक ही बात कहना चाहता हूँ तुमसे।
स्त्री : (पल-भर प्रतीक्षा करने के बाद) कहिए।
पुरुष चार : तुम किसी तरह छुटकारा नहीं दे सकती उस आदमी को ?
स्त्री : छुटकारा ? मैं ? उन्हें ? कितनी उल्टी बात है !
पुरुष चार : उलटी बात नहीं है। तुमने जिस तरह से बाँध रखा है उसे अपने साथ.... ।
स्त्री : उन्हें बाँध रखा है ? मैंने अपने साथ... ? सिवा आपके कोई नहीं कह सकता यह बात।
पुरुष चार : क्योंकि और कोई जानता भी तो नहीं उतना जितना मैं जानता हूँ।
स्त्री : आप हमेशा यही मानते आए है कि आप बहुत ज्यादा जानते हैं। नहीं ?
पुरुष चार : महेंद्रनाथ के बारे में, हाँ। और जान कर ही कहता हूँ कि तुमने इस तरह शिकंजे में कस रखा है उसे कि वह अब अपने दो पैरों पर चल सकने लायक भी नहीं रहा।
स्त्री : अपने दो पैरों पर ! अपने दो पैर कभी थे भी उसके पास ?
पुरुष चार : कभी बात क्यों करती हो ? जब तुमने उसे जाना, तब से दस साल पहले से मैं उसे जानता हूँ।
स्त्री : इसीलिए शायद जब मैंने जाना, तब तक अपने दो पैर रहे नहीं थे उसके पास।
पुरुष चार : मैं जानता हूँ सावित्री, कि तुम मेरे बारे में क्या-क्या सोचती और कहती हो...।
स्त्री : जरूर जानते होंगे...लेकिन फिर भी कितना कुछ है जो सावित्री कभी किसी के सामने नहीं कहती।
पुरुष चार : जैसे ?
स्त्री : जैसे...पर बात तो आप करने आए हैं।
पुरुष चार : नहीं। पहले तुम बात कर लो (बड़ी लड़की से) तू बेटे, जरा उधर चली जा थोड़ी देर।
बड़ी लड़की चुपचाप जाने लगती है।
स्त्री : सुन लेने दीजिए इसे भी, अगर मुझे बात करनी है तो।
पुरुष चार : ठीक है यहीं रह तू, बिन्नी !
बड़ी लड़की : पर मैं सोचती हूँ कि...
स्त्री : मैं चाहती हूँ तू यहाँ रहे, तो किसी वजह से ही चाहती हूँ।
बड़ी लड़की आहिस्ता से आँखें झपका कर उन दोनों से थोड़ी दूर डायनिंग टेबल कि कुरसी पर जा बैठती है।
पुरुष चार : (स्त्री से) बैठ जाओ तुम भी।
कटता हुआ खुद सोफे पर बैठ जाता है। स्त्री एक मोढ़ा ले लेती है।
: कह डालो अब जो भी कहना है तुम्हें।
स्त्री : कहने से पहले एक बात पूछनी है आप से। आदमी किस हालत में सचमुच एक आदमी होता है ?
पुरुष चार : पूछो कुछ नहीं। जो कहना है, कह डालो।
स्त्री : यूँ तो जो कोई भी एक आदमी की तरह चलता-फिरता, बात करता हैं, वह आदमी ही होता है...। पर असल में आदमी होने के लिए क्या जरूरी नहीं कि उसमें अपना एक माद्दा, अपनी एक शख्सियत हो ?
पुरुष चार : महेंद्र को सामने रख कर यह तुम इसलिए कह रही हो कि...
स्त्री : इसलिए कह रही हूँ कि जब से मैंने उसे जाना है, मैंने हमेशा हर चीज के लिए किसी-न-किसी का सहारा ढूँढ़ते पाया है। खास तौर से आपका। यह करना चाहिए या नहीं - जुनेजा से राय ले लूँ। कोई छोटी-से-छोटी चीज खरीदनी है, तो भी जुनेजा की पसंद से। कोई बड़े-से-बड़ा खतरा उठाता है - तो भी जुनेजा की सलाह से। यहाँ तक कि मुझसे ब्याह करने का फैसला भी कैसे किया उसने ? जुनेजा के हामी भरने से।
पुरुष चार : मैं दोस्त हूँ उसका। उसे भरोसा रहा है मुझ पर।
स्त्री : और उस भरोसे का नतीजा ?... कि अपने-आप पर उसे कभी किसी चीज के लिए भरोसा नहीं रहा। जिंदगी में हर चीज कि कसौटी - जुनेजा। जो जुनेजा सोचता है, जो जुनेजा चाहता है, जो जुनेजा करता है, वही उसे भी सोचना है, वही उसे भी चाहना है, वही उसे भी करना है। क्योंकि जुनेजा तो खुद एक पूरे आदमी का आधा-चौथाई भी नहीं हैं।
पुरुष चार : तुम इस नजर से देख सकती हो इस चीज को; पर असलियत इसकी यह है कि...
स्त्री : (खड़ी होती) मुझे उस असलियत की बात करने दीजिए जिसे मैं जानती हूँ।...एक आदमी है। घर बसाता है। क्यों बसाता है ? एक जरूरत पूरी करने के लिए। कौन-सी जरूरतें ? अपने अंदर से किसी उसको...एक अधूरापन कह दीजिए उसे...उसको भर सकने की। इस तरह उसे अपने लिए...अपने में पूरा होना होता है । किन्हीं दूसरों के पूरा करते रहने में ही जिंदगी नहीं काटनी होती। पर आपके महेंद्र के लिए जिंदगी का मतलब रहा है...जैसे सिर्फ दूसरों के खाली खाने भरने की ही चीज है वह। जो कुछ वे दूसरे उससे चाहते हैं, उम्मीद करतें हैं...या जिस तरह वे सोचते हैं उनकी जिंदगी में उसका इस्तेमाल हो सकता है।
पुरुष चार : इस्तेमाल हो सकता है?
स्त्री : नहीं ? इस काम के लिए और कोई नहीं जा सकता, महेंद्र चला जाएगा। इस बोझ को और कोई नहीं ढो सकता, महेंद्रनाथ ढो लेगा। प्रेस खुला, तो भी। फैक्टरी शुरू हुई, तो भी। खाली खाने भरने की जगह पर महेंद्रनाथ अपना हिस्सा पहले ही ले चुका है, पहले ही खा चुका है। और उसका हिस्सा ? (कमरे के एक-एक सामान की तरफ इशारा करती) ये ये ये ये ये दूसरे-तीसरे-चौथे दरजे की घटिया चीजें जिनसे वह सोचता था, उसका घर बन रहा है ?
पुरुष चार : महेंद्रनाथ बहुत जल्दबाजी बरतता था इस मामले में, मैं जानता हूँ। मगर वजह इसकी...
स्त्री : वजह इसकी मैं थी-यही कहना चाहते हैं न ? वह मुझे खुश रखने के लिए ह यह लोहा-लकड़ी जल्दी-से-जल्दी घर में भर कर हर बार अपनी बरबादी की नींव खोद लेता था। पर असल में उसकी बरबादी की नींव क्या चीज खोद रही थी...क्या चीज और कौन आदमी...अपने दिल में तो आप भी जानते होंगे।
पुरुष चार : कहती रहो तुम। मैं बुरा नहीं मान रहा। आखिर तुम महेंद्र की पत्नी हो और...
स्त्री : (आवेश में उसकी तरफ मुड़ती) मत कहिए मुझे महेंद्र की पत्नी। महेंद्र भी एक आदमी है, जिसके अपना घर-बार है, पत्नी है, यह बात महेंद्र को अपना कहनेवालों को शुरू से ही रास नहीं आई। महेंद्र ने ब्याह क्या किया, आप लोगों की नजर में आपका ही कुछ आपसे छीन लिया। महेंद्र अब पहले की तरह हँसता नहीं। महेंद्र अब दोस्तों में बैठ कर पहले की तरह खिलता नहीं ! महेंद्र अब पहलेवाला महेंद्र रह ही नहीं गया ! और महेंद्र ने जी-जान से कोशिश की, वह वही बना रहे किसी तरह। कोई यह न कह सके जिससे कि वह पहलेवाला महेंद्र रह ही नहीं गया। और इसके लिए महेंद्र घर के अंदर रात-दिन छटपटाता है। दीवारों से सिर पटकता है। बच्चों को पीटता है। बीवी के घुटने तोड़ता है। दोस्तों को अपना फुरसत का वक्त काटने के लिए उसकी जरूरी है। महेंद्र के बगैर कोई पार्टी जमती नहीं ! महेंद्र के बगैर किसी पिकनिक का मजा नहीं आता था ! दोस्तों के लिए जो फुरसत काटने का वसीला है, वही महेंद्र के लिए उसका मुख्य काम है जिंदगी में। और उसका ही नहीं, उसके घर के लोगों का भी वही मुख्य काम होना चाहिए। तुम फलाँ जगह चलने से इन्कार कैसे कर सकती हो ? फलाँ से तुम ठीक तरह से बात क्यों नहीं करतीं ? तुम अपने को पढ़ी-लिखी कहती हो ?...तुम्हें तो लोगों के बीच उठने-बैठने की तमीज नहीं। एक औरत को इस तरह चलना चाहिए, इस तरह बात करनी चाहिए, इस तरह मुस्कराना चाहिए। क्यों तुम लोगों के बीच हमेशा मेरी पोजीशन खराब करती हो? और वही महेन्द्र जो दोस्तों के बीच दब्बू-सा बना हलके-हलके मुस्कराता है, घर आ कर एक दारिंदा बन जाता है। पता नहीं, कब किसे नोच लेगा, कब किसे फाड़ खाएगा ! आज वह ताव में अपनी कमीज को आग लगा लेता है। कल वह सावित्री की छाती पर बैठ कर उसका सिर जमीन से रगड़ने लगता है। बोल, बोल, बोल, चलेगी उस तरह कि नहीं जैसे मैं चाहता हूँ ? मानेगी वह सब कि नहीं जो मैं कहता हूँ ? पर सावित्री फिर भी नही चलती। वह सब नहीं मानती। वह नफरत करती है इस सबसे - इस आदमी के ऐसा होने से। वह एक पूरा आदमी चाहती है अपने लिए एक...पूरा...आदमी। गला फाड़ कर वह यह बात कहती है। कभी इस आदमी को ही यह आदमी बना सकने की कोशिश करती है। कभी तड़प कर अपने को इससे अलग कर लेना चाहती है। पर अगर उसकी कोशिशों से थोड़ा फर्क पड़ने लगता है इस आदमी में, तो दोस्तों में इनका गम मनाया जाने लगता है। सावित्री महेन्द्र की नाक में नकेल डाल कर उसे अपने ढंग से चला रही है। सावित्री बेचारे महेन्द्र की रीढ़ तोड़ कर उसे किसी लायक नहीं रहने दे रही है ! जैसे कि आदमी न हो कर बिना हाड़-मांस का टुकड़ा हो वह एक - बेचारा महेन्द्र!
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Old 10-11-2012, 03:38 PM   #35
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हाँफती हुई चुप कर जाती है। बड़ी लड़की कुहनियाँ मेज पर रखे और मुट्ठियों पर चहेरा टिकाए पथराई आँखों से चुपचाप दोनों को देखती है।
पुरुष चार : (उठता हुआ) बिना हड़-मांस का पुतला, या जो भी कह लो तुम उसे - पर मेरी नजर में वह हर आदमी जैसे एक आदमी है-सिर्फ इतनी ही कमी है उसमें।
स्त्री : यह आप मुझे बता रहे हैं ? जिसने बाईस साल साथ जी कर जाना है उस आदमी को ?
पुरुष चार : जिया जरूर है तुमने उसके साथ...जाना भी है उसे कुछ हद तक...लेकिन...
स्त्री : (हताशा से सिर हिलती है) ओफ्फ़ोह! ओफ्फ़ोह! ओफ्फ़ोह !
पुरुष चार : जो-जो बातें तुमने कही हैं अभी, वे गलत नहीं हैं अपने में। लेकिन बाईस साल जी कर जानी हुई बातें वे नहीं हैं। आज से बाईस साल पहले भी एक बार लगभग ऐसी ही बातें मैं तम्हारे मुँह से सुन चुका हूँ - तुम्हें याद हैं ?
स्त्री : आप आज ही की बात नहीं कर सकते ? बाईस साल पहले पता नहीं किस जिंदगी की बात हैं वह ?
पुरुष चार : मेरे घर हुई थी वह बात। तुम बात करने के लिए खास आई थीं वहाँ, और मेरे कंधे पर सिर रखे देर तक रोती रही थीं। तब तुमने कहा था कि...
स्त्री : देखिए, उन दिनों की बात अगर छेड़ना ही चाहते हैं आप, तो मैं चाहूँगी कि यह लड़की...
पुरुष चार : क्या हर्ज है अगर यह यहीं रहे तो ? जब आधी बात उसके सामने हुई है, तो बाक़ी आधी भी इसके सामने ही हो जानी चाहिए।
बड़ी लड़की : (उठने को हो कर) लेकिन अंकल... !
पुरुष चार : (स्त्री से) तुम समझती हो कि इसके सामने मुझे नहीं करनी चाहिए यह बात ?
स्त्री : मैं अपनी खयाल से नहीं कह रही थी।...ठीक है। आप कीजिए बात।
कहती हुई एक कुरसी पर बैठ जाती है।
: (स्त्री से) उस दिन पहली बार मैंने तुम्हें उस तरह ढुलते देखा था। तब तुमने कहा था कि...।
स्त्री : मैं बिलकुल बच्ची थी तब तक, अभी और...।
पुरुष चार : बच्ची थीं या जो भी थीं, पर बात बिलकुल इसी तरह करती थीं जैसे आज करती हो। उस दिन भी बिलकुल इसी तरह तुमने महेन्द्र को मेरे सामने उधेड़ा था। कहा था कि वह बहुत लिजलिजा और चिपचिपा-सा आदमी है। पर उसे वैसा बनानेवालों में नाम तब दूसरों के थे। एक नाम था उसकी माँ का और दूसरा उसके पिता का...।
स्त्री : ठीक है। उन लोगों की भी कुछ कम देन नहीं रही उसे ऐसा बनाने में।
पुरुष चार : पर जुनेजा का नाम तब नहीं था ऐसा लोगों में। क्यों नहीं था, कह दूँ न यह भी ?
स्त्री : देखिए...।
पुरुष चार : बहुत पुरानी बात है। कह देने में कोई हर्ज नहीं है। मेरा नाम इसलिए नहीं था कि...
स्त्री : मैं इज्जत करती थी आपकी...बस, इतनी-सी बात थी।
पुरुष चार : तुम इज्जत कह सकती हो उसे...पर वह इज्जत किसलिए करती थीं ? इसलिए नहीं कि एक आदमी के तौर पर मैं महेन्द्र से कुछ बेहतर था तुम्हारी नजर में; बल्कि सिर्फ इसलिए कि...
स्त्री : कि आपके पास बहुत पैसा था? और आपका दबदबा था इन लोगों के बीच?
पुरुष चार : नहीं। सिर्फ इसलिए कि मैं जैसा भी था जो भी था-महेन्द्र नहीं था।
स्त्री : (एकाएक उठती है) तो आप कहना चाहते हैं कि...?
पुरुष चार : उतावली क्यों होती हो ? मुझे बात कह लेने दो। मुझसे उस वक्त तुम क्या चाहती थीं, मैं ठीक-ठीक नहीं जानता। लेकिन तुम्हारी बात से इतना जरूर जाहिर था कि महेन्द्र को तुम तब भी वह आदमी नहीं समझती थीं जिसके साथ तुम जिंदगी काट सकतीं...।
स्त्री : हालाँकि उसके बाद भी आज तक उसके साथ जिंदगी काटती आ रही हूँ...
पुरुष चार : पर हर दूसरे-चौथे साल अपने को उससे झटक लेने की कोशिश करती हुई। इधर-उधर नजर दौड़ाती हुई कब कोई जरिया मिल जाए जिससे तुम अपने को उससे अलग कर सको। पहले कुछ दिन जुनेजा एक आदमी था तुम्हारे सामने। तुमने कहा है तब तुम उसकी इज्जत करती थीं। पर आज उसके बारे में जो सोचती हो, वह भी अभी बता चुकी हो। जुनेजा के बाद जिससे कुछ दिन चकाचौंध रहीं तुम, वह था शिवजीत। एक बड़ी डिग्री, बड़े-बड़े शब्द और पूरी दुनिया घूमने का अनुभव। पर असल चीज वही कि वह जो भी था और ही कुछ था-महेंद्र नहीं था। पर जल्द ही तुमने पहचानना शुरू किया कि वह निहायत दोगला किस्म का आदमी है। हमेशा दो तरह की बात करता है। उसके बाद सामने आया जगमोहन। ऊँचे संबंध, जबान की मिठास, टिपटॉप रहने की आदत और खर्च की दरिया-दिली। पर तीर की असली नोक फिर भी उसी जगह पर-कि उसमें जो कुछ भी था, जगमोहन का-सा नहीं था। पर शिकायत तुम्हें उससे भी होने लगी थी कि वह सब लोगों पर एक सा पैसा क्यों उड़ता है ? दूसरे की सख्त-से-सख्त बात को एक खामोश मुस्कराहट के साथ क्यों पी जाता है ? अच्छा हुआ, वह ट्रांसफर हो कर चला गया यहाँ से, वरना.... ।
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Old 10-11-2012, 03:39 PM   #36
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स्त्री : यह खामखाह का तानाबाना क्यों बुन रहे हैं ? जो असल बात कहना चाहते हैं, वही क्यों नहीं कहते ?
पुरुष चार : असल बात इतनी ही कि महेंद्र की जगह इनमें से कोई भी आदमी होता तुम्हारी जिंदगी में, तो साल-दो-साल बाद तुम यही महसूस करतीं कि तुमने गलत आदमी से शादी कर ली है। उसकी जिंदगी में भी ऐसे ही कोई महेंद्र, कोई जुनेजा, कोई शिवजीत या मनमोहन होता जिसकी वजह से तुम यही सब सोचती, यही सब महसूस करती। क्यों की तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है-कितना-कुछ एक साथ हो कर, कितना-कुछ एक साथ पा कर और कितना-कुछ एक साथ ओढ़ कर जीना। वह उतना-कुछ कभी तुम्हें किसी एक जगह न मिल पाता। इसलिए जिस-किसी के साथ भी जिंदगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचैन बनी रहती। वह आदमी भी इसी तरह तुम्हें अपने आसपास सिर पटकता और कपड़े फाड़ता नजर आता और तुम...
स्त्री : (साड़ी का पल्लू दाँतो में लिए सिर हिलाती हँसी और रुलाई के बीच के स्वर में) हहहहहहहह हःह- हहहहह-हःहहः हःह हःह।
पुरुष चार : (अचकचा कर) तुम हँस रही हो ?
स्त्री : हाँ...पता नहीं...हँस ही रही हूँ शायद। आप कहते रहिए ।
पुरुष चार : आज महेंद्र एक कुढ़नेवाला आदमी है। पर एक वक्त था जब वह सचमुच हँसता था। अंदर से हँसता था पर यह तभी था जब कोई साबित करनेवाला नहीं था कि कैसे हर लिहाज से वह हीन और छोटा है - इससे, उससे, मुझसे, तुमसे, सभी से। जब कोई उससे यह कहनेवाला नहीं था कि जो-जो वह नहीं है, वही-वही उसे होना चाहिए और जो वह है... ।
स्त्री : एक उसी उस को देखा है आपने इस बीच - या उसके आस-पास भी किसी के साथ कुछ गुजरते देखा है ?
पुरुष चार : वह भी देखा है। देखा है कि जिस मुट्ठी में तुम कितना-कुछ एक साथ भर लेना चाहती थीं, उसमें जो था वह भी धीरे-धीरे बाहर फिसलता गया है कि तुम्हारे मन में लगातार एक डर समाता गया जिसके मारे कभी तुम घर का दामन थामती रही हो, कभी बाहर का और कि वह डर एक दहशत में बदल गया। जिस दिन तुम्हें एक बहुत बड़ा झटका खाना पड़ा...अपनी आखिरी कोशिश में।
स्त्री : किस आखिरी कोशिश में ?
पुरुष चार : मनोज का बड़ा नाम था। उस नाम की डोर पकड़ कर ही कहीं पहुँच सकने की आखिरी कोशिश में। पर तुम एकदम बौरा गईं जब तुमने पाया कि वह उतने नामवाला आदमी तुम्हारी लड़की को साथ ले कर रातों-रात इस घर से...।
बड़ी लड़की : (सहसा उठती) यह आप क्या कह रहे हैं, अंकल ?
पुरुष चार : मजबूर हो कर कहना पड़ रहा है, बिन्नी ! तू शायद मनोज को अब भी उतना नहीं जानती जितना...!
बड़ी लड़की : (हाथों में चेहरा छिपाए ढह कर बैठती) ओह !
पुरुष चार : ...जितना यह जानती है। इसीलिए आज यह उसे बरदाश्त भी नहीं कर सकती। (स्त्री से) ठीक नहीं है यह ? बिन्नी के मनोज के साथ चले जाने के बाद तुमने एक अंधाधुंध कोशिश शुरू की - कभी महेन्द्र को ही और झकझोरने की, कभी अशोक को ही चाबुक लगाने की, और कभी उन दोनों से धीरज खो कर कोई और ही रास्ता, कोई और ही चारा ढूँढ़ सकने की। ऐसे में पता चला जगमोहन यहाँ लौट आया है। आगे के रास्ते बंद पा कर तुमने फिर पीछे की तरफ देखना चाहा। आज अभी बाहर गई थीं उसके साथ। क्या बात हुई ?
स्त्री : आप समझते हैं आपको मुझसे जो कुछ भी जानने का जो कुछ भी पूछने का हक हासिल है ?
पुरुष चार : न सही ! पर मैं बिना पूछे ही बता सकता हूँ कि क्या बात हुई होगी। तुमने कहा, तुम बहुत-बहुत दुखी हो आज। उसने कहा, उसे बहुत-बहुत हमदर्दी है तुमसे। तुमने कहा, तुम जैसे भी हो अब इस घर से छुटकारा पा लेना चाहती हो। उसने कहा, कितना अच्छा होता अगर इस नतीजे पर तुम कुछ साल पहले पहुँच सकी होतीं। तुमने कहा, जो तब नहीं हुआ, वह अब तो हो ही सकता है। उसने कहा, वह चाहता है हो सकता, पर आज इसमें बहुत-सी उलझनें सामने हैं - बच्चों की जिदंगी को ले कर, इसको-उसको ले कर। फिर भी कि इस नौकरी में उनका मन नहीं लग रहा, पता नहीं कब छोड़ दे, इसीलिए अपने को ले कर भी उसका कुछ तय नहीं है इस समय। तुम गुमशुम हो कर सुनती रहीं और रूमाल से आँखें पोंछती रहीं। आखिर उसने कहा कि तुम्हें देर हो रही है, अब लौट चलना चाहिए। तुम चुपचाप उठ कर उसके साथ गाड़ी में आ बैठीं। रास्ते में उसके मुँह से यह भी निकला शायद कि तुम्हें अगर रुपए-पैसे की जरूरत है इस वक्त तो वह...
स्त्री : बस बस बस बस बस बस ! जितना सुनना चाहिए था, उससे बहुत ज्यादा सुन लिया है आपसे मैंने। बेहतर यही है कि अब आप यहाँ से चले जाएँ क्योंकि...
पुरुष चार : मैं जगमोहन के साथ हुई तुम्हारी बातचीत का सही अंदाज लगा सकता हूँ, क्योंकि उसकी जगह मैं होता, तो मैं भी तुमसे यही सब कहा होता। वह कल-परसों फिर फोन करने को कह कर घर के बाहर उतार गया। तुम मन में एक घुटन लिए घर में दाखिल हुई और आते ही तुमने बच्ची को पीट दिया। जाते हुए वह सामने थी एक पूरी जिंदगी - पर लौटने तक का कुल हासिल?... उलझे हाथों का गिजगिजा पसीना और...।
स्त्री : मैंने आपसे कहा है न, बस ! सब-के-सब...सब-के-सब! एक-से! बिलकुल एक-से हैं आप लोग ! अलग-अलग मुखोटे, पर चेहरा? चेहरा सबका एक ही !
पुरुष चार : फिर भी तुम्हें लगता रहा है कि तुम चुनाव कर सकती हो। लेकिन दाँए से हट कर बाँए, सामने से हट कर पीछे, इस कोने से हट कर उस कोने में... क्या सचमुच कहीं कोई चुनाव नजर आया है तुम्हें ? बोलो, आया है नजर कहीं ?
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Old 10-11-2012, 03:39 PM   #37
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कुछ पल खामोशी जिसमें बड़ी लडकी चेहरे से हाथ हटा कर पलकें झपकाती उन दोनों को देखती है। फिर अंदर के दरवाजे पर खट्-खट् सुनाई देती है।
छोटी लड़की : (अंदर से) दरवाजा खोलो। दरवाजा खोलो?
बड़ी लड़की : (स्त्री) क्या करना है, ममा ? खोलना है दरवाजा ?
स्त्री : रहने दे अभी।
पुरुष चार : लेकिन इस तरह बंद रखोगी, तो...
स्त्री : मैंने पहले भी कहा था, मेरा घर है। मैं बेहतर जानती हूँ।
छोटी लड़की : (दरवाजा खटखटाती) खोलो ! (हताश हो कर) मत खोलो !
अंदर से कुंडी लगाने की आवाज।
: अब खुलवा लेना मुझसे भी।
पुरुष चार : तुम्हारा घर है। तुम बेहतर जानती हो कम-से-कम मान कर यही चलती हो। इसीलिए बहुत-कुछ चाहते हुए मुझे अब कुछ भी संभव नजर नहीं आता। और इसीलिए फिर एक बार पूछना चाहता हूँ, तुमसे...क्या सचमुच किसी तरह उस आदमी को तुम छुटकारा नहीं दे सकतीं ?
स्त्री : आप बार-बार किसलिए कह रहे हैं यह बात ?
पुरुष चार : इसलिए कि आज वह अपने को बिलकुल बेसहारा समझता है। उसके मन में यह विश्वास बिठा दिया है तुमने कि सब कुछ होने पर भी उसके जिए जिदंगी में तुम्हारे सिवा कोई चारा, कोई उपाय नहीं है। और ऐसा क्या इसीलिए नही किया तुमने कि जिदंगी में और कुछ हासिल न हो, तो कम-से-कम यह नामुराद मोहरा तो हाथ में बना ही रहे ?
स्त्री : क्यों-क्यों-क्यों-आप और-और बात करते जाना चाहते हैं ? अभी आप जाइए और कोशिश करके उसे हमेशा के लिए अपने पास रख रखिए। इस घर में आना और रहना सचमुच हित में नहीं है उसके। और मुझे भी...मुझे भी अपने पास उस मोहरे की बिलकुल-बिलकुल जरूरत नहीं है जो न खुद चलता है, न किसी और को चलने देता है।
पुरुष चार : (पल-भर चुपचाप उसे देखते रह कर हताश निर्णय के स्वर में) तो ठीक है वह नहीं आएगा। वह कमजोर है, मगर इतना कमजोर नहीं है। तुमसे जुड़ा हुआ है, मगर इतना जुड़ा हुआ नहीं है। उतना बेसहारा भी नहीं है जितना वह अपने को समझता है। वह ठीक से देख सके, तो एक पूरी दुनिया है उसके आसपास। मैं कोशिश करूँगा कि वह आँख खोल कर देख सके।
स्त्री : जरूर-जरूर। इस तरह उसका तो उपकार करेगें ही आप, मेरा भी इससे बड़ा उपकार जिदंगी में नहीं कर सकेंगे।
पुरुष चार : तो अब चल रहा हूँ मैं। तुमसे जितनी बात कर सकता था, कर चुका हूँ। और बात उसी से जा कर करूँगा। मुझे पता है कि कितना मुश्किल होगा यह...फिर भी यह बात मैं उसके दिमाग में बिठा कर रहूँगा इस बार कि...
लड़का बाहर से आता है। चेहरा काफी उतरा हुआ है-जैसे कोई बड़ी-सी चीज कहीं हार कर आया हो।
: क्या बात है, अशोक ? तू चला क्यों आया वहाँ से ?
लड़का उससे बिना आँख मिलाए बड़ी लड़की की तरफ बढ़ जाता है।
लड़का : उठ बिन्नी ! अंदर से छड़ी निकाल दे जरा।
बड़ी लड़की : (उठती हुई) छड़ी ! वह किसलिए चाहिए तुझे ?
लड़का : डैडी को स्कूटर रिक्शा से उतार लाना है उनकी तबीयत काफी खराब है।
बड़ी लड़की : डैडी लौट आए हैं।
पुरुष चार : तो...आ ही गया है वह आखिर ?
लड़का : (उसकी ओर देख कर मुरझाए स्वर में) हाँ... आ ही गए हैं।
पुरुष चार के चेहरे पर व्यथा की रेखाएँ उभर आती हैं और उसकी आँखें स्त्री से मिल कर झुक जाती हैं। स्त्री एक कुरसी की पीठ थामे चुप खड़ी रहती है। शरीर में गति दिखाई देती है , तो सिर्फ साँस के आने-जाने की।
: (बड़ी लड़की से) जल्दी से निकाल दे छड़ी, क्योंकि...
बड़ी लड़की : (अंदर से दरवाजे की तरफ बढ़ती ) अभी दे रही हूँ।
जाकर दरवाजा खटखटाती है।
: किन्नी ! दरवाजा खोल जल्दी से ।
छोटी लड़की : ( अंदर से ) नहीं खुलेगा दरवाजा।
बड़ी लड़की : तेरी शामत तो नहीं आई है ? कह रही हूँ। खोल जल्दी से ।
छोटी लड़की : आने दो शामत। दरवाजा नहीं खुलेगा ।
बड़ी लड़की : (जोर से खटखटाती) किन्नी !
सहसा हाथ रुक जाता है। बाहर से ऐसा शब्द सुनाई देता है , जैसे पाँव फिसल जाने से किसी ने दरवाजे का सहारा ले कर अपने को बचाया हो।
पुरुष चार : (बाहर से दरवाजे की तरफ बढ़ता) यह कौन फिसला है ड्योढ़ी में ?
लड़का : (उससे आगे जाता) डैडी ही होंगे। उतर कर चले आए होंगे ऐसे ही। (दरवाजे से निकलता) आराम से डैडी, आराम से ।
पुरुष चार : (एक नजर स्त्री पर डाल कर दरवाजे से निकलता) सँभल कर महेन्द्रनाथ, सँभल कर....
प्रकाश खंडित हो कर स्त्री और बड़ी लड़की तक सीमित रह जाता है। स्त्री स्थिर आँखों से बाहर की तरफ देखती आहिस्ता से कुरसी पर बैठ जाती है। बड़ी लड़की उसकी तरफ एक बार देखती है ,फिर बाहर की तरफ। हलका मातमी संगीत उभरता है जिसके साथ उन दोनों पर भी प्रकाश मद्धिम पड़ने लगता है। तभी, लगभग अँधेरे में लड़के की बाँह थामे पुरुष एक की धुँधली आकृति अंदर आती दिखाई देती है।
लड़का : (जैसे बैठे गले से) देख कर डैडी, देख कर...
उन दोनों के आगे बढ़ाने के साथ संगीत अधिक स्पष्ट और अँधेरा अधिक गहरा होता जाता है।
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Old 10-11-2012, 03:43 PM   #38
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The End




इस महान नाटककार को मेरा सलाम।
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Old 15-11-2013, 12:52 AM   #39
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Thanks to Teji.
I have coped this to my Kindle Reader.
I saw this play staged more than 40 years ago and had enjoyed it.
I am sure I will enjoy reading this again.
Regards
GV
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