31-10-2010, 12:58 PM | #31 |
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सिंहासन बत्तीसी 29 एक दिन राजा विक्रमादित्य ने सपना देखा कि एक सोने का महल है, जिसमें तरह-तरह के रत्न जड़े हैं, कई तरह के पकवान और सुगंधियां हैं, फुलवाड़ी खिली हुई है, दीवारों पर चित्र बने हैं, अंदर नाच और गाना हो रहा है और एक तपस्वी बैठा हुआ है। अगले दिन राजा ने अपने वीरों को बुलाया और अपना सपना बताकर कहा कि मुझे वहां ले चलो, जहां ये सब चीजें हों। वीरों ने राजा को वहीं पहुंचा दिया। राजा को देखकर नाच-गान बंद हो गया। तपस्वी बड़ा गुस्सा हुआ। विक्रमादित्य ने कहा, "महाराज! आपके क्रोध की आग की कौन सह सकता है? मुझे क्षमा करें।" तपस्वी प्रसन्न हो गया और बोला, "जो जी में आये, सो मांगो।" राजा ने कहा, "योगिराज! मेरे पास किसी चीज की कमी नहीं है। यह महल मुझे दे दीजिये।" योगी वचन दे चुका था। उसने महल राजा को दे दिया। महल दे तो दिया, पर वह स्वयं बड़ा दुखी होकर इधर-उधर भटकने लगा। अपना दुख उसने एक दूसरे योगी को बताया। उसने कहा, "राजा विक्रमादित्य बड़ा दानी है। तुम उसे पास जाओ और महल को मांग लो। वह दे देगा।" तपस्वी ने ऐसा ही किया। राजा विक्रमादित्य ने मांगते ही महल उसे दे दिया। पुतली बोली, "राजन्! हो तुम इतने दानी तो सिंहासन पर बैठो?" अगले दिन रुपवती नाम की तीसवीं पुतली की बारी थी। सो उसने राजा को रोककर यह कहानी सुनायी: |
31-10-2010, 01:20 PM | #32 |
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सिंहासन बत्तीसी 30 एक दिन रात के समय राजा विक्रमादित्य घूमने के लिए निकला। आगे चलकर देखता क्या है कि चार चोर खड़े आपस में बातें कर रहे हैं। उन्होंने राजा से पूछा, 'तुम कौन हो?" राजा ने कहा, "जो तुम हो, वहीं मैं हूं।" तब चोरों ने मिलकर सलाह की कि राजा के यहां चोरी की जाय। एक ने कहा, "मैं ऐसा मुहूर्त देखना जानता हूं कि जायं तो खाली हाथ न लौटें।" दूसरे ने कहा, "मैं जानवरों की बोलियां समझता हूं।" तीसरा बोला, "मैं जहां चोरी को जाऊं, वहां मुझे कोई न देख सके, पर मैं सबको देख लूं।" चौथे ने कहा, "मेरे पास ऐसी चीज है कि कोई मुझे कितना ही मारे, मैं ने मरुं।" फिर उन्होंने राजा से पूछा तो उन्होंने कहा, "मैं यह बता सता हूं कि धन कहां गड़ा है।" पांचों उसी वक्त राजा के महल में पहुंचे। राजा ने जहां धन गड़ा था, वह स्थान बता दिया। खोदा तो सचमुच बहुत-सा माल निकला। तभी एक गीदड़ बोला, जानवरों की बोली समझने वाले चोर ने कहा, "धन लेने में कुशल नहीं है।" पर वे न माने। फिर उन्होंने एक धोबी के यहां सेंध लगाई। राजा को अब क्या करना था। वह उनके साथ नहीं गया। अगले दिन शोर मच गया कि राज के महल में चोरी हो गई। कोतवाल ने तलाश करके चोरों को पकड़कर राजा के सामने पेश किया। चोर देखते ही पहचान गये कि रात को उनके साथ पांचवां चोर और कोई नहीं, राज था। उन्होंने जब यह बात राजा से कही तो वह हंसने लगा। उसने कहा, "तुम लोग डरो मत। हम तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगड़ने देंगे। पर तुम कसम लो कि आगे से चोरी नहीं करोगे। जितना धन तुम्हें चाहिए, मुझसे ले लो।" राजा ने मुंहमांगा धन देकर विदा किया। पुतली बोली, "हे राज भोज! है तुममें इतनी उदारता?" अगले दिन राजा ने जैसे ही सिंहासन की ओर पैर बढ़ाया कि कौशल्या नाम की इकत्तीसवीं पुतली ने उसे रोक दिया। बोली, "हे राजा! पीतल सोने की बराबरी नहीं कर सकता। शीशा हीरे के बराबर नहीं होता, नीम चंदन का मुकाबला नहीं कर सकता तुम भी विक्रमादित्य नहीं हो सकते। लो सुना:" |
31-10-2010, 01:22 PM | #33 |
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सिंहासन बत्तीसी 31 राजा विक्रमादित्य को जब मालूम हुआ कि उसका अंतकाल पास आ गया है तो उसने गंगाजी के किनारे एक महल बनवाया और उसमें रहने लगा। उसने चारों ओर खबर करा दी कि जिसको जितना धन चाहिए, मुझसे ले ले। भिखारी आये, ब्राह्मण आये। देवता भी रुप बदलकर आये। उन्होंने प्रसन्न होकर राजा से कहा, "हे राजन्! तीनों लोकों में तुम्हारी निशानी रहेगी। जैसे सतयुग में सत्यवादी हरिश्चंद्र, त्रेता में दानी बलि और द्वापर में धर्मात्मा युधिष्ठिर हुए, वैसे ही कलियुग में तुम हो। चारों युग में तुम जैसा राजा न हुआ है, न होगा।" देवता चले गये। इतने में राजा देखता क्या है कि सामने से एक हिरन चला आ रहा है। राजा ने उसे मारने को तीर-कमान उठाई तो वह बोला, "मुझे मारो मत। मैं पिछले जन्म में ब्राह्मण था। मुझे यती ने शाप देकर हिरन बना दिया ओर कहा कि राजा विक्रमादित्य के दर्शन करके तू फिर आदमी बन जायगा।" इतना कहते-कहते हिरन गायब हो गया और उसी जगह एक ब्राह्मण खड़ा हो गया। राजा ने उसे बहुत-सा धन देकर विदा किया। पुतली बोली, "हे राजन्! अगर तुम अपना भला चाहते हो तो इस सिंहासन को ज्यों-का-त्यों गड़वा दो।" पर राजा का मन न माना। अगले दिन वह फिर उधर बढ़ा तो आखिरी, बत्तीसवीं पुतली ने, जिसका नाम भासमती था, उसे रोक दिया। बोली, "हे राजन्! पहले मेरी बात सुनो।" |
31-10-2010, 01:30 PM | #34 |
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सिंहासन बत्तीसी 32 राजा विक्रमादित्य का आखिरी समय आया तो वह विमान में बैठकर इंद्रलोक को चला गया। उसे जाने से तीनों लोकों में बड़ा शोक मनाया गया। राजा के साथ उसके दोनों वीर भी चले गये। धर्म की ध्वजा उखड गई। ब्राह्मण, भिखारी, दुखी होकर रोने लगे। रानियां राजा के साथ सती हो गई। दीवान ने राजकुमार जैतपाल को गद्दी पर बिठाया। एक दिन की बात है कि नया राजा जब इस सिंहासन पर बैठा तो वह मूर्च्छित हो गया। उसी हालत में उसने देखा, राजा विक्रमादित्य उससे कह रहे हैं कि तू इस सिंहासन पर मत बैठ। जैतपाल की आंखें खुल गईं और वह नीचे उतर आया। उसने दीवान से सब हाल कहा। दीवान बोला, "रात को तुम ध्यान करके राजा से पूछो कि मैं क्या करुं। वह जैसा कहें, वैसा ही करो।" जैतपाल ने ऐसा ही किया। राजा विक्रमादित्य ने उससे कहा, "तुम उज्जैन नगरी और धारा नगरी छोड़कर अंबावती नगरी में चले जाओं और राज्य करो। इस सिंहासन को वहीं गड़वा दो।" सवेरा होते ही राजा जैतवाल ने सिंहासन वहीं गड़वा दिया और स्वयं अंबावती चला गया। उज्जैन और धारा नगरी उजड़ गई। अंबावती नगरी बस गई। पुतली की यह बात सुनकर राजा भोज बड़ा पछताया और दीवान को बुलाकर आज्ञा दी कि इस सिंहासन को जहां से निकलवाया था, वहीं गड़वा दो। फिर अपना राजपाट दीवान को सौंपकर वह एक तीर्थ में चला गया और वहीं तपस्या करने लगा। |
01-11-2010, 05:58 PM | #36 | |
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बहुत अच्छा था.. शेयर करने के लिए धन्यवाद्..
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24-11-2010, 07:13 AM | #37 | |
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Re: सिंहासन बत्तीसी
Quote:
बहुत अच्छा था
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दोस्ती करना तो ऐसे करना जैसे इबादत करना वर्ना बेकार हैँ रिश्तोँ का तिजारत करना |
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