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Old 13-02-2011, 10:31 AM   #31
Sikandar_Khan
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2
कलकत्ता जैसे बड़े नगर में यों तो प्रत्येक त्यौहार पर बड़ी रौनक होती है किन्तु दुर्गा-पूजा के अवसर पर असाधारण धूमधाम और चहल-पहल दिखाई देती है। दशहरा के दिन प्राय: सारे रास्तों पर जन-समूह होता है। बड़े-बूढ़ों में भी उस दिन एक विशेष हर्ष की भावना होती है, लड़कों और युवकों की तो चर्चा ही व्यर्थ है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी धुन में मस्त दिखाई देता है। जिस समय दुर्गा की सवारी सामने से आती है तो 'काली माई की जय' के उच्च जय-घोष से आकाश गूंज उठता है, हृदय में एक अनुपम आवेश उत्पन्न होता है।
उस दिन दुर्गा पूजा थी। हम सब व्यक्ति भी शोभा देखने गये थे, ललित साथ था। पहले की अपेक्षा ललित में आज अधिक प्रदर्शन था। प्रत्येक स्थान पर वह देवी की मूर्ति को नमन करता, कभी उसके नेत्र लाल हो जाते और कभी उनमें आंसू उमड़ आते। मैंने देखा, कभी वह हर्षातिरेक से नाचने-कूदने लगता और कभी सर्वथा मौन हक्का-बक्का होकर इधर-उधर देखता। मैंने बहुत प्रयत्न किया; परन्तु उनकी इन चेष्टाओं को न समझ सका। उससे मालूम करने का साहस न हुआ।
हमारे पीछे एक गरीब बुढ़िया एक आठ-नौ साल के बच्चे को साथ लिये खम्भे की आड़ में खड़ी थी। सम्भवत: अथाह जन-समूह के कारण उसको किसी ओर जाने का साहस न होता था। वह भिखारिन थी। गरीबी के कारण पेट पीठ से लग गया था। उसने अपना दाहिना हाथ भीख के लिए पसार रखा था। बच्चा अनुनय-विनय करते हुए कह रहा था- ''बाबा, भूखे की सुध लेना, परमेश्वर तुम्हारा भला करेगा।'' किन्तु संसार में गरीबों की कौन सुनता है? गरीब बुढ़िया की ओर किसी ने आंख उठाकर भी न देखा, प्रत्येक मनुष्य अपनी प्रसन्नता में प्रसन्न था। बच्चे ने बुढ़िया से कहा- ''घंटों बीत गए परन्तु अब तक दो पैसे मिले हैं, सोचता था आज दुर्गा-पूजा है कुछ अधिक ही मिल जायेगा; किन्तु खेद है कि चिल्लाते-चिल्लाते गला बैठ गया; कोई सुनता ही नहीं। जी में आता है यहीं प्राण त्याग दूं।'' यह कहकर बच्चा रोने लगा।
बुढ़िया की आंखों में आंसू झलकने लगे। उसने कहा, ''बेटा! अपना भाग्य ही खोटा है, कल सत्तू खाने के लिए छ: पैसे मिल गये थे आज उसका भी सहारा दिखाई नहीं देता। आज भूखे पेट ही रहना होगा। हाय! यह हमारे पाप का फल है।''
बुढ़िया ने एक ठंडी उसांस ली और अपने फटे मैले आंचल से अपनी और बच्चे की आंखें पोंछीं। बच्चा फिर उसी विनती से कहने लगा- 'बाबा, भूखे की सुध लेना, परमेश्वर तुम्हारा भला करेगा।' परन्तु नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता? इतना अधिक जन-समूह था; किंतु इस विनती पर कोई कान देकर सुनने वाला न था।
ललित उस समय बुढ़िया की ओर देख रहा था। उसकी दुखित दशा देखकर उसका हृदय विकल हो गया। उसने अपनी जेब टटोली, उसमें फूटी कौड़ी भी नहीं थी, बहुत व्याकुल हुआ। उसने अपनी दूसरी जेब में हाथ डाला, कुछ आवश्यक कागजों के बीच में एक अठन्नी निकल आई। ललित की निराशा प्रसन्नता में परिवर्तित हो गई, मुखड़ा खिल गया। वह अठन्नी उसने बुढ़िया के हाथ पर रख दी।
जिस प्रकार दस-पांच रुपये लगाने वाले को लाटरी में दस-बीस हजार रुपये मिल जाने पर प्रसन्नता होती है, जिस प्रकार एक युवती नये आभूषण पहनकर प्रसन्न होती है, जिस प्रकार एक सूखे हुए खेत में वर्षा हो जाने से किसान हर्ष से फूला नहीं समाता, जिस प्रकार कोई नया कवि अपनी कविता को किसी पत्रिका में छपा हुआ देखकर प्रसन्न होता है। उससे कहीं अधिक उस गरीब बुढ़िया को अठन्नी पाकर प्रसन्नता हुई। प्रसन्नता के मारे उसकी आंखों में आंसू भर आए, वह निर्निमेष ललित की ओर देखने लगी। उसका मग्न हृदय ललित को सहस्र आशीष दे रहा था।
यह दशा देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैंने अनेकों बार उस बुढ़िया को देखा था, उससे मुझे सहानुभूति भी थी किन्तु कभी यह साहस न हुआ कि उसकी सहायता करूं। कभी हृदय में आता कि उसको कुछ देना चाहिए, कभी यह कहता कि इसमें क्या रखा है, संसार में लाखों गरीब हैं किस-किसकी सहायता करूंगा? ललित, जिसे कभी-कभी भूखे तक रहना पड़ता, जिसको मैंने कभी एक पैसे का पान तक चबाते न देखा था और जो मेरी दृष्टि में बहुत कंजूस था, उसका यह दान देखकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही।
स्वप्न में उस दिन मुझे ललित की बहुत-सी विशेषताएं दिखाई दीं। मालूम नहीं वे सत्य थीं या असत्य, किन्तु ज्योतिषी के हिसाब से उनको सत्य ही समझना चाहिए। इसका कारण यह है कि रात मुझे ढाई बजे नींद आई और वह स्वप्न मैंने रात के अंतिम पहर में देखा था।
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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Old 13-02-2011, 10:33 AM   #32
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3

ललित के सहयोग से उमाशंकर में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गये। कहां तो वह बिना मोटर के घर से बाहर न निकलता था पर अब यह दशा थी कि ललित के साथ वायु-सेवन के लिए प्रतिदिन कोसों पैदल निकल जाता, सिनेमा देखने का चस्का जाता रहा, व्यक्तिगत विलास सामग्री और प्रदर्शन के व्यसन को भी तिलांजलि दे दी। अंग्रेजी शिक्षा से अब उसे घृणा हो गई।
रविवार के दिन मेरे यहां कुछ मित्रों की गार्डन-पार्टी थी, खूब आनंद रहा। मैं अपने मित्रों के सत्कार में लगा हुआ था। उधर उपेन्द्रकुमार, गोपाल,
उमाशंकर और ललित में चुपके-चुपके बातें हो रही थीं। ये लोग क्या बातें कर रहे थे यह बताना कठिन है, क्योंकि प्रथम तो पार्टी की झंझटों में उलझा हुआ था, उनकी ओर अधिक ध्यान न था, दूसरे वे मेरे से दूर थे और धीरे-धीरे बातें कर रहे थे, बीच-बीच में जब ये लोग खिल-खिलाकर हंस पड़ते तो मुझे भी हंसी आ जाती।
गोपाल बाबू को मैं काफी समय से जानता हूं, रिश्ते में यह सन्तोषकुमार के बहनोई होते हैं। प्रथम श्रेणी के शौकीन प्रेमी स्वभाव के हैं। आज देखा तो कलाई रिस्टवाच से खाली थी, रेशम की कमीज में से सोने के बटन गायब थे, होंठों की लाली गायब, बाल भी फैशन के न थे। मैंने सन्तोषकुमार से धीरे से कहा- ''आज तो भाई साहब का कुछ और ही रंग है वह पहली-सी चटक-मटक दिखाई नहीं देती, क्या बात है? कुछ समझ में नहीं आता।''
सन्तोषकुमार ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया- ''आजकल इन पर स्वदेशी भूत सवार है। कई महीने से यह इसी रंग में रंगे हुए हैं, क्या आपने आज ही इन्हें इस वेश में देखा है?''
मैंने उत्तर दिया- ''हां! और इसीलिए मुझे आश्चर्य भी हुआ।''
सन्तोषकुमार ने किसी सीमा तक उपेक्षा-भाव से कहा- ''हमें क्या मतलब? जो जिसके जी में आए करे, बार-बार समझाने पर भी यदि कोई न सुने तो क्या किया जाए। अधिक कहने-सुनने से अपनी प्रतिष्ठा पर आंच आती है। जैसी करनी वैसी भरनी प्रसिध्द है। जब बन्दी-गृह में चक्की पीसनी पड़ेगी तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा।''
मैंने कहा- ''सन्तोषकुमार तुम बिल्कुल सत्य कहते हो, जमाने की हवा कुछ बदली हुई दिखाई देती है। ललित को भी कुछ स्वदेश की सनक है। यद्यपि
मैं स्वदेशी का विरोधी हूं और देश-भक्त मुझे एक आंख नहीं भाते तब भी मैं ललित की स्पष्टवादिता और सात्विकता पर मुग्ध हूं। उसकी रुचि मुझे बहुत भाती है।''
सन्तोष कहने लगा- ''किन्तु आपकी भांति उसकी धाक नहीं बंध सकती। आप जब पाश्चात्य वस्त्र पहनकर बाहर निकलते होंगे तो अशिक्षित मनुष्य भय से कांप उठते होंगे और अशिक्षित व्यक्ति आपसे नमस्कार करके आकाश पर पहुंच जाते होंगे।''
मुझे हंसी आ गई, सन्तोषकुमार भी हंसने लगा।
उस दिन रात को मैं अचेत सोया हुआ स्वप्न देख रहा था कि किसी ने मुझे झंझोड़ा, मैं चौंक गया। आंखें खोलकर देखता हूं तो मेरा नौकर रामलाल हाथ में लालटेन लिये खड़ा है।
मुख पर हवाइयां उड़ रही हैं, शरीर थर-थर कांप रहा है। मैंने घबराकर मालूम किया- ''क्यों रामलाल क्या बात है, तुम कांप क्यों रहे हो?''
रामलाल ने उत्तर दिया- ''बाबू, पुलिस ने सारा मकान घेर रखा है, कोई बात समझ में नहीं आती। मैं कोई चोर या बदमाश न था, पुलिस का नाम सुनकर घबरा गया। दो-एक बेईमानियां जो छिपकर की थीं वे आंखों के सामने फिरने लगीं। पूर्ण विश्वास हो गया कि पुलिस मुझे गिरफ्तार करने आई है।''
पुलिस की हलचल सुनकर मेरी चेतना जाती रही। साहस करके नीचे आया। रामलाल बोला- ''आज्ञा हो तो दो-चार हाथ दिखाकर पुलिस वालों को पृथ्वी पर लिटा दूं?''
मैंने कहा-''सावधान! भूलकर भी ऐसा न करना, पुलिस से बिगाड़ करना अच्छा नहीं होता।''
द्वार खोल दिया। दो-तीन सार्जेण्टों के साथ एक श्वेत वस्त्रधारी बंगाली और आठ-दस सिपाही कमरे के अन्दर घुस आये।
बंगाली बाबू ने जेब से एक बादामी कागज निकालकर मुझे दिखाते हुए कहा-''यह गिरफ्तारी-वारंट है, आपके यहां विद्रोहियों की गुप्त मंत्रणा का स्थान है। विद्रोही तुरन्त गिरफ्तार किया जाएगा।''
मुझ पर बिजली-सी टूट पड़ी। मैं समझा सम्भवत: मैं ही विद्रोही हूं और मेरी गिरफ्तारी का यह वारंट है, मुझको पुलिस गिरफ्तार करने आई है। आह! अब कुशल नहीं, यदि फांसी से बच रहा तो काला पानी अवश्य भेजा जाऊंगा।''
मैंने कंपकपाते हुए कहा- ''विद्रोही और वह भी मेरे मकान में? आप क्या कह रहे हैं। मैं सरकार का शुभाकांक्षी हूं। इसी वर्ष मुझे राय साहब की उपाधि मिली है आपको भ्रम हुआ है।''
एक सार्जेण्ट ने त्योरी बदलकर कहा-''अम काला आदमी नहीं है, गोरा आदमी कभी झूठ नहीं बोल सकता।''
बंगाली बाबू ने तनिक रुष्टता की मुद्रा में कहा- ''पुलिस का भ्रम नहीं हो सकता, भ्रम प्राय: डॉक्टरों को हुआ करता है।''
मैंने पूछा- ''विद्रोही का नाम क्या है?''
कहा- ''शरद्कुमार।''
''बंगाली है?''
''हां।''
''कहां का रहने वाला है?''
''श्री रामपुर का।''
मेरे सिर से जैसे विपत्ति-सी टल गई। नाम सुनते ही होंठों पर हंसी खेलने लगी। मैंने कहा- ''महाशय, इस नाम का कोई व्यक्ति मेरे घर में नहीं है।''
''कोई और बंगाली आपके मकान में है?''
''हां, सीधा-साध नवयुवक है जो उमाशंकर को बंगला भाषा पढ़ाता है।''
उस श्वेत वस्त्रधारी बंगाली ने कहा-''हां, उसकी ही खोज है। उसका असली नाम शरद्कुमार है। पुलिस महीनों से उसके पीछे परेशान है, हाथ ही न आता था।''
मैंने आश्चर्य से कहा- ''वह तो जिला नदिया का रहने वाला है और आप कहते हैं कि अपराधी श्री रामपुर का निवासी है।''
''सब उसकी चालें हैं, वह श्री रामपुर का निवासी है। उसके पिता का नाम हृदयनाथ है जो एक प्रसिध्द जमींदार हैं।''
मैंने फिर पूछा- ''उस पर क्या अपराध है?''
इंस्पेक्टर ने उत्तर दिया- ''विद्रोह, एक गुप्त संस्था से उसका संबंध है। बम बनाना, चोरी, डकैती, कत्ल, लूटमार यह उनकी देशसेवा है।''
यह सुनकर मुझे हंसी आ गई। मैंने कहा- ''आप महानुभाव एक सत्रह-अठारह वर्ष के बंगाली युवक को विद्रोही बना रहे हैं, यह भला कोई मानने की बात है। एक साधारण युवक की गिरफ्तारी के लिए इतने व्यक्ति!''
चार सिपाही दरवाजे पर खड़े किए गये, घर की तलाशी शुरू हुई। दालान, कोठरी, बैठक, रसोईघर, यहां तक कि दिशा-मैदान तक के स्थान को ढूंढ़ डाला किन्तु ललित का कहीं पता न था। अलबत्ता उसके कमरे में एक कागज का टुकड़ा मिला; पढ़कर सब आश्चर्य से एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। उसमें लिखा हुआ था-
''इंस्पेक्टर साहब
नमस्ते।
मैं फिर भाग रहा हूं। आपके पुलिस वाले समझ गये होंगे कि मैं कितना भयानक व्यक्ति हूं, जरा बचते रहियेगा।
भारत माता का तुच्छ सेवक
शरद''
बंगाली बाबू ने अपने माथे पर हाथ मारकर कहा- ''बना बनाया खेल बिगड़ गया, कमबख्त ने चक्मा दे दिया। महीनों की मेहनत पर पानी फिर गया।''
पुलिस निराश होकर वापस चली गई। हम सब भी उमाशंकर के साथ ललित के लिए आंसू बहाने लगे। ललित से हम सबको बहुत अधिक प्रेम था, उसका यह काम देखकर मुझे आश्चर्य हुआ।
महाशय! मैं वही डॉक्टर हूं, मेरी डॉक्टरी बहुत चमक गई है, उमाशंकर मैट्रिक पास कर चुका है, उसकी दशा दिन-प्रतिदिन बदलती जा रही है। यह वही उमाशंकर है जो अपने हाथों गिलास में पानी भी नहीं डालता था, आज वही गरीबों की सेवा के लिए हर समय उद्यत रहता है। ललित के पश्चात् स्वयंसेवक का जीता-जागता चित्र मुझे उमाशंकर ही में दिखाई दिया। एक दिन बैठे-बैठ ललित का ध्यान आ गया, आंखों में आंसू भर आये। उसकी स्मृति से पुराना प्रेम ताजा हो गया। इसी बीच उमाशंकर ने कमरे में प्रवेश किया। उसके हाथ में एक अंग्रेजी का अखबार था। मुंह लाल हो रहा था, आंखें डबडबा रही थीं। उसने भर्राई हुई आवाज में कहा- ''ललित को आजीवन देश-निकाले का दंड दिया गया है। वह कातिल नहीं था, वह देश का सच्चा सेवक, स्वतंत्रता का पुजारी, सहृदय और सबसे प्रेम का बर्ताव करने वाला मनुष्य था।
''ललित का उद्देश्य कत्ल या लूटमार करना रहा हो या विद्रोह, इसके विषय में मैं कुछ नहीं जानता, मैं उसके स्पष्टवादी स्वभाव और उसकी सादगी का कायल हूं। मुझे उस पर पूर्ण विश्वास था।'' उमाशंकर के शब्द सुनकर मेरा हृदय दहल गया। उमाशंकर रोने लगा। मैं भी अधिक न सहन कर सका, मैंने अपने आंसू पोंछे। इसके पश्चात् मैंने कहा- ''उमाशंकर ललित को देखने के लिए हृदय विकल है, वह कब तक वापस आयेगा।''
उमाशंकर ने इसका कोई उत्तर न दिया, वह दहाड़ें मार-मारकर रोने लगा। उसकी यह दशा देखकर मुझसे भी सहन न हो सका। दशा भिन्न हो गयी, हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो गये, चिन्ता और क्रोध तिलमिलाने और छटपटाने लगा।
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पत्नी का पत्र

श्री चरणकमलेषु,
आज हमारे विवाह को पंद्रह वर्ष हो गए, लेकिन अभी तक मैंने कभी तुमको चिट्ठी न लिखी। सदा तुम्हारे पास ही बनी रही-न जाने कितनी बातें कहती सुनती रही, पर चिट्ठी लिखने लायक दूरी कभी नहीं मिली।
आज मैं श्री क्षेत्र में तीर्थ करने आई हूं, तुम अपने ऑफिस के काम में लगे हुए हो। कलकत्ता के साथ तुम्हारा वही संबंध है जो घोंघे के साथ शंख का होता है। वह तुम्हारे तन-मन से चिपक गया है। इसलिए तुमने ऑफिस में छुट्टी की दरख्वास्त नहीं दी। विधाता की यही इच्छा थी; उन्होंने मेरी छुट्टी की दरख्वास्त मंजूर कर ली।
मैं तुम्हारे घर की मझली बहू हूं। पर आज पंद्रह वर्ष बाद इस समुद्र के किनारे खड़े होकर मैं जान पाई हूं कि अपने जगत और जगदीश्वर के साथ मेरा एक संबंध और भी है। इसीलिए आज साहस करके यह चिट्ठी लिख रही हूं, इसे तुम अपने घर की मझली बहू की ही चिट्ठी मत समझना!
तुम लोगों के साथ मेरे संबंध की बात जिन्होंने मेरे भाग्य में लिखी थी उन्हें छोड़कर जब इस संभावना का और किसी को पता न था, उसी शैशवकाल में मैं और मेरा भाई एक साथ ही सन्निपात के ज्वर से पीड़ित हुए थे। भाई तो मारा गया, पर मैं बची रही। मोहल्ले की औरतें कहने लगीं ''मृणाल लड़की है न, इसीलिए बच गई। लड़का होती तो क्या भला बच सकती थी।'' चोरी की कला में यमराज निपुण हैं, उनकी नजर कीमती चीज पर ही पड़ती है।
मेरे भाग्य में मौत नहीं है। यही बात अच्छी तरह से समझाने के लिए मैं यह चिट्ठी लिखने बैठी हूं।
एक दिन जब दूर के रिश्ते में तुम्हारे मामा तुम्हारे मित्र नीरद को साथ लेकर कन्या देखने आए थे तब मेरी आयु 12 वर्ष की थी। दुर्गम गांव में मेरा घर था, जहां दिन में भी सियार बोलते रहते। स्टेशन से सात कोस तक छकड़ा गाड़ी में चलने के बाद बाकी तीन मील का कच्चा रास्ता पालकी में बैठकर पार करने के बाद हमारे गांव में पहुंचा जा सकता था। उस दिन तुम लोगों को कितनी हैरानी हुई। जिस पर हमारे पूर्वी बंगाल का भोजन- मामा उस भोजन की हंसी उड़ाना आज भी नहीं भूलते।
तुम्हारी मां की एक ही जिद थी कि बड़ी बहू के रूप की कमी को मझली बहू के द्वारा पूरी करें। नहीं तो भला इतना कष्ट करके तुम लोग हमारे गांव क्यों आते। पीलिया, यकृत, अमरशूल और दुल्हिन के लिए बंगाल प्रांत में खोज नहीं करनी पड़ती। वे स्वयं ही आकर घेर लेते हैं, छुड़ाये नहीं छूटते।
पिता की छाती धक्-धक् करने लगी। मां दुर्गा का नाम जपने लगी। शहर के देवता को गांव का पुजारी क्या देकर संतुष्ट करे। बेटी के रूप का भरोसा था; लेकिन स्वयं बेटी में उस रूप का कोई मूल्य नहीं होता, देखने आया हुआ व्यक्ति उसका जो मूल्य दे, वही उसका मूल्य होता है। इसीलिए तो हजार रूप गुण होने पर भी लड़कियों का संकोच किसी भी तरह दूर नहीं होता।
सारे घर का, यही नहीं, सारे मोहल्ले का यह आंतक मेरी छाती पर पत्थर की तरह जमकर बैठ गया। आकाश का सारा उजाला और संसार की समस्त शक्ति उस दिन मानो इस बाहर-वर्षीय ग्रामीण लड़की को दो परीक्षकों की दो जोड़ी आंखों के सामने कसकर पकड़ रखने के लिए चपरासगिरी कर रही थी- मुझे कहीं छिपने की जगह न मिली।
अपने करुण स्वर में संपूर्ण आकाश को कंपाती हुई शहनाई बज उठी। मैं तुम लोगों के यहां आ पहुंची। मेरे सारे ऐबों का ब्यौरेवार हिसाब लगाकर गृहिणियों को यह स्वीकार करना पड़ा कि सब-कुछ होते हुए भी मैं सुंदरी जरूर हूं। यह बात सुनते ही मेरी बड़ी जेठानी का चेहरा भारी हो गया। लेकिन सोचती हूं, मुझे रूप की जरूरत ही क्या थी। रूप नामक वस्तु को अगर किसी त्रिपुंडी पंडित ने गंगा मिट्टी से गढ़ा हो तो उसका आदर हो, लेकिन उसे तो विधाता ने केवल अपने आनंद से निर्मित किया है। इसलिए तुम्हारे धर्म के संसार में उसका कोई मूल्य नहीं। मैं रूपवती हूं, इस बात को भूलने में तुम्हें बहुत दिन नहीं लगे। लेकिन मुझमें बुध्दि भी है, यह बात तुम लोगों को पग-पग पर याद करनी पड़ी। मेरी यह बुध्दि इतनी प्रकृत है कि तुम लोगों की घर-गृहस्थी में इतना समय काट देने पर भी वह आज भी टिकी हुई है। मेरी इस बुध्दि से मां बड़ी चिं**तित रहती थीं। नारी के लिए यह तो एक बला ही है। बाधाओं को मानकर चलना जिसका काम है वह यदि बुध्दि को मानकर चलना चाहे तो ठोकर खा-खाकर उसका सिर फूटेगा ही। लेकिन तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं। तुम लोगों के घर की बहू को जितनी बुध्दि की जरूरत है विधाता ने लापरवाही में मुझे उससे बहुत ज्यादा बुध्दि दे डाली है, अब मैं उसे लौटाऊं भी तो किसको। तुम लोग मुझे पुरखिन कहकर दिन-रात गाली देते रहे। अक्षम्य को कड़ी बात कहने से ही सांत्वना मिलती है, इसीलिए मैंने उसको क्षमा कर दिया।
मेरी एक बात तुम्हारी घर-गृहस्थी से बाहर थी जिसे तुममें से कोई नहीं जानता। मैं तुम सबसे छिपाकर कविता लिखा करती थी। वह भले ही कूड़ा-कर्कट क्यों न हो, उस पर तुम्हारे अंत:पुर की दीवार न उठ सकी। वहीं मुझे मृत्यु मिलती थी, वहीं पर मैं रो पाती थी। मेरे भीतर तुम लोगों की मझली बहू के अतिरिक्त जो कुछ था, उसे तुम लोगों ने कभी पसंद नहीं किया। क्योंकि उसे तुम लोग पहचान भी न पाए। मैं कवि हूं, यह बात पंद्रह वर्ष में भी तुम लोगों की पकड़ में नहीं आई।
तुम लोगों के घर की प्रथम स्मृतियों में मेरे मन में जो सबसे ज्यादा जगती रहती है वह है तुम लोगों की गोशाला। अंत:पुर को जाने वाले जीने की बगल के कोठे में तुम लोगों की गौएं रहती हैं, सामने के आंगन को छोड़कर उनके हिलने-डुलने के लिए और कोई जगह न थी। आंगन के कोने में गायों को भूसा देने के लिए काठ की नांद थी, सवेरे नौकर को तरह-तरह के काम रहते इसलिए भूखी गाएं नांद के किनारों को चाट-चाटकर चबा-चबाकर खुरच देतीं। मेरा मन रोने लगता। मैं गंवई गांव की बेटी जिस दिन पहली बार तुम्हारे घर में आई उस दिन उस बड़े शहर के बीच मुझे वे दो गाएं और तीन बछड़े चिर परिचित आत्मीय- जैसे जान पड़े। जितने दिन मैं रही, बहू रही, खुद न खाकर छिपा-छिपाकर मैं उन्हें खिलाती रही; जब बड़ी हुई तब गौओं के प्रति मेरी प्रत्यक्ष ममता देखकर मेरे साथ हंसी-मजाक का संबंध रखने वाले लोग मेरे गोत्र के बारे में संदेह प्रकट करते रहे।
मेरी बेटी जनमते ही मर गई। जाते समय उसने साथ चलने के लिए मुझे भी पुकारा था। अगर वह बची रहती तो मेरे जीवन में जो-कुछ महान है, जो कुछ सत्य है, वह सब मुझे ला देती; तब मैं मझली बहू से एकदम मां बन जाती। गृहस्थी में बंधी रहने पर भी मां विश्व-भर की मां होती है। पर मुझे मां होने की वेदना ही मिली, मातृत्व की मुक्ति प्राप्त नहीं हुई।
मुझे याद है, अंग्रेज डॉक्टर को हमारे घर का भीतरी भाग देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ था, और जच्चा घर देखकर नाराज होकर उसने डांट-फटकार भी लगाई थी। सदर में तो तुम लोगों का छोटा-सा बाग है। कमरे में भी साज श्रृंगार की कोई कमी नहीं, पर भीतर का भाग मानो पश्मीने के काम की उल्टी परत हो। वहां न कोई लज्जा है, न सौंदर्य, न श्रृंगार। उजाला वहां टिमटिमाता रहता है। हवा चोर की भांति प्रवेश करती है, आंगन का कूड़ा-कर्कट हटने का नाम नहीं लेता। फर्श और दीवार पर कालिमा अक्षय बनकर विराजती है। लेकिन डॉक्टर ने एक भूल की थी। उसने सोचा था कि शायद इससे हमको रात-दिन दु:ख होता होगा। बात बिल्कुल उल्टी है। अनादर नाम की चीज राख की तरह होती है। वह शायद भीतर-ही-भीतर आग को बनाए रहती है लेकिन ऊपर से उसके ताप को प्रकट नहीं होने देती। जब आत्म-सम्मान घट जाता है तब अनादर में अन्याय भी नहीं दिखाई देता। इसीलिए उसकी पीड़ा नहीं होती। यही कारण है कि नारी दु:ख का अनुभव करने में ही लज्जा पाती है। इसीलिए मैं कहती हूं, अगर तुम लोगों की व्यवस्था यही है कि नारी को दु:ख पाना ही होगा तो फिर जहां तक संभव हो उसे अनादर में रखना ही ठीक है। आदर से दु:ख की व्यथा और बढ़ जाती है।
तुम मुझे चाहे जैसे रखते रहे, मुझे दु:ख है यह बात कभी मेरे ख्याल में भी न आई जच्चा घर में जब सिर पर मौत मंडराने लगी थी, तब भी मुझे कोई डर नहीं लगा। हमारा जीवन ही क्या है कि मौत से डरना पड़े? जिनके प्राणों को आदर और यत्न से कसकर बांध लिया गया हो, मरने में उन्हीं को कष्ट होता है। उस दिन अगर यमराज मुझे घसीटने लगते तो मैं उसी तरह उखड़ आती जिस तरह पोली जमीन से घास बड़ी आसानी से जड़-समेत खिंच आती है। बंगाल की बेटी तो बात-बात में मरना चाहती है। लेकिन इस तरह मरने में कौन सी बहादुरी है। हम लोगों के लिए मरना इतना आसान है कि मरते लज्जा आती है।
मेरी बेटी संध्या-तारा की तरह क्षण-भर के लिए उदित होकर अस्त हो गई। मैं फिर से अपने दैनिक कामों में और गाय-बछड़ों में लग गई। इसी तरह मेरा जीवन आखिर तक जैसे-तैसे कट जाता; आज तुम्हें यह चिट्ठी लिखने की जरूरत न पड़ती, लेकिन, कभी-कभी हवा एक मामूली-सा बीज उड़ाकर ले जाती है और पक्के दालान में पीपल का अंकुर फूट उठता है; और होते-होते उसी से लकड़ी-पत्थर की छाती विदीर्ण होने लग जाती है। मेरी गृहस्थी की पक्की व्यवस्था में भी जीवन का एक छोटा-सा कण न जाने कहां से उड़कर आ पड़ा; तभी से दरार शुरू हो गई।
जब विधवा मां की मृत्यु के बाद मेरी बड़ी जेठानी की बहन बिंदु ने अपने चचेरे भइयों के अत्याचार के मारे एक दिन हमारे घर में अपनी दीदी के पास आश्रय लिया था, तब तुम लोगों ने सोचा था, यह कहां की बला आ गई। आग लगे मेरे स्वभाव को, करती भी क्या-देखा, तुम लोग सब मन-ही-मन खीझ उठे हो, इसीलिए उस निराश्रिता लड़की को घेरकर मेरा संपूर्ण मन यकायक जैसे कमर बांधकर खड़ा हो गया हो। पराए घर में, पराए लोगों की अनिच्छा होते हुए भी आश्रय लेना-कितना बड़ा अपमान है यह। यह अपमान भी जिसे विवश होकर स्वीकार करना पड़ा हो उसे क्या धक्का देकर एक कोने में डाल दिया जाता है?
बाद में मैंने अपनी बड़ी जेठानी की दशा देखी। उन्होंने अपनी गहरी संवेदना के कारण ही बहन को अपने पास बुलाया था, लेकिन जब उन्होंने देखा कि इसमें पति की इच्छा नहीं है, तो उन्होंने ऐसा भाव दिखाना शुरू किया मानो उन पर कोई बड़ी बला आ पड़ी हो, मानो अगर वह किसी तरह दूर हो सके तो जान बचे। उन्हें इतना साहस न हुआ कि वे अपनी अनाथ बहन के प्रति खुले मन से स्नेह प्रकट कर सकें। वे पतिव्रता थीं।
उनका यह संकट देखकर मेरा मन और भी दुखी हो उठा। मैंने देखा, बड़ी जेठानी ने खासतौर से सबको दिखा-दिखाकर बिंदु के खाने-पहनने की ऐसी रद्दी व्यवस्था की और उसे घर में इस तरह नौकरानियों के-से काम सौंप दिए कि मुझे दु:ख ही नहीं, लज्जा भी हुई। मैं सबके सामने इस बात को प्रमाणित करने में लगी रहती थी कि हमारी गृहस्थी को बिंदु बहुत सस्ते दामों में मिल गई है। ढेरों काम करती है फिर भी खर्च की दृष्टि से बेहद सस्ती है।
मेरी बड़ी जेठानी के पितृ-वंश में कुल के अलावा और कोई बड़ी चीज न थी, न रूप था, न धन। किस तरह मेरे ससुर के पैरों पड़ने पर तुम लोगों के घर में उनका ब्याह हुआ था, यह बात तुम अच्छी तरह जानते हो। वे सदा यही सोचती रही कि उनका विवाह तुम्हारे वंश के प्रति बड़ा भारी अपराध था। इसीलिए वे सब बातों में अपने-आपको भरसक दूर रखकर, अपने को छोटा मानकर तुम्हारे घर में बहुत ही थोड़ी जगह में सिमटकर रहती थीं।
लेकिन उनके इस प्रशंसनीय उदाहरण से हम लोगों को बड़ी कठिनाई होती रही। मैं अपने-आपको हर तरफ से इतना बेहद छोटा नहीं बना पाती, मैं जिस बात को अच्छा समझती हूं उसे किसी और की खातिर बुरा समझने को मैं उचित नहीं मानती- इस बात के तुम्हें भी बहुत-से प्रमाण मिल चुके हैं।
बिंदु को मैं अपने कमरे में घसीट लाई। जीजी कहने लगीं, ''मंझली बहू गरीब घर की बेटी का दिमाग खराब कर डालेगी।'' वे सबसे मेरी इस ढंग से शिकायत करती फिरती थीं मानो मैंने कोई भारी आफत ढा दी हो। लेकिन मैं अच्छी तरह जानती हूं, वे मन-ही-मन सोचती थीं कि जान बची। अब अपराध का बोझ मेरे सिर पर पड़ने लगा। वे अपनी बहन के प्रति खुद जो स्नेह नहीं दिखा पाती थीं वही मेरे द्वारा प्रकट करके उनका मन हल्का हो जाता। मेरी बड़ी जेठानी बिंदु की उम्र में से दो-एक अंक कम कर देने की चेष्टा किया करती थीं, लेकिन अगर अकेले में उनसे यह कहा जाता कि उसकी अवस्था चौदह से कम नहीं थी, तो ज्यादती न होती। तुम्हें तो मालूम है, देखने में वह इतनी कुरूप थी कि अगर वह फर्श पर गिरकर अपना सिर फोड़ लेती तो भी लोगों को घर के फर्श की ही चिंता होती। यही कारण है कि माता-पिता के न होने पर ऐसा कोई न था जो उसके विवाह की सोचता, और ऐसे लोग भी भला कितने थे जिनके प्राणों में इतना बल हो कि उससे ब्याह कर सकें।
बिंदु बहुत डरती-डरती मेरे पास आई। मानो अगर मेरी देह उससे छू जाएगी तो मैं सह नहीं पाऊंगी। मानो संसार में उसको जन्म लेने का कोई अधिकार ही न था। इसीलिए वह हमेशा अलग हटकर आंख बचाकर चलती। उसके पिता के यहां उसके चचेरे भाई उसके लिए ऐसा एक भी कोना नहीं छोड़ना चाहते थे जिसमें वह फालतू चीज की तरह पड़ी रह सके। फालतू कूड़े को घर के आस-पास अनायास ही स्थान मिल जाता है क्योंकि मनुष्य उसको भूल जाता है; लेकिन अनावश्यक लड़की एक तो अनावश्यक होती है दूसरे उसको भूलना भी कठिन होता है। इसलिए उसके लिए घूरे पर भी जगह नहीं होती। फिर भी यह कैसे कहा जा सकता है कि उसके चचेरे भाई ही संसार में परमावश्यक पदार्थ थे। जो हो, वे लोग थे खूब। यही कारण है कि जब मैं बिंदु को अपने कमरे में बुला लाई तो उसकी छाती धक्-धक् करने लग गई। उसका डर देखकर मुझे बड़ा दु:ख हुआ। मेरे कमरे में उसके लिए थोड़ी-सी जगह है यह बात मैंने बड़े प्यार से उसे समझाई।
लेकिन मेरा कमरा एक मेरा ही कमरा तो था नहीं। इसलिए मेरा काम आसान नहीं हुआ। मेरे पास दो-चार दिन रहने पर ही उसके शरीर में न जाने लाल-लाल क्या निकल आया। शायद अम्हौरी रही होगी या ऐसा ही कुछ होगा; तुमने कहा शीतला। क्यों न हो, वह बिंदु थी न। तुम्हारे मोहल्ले के एक अनाड़ी डॉक्टर ने आकर बताया, दो-एक दिन और देखे बिना ठीक से कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन दो-एक दिन तक धीरज किसको होता। बिंदु तो अपनी बीमारी की लज्जा से ही मरी जा रही थी। मैंने कहा, शीतला है तो हो, मैं उसे अपने जच्चा-घर में लिवा ले जाऊंगी, और किसी को कुछ करने की जरूरत नहीं। इस बात पर जब तुम सब लोग मेरे ऊपर भड़ककर क्रोध की मूर्ति बन गए, यही नहीं, जब बिंदु की जीजी भी बड़ी परेशानी दिखाती हुई उस अभागी लड़की को अस्पताल भेजने का प्रस्ताव करने लगीं, तभी उसके शरीर के वे सारे लाल-लाल दाग एकदम विलीन हो गए। मैंने देखा कि इस बात से तुम लोग और भी व्यग्र हो उठे। कहने लगे अब तो वाकई शीतला बैठ गई है। क्यों न हो, वह बिंदु थी न।
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2..
अनादर के पालन-पोषण में एक बड़ा गुण है। शरीर को वह एकदम अजर-अमर कर देता है। बीमारी आने का नाम नहीं लेती, मरने के सारे आम रास्ते बिल्कुल बंद हो जाते हैं। इसीलिए रोग उसके साथ मजाक करके चला गया, हुआ कुछ नहीं। लेकिन यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो गई कि संसार में ज्यादा साधनहीन व्यक्ति को आश्रय देना ही सबसे कठिन है। आश्रय की आवश्यकता उसको जितनी अधिक होती है आश्रय की बाधाएं भी उसके लिए उतनी ही विषम होती हैं।
बिंदु के मन से जब मेरा डर जाता रहा तब उसको एक और कुग्रह ने पकड़ लिया। वह मुझे इतना प्यार करने लगी कि मुझे डर होने लगा। स्नेह की ऐसी मूर्ति तो संसार में पहले कभी देखी ही न थी। पुस्तकों में पढ़ा अवश्य था, पर वह भी स्त्री-पुरुष के बीच ही। बहुत दिनों से ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी कि मुझे अपने रूप की बात याद आती। अब इतने दिनों बाद यह कुरूप लड़की मेरे उसी रूप के पीछे पड़ गई। रात-दिन मेरा मुंह देखते रहने पर भी उसकी आंखों की प्यास नहीं बुझती थी। कहती, जीजी तुम्हारा यह मुंह मेरे अलावा और कोई नहीं देख पाता। जिस दिन मैं स्वयं ही अपने केश बांध लेती उस दिन वह बहुत रूठ जाती। अपने हाथों से मेरे केश-भार को हिलाने-डुलाने में उसे बड़ा आनंद आता। कभी कहीं दावत में जाने के अतिरिक्त और कभी तो मुझे साज-श्रृंगार की आवश्यकता पड़ती ही न थी, लेकिन बिंदु मुझे तंग कर-करके थोड़ा-बहुत सजाती रहती। वह लड़की मुझे लेकर बिल्कुल पागल हो गई थी।
तुम्हारे घर के भीतरी हिस्से में कहीं रत्ती-भर भी मिट्टी न थी। उत्तर की ओर की दीवार में नाली के किनारे न जाने कैसे एक गाब का पौधा निकला। जिस दिन देखती कि उस गाब के पौधे में नई लाल-लाल कोंपलें निकल आई हैं, उसी दिन जान पड़ता कि धरती पर वसंत आ गया है, और जिस दिन मेरी घर-गृहस्थी में जुटी हुई इस अनादृत लड़की के मन का ओर-छोर किसी तरह रंग उठा उस दिन मैंने जाना कि हृदय के जगत में भी वसंत की हवा बहती है। वह किसी स्वर्ग से आती है, गली के मोड़ से नहीं।
बिंदु के स्नेह के दु:सह वेग ने मुझे अधीर कर डाला था। मैं मानती हूं कि मुझे कभी-कभी उस पर क्रोध आ जाता; लेकिन उस स्नेह में मैंने अपना एक ऐसा रूप देखा जो जीवन में मैं पहले कभी नहीं देख पाई थी। वही मेरा मुख्य स्वरूप है।
इधर मैं बिंदु-जैसी लड़की को जो इतना लाड़-प्यार करती थी यह बात तुम लोगों को बड़ी ज्यादती लगी। इसे लेकर बराबर खटपट होने लगी। जिस दिन मेरे कमरे से बाजूबंद चोरी हुआ उस दिन इस बात का आभास देते हुए तुम लोगों को तनिक भी लज्जा न आई कि इस चोरी में किसी-न-किसी रूप में बिंदु का हाथ है। जब स्वदेशी-आंदोलनों में लोगों के घर की तलाशियां होने लगीं तब तुम लोग अनायास ही यह संदेह कर बैठे कि बिंदु पुलिस द्वारा रखी गई स्त्री-गुप्तचर है। इसका और तो कोई प्रमाण न था; प्रमाण बस इतना ही था कि वह बिंदु थी। तुम लोगों के घर की दासियां उनका कोई भी काम करने से इंकार कर देती थीं- उनमें से किसी से अपने काम के लिए कहने में वह लड़की भी संकोच के मारे जड़वत् हो जाती थी। इन्हीं सब कारणों से उसके लिए मेरा खर्च बढ़ गया। मैंने खासतौर से अलग से एक दासी रख ली। यह बात तुम लोगों को अच्छी नहीं लगी। बिंदु को पहनने के लिए मैं जो कपड़े देती थी, उन्हें देखकर तुम इतने क्रुध्द हुए कि तुमने मेरे हाथ-खर्च के रुपये ही बंद कर दिए। दूसरे ही दिन से मैंने सवा रुपये जोड़े की मोटी कोरी मिल की धोती पहननी शुरू कर दी। और जब मोती की मां मेरी जूठी थाली उठाने के लिए आई तो मैंने उसको मना कर दिया। मैंने खुद जूठा भात बछड़े को खिलाने के बाद आंगन के नल पर जाकर बर्तन मल लिए। एक दिन एकाएक इस दृश्य को देखकर तुम प्रसन्न न हो सके। मेरी खुशी के बिना तो काम चल सकता है, पर तुम लोगों की खुशी के बिना नहीं चल सकता- यह बात आज तक मेरी समझ में नहीं आई। उधर ज्यों-ज्यों तुम लोगों का क्रोध बढ़ता जा रहा था त्यों-त्यों बिंदु की आयु भी बढ़ती जा रही थी। इस स्वाभाविक बात पर तुम लोग अस्वाभाविक ढंग से परेशान हो उठे थे।
एक बात याद करके मुझे आश्चर्य होता रहा है कि तुम लोगों ने बिंदु को जबर्दस्ती अपने घर से विदा क्यों नहीं कर दिया? मैं अच्छी तरह समझती हूं कि तुम लोग मन-ही-मन मुझसे डरते थे। विधाता ने मुझे बुध्दि दी है, भीतर-ही-भीतर इस बात की खातिर किए बिना तुम लोगों को चैन नहीं पड़ता था। अंत में अपनी शक्ति से बिंदु को विदा करने में असमर्थ होकर तुम लोगों ने प्रजापति देवता की शरण ली। बिंदु का वर ठीक हुआ। बड़ी जेठानी बोली, जान बची। मां काली ने अपने वंश की लाज रख ली। वर कैसा था, मैं नहीं जानती। तुम लोगों से सुना था कि सब बातों में अच्छा है। बिंदु मेरे पैरों से लिपटकर रोने लगी। बोली, जीजी मेरा ब्याह क्यों कर रही हो भला। मैंने उसको समझाते-बुझाते कहा, बिंदु, डर मत, मैंने सुना है तेरा वर अच्छा है।
बिंदु बोली, ''अगर वर अच्छा है तो मुझमें भला ऐसा क्या है जो उसे पसंद आ सके।'' लेकिन वर-पक्ष वालों ने तो बिंदु को देखने के लिए आने का नाम भी न लिया। बड़ी जीजी इससे बड़ी निश्चिंत हो गईं।
लेकिन बिंदु रात-दिन रोती रहती। चुप होने का नाम ही न लेती। उसको क्या कष्ट है यह मैं जानती थी। बिंदु के लिए मैंने घर में बहुत बार झगड़ा किया था लेकिन उसका ब्याह रुक जाए यह बात कहने का साहस नहीं होता था। कहती भी किस बल पर। मैं अगर मर जाती तो उसकी क्या दशा होती।
एक तो लड़की जिस पर काली; जिसके यहां जा रही है, वहां उसकी क्या दशा होगी, इस बातों की चिंता न करना ही अच्छा था। सोचती तो प्राण कांप उठते।
बिंदु ने कहा, ''जीजी, ब्याह के अभी पांच दिन और हैं। इस बीच क्या मुझे मौत नहीं आएगी।''
मैंने उसको खूब धमकाया। लेकिन अंतर्यामी जानते हैं कि अगर किसी स्वाभाविक ढंग से बिंदु की मृत्यु हो जाती तो मुझे चैन मिलता।
ब्याह के एक दिन पहले बिंदु ने अपनी जीजी के पास जाकर कहा, ''जीजी, मैं तुम लोगों की गोशाला में पड़ी रहूंगी, जो कहोगी वही करूंगी, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं, मुझे इस तरह मत धकेलो।''
कुछ दिनों से जीजी की आंखों से चोरी-चोरी आंसू झर रहे थे। उस दिन भी झरने लगे। लेकिन सिर्फ हृदय ही तो नहीं होता। शास्त्र भी तो है। उन्होंने कहा, ''बिंदु, जानती नहीं, स्त्री की गति-मुक्ति सब-कुछ पति ही है। भाग्य में अगर दु:ख लिखा है तो उसे कोई नहीं मिटा सकता।''
असली बात तो यह थी कि कहीं कोई रास्ता ही न था- बिंदु को ब्याह तो करना ही पड़ेगा। फिर जो हो सो हो। मैं चाहती थी कि विवाह हमारे ही घर से हो। लेकिन तुम लोग कह बैठे वर के ही घर में हो, उनके कुल की यही रीति है। मैं समझ गई, बिंदु के ब्याह में अगर तुम लोगों को खर्च करना पड़ा तो तुम्हारे गृह-देवता उसे किसी भी भांति नहीं सह सकेंगे। इसीलिए चुप रह जाना पड़ा। लेकिन एक बात तुममें से कोई नहीं जानता। जीजी को बताना चाहती थी, पर फिर बताई नहीं, नहीं तो वे डर से मर जातीं- मैंने अपने थोड़े-बहुत गहने लेकर चुपचाप बिंदु का श्रृंगार कर दिया था। सोचा था, जीजी की नजर में तो जरूर ही पड़ जाएगा। लेकिन उन्होंने जैसे देखकर भी नहीं देखा। दुहाई है धर्म की, इसके लिए तुम उन्हें क्षमा कर देना।
जाते समय बिंदु मुझसे लिपटकर बोली, ''जीजी, तो क्या तुम लोगों ने मुझे एकदम त्याग दिया।'' मैंने कहा, ''नहीं बिंदु, तुम चाहे-जैसी हालत में रहो, प्राण रहते मैं तुम्हें नहीं त्याग सकती।''
तीन दिन बीते। तुम्हारे ताल्लुके के आसामियों ने तुम्हें खाने के लिए जो भेड़ा दिया था उसे मैंने तुम्हारी जठराग्नि से बचाकर नीचे वाली कोयले की कोठरी के एक कोने में बांध दिया था। सवेरे उठते ही मैं खुद जाकर उसको दाना खिला आती। दो-एक दिन तुम्हारे नौकरों पर भरोसा करके देखा उसे खिलाने की बजाय उनका झुकाव उसी को खा जाने की ओर अधिक था।
उस दिन सवेरे कोठरी में गई तो देखा, बिंदु एक कोने में गुड़-मुड़ होकर बैठी हुई है। मुझे देखते ही वह मेरे पैर पकड़कर चुपचाप रोने लगी।
बिंदु का पति पागल था।
''सच कह रही है बिंदु?''
''तुम्हारे सामने क्या मैं इतना बड़ा झूठ बोल सकती हूं दीदी? वह पागल हैं। इस विवाह में ससुर की सम्मति नहीं थी, लेकिन वे मेरी सास से यमराज की तरह डरते थे। ब्याह के पहले ही काशी चल दिए थे। सास ने जिद करके अपने लड़के का ब्याह कर लिया।''
मैं वहीं कोयले के ढेर पर बैठ गई। स्त्री पर स्त्री को दया नहीं आती। कहती है, कोई लड़की थोड़े ही है। लड़का पागल है तो हो, है तो पुरुष।
देखने में बिंदु का पति पागल नहीं लगता। लेकिन कभी-कभी उसे ऐसा उन्माद चढ़ता कि उसे कमरे में ताला बंद करके रखना पड़ता। ब्याह की रात वह ठीक था। लेकिन रात में जगते रहने के कारण और इसी तरह के और झंझटों के कारण दूसरे दिन से उसका दिमाग बिल्कुल खराब हो गया। बिंदु दोपहर को पीतल की थाली में भात खाने बैठी थी, अचानक उसके पति ने भात समेत थाली उठाकर आंगन में फेंक दी। न जाने क्यों अचानक उसको लगा, मानो बिंदु रानी रासमणि हो। नौकर ने, हो न हो, चोरी से उसी के सोने के थाल में रानी के खाने के लिए भात दिया हो। इसलिए उसे क्रोध आ गया था। बिंदु तो डर के मारे मरी जा रही थी। तीसरी रात को जब उसकी सास ने उससे अपने पति के कमरे में सोने के लिए कहा तो बिंदु के प्राण सूख गए। उसकी सास को जब क्रोध आता था तो होश में नहीं रहती थी। वह भी पागल ही थी, लेकिन पूरी तरह से नहीं। इसलिए वह ज्यादा खतरनाक थी। बिंदु को कमरे में जाना ही पड़ा। उस रात उसके पति का मिजाज ठंडा था। लेकिन डर के मारे बिंदु का शरीर पत्थर हो गया था। पति जब सो गए तब काफी रात बीतने पर वह किस तरह चतुराई से भागकर चली आई इसका विस्तृत विवरण लिखने की आवश्यकता नहीं है।
घृणा और क्रोध से मेरा शरीर जलने लगा। मैंने कहा, इस तरह धोखे के ब्याह को ब्याह नहीं कहा जा सकता। बिंदु, तू जैसे रहती थी वैसे ही मेरे पास रह। देखूं, मुझे कौन ले जाता है।
तुम लोगों ने कहा, बिंदु झूठ बोलती है।
मैंने कहा, वह कभी झूठ नहीं बोलती।
तुम लोगों ने कहा, तुम्हें कैसे मालूम।
मैंने कहा, मैं अच्छी तरह जानती हूं।
तुम लोगों ने डर दिखाया, अगर बिंदु के ससुराल वालों ने पुलिस-केस कर दिया तो आफत में पड़ जाएंगे।
मैंने कहा, क्या अदालत यह बात न सुनेगी कि उसका ब्याह धोखे से पागल वर के साथ कर दिया गया है।
तुमने कहा, तो क्या इसके लिए अदालत जाएंगे। हमें ऐसी क्या गर्ज है?
मैंने कहा, जो कुछ मुझसे बन पड़ेगा, अपने गहने बेचकर करूंगी।
तुम लोगों ने कहा, क्या वकील के घर तक दौड़ोगी।
इस बात का क्या जवाब होता? सिर ठोकने के अलावा और कर भी क्या सकती थी।
उधर बिंदु की ससुराल से उसके जेठ ने आकर बाहर बड़ा हंगामा खड़ा कर दिया। कहने लगा, थाने में रिपोर्ट कर दूंगा।
मैं नहीं जानती मुझमें क्या शक्ति थी-लेकिन जिस गाय ने अपने प्राणों के डर से कसाई के हाथों से छूटकर मेरा आश्रय लिया हो उसे पुलिस के डर से फिर उस कसाई को लौटाना पड़े यह बात मैं किसी भी प्रकार नहीं मान सकती थी। मैंने हिम्मत करके कहा, ''करने दो थाने में रिपोर्ट।''
इतना कहकर मैंने सोचा कि अब बिंदु को अपने सोने के कमरे में ले जाकर कमरे में ताला लगाकर बैठ जाऊं। लेकिन खोजा तो बिंदु का कहीं पता नहीं। जिस समय तुम लोगों से मेरी बहस चल रही थी उसी समय बिंदु ने स्वयं बाहर निकलकर अपने जेठ को आत्म-समर्पण कर दिया था। वह समझ गई थी कि अगर वह इस घर में रही तो मैं बड़ी आफत में पड़ जाऊंगी।
बीच में भाग आने से बिंदु ने अपना दु:ख और भी बढ़ा लिया। उसकी सास का तर्क था कि उनका लड़का उसको खाए तो नहीं जा रहा था न। संसार में बुरे पति के उदाहरण दुर्लभ भी नहीं हैं। उनकी तुलना में तो उनका लड़का सोने का चांद था।
मेरी बड़ी जेठानी ने कहा- जिसका भाग्य ही खराब हो उसके लिए रोने से क्या फायदा? पागल-वागल जो भी हो, है तो स्वामी ही न।
तुम लोगों के मन में लगातार उस सती-साध्वीा का दृष्टांत याद आ रहा था जो अपने कोढ़ी पति को अपने कंधों पर बिठाकर वेश्या के यहां ले गई थी।
संसार-भर में कायरता के इस सबसे अधम आख्यान का प्रचार करते हुए तुम लोगों के पुरुष-मन को कभी तनिक भी संकोच न हुआ। इसलिए मानव-जन्म पाकर भी तुम लोग बिंदु के व्यवहार पर क्रोध कर सके, उससे तुम्हारा सिर नहीं झुका। बिंदु के लिए मेरी छाती फटी जा रही थी, लेकिन तुम लोगों का व्यवहार देखकर मेरी लज्जा का अंत न था। मैं तो गांव की लड़की थी, जिस पर तुम लोगों के घर आ पड़ी, फिर भगवान ने न जाने किस तरह मुझे ऐसी बुध्दि दे दी। धर्म-संबंधी तुम लोगों की यह चर्चा मुझे किसी भी प्रकार सहन नहीं हुई।
मैं निश्चयपूर्वक जानती थी कि बिंदु मर भले ही जाए, वह अब हमारे घर लौटकर नहीं आएगी। लेकिन मैं तो उसे ब्याह के एक दिन पहले यह आशा दिला चुकी थी कि प्राण रहते उसे नहीं छोड़ुंगी। मेरा छोटा भाई शरद कलकत्ता में कॉलेज में पढ़ता था। तुम तो जानते ही हो, तरह-तरह से वालंटियरी करना, प्लेग वाले मोहल्लों में चूहे मारना, दामोदर में बाढ़ आ जाने की खबर सुनकर दौड़ पड़ना- इन सब बातों में उसका इतना उत्साह था कि एफ.ए. की परीक्षा में लगातार दो बार फेल होने पर भी उसके उत्साह में कोई कमी नहीं आई। मैंने उसे बुलाकर कहा, ''शरद, जैसे भी हो बिंदु की खबर पाने का इंतजाम तुझे करना ही पड़ेगा। बिंदु को मुझे चिट्ठी भेजने का साहस नहीं होगा, वह भेजे भी तो मुझे मिल नहीं सकेगी।''
इस काम की बजाए यदि मैं उससे डाका डालकर बिंदु को लाने की बात कहती या उसके पागल स्वामी का सिर फोड़ देने के लिए कहती तो उसे ज्यादा खुशी होती।
शरद के साथ बातचीत कर रही थी तभी तुमने कमरे में आकर कहा, तुम फिर यह क्या बखेड़ा कर रही हो।
मैंने कहा, वही जो शुरू से करती आई हूं। जब से तुम्हारे घर आई हूं... लेकिन नहीं, वह तो तुम्हीं लोगों की कीर्ति हैं।
तुमने पूछा, बिंदु को लाकर फिर कहीं छिपा रखा है क्या?
मैंने कहा, बिंदु अगर आती तो मैं जरूर ही छिपाकर रख लेती, लेकिन वह अब नहीं आएगी। तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है।
शरद को मेरे पास देखकर तुम्हारा संदेह और भी बढ़ गया। मैं जानती थी कि शरद का हमारे यहां आना-जाना तुम लोगों को पसंद नहीं है। तुम्हें डर था कि उस पर पुलिस की नजर है। अगर कभी किसी राजनीतिक मामले में फंस गया तो तुम्हें भी फंसा डालेगा। इसीलिए मैं भैया-दूज का तिलक भी आदमी के हाथों उसी के पास भिजवा देती थी, अपने घर नहीं बुलाती थी।
एक दिन तुमसे सुना कि बिंदु फिर भाग गई है, इसलिए उसका जेठ हमारे घर उसे खोजने आया है। सुनते ही मेरी छाती में शूल चुभ गए। अभागिनी का असह्य कष्ट तो मैं समझ गई, पर फिर भी कुछ करने का कोई रास्ता न था।
शरद पता करने दौड़ा। शाम को लौटकर मुझसे बोला, बिंदु अपने चचेरे भाइयों के यहां गई थी, लेकिन उन्होंने अत्यंत क्रुध्द होकर उसी वक्त उसे फिर ससुराल पहुंचा दिया। इसके लिए उन्हें हर्जाने का और गाड़ी के किराए का जो दंड भोगना पड़ा उसकी खार अब भी उनके मन से नहीं गई है।
श्रीक्षेत्र की तीर्थ-यात्रा करने के लिए तुम लोगों की काकी तुम्हारे यहां आकर ठहरीं। मैंने तुमसे कहा, मैं भी जाऊंगी।
अचानक मेरे मन में धर्म के प्रति यह श्रध्दा देखकर तुम इतने खुश हुए कि तुमने तनिक भी आपत्ति नहीं की। तुम्हें इस बात का भी ध्यान था कि अगर मैं कलकत्ता में रही तो फिर किसी-न-किसी दिन बिंदु को लेकर झगड़ा कर बैठूंगी। मेरे मारे तुम्हें बड़ी परेशानी थी। मुझे बुधवार को चलना था, रविवार को ही सब ठीक-ठाक हो गया। मैंने शरद को बुलाकर कहा, जैसे भी हो बुधवार को पुरी जाने वाली गाड़ी में तुझे बिंदु को चढ़ा ही देना पड़ेगा।
शरद का चेहरा खिल उठा। वह बोला, डर की कोई बात नहीं जीजी, मैं उसे गाड़ी में बिठाकर पुरी तक चला चलूंगा। इसी बहाने जगन्नाथजी के दर्शन भी हो जाएंगे।
उसी दिन शाम को शरद फिर आया। उसका मुंह देखते ही मेरा दिल बैठ गया। मैंने पूछा, क्या बात है शरद! शायद कोई रास्ता नहीं निकला।
वह बोला, नहीं।
मैंने पूछा, क्या उसे राजी नहीं कर पाए।
उसने कहा, ''अब जरूरत भी नहीं है। कल रात अपने कपड़ों में आग लगाकर वह आत्म-हत्या करके मर गई। उस घर के जिस भतीजे से मैंने मेल बढ़ा लिया था उसी से खबर मिली कि तुम्हारे नाम वह एक चिट्ठी रख गई थी, लेकिन वह चिट्ठी उन लोगों ने नष्ट कर दी।''
''चलो, छुट्टी हुई।''
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3...

गांव-भर के लोग चीख उठे। कहने लगे, ''लड़कियों का कपड़ों में आग लगाकर मर जाना तो अब एक फैशन हो गया है।''
तुम लोगों ने कहा, ''अच्छा नाटक है।'' हुआ करे, लेकिन नाटक का तमाशा सिर्फ बंगाली लड़कियों की साड़ी पर ही क्यों होता है, बंगाली वीर पुरुषों की धोती की चुन्नटों पर क्यों नहीं होता, यह भी तो सोचकर देखना चाहिए।
ऐसा ही था बिंदु का दुर्भाग्य। जितने दिन जीवित रही, तनिक भी यश नहीं मिल सका। न रूप का, न गुण का-मरते वक्त भी यह नहीं हुआ कि सोच समझकर कुछ ऐसे नए ढंग से मरती कि दुनिया-भर के लोग खुशी से ताली बजा उठते। मरकर भी उसने लोगों को नाराज ही किया।
जीजी कमरे में जाकर चुपचाप रोने लगीं, लेकिन उस रोने में जैसे एक सांत्वना थी। कुछ भी सही, जान तो बची, मर गई, यही क्या कम है। अगर बची रहती तो न जाने क्या हो जाता।
मैं तीर्थ में आ पहुंची हूं। बिंदु के आने की तो जरूरत ही न रही। लेकिन मुझे जरूरत थी।
लोग जिसे दु:ख मानते हैं वह तुम्हारी गृहस्थी में मुझे कभी नहीं मिला। तुम्हारे यहां खाने-पहनने की कोई कमी नहीं। तुम्हारे बड़े भाई का चरित्र चाहे जैसा हो, तुम्हारे चरित्र में ऐसा कोई दोष नहीं जिसके लिए विधाता को बुरा कह सकूं। वैसे अगर तुम्हारा स्वभाव तुम्हारे बड़े भाई की तरह भी होता तो भी शायद मेरे दिन करीब-करीब ऐसे ही कट जाते और मैं अपनी सती-साध्वीं बड़ी जेठानी की तरह पति देवता को दोष देने की बजाय विश्व-देवता को ही दोष देने की चेष्टा करती। अतएव, मैं तुमसे कोई शिकायत नहीं करना चाहती- मेरी चिट्ठी का कारण यह नहीं है।
लेकिन मैं अब माखन बड़ाल की गली के तुम्हारे उस सत्ताईस नंबर वाले घर में लौटकर नहीं आऊंगी। मैं बिंदु को देख चुकी हूं। इस संसार में नारी का सच्चा परिचय क्या है, यह मैं पा चुकी हूं। अब तुम्हारी कोई जरूरत नहीं।
और फिर मैंने यह भी देखा है कि वह लड़की ही क्यों न हो, भगवान ने उसका त्याग नहीं किया। उस पर तुम लोगों का चाहे कितना ही जोर क्यों न रहा हो, वह उसका अंत नहीं था। वह अपने अभागे मानव-जीवन से बड़ी थी। तुम लोगों के पैर इतने लंबे नहीं थे कि तुम मनमाने ढंग से अपने हिसाब से उसके जीवन को सदा के लिए उनसे दबाकर रख सकते, मृत्यु तुम लोगों से भी बड़ी है। अपनी मृत्यु में वह महान है- वहां बिंदु केवल बंगाली परिवार की लड़की नहीं है, केवल चचेरे भाइयों की बहन नहीं है, केवल किसी अपरिचित पागल पति की प्रवंचिता पत्नी नहीं है। वहां वह अनंत है।
मृत्यु की उस वंशी का स्वर उस बालिका के भग्न हृदय से निकलकर जब मेरे जीवन की यमुना के पास बजने लगा तो पहले-पहल मानो मेरी छाती में कोई बाण बिंध गया हो। मैंने विधाता से प्रश्न किया, 'इस संसार में जो सबसे अधिक तुच्छ है वही सबसे अधिक कठिन क्यों है?' इस गली में चारदीवारी से घिरे इस निरानंद स्थान में यह जो तुच्छतम बुदबुद है, वह इतनी भयंकर बाधा कैसे बन गया? तुम्हारा संसार अपनी शठ-नीतियों से क्षुधा-पात्र को संभाले कितना ही क्यों न पुकारे, मैं उस अंत:पुर की जरा-सी चौखट को क्षण-भर के लिए भी पार क्यों न कर सकी? ऐसे संसार में ऐसा जीवन लेकर मुझे इस अत्यंत तुच्छ काठ पत्थर की आड़ में ही तिल-तिलकर क्यों मरना होगा? कितनी तुच्छ है यह मेरी प्रतिदिन की जीवन-यात्रा। इसके बंधे नियम, बंधे अभ्यास, बंधी हुई बोली, बंधी हुई मार सब कितनी तुच्छ है- फिर भी क्या अंत में दीनता के उस नाग-पाश बंधन की ही जीत होगी, और तुम्हारे अपने इस आनंद-लोक की, इस सृष्टि की हार?
लेकिन, मृत्यु की वंशी बजने लगी- कहां गई राज-मिस्त्रियों की बनाई हुई वह दीवार, कहां गया तुम्हारे घोर नियमों से बंधा वह कांटों का घेरा। कौन-सा है वह दु:ख, कौन-सा है वह अपमान जो मनुष्य को बंदी बनाकर रख सकता है। यह लो, मृत्यु के हाथ में जीवन की जय-पताका उड़ रही है। अरी मझली बहू, तुझे डरने की अब कोई जरूरत नहीं। मझली बहू के इस तेरे खोल को छिन्न होते एक निमेष भी न लगा।
तुम्हारी गली का मुझे कोई डर नहीं। आज मेरे सामने नीला समुद्र है, मेरे सिर पर आषाढ़ के बादल।
तुम लोगों की रीति-नीति के अंधेरे ने मुझे अब तक ढक रखा था। बिंदु ने आकर क्षण-भर के लिए उस आवरण के छेद में से मुझे देख लिया। वही लड़की अपनी मृत्यु द्वारा सिर से पैर तक मेरा वह आवरण उघाड़ गई है। आज बाहर आकर देखती हूं, अपना गौरव रखने के लिए कहीं जगह ही नहीं है। मेरा यह अनादृत रूप जिनकी आंखों को भाया है वे सुंदर आज संपूर्ण आकाश से मुझे निहार रहे हैं। अब मझली बहू की खैर नहीं।
तुम सोच रहे होगे, मैं मरने जा रही हूं-डरने की कोई बात नहीं। तुम लोगों के साथ मैं ऐसा पुराना मजाक नहीं करूंगी। मीराबाई भी तो मेरी ही तरह नारी थी। उनकी जंजीरें भी तो कम भारी नहीं थीं, बचने के लिए उनको तो मरना नहीं पड़ा। मीराबाई ने अपने गीत में कहा था, 'बाप छोड़े, मां छोड़े, जहां कहीं जो भी हैं, सब छोड़ दें, लेकिन मीरा की लगन वहीं रहेगी प्रभु, अब जो होना है सो हो।'
यह लगन ही तो जीवन है।
मैं अभी जीवित रहूंगी। मैं बच गई।
तुम लोगों के चरणों के आश्रय से छूटी हुई
मृणाल
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Old 27-02-2011, 01:14 AM   #36
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कवि और कविता
राजमहल के सामने भीड़ लगी हुई थी। एक नवयुवक संन्यासी बीन पर प्रेम-राग अलाप रहा था। उसका मधुर स्वर गूंज रहा था। उसके मुख पर दया और सहृदता के भाव प्रकट हो रहे थे। स्वर के उतार-चढ़ाव और बीन की झंकार दोनों ने मिलकर बहुत ही आनन्दप्रद स्थिति उत्पन्न कर रखी थी। दर्शक झूम-झूमकर आनन्द प्राप्त कर रहे थे।
गाना समाप्त हुआ, दर्शक चौंक उठे। रुपये-पैसे की वर्षा होने लगी। एक-एक करके भीड़ छटने लगी। नवयुवक संन्यासी ने सामने पड़े हुए रुपये-पैसों को बड़े ध्यान से देखा और आप-ही-आप मुस्करा दिया। उसने बिखरी हुई दौलत को एकत्रित किया और फिर उसे ठोकर मारकर बिखरा दिया। इसके पश्चात् बीन उठाकर एक ओर चल दिया।
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Old 27-02-2011, 01:15 AM   #37
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2
राजकुमारी माया ने भी उस नवयुवक संन्यासी का गाना सुना था। दर्शक प्रतिदिन वहां आते और संन्यासी को न पाकर निराश हो वापस चले जाते थे। राजकुमारी माया भी प्रतिदिन राजमहल के सामने देखती और घंटों देखती रहती। जब रात्रि का अन्धकार सर्वत्र अपना आधिपत्य जमा लेता तो राजकुमारी खिड़की में से उठती। उठने से पहले वह सर्वदा एक निराशाजनक करुणामय आह खींचा करती थी।
इसी प्रकार दिन, हफ्ते और महीने बीत गए। वर्ष समाप्त हो गया, परन्तु युवक संन्यासी फिर दिखाई न दिया। जो व्यक्ति उसकी खोज में आया करते थे, धीरे-धीरे उन्होंने वहां आना छोड़ दिया। वे उस घटना को भूल गये, किन्तु राजकुमारी माया...
राजकुमारी माया उस युवक संन्यासी को हृदय से न भुला सकी। उसकी आंखों में हर समय उसका चित्र फिरता। होते-होते उसने भी गाने का अभ्यास किया। वह प्रतिदिन अपने उद्यान में जाती और गाने का अभ्यास करती। जिस समय रात्रि की नीरवता में सोहनी की लय गूंजती तो सुनने वाले ज्ञान-शून्य हो जाते।
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Old 27-02-2011, 01:16 AM   #38
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3
राजकवि अनंगशेखर युवक था। उसकी कविता प्रभावशाली और जोरदार होती थी। जिस समय वह दरबार में अपनी कविता गायन के साथ पढ़कर सुनाता तो सुनने वालों पर मादकता की लहर दौड़ जाती, शून्यता का राज्य हर ओर होता। राजकुमारी माया को कविता से प्रेम था। सम्भवत: वह भी अनंगशेखर की कविता सुनने के लिए विशेषत: दरबार में आ जाती थी।
राजकुमारी की उपस्थिति में अनंगशेखर की जुबान लड़खड़ा जाती। वह ज्ञान-शून्य-सा खोया-खोया हो जाता, किन्तु इसके साथ ही उसकी भावनाएं जागृत हो जातीं। वह झूम-झूमकर और उदाहरणों को सम्मुख रखता। सुनने वाले अनुरक्त हो जाते। राजकुमारी के हृदय में भी प्रेम की नदी तरंगें लेने लगती। उसको अनंगशेखर से कुछ प्रेम अनुभव होता, किन्तु तुरन्त ही उसकी आंखें खुल जातीं और युवक संन्यासी का चित्र उसके सामने फिरने लगता। ऐसे मौके पर उसकी आंखों से आंसू छलकने लगते। अनंगशेखर आंसू-भरे नेत्रों पर दृष्टि डालता तो स्वयं भी आंसुओं के प्रवाह में बहने लगता। उस समय वह शस्त्र डाल देता और अपनी जुबान से आप ही कहता- ''मैं अपनी पराजय मान चुका।''
कवि अपनी धुन में मस्त था। चहुंओर प्रसन्नता और आनन्द दृष्टिगोचर होता था। वह अपने विचारों में इतना मग्न था जैसे प्रकृति के आंचल में रंगरेलियां मना रहा हो।
सहसा वह चौंक पड़ा। उसने आंखें फाड़-फाड़कर अपने चहुंओर दृष्टि डाली और फिर एक उसांस ली। सामने एक कागज पड़ा था। उस पर कुछ पंक्तियां लिखी हुई थीं। रात्रि का अन्धकार फैलता जा रहा था। वह वापस हुआ।
राजमहल समीप था और उससे मिला हुआ उद्यान था। अनंगशेखर बेकाबू हो गया। राजकुमारी की खोज उसको बरबस उद्यान के अन्दर ले गई।
चन्द्रमा की किरणें जलस्रोत की लहरों से अठखेलियां कर रही थीं, प्रत्येक दिशा में जूही और मालती की गन्ध प्रसारित थी, कवि आनन्दप्रद दृश्य को देखने में तल्लीन हो गया। भय और शंका ने उसे आ दबाया। वह आगे कदम न उठा सका। समीप ही एक घना वृक्ष था। उसकी छाया में खड़े होकर वह उद्यान के बाहर का आनन्द प्राप्त करने लगा। इसी बीच में वायु का एक मधुर झोंका आया। उसने अपने शरीर में एक कम्पन अनुभव किया। इसके बाद उद्यान से एक मधुर स्वर गूंजा, कोई गा रहा था। वह अपने-आपे में न था, कुछ खो-सा गया। मालूम नहीं इस स्थिति में वह कितनी देर खड़ा रहा? जिस समय वह होश में आया, तो देखा कोई पास खड़ा है। वह चौंक उठा, उसके सामने राजकुमारी माया खड़ी थी।
अनंगशेखर का सिर नीचा हो गया। राजकुमारी ने मुस्कराते हुए होंठों से पूछा- ''अनंगशेखर, तुम यहां क्यों आये?''
कवि ने सिर उठाया, फिर कुछ लजाते हुए राजकुमारी की ओर देखा, फिर से मुख से कुछ न कहा।
राजकुमारी ने फिर पूछा-''तुम यहां क्यों आये?''
इस बार कवि ने साहस से काम लिया। हाथ में जो पत्र था वह राजकुमारी को दे दिया। राजकुमारी ने कविता पढ़ी। उस कविता को अपने पास रखना चाहा; किन्तु वह छूटकर हाथ से गिर गई। राजकुमारी तीर की भांति वहां से चली गई। अब कवि से सहन न हो सका, वह ज्ञान-शून्य होकर चिल्ला उठा-''माया, माया!''
परन्तु अब माया कहां थी।
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Old 27-02-2011, 01:17 AM   #39
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4
राजदरबार में एक युवक आया, दरबारी चिल्ला उठे- ''अरे, यह तो वही संन्यासी है जो उस दिन राजमहल के सामने गा रहा था।
राजा ने मालूम किया- ''यह युवक कौन है?''
युवक ने उत्तर दिया- ''महाशय, मैं कवि हूं।''
राजकुमारी उस युवक को देखकर चौंक उठी।
राजकवि ने भी उस युवक पर दृष्टि डाली, मुख फक हो गया। पास ही एक व्यक्ति बैठा हुआ था, उसने कहा- ''वाह! यह तो एक भिक्षुक है।''
राजकवि बोल उठा- ''नहीं, उसका अपमान न करो, वह कवि है।''
चहुंओर सन्नाटा छा गया। महाराज ने उस युवक से कहा- ''कोई अपनी कविता सुनाओ।''
युवक आगे बढ़ा, उसने राजकुमारी को और राजकुमारी ने उसको देखा। स्वाभिमान अनुभव करते हुए उसने कदम आगे बढ़ाये।
राजकवि ने भी यह स्थिति देखी तो उसके मुख पर हवाइयां उड़ने लगीं।
युवक ने अपनी कविता सुनानी आरम्भ की। प्रत्येक चरण पर 'वाह-वाह' की ध्वनियां गूंजने लगीं, किसी ने ऐसी कविता आज तक न सुनी थी।
युवक का मुख स्वाभिमान और प्रसन्नता से दमक उठा। वह मस्त हाथी की भांति झूमता हुआ आया और अपने स्थान पर बैठ गया। उसने एक बार फिर राजकुमारी की ओर देखा और इसके पश्चात् राजकवि की ओर।
महाराज ने राजकवि से कहा- ''तुम भी अपनी कविता सुनाओ।''
अनंगशेखर चेतना-शून्य-सा बैठा था। उसके मुख पर निराशा और असफलता की झलक प्रकट हो रही थी।
महाराज फिर बोले- ''अनंगशेखर! किस चिन्ता में निमग्न हो? क्या इस युवक-कवि का उत्तर तुमसे नहीं बन पड़ेगा?''
यह अपमान कवि के लिए असहनीय था! उसकी आंखें रक्तिम हो गयीं, वह अपने स्थान से उठा और आगे बढ़ा। उस समय उसके कदम डगमगा रहे थे।
आगे पहुंचकर वह रुका, हृदय खोलकर उसने अपनी काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन किया। चहुंओर शून्यता और ज्ञान-शून्यता छा गई, श्रोता मूर्ति-से बनकर रह गये।
राजकवि मौन हो गया। एक बार उसने चहुंओर दृष्टिपात किया। उस समय राजकुमारी का मुख पीला था। उस युवक का घमण्ड टूट चुका था। धीरे-धीरे सब दरबारी नींद से चौंके, चहुंओर से 'धन्य है, धन्य है' की ध्वनि गूंजी। महाराज ने राजसिंहासन से उठकर कवि को अपने हृदय से लगा लिया। कवि की यह अन्तिम विजय थी।
महाराज ने निवेदन किया- ''अनंग! मांगो क्या मांगते हो? जो मांगोगे दूंगा।''
राजकवि कुछ देर तक सोचता रहा। इसके बाद उसने कहा- ''महाराज मुझे और कुछ नहीं चाहिए! मैं केवल राजकुमारी का इच्छुक हूं।''
यह सुनते ही राजकुमारी को गश आ गया। कवि ने फिर कहा- ''महाराज, आपके कथनानुसार राजकुमारी मेरी हो चुकी, अब जो चाहूं कर सकता हूं।'' यह कहकर उसने युवक-कवि को अपने समीप बुलाया और कहा-
''मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य यह था कि राजकुमारी का प्रेम प्राप्त करूं। तुम नहीं जानते कि राजकुमारी की प्रसन्नता और सुख के लिए मैं अपने प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार हूं। हां, युवक! तुम इनमें से किसी बात से परिचित नहीं हो; किन्तु थोड़ी देर के पश्चात् तुमको ज्ञात हो जायेगा कि मैं ठीक कहता था या नहीं।''
कवि की जुबान रुक गई, उसका स्वर भारी हो गया, सिलसिला जारी रखते हुए उसने कहा- ''क्या तुम जानते हो कि मैंने क्या देखा? नहीं। और इसका न जानना ही तुम्हारे लिए अच्छा है। सोचता था, जीवन सुख से व्यतीत होगा, परन्तु यह आशा भ्रमित सिध्द हुई। जिससे मुझे प्रेम है वह अपना हृदय किसी और को भेंट कर चुकी है। जानते हो अब राजकुमारी को मैं पाकर भी प्रसन्न न हो सकूंगा; क्योंकि राजकुमारी प्रसन्न न हो सकेगी। आओ, युवक आगे आओ! तुम्हें मुझसे घृणा हो तो, बेशक हुआ करे, आओ आज मैं अपनी सम्पूर्ण संपत्ति तुम्हें सौंपता हूं।''
राजकवि मौन हो गया। किन्तु उसका मौन क्षणिक था। सहसा उसने महाराज से कहा- ''महाराज, एक विनती है और वह यह कि मेरे स्थान पर इस युवक को राजकवि बनाया जाए।''
राजकवि के कदम लड़खड़ाने लगे। देखते-देखते वह पृथ्वी पर आ रहा। अन्तिम बार पथराई हुई दृष्टि से उसने राजकुमारी की ओर देखा, यह दृष्टि अर्थमयी थी। वह राजकुमारी से कह रहा था- ''मेरी प्रसन्नता यही है कि तुम प्रसन्न रहो। विदा।''
इसके पश्चात् कवि ने अपनी आंख बन्द कर लीं और ऐसी बन्द कीं कि फिर न खुलीं।
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Old 10-03-2011, 07:56 AM   #40
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सीमान्त
उस दिन सवेरे कुछ ठण्ड थी; परन्तु दोपहर के समय हवा गर्मी पाकर दक्षिण दिशा की ओर से बहने लगी थी। यतीन जिस बरामदे में बैठा हुआ था, वहां से उद्यान के एक कोने में खड़े हुए कटहल और दूसरी ओर के शिरीष वृक्ष के बीच से बाहर का मैदान दिखाई पड़ता है। वह सुनसान मैदान फाल्गुन की धूप में धू-धू करके जल रहा था। उसी से सटा हुआ एक कच्चा रास्ता निकल गया है। उसी पर एक खाली बैलगाड़ी धीमी चाल से गांव की ओर लौट रही थी और गाड़ीवान धूप से बचने के लिए सिर पर लाल रंग का गमछा लपेटे मस्ती में किसी गीत की कड़ियां दोहराता हुआ जा रहा था?
ठीक इसी समय पीछे से किसी नारी का मधुर और हास्य स्वर फूट पड़ा- ''क्यों यतीन, क्या बैठे-बैठे अपने पिछले जन्म की किसी बात को सोच रहे हो?'' यतीन ने सुना और पीछे की ओर देखकर कहा- ''क्या मैं ऐसा ही हतभागा हूं पटल, जो सोचते समय पिछले जन्म के विचारे बिना काम ही नहीं चलेगा।''
अपने परिवार में पटल नाम से पुकारी जाने वाली वह बाला बोल उठी- ''झूठी शेखी मत मारो यतीन; तुम्हारे इस जन्म की सारी बातें मुझे मालूम हैं। छि:! छि:! इतनी उम्र हो गई, फिर भी एक बहू घर में न ला सके। हमारा जो धनेसर माली है, उसकी भी एक घरवाली है। रात-दिन उसके साथ लड़-झगड़कर मोहल्ले भर के लोगों को वह कम-से-कम इतना तो बता देती है, कि उसका भी इस दुनिया में अस्तित्व है। तुम तो मैदान की तरफ मुंह करके ऐसे भाव दर्शा रहे हो, मानो किसी पूनम के चांद से सलोने मुखड़े का ध्यान करने के लिए बैठे हो? तुम्हारी इन चालाकियों को मैं खूब समझती हूं। यह सब लोगों को दिखाने के लिए ढोंग रच रखा है। देखो यतीन, जाने-माने ब्राह्मण के लिए जनेऊ की आवश्यकता नहीं पड़ती। हमारा वह धनेसर माली तो कभी विरह का बहाना करके इस सुनसान मैदान की ओर दृष्टि गड़ाये बैठा नहीं रहता। जुदाई की लम्बी घड़ियों में भी उसे वृक्ष के नीचे हाथों में खुरपी थामे समय काटते देखा है; किन्तु उसकी आंखों में ऐसी खुमारी नहीं देखी। एक तुम हो, जिसने सात जन्म से कभी बहू का सलोना मुखड़ा नहीं निहारा। बस, अस्पताल में शव की चीर-फाड़ करके और मोटे-मोटे पोथे रट-रटकर उम्र के सुहावने दिन काट दिये। अब आखिर, इस चिलचिलाती दोपहरी में तुम इस प्रकार ऊपर की ओर टकटकी बांधे क्या देखते रहते हो, कुछ तो कहो? नहीं, ये सब व्यर्थ की चालाकियां मुझे अच्छी नहीं लगतीं। देख-देखकर सारा बदन-अन्तर की ज्वाला से जलने लगता है।
यतीन ने सुना और हाथ जोड़कर कहा-''चलो, रहने भी दो। मुझे व्यर्थ में वैसे ही लज्जित मत करो। तुम्हारा वह धनेसर माली ही सब प्रकार से धन्य रहे। उसी के आदर्शों पर मैं चलने का यत्न करूंगा बस, अब देर नहीं, सवेरे उठते ही सामने लकड़ियां बीनने वाली जिस किसी बाला का मुंह देखूंगा उसी के गले में स्नेह से गुंथी हुई फूलों की माला डाल दूंगा। तुम्हारे ये कटाक्ष भरे शब्द अब मुझसे नहीं सहन होते।''
''बात निश्चित रही न...'' पटल ने पूछा।
''हां।''
''तब चलो मेरे साथ।''
यतीन कुछ भी न समझ सका। उसने पूछा- ''कहां?''
पटल ने उसे उठाते हुए कहा- ''चलो तो सही।''
परन्तु यतीन ने हाथ छुड़ाते हुए कहा-''नहीं, नहीं अवश्य तुम्हें कोई नई शरारत सूझी है। मैं अभी तुम्हारे साथ नहीं जाने का हूं।''
''अच्छा, तो यहीं पड़े रहो- ''पटल ने रोष-भरे शब्दों में कहा और शीघ्रता के साथ अन्दर चली गई।
यतीन और पटल की आयु में बहुत थोड़ा अन्तर है और वह है सिर्फ एक दिन का। पटल यतीन से बड़ी थी, चाहे उसे यह बड़प्पन एक ही दिन का मिला हो; लेकिन इस एक दिन के लिए यतीन को उसके लिए लोकाचार हेतु सम्मान दिखाना होगा, यह यतीन को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं। दोनों का सम्बन्ध चचेरे भाई-बहन का है और बचपन एक साथ ही खेलकूद में बीता है। यतीन के मुख से 'दीदी' शब्द न सुनकर पटल ने अनेकों बार पिता और चाचा से उसकी शिकायत की; परन्तु किसी प्रकार से भी इसका खास फल निकला हो, ऐसा नहीं जान पड़ता। संसार में इस एक छोटे भाई के पास भी पटल का छोटा-सा मामूली नाम 'पटल' आज तक नहीं छिप सका।
पटल देखने में खासी मोटी-ताजी, गोल-मटोल लड़की है। उसके प्रसन्न मुख से किये जाने वाले आश्चर्यजनक हास-परिहासों को रोकने की ताकत समाज में भी नहीं थी। उसका चेहरा सास-मां के सामने भी गम्भीरता का साम्राज्य स्थापित नहीं कर सका। पहले-पहल वह इन बातों के कारण इस नये घर में चर्चा का केन्द्र बनी रही। अन्त में स्वयं पराजित होकर परिजनों को कहना पड़ा- ''इस बहू के तो ढंग ही अनोखे हैं।''
कुछ दिनों के बाद तो इसकी ससुराल में यहां तक नौबत आ गई, कि इसके हास्य के आघात से परिजनों का गाम्भीर्य भूमिसात हो गया; क्योंकि पटल के लिए किसी का भारी जी और मुंह लटकाना देखना असम्भव है।
पटल के पति हरकुमार बाबू डिप्टी मजिस्ट्रेट हैं। बिहार के एक इलाके से उनकी तरक्की करके उन्हें कलकत्ते के आबकारी विभाग में उच्च पद पर ले लिया गया है। प्लेग के भय से कलकत्ता के बाहर उपनगर में एक किराये के मकान में रहते हैं और वहीं से अपने काम पर कलकत्ते आया-जाया करते हैं। मकान के चारों ओर बड़ी चारदीवारी है और उसी में एक छोटा-सा बगीचा है।
इस आबकारी के विभाग में हरकुमार बाबू को अक्सर दौरे के रूप में अनेक गांवों का चक्कर काटना पड़ता है। पटल इस मौके पर अकेली रह जाती है, जो उसे खलता है। वे इस बात को दूर करने के लिए किसी आत्मीयजन को घर से बुलाने की सोच रहे थे कि उसी समय हाल ही में डॉक्टरी की उपाधि से सुशोभित यतीन चचेरी बहन के निमन्त्रण पर एक सप्ताह के लिए वहां आ पहुंचा।
कलकत्ते की प्रसिध्द अंधेरी गलियों में से होकर पहली बार पेड़-पत्तों के बीच आकर आज यतीन इस सूने बरामदे में फाल्गुन की दुपहरिया से आत्मविभोर बैठा था कि पटल पीछे से आकर यह नई शरारत कर गई। पटल के चले जाने के बाद वह कुछ देर के लिए निश्चिंत होकर बैठ गया। लकड़ी बीनने वाली लड़कियों का जिक्र आ जाने के कारण यतीन का मन बचपन में सुनी परी-देश की रोचक कथाओं के गली-कूचों में चक्कर काटने लगा।
पर कहां? अभी कुछ क्षण भी नहीं बीते होंगे, कि पटल का हास्य से भरा हुआ चिर-परिचित स्वर यतीन के कानों में पड़ा। उसे सुनकर वह चौंक पड़ा। उसने मुड़कर देखा पटल किसी बालिका को खींचे ला रही थी? इतना देखकर यतीन में मुख फेर लिया। तभी पटल ने उस बालिका को यतीन के सामने करके पुकारा- '''चुनिया!'' बालिका ने अपना नाम सुन करके कहा- ''क्या है दीदी?''
पटल ने चुनिया का हाथ छोड़ते हुए कहा- ''मेरा यह भाई कैसा है? देख तो भला।''
चुनिया जो अब तक गर्दन झुकाये हुए थी नि:संकोच यतीन के चेहरे की ओर निहारने लगी।
उसे ऐसा करते हुए देख, पटल ने पूछा-''क्यों री, देखने में तो अच्छा लगता है न?''
चुनिया ने शान्त स्वर से सिर हिलाते हुए कहा- ''हां! अच्छा ही है।''
यतीन ने देखा और सुना, फिर लज्जावश कुर्सी से उठता हुआ बोला- ''ओह पटल! यह क्या लड़कपन है?''
''मैं लड़कपन कर रही हूं या तुम व्यर्थ में ही बुढ़ापा दिखला रहे हो। पटल ने यतीन के शब्दों को सुनकर नि:संकोच कहा।
'अब बचना मुश्किल है' -यतीन के होंठों से शब्द निकले और वह वहां से भाग गया। पटल ने उसका पीछा किया और भागती हुई बोली। ''अरे! सुनो तो, भय की कोई बात नहीं है, यकीन तनिक भी नहीं है। कौन तुम्हारे गले में अभी माला डाल रहा है? फाल्गुन-चैत में तो इस बार कोई लगन ही नहीं पड़ती, अभी बहुत समय है।''
वे दोनों उस जगह से चले गये; परन्तु चुनिया आश्चर्यचकित अवस्था में वहीं खड़ी रह गई। उसके इकहरे बदन ने तनिक भी जुम्बिश न की। उसकी आयु लगभग 16 ही वर्ष की होगी। उसके सलोने मुख का वर्णन पूर्णतया लेखनी से नहीं किया जा सकता; पर इतना अवश्य लिखा जा सकता है, कि उसमें ऐसी आकर्षण शक्ति है, जो देखते ही वन की मृगी की याद दिला देती है। साहित्यिक भाषा में कहने की आवश्यकता पड़े तो उसे निर्बुध्दि भी कहा जा सकता है; किन्तु मूर्ख के साथ उसकी उपमा नहीं दी जा सकती है। हां, अपने समाधान के लिए यह अवश्य सोचा जा सकता है, कि बुध्दिवृत्तिपूर्ण विकसित नहीं हुई है; लेकिन इन सब बातों से चुनिया का सौन्दर्य घटा नहीं; अपितु उसमें एक विशेषता ही आ गई है।
संध्या को हरकुमार बाबू ने कलकत्ते से लौटकर यतीन को देखा तो वे बहुत प्रसन्न हुए और उसी मुद्रा में बोले- ''तुम आ पहुंचे, चलो बड़ा ही अच्छा हुआ।''
और फिर दफ्तर के कपड़े बदलकर जल्दी से उसके पास बैठकर कुछ व्यस्त भाव बोले-''यतीन! तुम्हें जरा डॉक्टरी करनी होगी। अकाल के दिनों में जब हम पश्चिम की ओर रह रहे थे; तभी से एक लड़की को पाल रहे हैं। पटल उसे चुनिया कहकर पुकारती है। उसके मां-बाप और वह, सब बाहर मैदान के पास ही एक पेड़ के नीचे पड़े हुए थे। सूचना मिलते ही मैंने बाहर जाकर देखा, तो बेचारे मां-बाप दुनिया के झंझटों से मुक्ति पा चुके थे, सिर्फ लड़की के प्राण अभी बाकी थे। मैंने उस लड़की को वहां से उठाकर पटल को सौंप दिया। पटल ने अपना उत्तरदायित्व समझा और बड़ी सेवा-जतन के बाद उसे बचाने में समर्थ हुई।
उसकी जाति के विषय में कोई कुछ नहीं जानता? यदि उस ओर से कोई ऐतराज भी करता है तो पटल कहती है वह द्विज है। एक बार मरकर फिर
से जो इस घर में जन्मी है। इसलिए इसकी मूल जाति तो कभी की मिट चुकी है।
पहले पहल उसने पटल को मां कहकर पुकारना शुरू किया था; पर पटल को इसमें लज्जा का भास होता था। अत: पटल ने उसे धमकाते हुए कहा- ''खबरदार! मुझे अब से मां मत कहना। दीदी कहकर भले ही पुकार सकती हो, पटल कहती है, ''अरे, इतनी बड़ी लड़की यदि मुझे मां कहेगी तो मैं अपने आपको बुढ़िया समझने लगूंगी।''
हरकुमार बाबू ने लम्बी सांस खींचकर पुन: कहा- ''यतीन एक बात और भी है। शायद उन अकाल के दिनों में या फिर किसी अन्य कारणवश चुनिया को रह-रहकर एक शूल की तरह पीड़ा उठा करती है। असल बात क्या है, सो तुम्हीं को अच्छी तरह डॉक्टरी परीक्षा करके समझना होगा-अरे, ओ तुलसी, चुनिया को तो बुला ला।''
हरकुमार बाबू के इस लम्बे व्याख्यान की समाप्ति पर यतीन खुलकर सांस भी न ले सका था, कि चुनिया केश बांधती हुई, अपनी आधी बंधी बेणी को पीठ पर लटकाये कमरे में दाखिल हुई। अपनी बड़ी-बड़ी गोली आंखों को एक बार दोनों व्यक्तियों पर डालकर चुपचाप खड़ी हो गई।
हरकुमार बाबू सबकी चुप्पी को तोड़कर बोले- ''तुम तो व्यर्थ में ही संकोच कर रहे हो यतीन। यह तो देखने भर की बड़ी है। कच्चे नारियल की तरह इसके भीतर सिर्फ स्वच्छ तरल द्रव्य ही छलक रहा है; कठोर गरी की रेखा मात्र भी अभी तक फूटी नहीं है। यह बेचारी कुछ भी समझती-बूझती नहीं है। इसे तुम नारी समझने की भूल मत कर बैठना। यह तो जंगल की भोली-भाली मृगी-मात्र है।''
यतीन चुपचाप अपने डॉक्टरी फर्ज को पूरा करने में लग गया। चुनिया ने भी किसी प्रकार का संकोच नहीं किया और न आपत्ति ही उठाई? यतीन ने थोड़ी देर तक चुनिया के शरीर की जांच-पड़ताल करके कहा- ''शरीर यंत्र में कोई विकार पैदा हुआ हो? ऐसा तो दिखाई नहीं देता।''
पटल ने उसी क्षण आंधी के समान वहां पहुंचकर कहा- ''हृदय-यंत्र में भी कोई विकार पैदा नहीं हुआ। यतीन परीक्षा करना चाहते हो क्या...अच्छी बात है।''
और फिर वह चुनिया के पास जाकर उसकी ठोड़ी छूती हुई बोली- ''चुनिया! मेरा यह भाई तुझे पसंद आया न?''
चुनिया ने सिर हिलाकर कहा- ''हां।''
पटल ने फिर पूछा- ''मेरे इस भाई से विवाह करेगी?''
चुनिया ने इस बार भी वैसे ही सिर हिलाकर कहा- ''हां।''
पटल और हरकुमार बाबू दोनों ही हंस पड़े। चुनिया इस खेल के मर्म को समझकर भी इन्हीं का अनुकरण किए, हंसी से घिरा चेहरा लेकर एकटक ताकती रह गई।
यतीन का चेहरा लज्जा से लाल हो उठा। वह कुछ परेशान-सा होकर बोला- ''ओह, पटल! तुम बहुत ज्यादती कर रही हो। यह तो सरासर अन्याय है। हरकुमार बाबू भी तो तुम्हें बढ़ावा दे रहे हैं।''
पटल के कुछ कहने से पूर्व हरकुमार बाबू बोले- ''यदि ऐसा न करूं तो मैं इससे प्रश्रय पाने की प्रत्याशा कैसे कर सकता हूं- तनिक बताओ तो सही? लेकिन यतीन, चुनिया को तुम नहीं जानते हो, इसी कारण तुम इतने हैरान हो रहे हो। दिखाई देता है, तुम स्वयं लजा-लजाकर चुनिया को भी लजाना सिखा दोगे। ज्ञान वृक्ष का फल उसे दया कर मत खिलाओ। आज तक हम सब ने सरल भाव से उसके साथ खेल किया है। अब तुम यदि बीच में आकर गम्भीरता दिखाने लगोगे तो उसके लिए बड़ा असंगत-सा मामला हो जायेगा...।''
तभी पटल बोली उठी- ''इसी से तो यतीन के साथ मेरी कभी नहीं बनी। बचपन से लेकर आज तक सिर्फ झगड़ा ही हुआ है। यतीन आवश्यकता से अधिक गम्भीर है।''
हरकुमार बाबू किसी रहस्य के मर्म को समझते हुए बोले- ''शायद इसी कारण से यह वाक्युध्द करना तुम्हारी आदत बन गई है। जब भाई साहब नौ दो ग्यारह हुए तो फिर मुझ गरीब...।''
पटल ने तुनककर कहा- ''फिर वही झूठ! भला आपसे झगड़ा करने में कौन-सा सुख पा जाती हूं- इसलिए मैं उसकी चेष्टा ही नहीं करती?''
मैं शुरू में ही हार मान लेता हूं- ''हरकुमार बाबू ने पटल को चिढ़ाने के अभिप्राय से उत्तर दिया।
''बड़ी बहादुरी दिखाते हो न शुरू में हारकर, यदि मेरी अंत में मान लेते, तो कितनी खुशी मुझे होती। आपने कभी समझने का भी प्रयत्न किया है इसे। ''इतना कहकर पटल चुनिया को लेकर वहां से चली गई। उसके जाते ही कमरे में नीरवता का आवरण छा गया। वे दोनों एक-दूसरे को देखते हुए शान्त बैठ रहे। थोड़ी देर के बाद तुलसी ने भोजन की सूचना दी। हरकुमार बाबू यतीन को लेकर तुलसी के पीछे रसोईघर में पहुंच गये। पटल वहां न थी। चुनिया ने ही खाना परोसने का काम किया। दोनों भोजन करने बैठ गये। खाते समय बातें करना सभ्यता के विरुध्द समझकर हरकुमार बाबू ने बोलना उचित नहीं समझा-इस प्रकार वह वातावरण शान्त ही बना रहा।
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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