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![]() ![]() 330 फीट कि उंचाई पर बना ये मार्ग आज दुनिया भर से आये हुए टूरिस्ट के लिए साहसिक अभियानों का गढ बन चुका है : साभार :.........
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![]() ![]() पहाड़ो को हाइड्रोइलेक्ट्रिसिटी प्लांट से जोड़ता ये मार्ग बस एक मीटर चौड़ा है, और सहारे के लिए कोई हैण्डरेल भी नहीं है : साभार :.........
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![]() ![]() इस मार्ग से होकर कभी मजदूर हाइड्रोइलेक्ट्रिसिटी प्लांट तक निर्माण कार्य के लिए आवश्यक सामग्री ले जाते थें : साभार :.........
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![]() ![]() वर्ष 2000 तक हादसे में यहाँ दो मजदूरों की मौत हो गयी, जिसके बाद इस रास्ते को बंद कर दिया गया : साभार :.........
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![]() ![]() फ़्रांस में आल्पस पर्वत श्रंखला पर स्थित COL-DE-TURINI यह सड़क समुद्र तल से 20 मीटर से शुरू होकर 1670 मीटर की ऊँचाई तक जाती हैं :
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![]() ![]() 297 मील लम्बा लेह - मनाली हाइवे :
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![]() यहां के बाशिंदों को रोज लांघने पड़ते हैं मौत के रास्ते :... ![]() आज हम आपको अपने साथ ले चलेंगे मौत के रास्ते पर. उस रास्ते पर, जहां हर कदम पर मौत अपने पंख फैलाए खड़ी है. इस इंतजार में कि कब चलने वाले के कदम डगमगाएं और कब वो उसे अपने आगोश में समेट ले. हमारा दावा है कि इस रास्ते पर चलने की हिम्मत करना तो दूर, इसे देख कर ही आपकी रूह कांप जाएगी, लेकिन फिर भी लोग चलने को मजबूर हैं. ये जानते हुए भी कि इस रास्ते पर उठने वाला हर क़दम मौत का कदम है. सैकड़ों फीट की ऊंचाई पर रेल की पटरियों के बीच मौत का खेल जारी है. हर क़दम के साथ दिल की धड़कन घटती-बढ़ती है. हर गुज़रती ट्रेन के साथ ज़िंदगी की रेस जारी है. कोई साइकिल लिए, कोई खाली हाथ, तो कोई अपने बस्ते के साथ इस सफर पर है. मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के कंडीपार गांव के लोगों की यही नियती है, यही तक़दीर है. बारिश का मौसम शुरू होते ही इस गांव को पास के कस्बे से जोड़न वाली इकलौती कच्ची सड़क कीचड़ में कुछ ऐसे गुम हो जाती है कि क्या गाड़ी और क्या पैदल, इस सड़क से गुज़रना ही नामुमकिन हो जाता है. और बस इसी वजह से हर साल कंडीपार के लोग इसी तरह जान हथेली पर लेकर मौत का ये पुल पार करते हैं :......... साभार :.........
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![]() यहां के बाशिंदों को रोज लांघने पड़ते हैं मौत के रास्ते :... ![]() कंडीपार के बाशिंदों को यहां एक नहीं, बल्कि रोज़ाना तीन-तीन ऐसे मौत के पुलों से होकर गुज़रना होता है. इस इम्तेहान में वो पास हो गए तो ठीक, लेकिन फेल हुए तो सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही नतीजा और वो है मौत. वैसे इस गांव के तमाम लोग पुलों के इम्तेहान को लेकर इतने खुशकिस्मत भी नहीं हैं. कुछ ऐसे भी हैं, जो पुल के ऊपर से निकले तो थे मंज़िल की तलाश में, लेकिन पीछे से आती ट्रेन ने उन्हें कहीं और पहुंचा दिया. मौत का ये रास्ता आखिर खत्म कहां होता है? ये रास्ता जहां ख़त्म होता है वहां पहुंच कर डर ख़त्म नहीं होता बल्कि और बढ़ जाता है, क्योंकि इस रास्ते के ख़ात्मे के साथ ही शुरू हो जाता है मौत का इससे भी ख़तरनाक खेल. हादसे का शिकार नौजवान गोविंद सूर्या ने कहा, 'मैं पुल से गुज़र रहा था. ट्रेन आ गई. हड़बड़ाहट में नीचे गिर गया. रीढ़ की हड्डी टूट गई. कंडीपार की निवासी शीलावती का कहना है कि साहब, धड़-धड़ होवत है, जब तक बच्चा नहीं आवत. कंडीपार की निवासी स्कूल में पढ़ने वाली श्रद्धा इनावती के अनुसार, ट्रेन आती है, तो दौड़ कर निकल जाती हूं :......... साभार :.........
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![]() यहां के बाशिंदों को रोज लांघने पड़ते हैं मौत के रास्ते :... ![]() मुश्किल एक, दर्द अलग-अलग : ये दर्द है उस नौजवान का जो ज़िंदगी और मौत की रेस में अपनी बाज़ी हार गया. खुशकिस्मती से ज़िंदगी तो बच गई, लेकिन ज़िंदगी जीने लायक भी नहीं रही. एक डर है उस मां का, जो हर रोज़ हज़ार मन्नतों के बाद अपने कलेजे के टुकड़ों को तैयार कर स्कूल तो भेजती है, लेकिन जब तक बच्चे लौट कर घर नहीं आते, तब तक निगाहें दरवाज़े से हटती नहीं है. एक यह तकलीफ़ है उस नन्हीं गुड़िया की, जिसे हर रोज़ स्कूल जाने के लिए ज़िंदगी और मौत से पकड़म-पकड़ाई खेलनी पड़ती है. क़दम पटरी पर, जान हथेली पर : मध्य प्रदेश के सिवनी ज़िले के इस गांव कंडीपार के बाशिंदों के पास दूसरा कोई चारा भी नहीं है. एक बार बारिश हुई नहीं कि गांव से बाहर जानेवाली इकलौती कच्ची सड़क चलने के काबिल नहीं रह जाती और तब पूरे गांव को हर काम के लिए बस इसी तरह तीन-तीन रेलवे पुलों के ऊपर से होकर गुज़रना पड़ता है, जान हथेली पर लेकर. मगर, धड़धड़ाती रेल गाड़ियों के बीच रोज़ाना मौत से दो-दो हाथ करते ये भोले-भाले गांववाले हर रोज़ खुशकिस्मत नहीं होते. एक बार जो इस इम्तेहान में फेल हो जाता है, समझ लीजिए कि उसकी ज़िंदगी ही उससे हमेशा-हमेशा के लिए रूठ जाती है :......... साभार :.........
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![]() यहां के बाशिंदों को रोज लांघने पड़ते हैं मौत के रास्ते :... ![]() यूं रूठ गई गोविंद की क़िस्मत : अब नौजवान गोविंद सूर्या को ही लीजिए. आज से कोई आठ साल पहले गोविंद इसी तरह रेलवे पुलिस के ऊपर से स्कूल जा रहा था. लेकिन बीच रास्ते में जो कुछ हुआ, वो गोविंद के लिए कभी ख़त्म होने वाला दर्द बन कर रह गया. पीठ में बस्ता टांगे मासूम गोविंद अभी पुल के बीचों-बीच पहुंचा ही था कि अचानक सामने से ट्रेन के आ गई. अब ना तो वो पीछे लौट सकता था और ना ही आगे बढ़ सकता था. कुछ देर के लिए तो गोविंद की सांसें ही थम गई और अगले ही पल वो डर के मारे पुल के ऊपर से सीधे नीचे जा गिरा. गोविंद के रीढ़ की हड्डी टूट गई और वो नदी के बीच ही बेहोश हो गया. पटरी पर मौत, पटरी पर ज़िंदगी : गोविंद की ज़िंदगी तो बच गई, लेकिन उसके जिस्म के तमाम हिस्से अब भी ठीक से काम नहीं करते. पढ़ाई छूट गई और वो ज़िंदगी खुद पर बोझ बन गई. ये कहानी अकेले गोविंद की नहीं है, गोविंद के अलावा और भी बदकिस्मत हैं, जो इन पुलों का शिकार हो चुके हैं. इस गांव की एक बुजुर्ग महिला तो ट्रेन की टक्कर के बाद अपनी जान से ही चली गई, जबकि एक गर्भवती महिला ने दहशत के मारे पटरी के बगल में ही अपने बच्चे को जन्म दिया. इतना होने के बावजूद आज़ादी से लेकर अब तक ना तो गांववालों को एक अदद पक्की सड़क मिली और ना ही उनकी किस्मत खुली. पांच किलोमीटर की एक सड़क बनाने में कितने दिन लगते हैं? एक महीना दो महीना या साल दो साल? लेकिन हमारे देश में इतनी ही लंबाई की एक सड़क ऐसी है, जो पिछले 66 सालों में नहीं बन सकी. लिहाज़ा जिन्हें इस सड़क से होकर गुज़रना था, वो रोज़ सिर पर कफ़न बांध कर सफ़र करते हैं :......... साभार :.........
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