12-12-2011, 05:08 PM | #31 |
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Re: विदेश में हिन्दी लेखन
तिया को खोए बच्चे मिल गए। अक़्सर ई-मेल करती, फ़ोन करती। रो-रो पड़ती। किसी से माँग कर वीडियो-कैम भी ले आई। बस देख लूँ अपनी संजू को, सोहम को - अपने जमाई को। करण बात करता तो बिल्कुल बच्चों की तरह रो पड़ता। मम्मी की कमी महसूस करता था, पर माँ ने ही उसे एक ऐसा घाव दिया था कि वह नहीं जानता कि कभी किसी भी औरत पर विश्वास कर सकेगा। उसे अपने ऊपर ही अब विश्वास नहीं। किसी पर भी नहीं। बस संजना पर है। संजना बड़ी बहन है, माँ जैसी । नहीं-नहीं, मम्मी जैसी बिल्कुल नहीं। डैडी जैसी भी नहीं, उस जैसी भी नहीं। बस अपने-आप जैसी। सोहम और संजना ने उसी पर ज़िम्मेदारी डाल दी थी - डैडी को बताने की। ''डैडी, हम ने मम्मी से बात की है।'' उसने बहुत हिम्मत करके केशी को बताया। केशी को इस बात की सम्भावना थी। ''कब?'' ''दो हफ़्ते हुए।'' 'मुझे पहले क्यों नहीं बताया?'' उनकी आवाज़ में कड़क थी। ''हमें डर था कि पता नहीं आपकी क्या प्रतिक्रिया हो?'' ''ठीक है।'' वह ढीले होकर बैठ गए। न करण और न संजना को ही उम्मीद थी कि डैडी इतनी शांति से यह बात स्वीकार कर लेंगे। उनके ऊपर से बोझ उतर गया। संजना ने शुक्रगुज़ार हो कर केशी को फ़ोन किया, ''डैडी आप बहुत अच्छे हैं।'' एक टूटा हुआ आदमी, अच्छा क्या और बुरा क्या? वह कुछ नहीं बोले थे। ''डैडी हम अभी आते हैं''। सोहम की आवाज़ ने उन्हें वर्तमान में घसीट लिया। लगा कि भोजन वग़ैरह सब हो चुका होगा। सोहम उठ कर ऊपर चला गया। ''चलिए मम्मी, हम आप को अपना फ़ैमिली-रूम दिखाएँ''। संजना की आवाज़ थी। केशी की सांस थम-सी गई - साक्षात्कार की घड़ी! संजना और करण के साथ तिया कमरे में दाख़िल हुई। आराम-कुर्सी पर केशी को बैठा देख सकपका गई। उसने संजना की ओर देखा। संजना का चेहरा जैसे इस्पात का बन गया था। जैसे चुनौती दे रहा हो, आज तुम लोग कुछ नहीं जान पाओगे। बरसों के तूफ़ान आपस में ही भिड़ गए थे और चेहरे पर वही थमी हुई प्रलय का भाव। ''सरप्राईज़!'' करण ने जैसे उस अटपटे क्षण को सामान्य करने का प्रयास किया। केशी ने सिर घुमाया पर तिया के चेहरे को नज़रें छू न सकीं। उसकी नीली साड़ी के बादलों में ही अटक कर रह गईं। उन क्षणों में कितना कुछ ध्यान से गुज़र गया। महसूस हुई तो सिर्फ़ एक टीस, दर्द की एक तीखी लहर। मन की पीड़ा को सुन्न करने का कोई इलाज अभी तक क्यों नहीं बना? उन्होंने आँखे बन्द कर लीं। ''सॉरी, मुझे मालूम नहीं था कि आप यहाँ हैं। तिया कुछ लड़खड़ा-सी गई। शुरू-शुरू में केशी के यहाँ होने का ख़याल तो उसे कई बार आया था पर अब तक वह उनकी अनुपस्थिती के बारे में आश्वस्त हो चुकी थी। अब अचानक सामने पाकर वह उखड़ी, फिर सम्भल गई। तिया ने आँख उठा कर उन्हें देखा और चेहरे को पढ़ने में ही खो गई। वही लंबा सरु जैसा क़द, चेहरे पर कोमल नाक-नक़्श पर कितना ढल गया है चेहरा? बाल भी बेवक्त पक गए। सफ़ेद होती हुई दाढ़ी में एकदम ऋषि-मुनि जैसे ही लगते हैं। संजना पता नहीं कब सोहम को पुकारती हुई ऊपर सरक गई। करण माँ को बाँह से लपेटे पास बैठा रहा। संजू हमेशा डैडी की बेटी थी और वह मम्मी का बेटा। वह इन क़ीमती, फिर से हाथ आए पलों को मुट्ठी में खोल-बन्द कर के देखता रहा। हालाँकि उसे ख़ुद ही लगा कि वह उन दोनों के बीच में उजबक-सा बैठा हुआ है। संजना के आगे-आगे सोहम हाथों में गिलासों की ट्रे और बर्फ़ लेकर आया। ''आज शैम्पेन खोलें? उसने तिया से पूछा। संजना ने आँखें तरेरीं। बोली, ''डैडी सिर्फ़ स्कॉच ही लेते हैं।'' केशी ने स्कॉच का गिलास थाम लिया। सोहम ने अपने लिए भी थोड़ी-सी स्कॉच ढाली, बर्फ़ डाल कर सोडे से गिलास भर लिया। बाकी तीनों गिलासों में भी वाइन डाल कर सब को गिलास थमा दिए। सबके गिलास एक साथ उठे। ''हैप्पी रियूनियन'' सोहम ने कहा। गिलास टकराए। साथ ही तिया और केशी की नज़रें भी। पल भर के लिए सब कुछ ठिठक गया- एक इतिहास, साथ जिया उम्र का एक खूबसूरत हिस्सा, एक रिश्ता - जो कभी नितान्त अपना था और अब जाकर पहचान के दूसरे छोर पर खड़ा था। वह चुपचाप बैठे धीरे-धीरे घूँट भरते रहे। सोहम ने फ़ॉयर-प्लेस ऑन कर दिया। लकड़ियाँ पहले से ही सजी थीं सिर्फ़ गैस का स्विच घुमाया और लपटें उन लकड़ियों के इर्द-गिर्द नाचने लगीं। न धुआँ न राख सिर्फ़ आग और उष्णता का आभास। तिया को अजीब-सा लगा पर कुछ बोली नहीं। कोई भी कुछ नहीं बोला। कमरे की चुप्पी का दिमागों में चल रहे कोलाहल से कोई वास्ता नहीं था। छोटी-सी संजू घंटों घर बनाने का खेल खेला करती। बरामदे के एक कोने में रामू की मदद से दो खड़ी चारपाइयाँ जोड़ कर तिकोना घर बनता। उसके अन्दर होती संजू की छोटी-सी दुनिया। गुड़िया का सोने का कमरा, ड्राइंग-रूम, छोटा-सा किचन उसमें खिलौनों के बर्तन थे। फिर किसी ने उसे प्लास्टिक का एक टी-सैट भेंट कर दिया। संजू उसमें चाय पीती थकती न थी। केशी शाम को लौटते तो संजू को ढूँढ़ते हुए वहीं पहुँच जाते। केशी को उसके घर में मेहमान की तरह दस्तक देकर आना होता था। संजू झूठ-मूठ की मिठाइयाँ और नमकीन चाय के साथ परोसती। केशी आँखो में शरारत भर कर कहते, ''आज बरफ़ी बहुत अच्छी बनी है।'' संजू चिढ़ जाती, ''बरफ़ी नहीं है, चॉकलेट पेस्ट्री है।'' 'ओह, सॉरी। अब खिलौने की प्लेट पर पड़े भूरे रंग के कागज़ के टुकड़े को कुछ भी समझा जा सकता है।'' ''मम्मी आप भी मेरी चाय-पार्टी में आओ ना।'' वह ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाती। ''तू अपने डैडी को ही चाय पिला।'' तिया कहती। ''बच्ची का दिल रखने के लिए ही दो मिनट के लिए आ जाओ।'' जब केशी भी साथ मिल जाते तो करण को गोदी में उठाए-उठाए तिया आती। |
12-12-2011, 05:09 PM | #32 |
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संजू खिल जाती। उसकी व्यस्तता और बढ़ जाती। करण को वह असली लॉली-पॉप निकाल कर देती।
तिया केशी को देख कर मुस्कराती। संजू जो चीज़ किसी को न दे, करण को देकर ख़ुश होती थी। ''अब हो गया न तेरा घर-घर का खेल। चलो अब चल कर खाना खा लो।'' संजू उमंग से उठ कर केशी का हाथ पकड़ लेती।''डैडी, कल फिर खेलेंगे।'' पिछले चार बरसों से तो संजू ने ही केशी और करण का हाथ पकड़ रखा था। टूट गए थे केशी, बिखर गया था करण। कहाँ क्या ग़लत हो गया? क्या कमी रह गई थी? कोई छोटा-सा छेद जो उन्होंने गम्भीरता से नहीं लिया और अचानक महासागर बन कर सब कुछ लील गया। क्या कमी थी उनमे जो तिया उनसे विमुख होकर दूसरी दिशा में मुड़ गई? उनका अहं लहु-लूहान था। करण चोट से बौखला कर दिशा ही भूल गया। संजू ने करण का हाथ थाम लिया, आकर पिता के बगल में खड़ी हो गई। कुमारी कन्या माँ बन गई पिता और भाई की। छोड़ दिया वह घर, वह देश वह वातावरण, जहाँ यादों और उठती उँगलियों ने हवा में ज़हर घोल दिया था। शरणार्थियों की तरह घर छोड़ कर आ गए थे, एक नए देश में। हीथ्रो एयर-पोर्ट से दो हवाई जहाज़ अलग-अलग दिशाओं में उड़े थे - केशी और करण अपने भाई के पास, संजना कैनेडा की तरफ़ - अनजानी फुफेरी बहन के घर। संजना रात गए उस कमरे की छत और दीवारों को ताकती। कहाँ है वह? यह न मायका है, न ससुराल, न अपना घर। ज़िन्दगी इसी किसी रिश्तेदार के घर में आकर रुक गई। उम्र तो अपनी गति से चलती रही। रिश्तेदार का तबादला हो गया। वह फिर बुआ के घर आ गई। फ़ोन आते-जाते। ''डैडी, मैं बिल्कुल ठीक हूँ, ख़ुश हूँ। आप किसी बात की चिन्ता न करें। आप ठीक हैं न?'' केशी को गिरने से बचा रही थी तो यही संजना और करण की वैसाखियाँ। बच्चे उनके साथ हैं, बस यही एक बात काफ़ी थी उन्हें ज़िंदा रखने के लिए। तिया उनकी कुर्की नहीं कर सकी। बच्चे तिया के नहीं, उनके साथ हैं। उनका सिर तिया से कई हाथ ऊपर उठ जाता। कहीं गहरे एक सुख था, उनके अहं को सान्तवना मिलती थी। वह धराशायी किए जाने के बावजूद, फिर से उठकर और अकेले अपनी बेटी का विवाह कर पाने की सामर्थ्य रखते हैं। सब कुछ होगा पर तिया के बिना। संजू आहत हुई पर वक्त की नज़ाकत को देखते हुए समझौता कर लिया। डैडी को समझती है। बच्चे ही तो नहीं थे तिया के पास, वह उनके साथ हैं। इसी एक बात पर वह ज़िन्दा थे, खड़े थे। अगर उन्हें लगे कि वह भी तिया के सांझे में आ गए हैं तो शायद चरमरा कर टूट जाएँगे। बिना माँ के गले लगे संजू सोहम के घर आ गई। |
12-12-2011, 05:10 PM | #33 |
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संजू विवाह के चार महीने बाद पिता से मिलने आई थी। सोहम और करण शहर देखने निकल गए। संजना केशी के पास आकर बैठ गई। सामने चाय की ट्रे रख दी। प्याला थमाया। आँखे कुछ कहती थीं। केशी भावों को तोलते रहे। संजू चुप थी।
आज वह उन्हें बोलने की पहल का हक़ दे रही थी। ''मुझे मालूम है, तुम्हारी माँ आ रही है।'' उन्होंने बात शुरू की। संजू चुप, चाय पीती रही। आखें भर-भर आतीं, आसुओं को लौटाने की असफ़ल कोशिश। ''आई एम फ़ाईन विद इट।'' तुम शादी-शुदा हो जो मर्ज़ी करो।'' संजू के चेहरे पर कई रंग उभरे और डूब गए। केशी देखते रहे। क्या चाहती है यह लड़की? ''डैडी आप भी आ जाइए।'' वह चौंके। अवाक बस देखते रहे। ''प्लीज़ डैडी।'' संजना के होंठ थरथराए। इस बार आँसू पलकों की सीमा लांघ गए। केशी के भीतर एक बड़ी ज़बरदस्त प्रतिक्रिया हुई। सांस रुकने-सी लगी। उनका सिर दायें से बांये, फिर बांये से दांये हिलने लगा। ''नामुमकिन!'' संजू ने पढ़ा। समझ कर दोनों हथेलियों में चेहरा गढ़ा, फूट-फूट कर रो पड़ी। कंधे, सारा बदन झटके खा रहा था। केशी उठे, बाहर निकल गए, सहन नहीं कर पाए। दोस्त की लहू-लुहान लाश सामने देख कर भी वह हटे नहीं थे, अपने मोर्चे पर डटे रहे पर संजना का रोना? जिसने इन चार सालों में एक आँसू नहीं बहाया था। वह उसे सिंह बच्ची कहते थे पर आज? वह सड़क पर तेज़ रफ़्तार से चलते हुए एक सूने मोड़ पर मुड़ गए और दौड़ना शुरू कर दिया। भागते रहे, भागते रहे। लांघ गए कितनी यादें, कितना समय, कितनी चोटें। सबसे कठिन था अपने टूटे अहं के मलबे को लांघना। मलबे के पार संजू बैठी थी। चेहरा ह्थेलियों में धँसाए, हिचकियों के झटके खाती उसकी देह। उनका अपना बिलखता पितृत्व। लौट आए पस्त होकर। संजू वहीं, वैसे ही बैठी थी। चुप, शान्त, दूर कहीं अंधेरे में आँखे टिकाए। केशी अपराधी की तरह आकर बगल में खड़े हो गए। संजू ने जान लिया पर उसमें कोई हरकत नहीं हुई। प्यार से केशी ने उसके सिर पर हाथ रख दिया। संजू सिहरी। ''तुम फिर से ''घर-घर'' खेलना चाहती हो?'' संजू ने सिर झुका लिया। होंठ कांपे। आँख उठाई, आँसुओं को रोके रखा - एक याचना, एक गुहार ''हाँ डैडी, प्लीज़, मेरी ख़ातिर।'' वह संजू के चेहरे को देखते रहे। सीने से एक गहरी सांस निकल गई - ''जो तुम चाहो।'' ----------------------- |
12-12-2011, 05:10 PM | #34 |
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सोहम ने फिर से सबके गिलस भर दिए। उसे अपना वहाँ होना बड़ा अटपटा लग रहा था। उसे लगा कि वह बाहर का आदमी है। धीरे से बाहर निकल आया। संजना ने देखा, पर रोका नहीं।
केशी उसी आराम कुर्सी पर सीधे होकर बैठ गए। तिया सोफ़े के एक कोने तक सरक आई। अब वह और केशी आमने-सामने थे। इतने कि उसके सेंट की सुगंध केशी को छू गई। वही चिर-परिचित खुशबू। उन्होंने चाहने पर भी अभी तक तिया को भरपूर नज़रों से देखा नहीं था। करण तिया के पास से उठ कर संजना के पास जाकर दूसरे सोफ़े पर बैठ गया। संजना ने बिना कुछ कहे उसका हाथ अपने हाथ में पकड़ लिया - मज़बूती से। पता नहीं उसे ख़ुद इस वक्त सहारे की ज़रूरत थी या उसे लगा कि करण को सहारा चाहिए होगा। करण ने संजना की ओर देखा, ''अब?'' संजना ने करण की ओर सिर घुमा दिया। तनी हुई गर्दन, निर्भीक दृष्टि। वह सब को खींच कर इस बिन्दु तक ले आई थी, आगे जो भी हो्गा उस घटित को झेल जाने का विश्वास। ''तुम दुबले हो गए हो।'' तिया ने ही घिसे-पिटे फ़िकरे से चुप्पी की बोझिलता हटाने की कोशिश की। उसे कुछ और सूझा ही नहीं। ''डैडी साल भर तक बीमार रहे।'' संजना का इरादा नहीं था पर बात में सूचना देने का कम और आरोप लगाने का लहज़ा आ ही गया। तिया ने अनसुना कर दिया। ''देखो, करण कितना हैन्डसम निकल आया है?'' वह बेटे को देख कर विभोर हो उठी। एक विद्रूप की हँसी करण के चेहरे पर फैल गई। जैसे कह रही हो, '' सिर्फ़ शरीर ही देख पा रही हो। माँ होकर भी तुम्हे मेरे अन्दर की कुरूप ग्रन्थियों का अन्दाज़ा भी नहीं। उसे भूलता नहीं वह डरावना दिन, जिस दिन डैडी बोर्डिंग स्कूल में उसे अकेले ही मिलने आए और कितने ठंडेपन से मम्मी से अलग होने की बात बता गए थे। वही बात उसके दिमाग़ में उत्पात मचा गई। दोस्तों के साथ नशीले धुएँ में ही थोड़ी धुंधली पड़ती, नहीं तो फुंफकार मारती रहती। वह बचने के लिए जैसे अन्धेरे कुएँ में उतर रहा था। पता नहीं, पढ़ाई और अंक कहाँ विलीन हो गए। डैडी और संजू ने उस अंधेरे कुँए में झाँक लिया था। फ़ैसला हो गया, बस अब यहाँ नहीं रहना। तीनों ने स्वेच्छा से देश निकाला ले लिया। शायद संजना भी अतीत की खाई में झाँक आई थी। अचानक उठ खड़ी हुई। तिया से बोली, ''मम्मी, अभी तो कुछ दिन आप यहीं हैं न? कल बात करेंगे।'' कह कर उसने करण का हाथ खींचा। आँख से इशारा किया, ''उठो!'' करण ने धीमे से कहा, ''गुड नाइट मम्मी -डैडी।'' एक हल्की-सी सिहरन उसके बदन से गुज़र गई। कितने सालों बाद ये शब्द ''मम्मी और डैडी'' उसके मुँह से एक साथ निकले थे। वह संजना के पीछे-पीछे ऊपर चला गया। तिया चुपचाप केशी की ओर देखती रही। जानती है केशी शब्दों के इस्तेमाल के मामले में ज़्यादा उदार नहीं हैं। ''तुम अभी भी मुझसे नाराज़ हो?'' केशी ने पहली बार भरपूर दृष्टि से तिया को देखा। हमेशा की तरह उनके सामने बैठी, आत्म-विश्वास से भरी, मुस्कराती तिया। लगा वह यों ही अपने घर में बैठे हैं और तिया उनसे कुछ पूछने, कोई आपसी बात बताने पास आकर बैठ गई है। वही बोलती आखें, वही खिला हुआ चेहरा, हँसती है तो और भी आकर्षक लगती है उनकी तिया। केशी के चेहरे पर कोमलता बिखर गई। तिया ने आराम कुर्सी के हत्थे पर पड़ी उनकी बाँह पर अपना हथ रख दिया। आँखो में नमी तिर गई, होंठ काँपे और चिबुक पर दो छोटे - छोटे बल उभरे। ''आई एम सॉरी, वैरी सॉरी। मेरी वज़ह से तुम्हें और बच्चों को जो तकलीफ़ हुई।'' वह रोने लगी। केशी बस उसे देखते रहे। क्या कहते? कहने से होगा भी क्या? ''तुम खुश हो?'' उन्होंने अब उसकी ओर देखते हुए कहा। ''हाँ, बहुत खुश हूँ।'' तिया ने अपने को सँभाल लिया था। केशी अपने को जान नही पाए कि वह तिया से किस उत्तर की आशा कर रहे थे। वह खुश है यह जानकर पता नहीं उन्हें अच्छा लगना चाहिए या बुरा? ''पिताजी के जाने का मुझे बहुत अफ़सोस है।'' तिया गम्भीर हो गई। केशी की आँखो के आगे अस्पताल के बिस्तर पर, कोमा में पड़ी पिता की आकृति घूम गई। ''इस धक्के को सहने की उनमें शक्ति नहीं थी।'' शायद उन्होंने अपने से ही कहा। अस्पताल की गन्ध उनकी चेतना में उभरी और फिर धुंधली हो गई। तिया अभी भी उनकी ओर देखे जा रही थी। ''तुम कभी जाती हो चंडीगढ़?'' |
12-12-2011, 05:11 PM | #35 |
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Re: विदेश में हिन्दी लेखन
तिया ने नकारात्मक सिर हिला दिया। एक गहरा उच्छवास उसके भीतर से निकल गया।
''माँ के सिवा सबने नाता तोड़ लिया है।'' केशी चुप सुनते रहे। तिया बताती रही कि कैसे दोनो भाई उसे ज़मीन का हिस्सा देने से मुकर गए हैं। छोटे जीजा ने बहन को उससे मिलने से मना कर दिया है। उसने फिर से एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की नौकरी शुरू कर दी है। केशी के होंठ भिंचे। तिया ने देख लिया। ''फिर क्या करती?'' कह कर तिया उनकी ओर देखने लगी। वही भोली आँखो की नमी उन्हें भीतर तक भिगो गई। तिया का चेहरा उनके इतने पास था और फ़ायर-प्लेस की सुलगती, बल खाती लपटों की परछाईं उसके चेहरे को जैसे किसी स्वपन की चीज़ बना रही थी। तिया की खुशबू जो उन्होंने पहले कभी नहीं महसूस की। केशी ने दोनो हथेलियों में तिया का चेहरा भर कर चूम लिया। तिया निःशब्द रो रही थी। ''तुम ने मुझे बहुत बड़ी सज़ा दी है।'' तिया फफक उठी। केशी सीधे होकर बैठ गए। ''मुझसे मेरे बच्चे छीनकर यहाँ आ बसे।'' तिया की शिकायत हिचकियों के बीच भी साफ़ थी। केशी वार खाकर तमतमा उठे। ''तुम ख़ुद ज़िम्म्मेदार हो इस सबकी। यह तुम्हारा निर्णय था। तुम ख़ुद उन्हें छोड़ कर गई थीं।'' कटुता से उनका चेहरा तमतमा गया। तिया बिफ़र उठी। ''बच्चे तुम्हारे पास न छोड़ती तो तुम पाग़ल हो जाते। मुझे मालूम था तुम्हारा अहं यह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाएगा कि मैं तुम्हें छोड़ कर भी जा सकती हूँ। बच्चे छोड़े थे - तुम्हें सहारा देने के लिए।'' तिया खड़ी हो गई, हांफ़ने लगी। ''पर तुमने मुझसे प्रतिशोध लिया है। एक माँ को उसके बच्चों से दूर करके तुम्हारे अहं को कहीं गहरी सान्तवना मिली है।'' ''तुम्हें कोई हक़ नहीं रहा अब दोबारा उनकी ज़िन्दगी में आने का। तुम इस घर की बर्बादी की वजह हो।'' ''घर की नहीं तुम्हारे अहं की।'' तुम्हारा अहं आहत हुआ है कि तिया, केशी द ग्रेट को छोड़ कर भी जी सकती है, खुश रह सकती है।'' केशी क्रोध और अपमान से थरथराए। उठ खड़े हुए। गिलास में थोड़ा सोडा और ढेर सारी बर्फ़ भर ली। तिया सोफ़े पर ही अधलेटी हो गई। ''सुनो, मैं यहाँ तुमसे लड़ने नहीं आई।'' उसने बेहद पस्त और ठंडी आवाज़ में कहा। केशी दूर हट कर सीढियों के पास वाले सोफ़े पर बैठ गए। सारे घर में ख़ामोशी थी। रात शायद काफ़ी बीत गई होगी। तिया चुपचाप, स्थिर लेटी थी। केशी दूर बैठे उसकी ओर देखते रहे। याद नहीं कभी यों ऐसे एकदम एक-दूसरे के आमने-सामने बैठे रहे हों। हाँ शायद विवाह से पहले। आतिया ज़रा नहीं बदली सिवाए उम्र की वजह से थोड़ी भर गई है। व्यक्तित्व में भी वही बहाव, चपलता, ज़िन्दादिली, आज को जी लेने की पूरी ललक। भविष्य, परिणाम कुछ नहीं सोचती। आशंकित नहीं होती, न दुविधा, न डर। सिंह बच्ची की माँ - सिंहनी। उनके चेहेरे पर मुस्कराहट फैल गई। चिंघाड़ती-सी फ़ोन की घंटी बजी। निंदियारे घर में एक हलचल सी हुई। इस वक्त किस का फ़ोन? तिया सीधी उठ कर बैठ गई। केशी होश में आ गए। सीढ़ियों पर किसी के चलने की आवाज़ आई और फ़ैमिली- रूम के दरवाज़े के बाहर आकर रुक गई। ''मम्मी फ़ोन उठा लीजिए।'' सोहम ने बिना अन्दर आए कहा। तिया ने बड़े सहज भाव से तिपाई पर पड़े फ़ोन का चोंगा उठा लिया। धुंधली रोशनी में उसके चेहरे की रेखाएँ स्पष्ट नहीं थी। ''ओह, आई एम सो सॉरी। मैं बस बच्चों से मिलने के उत्साह में फ़ोन करना ही भूल गई।'' तिया चहक उठी थी, पूरी तरह जीवन्त। ''देखो, अपना ख़्याल रखना। दो हफ़्तो की ही तो बात है।'' ''नही, और कोई नहीं है यहाँ।'' तिया की आवाज़ थोड़ी-सी थरथराई।'' ''आई मिस यू टू, लव यू।'' तिया चोंगा रख कर वहीं, वैसे ही थोड़ी देर झुकी खड़ी रही। पलटी, केशी जा चुके थे। --------------------------------- |
12-12-2011, 05:12 PM | #36 |
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Re: विदेश में हिन्दी लेखन
संजना बेकरी से नाश्ते के लिए ताज़े बेगल, ब्रैड लेकर घर में घुसी और उन्हें रसोई के काउंटर पर ही रख, केतली में चाय का पानी भरने लगी।
''संजना, डैडी जा रहे हैं।'' सोहम ने कुछ इतनी शांति से बात कही कि संजना को लगा कि जैसे सिवाए उसके सबको यह बात मालूम है। वह ऊपर बैड-रूम की सीढ़ियों की तरफ़ लपकी तो सोहम ने पीछे से उसकी बांह को पकड़ लिया। पता नहीं क्या कहना चाहता था? पल भर संजना की आँखो में देखता रहा, फिर दूसरे हाथ से संजना के हाथ को थपथपा कर छोड़ दिया। संजना सम्भल कर सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। धीरे से केशी के बंद दरवाज़े को ठेल कर अन्दर आ गई। उनका सारा सामान सिमट चुका था। ख़ाली कमरे के बीचोंबीच खड़े वह बाढ़ में सब कुछ जल-ग्रस्त हो जाने के बाद खड़े एकाकी पेड़ जैसे लग रहे थे। नितान्त अकेला, उदास वृक्ष। प्रकृति जैसे उसे पीटने के बाद, रहम खाकर, ज़िन्दा रहने के लिए छोड़ गई हो। संजना ने उनके सीने पर सिर रख दिया। बाहों का घेरा उनकी कमर तक ही पहुँचा, उसने उन्हें कस लिया। ''डैडी, प्लीज़, सिर्फ़ कुछ दिनों के लिए, नाटक ही सही! क्या हम फिर से वही एक घर, परिवार, उन खोये हुए पलों को दोबारा नहीं जी सकते? मैं, करण, मम्मी और आप - फिर से एक बार इकट्ठे। प्लीज़ डैडी..'' केशी ने संजना के कंधे को बाँह से घेर लिया। उसके सिर पर उनकी ठुड्डी काँपी। ''सॉरी संजू। बस, अब और नहीं...।'' संजना को लगा जैसे डैडी के शरीर में एक ज़ोर की सिहरन उठी। वह सिपाही, युद्ध में जिसके सिर के पास से गोली छू कर निकल गई और जिसके बदन में सिहरन तक नहीं हुई। वह आज लहू-लुहान खड़ा है। संजना पल भर उन्हें थामे यों ही खड़ी रही। लगा जैसे डैडी के शरीर से उठी सिहरन उसके अपने भीतर उतर गई हो। उसने अपने हाथों की पकड़ ढीली कर दी। निगाहें नीची कर लीं और बड़ी सधी आवाज़ में कहा, ''जाइए''। समाप्त
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