13-08-2013, 10:45 PM | #31 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
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25-10-2013, 12:44 PM | #32 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
सहारनपुर की सांस्कृतिक विरासत युगों-युगों से उत्तर प्रदेश का गंगा जमुना दोआब क्षेत्र कला तथा संस्कृति का एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल रहा है। ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक पुरातात्विक विपुल सामग्री से भरपूर है यह क्षेत्र। यहाँ की अनेक अनजानी जगहों पर आज भी अनेक सिसकते हुए पुरावशेष अपने जिज्ञासुओं की प्रतीक्षा करते रहते हैं। इस क्षेत्र की उत्तर पश्चिमी सीमा में स्थित सहारनपुर जनपद ऐसा ही क्षेत्र है जहाँ आज भी एक जमाने की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में अनेक भित्तिचित्र विद्यमान हैं। इन चित्रों का निर्माण १९ वीं सदी २० वीं सदी के तीसरे दशक तक होता रहा था। लगभग एक सौ वर्षों के जमाने की गाथा इन चित्रों में संजोयी हुई है। ये चित्र न केवल भवनों के साज-सजावट की ही सामग्री थे वरन् यहाँ के समाज की जीवन पद्धति के जीवंत प्रतिबिम्ब भी रहे हैं। इतनी विपुल संख्या में इन चित्रों को देखकर मेरी शोधवृत्ति ने इनका विस्तृत अध्ययन करने को मुझे प्रेरित किया। संपूर्ण जनपद-क्षेत्र का गहनता से विधिवत सर्वेक्षण करने पर मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कलात्मक महत्व की इतनी बड़ी संख्या में बिखरी कलाकृतियाँ अभी तक कला-समीक्षकों, अन्वेषकों और सांस्कृतिक जिज्ञासुओं की नजरों से अनदेखी पड़ी रही हैं। ऐसा भी लगा कि मानों यहाँ के निवासी भी इनसे अनजान हैं और यह कलाकृतियाँ उन सबके बीच रहते हुए भी गुमनाम सी पड़ी हुई हैं। इस जनपद से प्राप्त पुरातात्विक सामग्री इसकी प्राचीनता को सिंधु घाटी सभ्यता और सरस्वती सभ्यता के युग तक ले जाती है। यहाँ की अति उपजाऊ धरती हरा सोना उगलती रहती है। अतएव यहाँ की संपन्नता और समृद्धि ने समय-समय पर धन के लोभियों को खूब ललचाया जिसके फलस्वरूप ११वीं सदी में महमूद गजनवी से लेकर अंग्रेजी कम्पनी के शासन काल तक अनेक आक्रांताओं ने इसे कई बार जी भर कर लूटा और विनाश भी किया। बहुत लम्बे समय तक अहिन्दू और विदेशी शासकों के अधिपत्य में रहने और विध्वंस के थपेड़ों के कारण यहाँ की सांस्कृतिक संपदा विलुप्त होती चली गयी। उन्नीसवीं सदी के आरम्भ होते ही, अनुकूल वातावरण पाकर यहाँ की निष्प्राण संस्कृति पुनः सशक्त हो उठी। भवन-निर्माण, लकड़ी पर नक्काशी, संगतराशी, गचकारी, मनोतगिरि, मुसव्वरी, ग्रंथ लेखन, मिट्टी के खिलौने व बर्तन बनाना, कठपुतली बनाना और कई दूसरे कलात्मक शिल्पों का व्यापक विस्तार इस जनपद में तेजी से हुआ। स्थानीय जमींदारों और अन्य संपन्न व्यक्तियों के उदार आश्रय में नये मंदिरों, हवेलियों तथा अन्य धार्मिक भवनों का निर्माण हुआ जिनको अनेक नयनाभिराम भित्तिचित्रों से सजाया गया। यह रचनात्मक आंदोलन लगभग सौ वर्षें तक चलता रहा। एक दो स्थानों पर नहीं वरन पूरे जनपद में विद्यमान हैं ये भित्तिचित्र। इस जनपद में गंगोह, नकुड़, देवबन्द, कनखल, भगवानपुर, कोटा, झबरहेड़ा, लंढौरा, मंगलौर, चिलकाना, सुल्तानपुर के ग्रामीण क्षेत्र तथा सहारनपुर शहर के कई भवनों पर ये चित्र आज भी देखे जा सकते हैं। इन भवनों के छज्जे, खिड़कियाँ, कंगूरे, महराब, साये, गोखे, सिरदल, सपील, छत, कोने, आले, छतरी, गुमटी और दीवारें आदि छोटे-बड़े चित्रों व फूल-पत्तियों की आकर्षक सजावट से अटीं पड़ी हैं। कोई हवेली तो इतनी ऊँची है कि किसी जमाने में उस पर बने चित्रों को भरपूर नजर से देखने वालों की टोपियाँ गिर जाती थीं किन्तु आज अपने रंगों और रेखाओं में एक जमाने के उतार-चढ़ाव की गाथा समेटे हुए ये चित्र चुपचाप विसूरते रहते हैं। किसने बनाये थे ये सुन्दर चित्र? इस प्रश्न का कोई प्रामाणिक समाधान नहीं मिल सका। क्योंकि इनके रचयिताओं ने चित्रों पर या अन्य कहीं पर अपना नाम या अपनी कोई पहचान तक नहीं छोड़ी थी। कुछ व्यक्तियों ने दावे से बताया कि उनके ही कई बुजुर्ग संबंधियों ने ही इन चित्रों को बनाया था लेकिन वे कोई प्रामाणिक सूचना नहीं दे सके। यह ज्ञात हो सका कि इन चितेरों को अन्य श्रमिकों की भांति दैनिक पारिश्रमिक दिया जाता था। इन चित्रों में विविध प्रकार के कई विषयों को अभिव्यक्त किया गया है किन्तु धार्मिक विषयों की अधिकता है इनमें। श्रीकृष्ण, विष्णु, राम, शिव और देवी दुर्गा आदि से संबंधित प्रसंगों की बहुत सरल व रोचक अभिव्यक्ति की गयी है। इनके अतिरिक्त समकालीन सामंती व संपन्न व्यक्तियों व साधारण लोक समाज के दैनिक जीवन के क्षण, प्रेम प्रसंग, बिहारी सतसई से प्रेरित श्रंगारिक भावपूर्ण विषय, कुछ देशी-विदेशी व्यक्तियों के शबीह (पोट्रेटस), ऐतिहासिक प्रसंग, लोक गाथाओं के कुछ रोचक अंश, प्रतीकात्मक आकृतियाँ, पशु पक्षियों के चित्रों की भी संख्या कुछ कम नहीं है। इस सबसे हटकर फूल पत्तियाँ व अन्य चित्रों के बॉर्डर व फ्रेम रूप-अलंकारों द्वारा सजाये हुए एक से बढ़कर एक सुन्दर पैनल, आलेखन तथा बारीक सजावट भी अपने आप में अनूठी और अनोखी है। इन चित्रों से प्रतीत होता है कि शिक्षित न होते हुए भी चित्रकारों की अभिरुचि, सौंदर्यात्मक अनुभूति, संवेदनशीलता तथा उन्मुक्त कल्पना में रचनात्मक मौलिकता का समावेश था। कुछ चित्र तो अत्यंत गहन आध्यात्मिक विषय की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टि से ‘नौ नारी के हाथी पर सवार कृष्ण’, ‘नौ नारी के घोड़े पर श्रीकृष्ण’, ‘नौ नारी की पालकी पर कृष्ण’ तथा अन्य चित्र भी हैं किन्तु इनका विवरण अधिक स्थान की अपेक्षा करता है। इन भित्ति चित्रों को तैयार करने की सदियों पुरानी परम्परात्मक, तकनीक को अपनाया गया है जिसके अन्तर्गत चित्रण के आधार को चूने के महीन पलस्टर से विशेष विधि से तैयार किया जाता है तथा खनिज मिट्टी व पत्थरों से रंग तैयार किये जाते हैं। इस विधि को ‘फ्रेस्को सेक्को’ कहा जाता है। चित्रों के रंग सीमित, सपाट किन्तु चमकदार हैं। कला-सिद्धांतों व नियमों की अज्ञानता अथवा अवहेलना होते हुए भी इनमें ऐसा सम्मोहन है कि ये दर्शकों के बढ़ते हुए कदमों को रोक लेते हैं और निगाहें चित्रों से हटती ही नहीं। इन चित्रों की शैली में भारतीय चित्रकला की जानी मानी मुगल, पहाड़ी और कम्पनी शैलियों की मिली-जुली छाप है जिसमें क्षेत्रीय लोक तत्व और चित्रकारों की निजी विशेषताओं की जुगलबंदी से एक नवीन शैली का आभास होता है। चित्रों में बनी मानवाकृतियों की वेशभूषाओं तथा अन्य सामग्री से हिन्दू, मुगल तथ अंग्रेजी संस्कृति प्रतिबिम्बित होती है। सर्वाधिक उल्लेखनीय है, इन चित्रों की स्त्री आकृतियों में अंकित बड़े आकार वाली ‘नथ’ जो यहाँ की हिन्दू विवाहित महिला के ‘सुहाग’ की निशानी मानी जाती है और उसकी अति प्रिय वस्तु भी। जनपद की उत्तरी सीमा से लगे गढ़वाल क्षेत्र में बड़े आकार वाली नथ पहनने का आज भी बहुत प्रचलन है। अधिकांश चित्रों की शैली के विश्लेषणात्मक अध्ययन से ऐसी अवधारणा बनती है कि भित्ति चित्रण की यह परम्परा यहाँ के लोक समाज में उन्नीसवीं सदी से भी पहले लगभग पचास वर्षों की काल-गहराई तक अस्तित्व में रही होगी। इन चित्रों को सहारनपुर जनपद की ही नहीं वरन समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत कहा जाय तो अनुचित न होगा। धन्य हैं, वे लोग जिन्होंने थोड़े से पारिश्रमिक के बदले में समाज को एक अमूल्य निधि दे डाली और उस पर अपनी मुहर भी नहीं लगायी। आज के जमाने में चारों ओर बदलते हुए परिवेश में यह समृद्ध परम्परा समाप्त हो चुकी है और ये चित्र एक-एक करके गिरते छिपते जा रहे हैं। इनके महत्व से अनभिज्ञ समाज द्वारा इनकी उपेक्षा और प्रकृति के क्रूर थपेडों की चोट से यह सांस्कृतिक कला कोश ओझल होता जा रहा है। |
25-10-2013, 12:58 PM | #33 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
छत्तीसगढ़ में राम के वनवास स्थल
अयोध्या नरेश राजा दशरथ के द्वारा चौदह वर्षों के वनवास आदेश के मिलते ही, माता-पिता का चरण स्पर्श कर राजपाट छोड़कर रामचंद्र जी ने सीताजी एवं लक्ष्मण जी के साथ अयोध्या से प्रस्थान किया, उस समय अयोध्या वासी उनके साथ-साथ तमसा नदी के तट तक साथ-साथ गये एवं अपने प्रिय प्रभु को तमसा नदी पर अंतिम बिदाई दी। रामचंद्र जी तमसा नदी पार कर वाल्मीकि आश्रम पहुँचे जो गोमती नदी के तट पर स्थित है। प्रतापपुर से २० कि.मी. राई मंदिर के पास बकुला नदी प्रवाहित होती है। वाल्मीकि ऋषि के नाम पर इस नदी का नाम बकुला पड़ा। इसके बाद नदी के तट से सिंगरौल पहुँचे, सिंगरौल का प्राचीन नाम सिंगवेद है। यहाँ नदी तट पर निषादराज से भेंट हुई। इसे निषादराज की नगरी के नाम से जाना जाता है। यह गंगा नदी के तट पर स्थित है। सीताकुण्ड के पास रामचंद्र जी गंगा जी को पार कर श्रृंगवेरपुर पहुँचे, इस श्रृंगवेरपुर का नाम अब कुरईपुर है। कुरईपुर से यमुनाजी के किनारे प्रयागराज पहुँचे। प्रयागराज से चित्रकूट पहुँचे। चित्रकूट में राम-भरत मिलाप हुआ था। यहाँ से अत्रि आश्रम पहुँचकर दण्डक वन में प्रवेश किया। दण्डक वन की सीमा गंगा के कछार से प्रारंभ होती है। यहाँ से आगे बढ़ने पर मार्ग में शरभंग ऋषि का आश्रम मिला, वहाँ कुछ समय व्यतीत कर सीता पहाड़ की तराई में बने सुतीक्ष्ण ऋषि से मिलने गये। इसके बाद वे अगस्त ऋषि के आश्रम पहुँचे। उन दिनों मुनिवर आर्यों के प्रचार-प्रसार के लिये दक्षिणापथ जाने की तैयारी में थे। मुनिवर से भेंट करने पर मुनिवर ने उन्हें गुरू मंत्र दिया और शस्त्र भेंट किए। आगे उन्होंने मार्ग में ऋषिमुनियों को विघ्न पहुँचाने वाले सारंथर राक्षस का संहार किया। इसके बाद सोनभद्र नदी के तट पहुँचे, वहाँ से जहाँ मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम है। मार्कण्डेय ऋषि से भेंट कर उन्होंने सोनभद्र एवं बनास नदी के संगम से होकर बनास नदी के मार्ग से सीधी जिला (जो उन दिनों सिद्ध भूमि के नाम से विख्यात था) एवं कोरिया जिले के मध्य सीमावर्ती मवाई नदी (भरतपुर) पहुँच कर मवाई नदी पार कर दण्डकारण्य में प्रवेश किया। मवाई नदी-बनास नदी से भरतपुर के पास बरवाही ग्राम के पास मिलती है। अतः बनास नदी से होकर मवाई नदी तक पहुँचे, मवाई नदी को भरतपुर के पास पार कर दक्षिण कोसल के दण्डकारण्य क्षेत्र,(छत्तीसगढ़) में प्रवेश किया। दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) में सवाई नदी के तट पर उनके चरण स्पर्श होने पर छत्तीसगढ़ की धारा पवित्र हो गयी और नदी तट पर बने प्राकृतिक गुफा मंदिर सीतामढ़ी हरचौका में पहुँच कर विश्राम किया अर्थात रामचंद्र जी के वनवास काल का छत्तीसगढ़ में पहला पड़ाव भरतपुर के पास सीतामढ़ी हरचौका को कहा जाता है। सीतामढ़ी हरचौका में मवाई नदी के तट पर बनी प्राकृतिक गुफा को काटकर छोटे-छोटे १७ कक्ष बनाये गये हैं जिसमें द्वादश शिवलिंग अलग-अलग कक्ष में स्थापित हैं। वर्तमान में यह गुफा मंदिर नदी के तट के समतल करीब २० फीट रेत पट जाने के कारण हो गया है। यहाँ रामचंद्र जी ने वनवास काल में पहुँचकर विश्राम किया। इस स्थान का नाम हरचौका अर्थात् हरि का चौका अर्थात् रसोई के नाम से प्रसिद्ध है। रामचंद्रजी ने यहाँ शिवलिंग की पूजा अर्चना कर कुछ समय व्यतीत किया इसके बाद वे मवाई नदी से होकर रापा नदी के तट पर पहुँचे। रापा नदी और बनास कटर्राडोल (सेमरिया) के पास आपस में मिलती हैं। मवाई नदी बनास की सहायक नदी है। अतः रापा नदी के तट पर पहुँच कर सीतमढ़ी थाथरा पहुँचे। नदी तट पर बनी प्राकृतिक गुफा नदी तट से करीब २० फीट ऊँची है। वहाँ चार कक्ष वाली प्राकृतिक गुफा है। गुफा के मध्य कक्ष में शिवलिंग स्थापित है तथा दाहिने, बाएँ दोनों ओर एक-एक कक्ष है जहाँ मध्य की गुफा के सम्मुख होने के कारण दो गुफाओं के सामने से रास्ता परिक्रमा के लिये बनाया गया है। इन दोनों कक्षों में राम-सीताजी ने विश्राम किया तथा सामने की ओर अलग से कक्ष है जहाँ लक्ष्मण जी ने रक्षक के रूप में इस कक्ष में बैठकर पहरा दिया था। यहाँ कुछ दिन व्यतीत कर वे धाधरा से कोटाडोल पहुँचे। इस स्थान में गोपद एवं बनास दोनों नदियाँ मिलती हैं। कोटडोल एक प्राचीन एवं पुरातात्विक स्थल है। कोटाडोल से होकर वे नेउर नदी के तट पर बने सीतामढ़ी छतौड़ा आश्रम पहुँचे। छतौड़ा आश्रम उन दिनों संत-महात्माओं का संगम स्थली था। यहाँ पहुँच कर उनहोंने संत महात्माओं से सत्संग कर दण्डक वन के संबंध में जानकारी हासिल की। यहाँ पर भी प्राकृतिक गुफा नेउर नदी के तट पर बनी हुई है। इसे 'सिद्ध बाबा का आश्रम' के नाम से प्रसिद्धी है। बनास, नेउर एवं गोपद तीनों नदियाँ भँवरसेन ग्राम के पास मिलती हैं। छतौड़ा आश्रम से देवसील होकर रामगढ़ पहुँचे। रामगढ़ की तलहटी से होकर सोनहट पहुँचे। सोनहट की पहाड़ियों से हसदो नदी का उद्गम होता है। अतः हसदो नदी से होकर वे अमृतधारा पहुँचे। अमृत धारा में गुफा-सुरंग है। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया तथा महर्षि विश्रवा से भेंट की। तत्पश्चात् वे जटाशंकरी गुफा पहुँचे, यहाँ पर शिवजी की पूजा अर्चना कर समय व्यतीत कर बैकुण्ठपुर पहुँचे। बैकुण्ठपुर से होकर वे पटना-देवगढ़, जहाँ पहाड़ी के तराई में बसा प्राचीन मंदिरों का समूह था। सूरजपुर तहसील के अंतर्गत रेण नदी के तट पर होने के कारण इसे अर्ध-नारीश्वर शिवलिंग कहा जाता है। अतः जमदग्नि ऋषि के आश्रम में कुछ समय व्यतीत करने के बाद वे विश्रामपुर पहुँचे। रामचंद्र जी द्वारा इस स्थल में विश्राम करने के कारण इस स्थान का नाम विश्रामपुर पड़ा। इसके बाद वे अंबिकापुर पहुँचे। अंबिकापुर से महरमण्डा ऋषि के आश्रम बिल द्वार गुफा पहुँचे। यह गुफा महान नदी के तट पर स्थित है। यह भीतर से ओम आकृति में बनी हुई है। महरमण्डा ऋषि के आश्रम में कुछ समय व्यतीत कर वे महान नदी के मार्ग से सारासोर पहुँचे। सारासोर जलकुण्ड है, यहाँ महान नदी खरात एवं बड़का पर्वत को चीरती हुई पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है। कहा जाता है कि पूर्व में यह दोनों पर्वत आपस मे जुड़े थे। रामवन गमन के समय राम-लक्ष्मण एवं सीता जी यहाँ आये थे तब पर्वत के उस पार यहाँ ठहरे थे। पर्वत में एक गुफा है जिसे जोगी महाराज की गुफा कहा जाता है। सारासोर-सर एवं पार अरा-असुर नामक राक्षस ने उत्पात मचाया था तब उनके संहार करने के लिये रामचंद्रजी के बाण के प्रहार से ये पर्वत अलग हो गये और उस पार जाकर उस सरा नामक राक्षस का संहार किया था। तब से इस स्थान का नाम सारासोर पड़ गया। सारासोर में दो पर्वतों के मध्य से अलग होकर उनका हिस्सा स्वागत द्वार के रूप में विद्यमान है। नीचे के हिस्से में नदी कुण्डनुमा आकृति में काफी गहरी है इसे सीताकुण्ड कहा जाता है। सीताकुण्ड में सीताजी ने स्नान किया था और कुछ समय यहाँ व्यतीत कर नदी मार्ग से पहाड़ के उस पार गये थे। आगे महान नदी ग्राम ओडगी के पास रेण नदी से संगम करती है। इस प्रकार महान नदी से रेण के तट पर पहुँचे और रेण से होकर रामगढ़ की तलहटी पर बने उदयपुर के पास सीताबेंगा- जोगीमारा गुफा में कुछ समय व्यतीत किया। सीताबेंगरा को प्राचीन नाट्यशाला कहा जाता है तथा जोगीमारा गुफा जहाँ प्रागैतिहासिक काल के चित्र अंकित हैं। रामगढ़ की इस गुफा में सीताजी के ठहरने के कारण इसका नाम सीताबेंगरा गुफा पड़ा। इसके बाद सीताबेंगरा गुफा के पार्श्व में हथफोर गुफा सुरंग है, जो रामगढ़ की पहाड़ी को आर-पार करती है। हाथी की ऊँचाई में बनी इस गुफा को हथफोर गुफा सुरंग कहा जाता है। रामचंद्रजी इस गुफा सुरंग को पार कर रामगढ़ की पहाड़ी के पीछे हिस्से में बने लक्ष्मणगढ़ पहुँचे। यहाँ पर बनी गुफा को लक्ष्मण गुफा कहा जाता है। यहाँ कुछ समय व्यतीत कर रेण नदी के तट पर महेशपुर पहुँचे। महेशपुर उन दिनों एक समृद्धशाली एवं धार्मिक केंद्र था। यहाँ उन्होंने नदी तट पर बने प्राचीन शिवमंदिर में शिवलिंग की पूजा की थी, इसी कारण से इस स्थान का नाम महेशपुर पड़ा। महेशपुर से वापस रामगढ़ में मुनि वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे। यहाँ उनकी मुलाकात मुनि वशिष्ठ से हुई। मुनि वशिष्ठ से मार्गदर्शन प्राप्त कर चंदन मिट्टी गुफा पहुँचे। चन्दन मिट्टी से रेणनदी होकर अंबिकापुर से 18 कि.मी. की दूरी पर नान्ह दमाली एवं बड़े दमाली गाँव हैं। इनके समीप बंदरकोट नामक स्थान है। यह अंबिकापुर से दरिमा मार्ग पर स्थित है। इस बंदरकोट का नाम दमाली कोट था। कहा जाता है कि असूर राजा दमाली बड़ा दुष्ट हो गया था और इसका अत्याचार बढ़ गया था। सरगुजा के लोक गीत में (देव दमाली बंदर कोट ताकर बेटी बांह अस मोट-राजा दमाली की अत्याचार से मुक्त कराने के लिये बंदरराज केसरी ने दमाली का वध किया) और किले पर कब्जा कर लिया तब से यह बंदरकोट कहलाने लगा। इस किले में बंदर ताल के पास प्राचीन शिवलिंग के अवशेष हैं। कहा जाता है कि यही सुमाली की तपस्या स्थली थी। यहाँ पर एक अंजनी टीला है कहा जाता है कि गौतम ऋषि की पुत्री अंजनी ने, जो हनुमान की माता जी है। इस टीले पर तपस्या की थी। इसी कारण से इस टीले का नाम अंजनी टीला पड़ा। त्रेतायुग में भगवान राम ने वन गमन के समय केसरी वन के जंगलों में अधिकांश समय व्यतीत किया था। जहाँ भगवान राम महर्षि सुतीक्ष्ण के साथ महर्षि दन्तोलि के आश्रम मैनपाट गये थे। बंदरकोट किले के ऊपर से ही बंदरों ने उन्हें अपनी किलकारी द्वारा अपने को समर्पित किया था। बंदरकोट में आज भी बंदरों का झुण्ड मिलता है। रामचंद्र जी बंदरकोट के केसरीवन में सुतीक्ष्ण मुनि से भेंट कर मैनी नदी से होकर मैनपाट पहुँचे, जहाँ महर्षि शरभंग एवं महर्षि दंतोली से मुलाकात की। मैनपाट के मछली पाईंट के पास आज भी शरभंग ऋषि के नाम पर शरभंजा ग्राम है। मैनपाट अपने भौगोलिक आकर्षण के कारण मुनियों एवं तपस्वियों की तपोभूमि रही है। इस पवित्र स्थान में रामचंद्रजी ने वनवास काल रुक कर कुछ समय व्यतीत किया। यहाँ टाईगर पाईंट भी आकर्षण का केंद्र था। टाईगर पाईंट से मैनपाट नदी निकलती है। इसके बाद वे मैनी नदी से होकर माण्ड नदी के तट पर पहुँचे। मैनी नदी काराबेल ग्राम के पास माण्ड नदी से संगम करती है। यहाँ से वे सीतापुर पहुँचे। सीतापुर में माण्डनदी के तट पर मंगरेलगढ़ पहुँचे। यहाँ नदी तट पर बसे प्राचीन मंगरेलगढ़ के अवशेष मिलते हैं। यहाँ मंगरेलगढ़ी की देवी का प्राचीन मंदिर है। मंगरेलगढ़ से होकर माण्ड नदी के तट से होकर देउरपुर पहुँचे, जिसे अब महारानीपुर कहा जाता है। महारानीपुर में प्राचीन समय में मुनि आश्रम थे। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया। यहाँ प्राचीन विष्णुमंदिर का भग्नावशेष एवं शिवमंदिर के अवशेष मिलते हैं। सीतापुर में मंगरेलगढ़, देउरपुर (महारानीपुर) से होकर माण्ड नदी से पम्पापुर पहुँचे। पम्पापुर में किन्धा पर्वत है। रामायण में उल्लेखित किष्किन्धा का यह अपभ्रंश है। किन्धा पर्वत एवं उसके सामने दुण्दुभि पर्वत है। पम्पापुर में स्थित किन्धा पर्वत में राम भगवान की मुलाकात सुग्रीव से हुई थी। यहाँ के पर्वत में सुग्रीव गुफा भी है। दुण्दुभि राक्षस एवं बालि का युद्ध हुआ था। इसी कारण से इन पर्वत का नाम दुण्दुभि एवं किन्धा रखा गया है। पम्पापुर नामक ग्राम आज भी यहाँ स्थित है। पम्पापुर से आगे बढ़ने पर माण्ड नदी के तट पर पिपलीग्राम के पास रक्सगण्डा नामक स्थान है। रक्सगण्डा से ऊपर पहाड़ी से जलप्रपात गिरता है। इस प्राकृतिक स्थान का नाम रक्सगण्डा इसलिये पड़ा कि रक्स याने राक्षस, गण्डा याने ढेर अर्थात् राक्षसों का ढेर को रक्सगण्डा कहा जाता है। वनवास काल में उन्होंने इस स्थल में ऋषि-मुनियों के यज्ञ-हवन में विघ्न डालने वाले उत्पाती राक्षसों का वध कर ढेर लगा दिया था। इसी कारण से इस स्थान का नाम रक्सगण्डा रखा गया है। रक्सगण्डा से माण्ड नदी होकर पत्थलगाँव में १२ किमी. की दूरी पर माण्ड नदी के तट पर बने किलकिला आश्रम पहुँचे। किलकिला में प्राचीन शिवमंदिर है। यहाँ के आश्रम में कुछ समय व्यतीत किया। किलकिला में आज भी मंदिरों का समूह मिलता है तथा किलकिला का नाम रामायण में उल्लेखित हुआ है। यहाँ से वे माण्ड नदी से होकर धर्मजयगढ़ पहुँचे। यहाँ नदी तट पर प्राचीन देवी का मंदिर है जो अंबे टिकरा के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ से माण्ड नदी से होकर चंद्रपुर पहुँचे। चंद्रपुर माण्ड और महानदी का संगम है। इसी संगम तट पर चंद्रहासिनी देवी का मंदिर बना है, तथा मंदिर के पीछे के भाग में नदी तट पर प्राचीन किले का द्वार है। इसी द्वार के दाहिनी ओर प्राचीन शिवमंदिर का भग्नावशेष है। रामचंद्रजी यहाँ शिवलिंग की पूजा अर्चना कर यहीं से वे माण्डनदी को छोड़कर महानदी के तट से शिवरीनारायण पहुँचे, जहाँ पर जोक, शिवनाथ एवं महानदी का संगम है। शिवरीनारायण में मतंग ऋषि का आश्रम था। मतंग ऋषि की शबर कन्या शबरी के गुरू थे। शबरी छत्तीसगढ़ की शबर कन्या थी, जो मतंग ऋषि के गुरूकुल की आचार्या थी। इन्होंने रामचंद्र जी को वनवास काल में यहाँ पहुँचने पर अपने जूठे बेर खिलाये थे। अतः शबरी-नारायण के नाम से इस स्थान का नाम शबरीनारायण पड़ा जो आज शिवरीनारायण के नाम से प्रसिद्ध है। श्री राम इन्हीं संतों से मिलने यहाँ आये थे। यहाँ पर नदी संगम में शबरीनारायण का प्राचीन मंदिर है। शिवरीनारायण में कुछ समय व्यतीत कर वे वहाँ से तीन कि.मी. दूर खरौद पहुँचे, खरौद को खरदूषण की राजधानी कहा जाता है। खरौद में प्राचीन शिवमंदिर है, जो लक्ष्मणेश्वर शिवमंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस शिवलिंग में लगभग एक लाख छिद्र हैं। यहाँ राम-लक्ष्मण दोनों ने शिवलिंग की पूजा की थी। यहाँ से जाँजगीर पहुँचे। जाँजगीर को कलचुरी शासक जाजल्य देव ने बसायी थी। यहाँ पर राम का प्राचीन मंदिर है। इसके बाद वे महानदी से मल्हार पहुँचे। मल्हार को दक्षिण कोसल की राजधानी होने का गौरव प्राप्त था। यहाँ मंदिरों के प्राचीन अवशेष में मानस कोसलीय लिखा हुआ सिक्का मिला है, जिससे इस स्थान का नाम कोसल होने की पुष्टि करता है। मल्हार से महानदी से धमनी पहुँचे। धमनी में प्राचीन शिवमंदिर है। धमनी होकर बलौदाबाजार तहसील में पलारी पहुँचे। पलारी में बालसमुंद जलाशय के किनारे प्राचीन ईंटों से निर्मित शिवमंदिर है। पलारी से महानदी मार्ग से नारायणपुर पहुँचे, नारायणपुर में प्राचीन शिवमंदिर है। नारायणपुर से कसडोल होकर तुरतुरिया पहुँचे। बालुकिनी पर्वत के समीप बसा तुरतुरिया को वाल्मीकि आश्रम कहा जाता है। |
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Re: यात्रा-संस्मरण
वाल्मीकि आश्रम में कुछ समय व्यतीत कर मुनिवर से मुलाकात कर उनसे मार्गदर्शन लेकर महानदी के तट पर बसे प्राचीन नगर सिरपुर पहुँचे। सिरपुर में राममंदिर एवं लक्ष्मणमंदिर तथा गंधेश्वर शिवमंदिर स्थिापित हैं। सिरपुर से आरंग पहुँचे। महानदी तट पर बसा आरंग में कौशल्या कुण्ड है। कहा जाता है कि कोसल नरेश भानुमंत की पुत्री का विवाह अयोध्या के राजकुमार दशरथ से हुआ था। विवाह बाद राजकुमारी का नाम कोसल से होने के कारण कौशल्या रखा गया। जैसा कि कैकय देश से कैकयी। इस प्रकार विवाह के बाद स्त्री का नाम बदलने की परंपरा की रामायणकालीन जानकारी मिलती है। आरंग माता कौशल्या की जन्मस्थली थी। अतः रामचंद्र जी ने वनवास काल में अपने ननिहाल में जाना पसंद किया था और यहाँ अधिकांश समय व्यतीत किया था । यही कारण है कि महाभारत कालीन मोरध्वज की राजधानी होने के बाद किसी अन्य राजा ने अपनी राजधानी इसे नहीं बनाया था, क्योंकि राम की जननी की जन्म स्थली होने के कारण यह एक पवित्र स्थान माना जाता है। आरंग से लगे हुए मंदिरहसौद क्षेत्र में कौशिल्या मंदिर भी है आरंग में प्राचीन बागेश्वर शिव मंदिर है। यहाँ उनके दर्शन किये फिर आरंग से महानदी तट से होते हुए फिंगेश्वर पहुँचे। फिंगेश्वर-राजिम मार्ग पर प्राचीन माण्डव्य आश्रम में श्री राम ऋषि से भेंट कर चंपारण्य होकर कमलक्षेत्र राजिम पहुँचे। राजिम में लोमस ऋषि के आश्रम गये, वहाँ रुक कर उनसे मार्गदर्शन लेकर कुलेश्वर महादेव की पूजा अर्चना की। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया। यहाँ पर सीता वाटिका भी है। इसके बाद उन्होंने पंचकोशी तीर्थ की यात्रा की, जिसमें पटेश्वर, चम्पकेश्वर, कोपेश्वर, बम्हनेश्वर एवं फणिकेश्वर शिव की पूजा की। राजिम राजीवलोचन मंदिर आज भी राजिम तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ एक सुरंग में मंदिर प्राचीन राजिम आश्रम में बना हुआ है, जहाँ प्राचीन शिवलिंग स्थापित है।
इनके दर्शन कर वे महानदी से रूद्री पहुँचे। रूद्रेश्वर शिव का प्राचीन मंदिर रूद्री में स्थित है। पाण्डुका के पास अतरमरा ग्राम में एक आश्रम है, जिसे अत्रि ऋषि का आश्रम कहते हैं। यहाँ से होकर वे रूद्री गये। रूद्री से गंगरेल होकर दुधावा होकर देवखूँट पहुँचे। नगरी स्थित देवखूँट में मंदिरों का समूह था जिसमें शिवमंदिर एवं विष्णुमंदिर रहे होंगे, जो बाँध के डूबान में आने के कारण जलमग्न हो गए। देवखूँट में कंक ऋषि का आश्रम था। यहाँ से वे सिहावा पहुँचे। सिहावा में श्रृंगि ऋषि का आश्रम है। वाल्मीकि रामायण में कोसल के राजा भानुमंत का उल्लेख आता है। भानुमंत की पुत्री कौशल्या से राजा दशरथ का विवाह हुआ था। इसके बाद अयोध्या में पुत्रयेष्ठि यज्ञ हुआ था, जिसमें यज्ञ करने के लिये सिहावा से श्रृंगी ऋषि को अयोध्या बुलाया गया था। यज्ञ के फलस्वरूप कौशल्या की पुण्य कोख से भगवान श्री राम का जन्म हुआ था। राजा दशरथ की पुत्री राजा रोमपाद की दत्तक पुत्री बनी, जिसका नाम शांता था। शांता भगवान राम की बहन थी, जिसका विवाह श्रृंगी ऋषि से हुआ था। सिहावा में श्रृंगी ऋषि के आश्रम के आगे के पर्वत में शांता गुफा है। यही कारण है कि रामचंद्र ने बहन -बहनोई का संबंध सिहावा में होने के कारण अपने वनवास का अधिक समय इसी स्थान में बिताया था तथा यह स्थान उन दिनों जनस्थान के नाम से जाना जाता था। सिहावा में सप्त ऋषियों के आश्रम विभिन्न पहाड़ियों में बने हुये हैं। उनमें मुचकुंद आश्रम, अगस्त्य आश्रम, अंगिरा आश्रम, श्रृंगि ऋषि, कंकर ऋषि आश्रम, शरभंग ऋषि आश्रम एवं गौतम ऋषि आश्रम आदि ऋषियों के आश्रम में जाकर उनसे भेंट कर सिहावा में ठहर कर वनवास काल में कुछ समय व्यतीत किया। सिहावा महानदी का उद्गम स्थल है। राम कथाओं में यह वर्णन मिलता है कि भगवान राम इस जनस्थान में काफी समय तक निवासरत थे। सिहावा की भौगोलिक स्थिति, ऋषि मुनियों के आश्रम, आवागमन की सुविधा आदि कारणों से यह प्रमाणित होता है। दूर-दूर तक फैली पर्वत श्रेणियों में निवासरत अनेक ऋषि-मुनियों और गुरूकुल में अध्यापन करने वाले शिक्षार्थियों का यह सिहावा क्षेत्र ही जनस्थान है। जहाँ राम साधु-सन्यासियों एवं मनीषियों से सत्संग करते रहे। सीतानदी सिहावा के दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती है, जिसके पार्श्व में सीता नदी अभ्यारण बना हुआ है। इसके समीप ही वाल्मीकि आश्रम है। यहाँ पर कुछ समय व्यतीत किया। सिहावा में आगे राम का वन मार्ग कंक ऋषि के आश्रम की ओर से काँकेर पहुँचता है। कंक ऋषि के कारण यह स्थान कंक से काँकेर कहलाया। काँकेर में जोगी गुफा, कंक ऋषि का आश्रम एवं रामनाथ महादेव मंदिर दर्शन कर दूध नदी के मार्ग से केशकाल पर्वत की तराई से होकर धनोरा पहुँचे। गढ़ धनोरा प्राचीनकाल में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक केंद्र था। पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस क्षेत्र में ६वीं शती ईस्वी का प्राचीन विष्णु मंदिर मिला है, तथा अन्य मंदिरों के भग्नावशेष भी मिले हैं। धनौरा से आगे नारायणपुर पहुँचे। नारायणपुर में अपने नाम के अनुरूप विष्णु का प्राचीन मंदिर है। नारायणपुर के पास राकसहाड़ा नामक स्थान राकस हाड़ा याने राक्षस की हड्डियाँ कहा जाता है वनवास काल के समय श्रीराम एवं लक्ष्मण जी ने ऋषि-मुनियों की तपोभूमि में विघ्न पहुँचाने वाले राक्षसों का भारी संख्या में विनाश किया था और उनकी हड्डियों के ढेर से पहाड़ बना दिया था। यह स्थान आज भी रकसहाड़ा के नाम से विख्यात है। वहीं पर रक्शाडोंगरी नामक स्थान भी है। इसके बाद नारायणपुर से छोटे डोंगर पहुँचे छोटे डोंगर में प्राचीन शिव मंदिर के भग्नावशेष मिले हैं। छोटे डोंगर से होकर प्राचीन काल में बाणासुर की राजधानी बारसूर पहुँचे। बारसूर एक सांस्कृतिक एवं धार्मिक केंद्र है। यहाँ प्रसिद्ध चंद्रादितेश्वर मंदिर, मामा-भांजा मंदिर, बत्तीसा मंदिर तथा विश्व प्रसिद्ध गणेश प्रतिमा स्थापित है। बारसूर से चित्रकोट पहुँचे। चित्रकोट जलप्रपात जो इंद्रावती पर बना हुआ है, यह रामवनगमन के समय राम-सीता की यह रमणीय स्थली रही। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया था। यह राम-सीता की लीला स्थली भी कही जाती है। सीता एवं रामचंद्र के नाम पर एक गुफा भी है। कहा जाता है कि भगवान राम से चित्रकोट में हिमगिरी पर्वत से भगवान शिव एवं पार्वती मिलने आये थे। चित्रकोट होकर नारायणपाल जो इंद्रावती नदी के तट पर बसी प्राचीन नगरी है। यहाँ विष्णु एवं भद्रकाली मंदिर हैं। नारायणपाल से दण्डकारण्य के प्रमुख केंद्र जगदलपुर से होकर गीदम पहुँचे। गीदम के संबंध में किवदंती है कि यह क्षेत्र गिद्धराज जटायु की नगरी थी। गिद्धराज राजा दशरथ के प्रिय मित्र थे। अनेक युद्धों में दोनों ने साथ-साथ युद्ध किया था। अतः रामवनगमन के समय गिद्धराज से मिलने गये थे। गिद्धराज के नाम से इस स्थान का गीदम होने की पुष्टि होती है। रामकथा में उल्लेख मिलता है कि रामचंद्र जी के पर्णकुटी में जाने के पूर्व उनकी भेंट गिद्धराज से हुई थी। गीदम से वे शंखनी एवं डंकनी नदी के तट पर बसा दंतेवाड़ा पहुँचे जहाँ पर आदि शक्तिपीठ माँ दंतेश्वरी का प्रसिद्ध मंदिर है। दंतेवाड़ा से काँगेर नदी के तट पर बसे तीरथगढ़ पहुँचे। तीरथगढ़ में सीता नहानी है। यहाँ पर राम-सीता जी की लीला एवं शिवपूजा की कथा प्रसिद्ध है। तीरथगढ़ एक दर्शनीय जलप्रपात है। इस मनोरम स्थल में कुछ समय व्यतीत करने के बाद कोटूमसर पहुँचे, जिसे कोटि महेश्वर भी कहा जाता है। कोटूमसर का गुफा अत्यधिक सुंदर एवं मनमोहक है। कहा जाता है कि यहाँ वनवास काल के समय उन्होंने भगवान शिव की पूजा की थी। यहाँ प्राकृतिक अनेक शिवलिंग मिलते हैं। कुटुमसर से सुकमा होकर रामारम पहुँचे। यह स्थान रामवनगमन मार्ग में होने के कारण पवित्र स्थान माना जाता है। यहाँ रामनवमी के समय का मेला पूरे अंचल में प्रसिद्ध है। रामाराम चिट्मिट्टिन मंदिर प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि राम वन गमन के समय यहाँ भू-देवी (धरती देवी) की पूजा की थी। यहाँ की पहाड़ी में राम के पद चिन्ह मिलने की किवदंती है। रामारम से कोंटा पहुँचे। कोंटा से आठ कि.मी. उत्तर में शबरी नदी बहती है। इसी के तट पर बसा छोटा सा ग्राम इंजरम है। इंजरम में प्राचीन शिवमंदिर रहा होगा। उसके भग्नावशेष आज भी भूमि में दबे पड़े हुये हैं। कहा जाता है कि भगवान राम ने यहाँ शिवलिंग की पूजा की थी। शबरी नदी से होकर गोदावरी एवं शबरी के तट पर बसे, कोंटा से ४० कि.मी. दूर आंध्रप्रदेश के तटवर्ती क्षेत्र कोनावरम् पहुँचे। यहाँ पर शबरी नदी एवं गोदावरी का संगम है। इस संगम स्थल के पास सीताराम स्वामी देव स्थानम है। कहा जाता है कि पर्णकुटी जाने के लिए कोंटा से शबरी नदी के तट से यहाँ राम-सीता वनवास काल में पहुँचे थे। इसके बाद गोदावरी नदी के तट पर बसे भद्रचलम पहुँचे। जहाँ पर्णकुटी (पर्णशाला) है। कहा जाता है कि दण्डकारण्य के भद्राचलम में स्थित पर्णकुटीर रामवनगमन का अंतिम पड़ाव एवं दक्षिणापथ का आरंभ था। पर्णकुटीर आज भी दर्शनीय है। भद्राचलम (आंध्रप्रदेश) में गोदावरी नदी के तट पर बना प्राचीन राम मंदिर (राम देव स्थानम) आज भी दर्शनीय है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर्णशाला (पर्णकुटीर) होने के कारण त्रेतायुग में इस स्थान का विशेष महत्व था। इसी पर्णशाला से सीताजी का हरण हुआ था। इस पर्णकुटीर में लक्ष्मण रेखा बनी हुयी है। इस स्थान के आगे का हिस्सा भारत का दक्षिणी क्षेत्र अर्थात् द्रविणों का क्षेत्र कहा जाता है। इस प्रकार छत्तीसगढ़ की पावन धरा में वनवासकाल में सीताजी एवं लक्ष्मण जी के साथ मर्यादा पुरूषोत्तम रामचंद्रजी का आगमन हुआ। इनके चरण स्पर्श से छत्तीसगढ़ की भूमि पवित्र एवं कोटि-कोटि धन्य हो गयी। |
31-10-2013, 07:59 PM | #35 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
छत्तीसगढ़ में रामकथा से जुड़े और धार्मिक, सांस्कृतिक महत्त्व के स्थानों के बारे में उपरोक्त आलेख में बहुत विषद वर्णन किया गया है और उनके साथ जुड़े प्रसंग भी प्रस्तुत किये गये हैं. हार्दिक धन्यवाद.
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02-11-2013, 11:30 AM | #36 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
बहुत बदिया
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09-12-2013, 09:24 PM | #37 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
सिन्धु दर्शन व यात्रा वृत्तान्त (साभार: पांचजन्य एवम् श्री रविप्रकाश टेकचन्दानी) जैसे-जैसे सिन्धु दर्शन अभियान हेतु जाने की तिथि पास आती जा रही थी, मुझे अनजाना सा उत्साह दिखने लगा था। रोज मन मचलता, प्रश्न उत्पन्न होता कि लेह जाऊं या न जाऊं? अगर जाऊं तो बस से जाऊं या हवाई जहाज से, कितने दिन लगेगे। छुट्टी मिलेगी या नहीं। क्या कार्यक्रम बनेगा? प्रश्नों की कतारें। 19 अगस्त की रात बरेली से मौसा श्री मोहन लाल खट्टर का फोन आया, उन्होंने जोश दिलाया। दादा खटर ने कहा नौंटकी (उ.प्र. की लोक कला) न करो, लेह चलना है और वह भी बस से। अब कोई प्रश्न नहीं। तैयारी की, मात्र एक दिन में लेह जाने की तैयारी हुई। बक्सों से गरम कपड़े निकल पड़े। दस दिनों का कार्यक्रम बना। 21 को चलना, 30 अगस्त को लौटना। लगभग 10 दिनों के लिए कपड़े, चने, चबैने इत्यादि बैग में, भरे पूरा दिन कुछ यहां से कुछ वहां से लेने में बीत गया।
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09-12-2013, 09:27 PM | #38 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
आखिर 21 अगस्त की प्रात: आ गई सभी तीर्थ यात्री "एक नए तीर्थ का उदय' देखने हेतु नई दिल्ली से हिमाचल भवन के निकट मंडी हाऊस पहुंचे। हिमाचल पर्यटन की दो बसें कुल 70 यात्रियों के लिए उपलब्ध थीं। शेष लगभग 400 यात्रा देश के विभिन्न कोनों से हवाई जहाज पर्यटन जहाज से जाने वाले थे। दोनों बसों में से एक बस की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई और दूसरी बस का दायित्वश्री हेमनदास मोटवानी ने स्वयं लिया।
हिमाचल भवन के प्रांगण में सिन्धु यात्रियों का सुखद यात्रा हो सके, इस उद्देश्य से दिल्ली सरकार के अधिकारी श्री मनोज कुमार पहले से उपस्थित थे। प्रांगण में लगभग तीस मिनट का संक्षिप्त कार्यक्रम हुआ। भारतीय सिन्धु सभा के दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष श्री नारी थधाणी जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। दिल्ली सरकार के तत्तकालीन मंत्री श्री सुरेन्द्र कुमार रातवाल ने स्वागत भाषण देते हुए घोषणा की कि आप सभी यात्रियों का पचास प्रतिशत खर्च दिल्ली सरकार वहन करेगी। श्री रातावाल ने सभी को माल्यार्पण भी किया, शुभ-कामनाएं दीं और साथ में डिब्बाबंद जलपान भी। हिमाचल पर्यटन के वेद प्रकाश पाण्डेय हमारे साथ मनाली तक चले। बस के चलते ही, सारा वातावरण भारतमय हो गया। भारत माता की जय, सिन्धु माता की जय, वंदे-मातरम् के जयघोष से गुंजायमान दिल्ली की मनोहर प्रात: सिन्धु तट पर न जा सकने वालों को लालयित कर रही थी। |
09-12-2013, 09:28 PM | #39 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
बस में कुल 35 तीर्थ यात्री थे। जिसमें 10 महिलाएं व 25 पुरुष थे। दिल्ली से कुल 12, मुम्बई से 8, गोरखपुर से 9, अयोध्या से 3, अहमदाबाद से 2 तथा बरेली से मात्र एक। गोरखपुर से आए सभी यात्री बहुत ही मिलनसार थे। उनके पास मिठाई-नमकीन का भण्डार था। थोड़ी ही देर में सभी यात्रियों में मिठाईयां बांटी गईं। बस, हम सभी विभिन्न रिश्तों में बंध गए। किसी ने आंटी तो किसी ने भाभी, तो किसी ने माता जी बना लिया। परिचय के पश्चात् गीत-संगीत का कार्यक्रम चला। गीतों में हम सभी इतने अधिक मस्त हो गए कि कब हम हिमालय प्रदेश के पर्यटन विभाग के होटल शिवालिक में, जो परवानू में स्थित है, दोपहर के भोजन हेतु पहुंचे, पता ही न चला। वहां पहुंचने पर हम यात्रियों का फूल मालाओं से स्वागत किया गया होटल के अधिकारियों में श्री आ.सी.गुप्ता ने हमें अपनी आंखों पर बैठा लिया। इतनी सुन्दर व्यवस्था देखकर हम सभी गदगद हो गए। भोजन भी लाजवाब। हिमाचल सरकार के मुख्यमंत्री श्री प्रेम कुमार घूमल ने सिंधु दर्शन अभियान के यात्रियों को सरकार के अतिथि के रूप में माना था। ठीक 45 मिनट के पश्चात् निर्धारित समय पर सभी पुन: बस से सवार हो चुके थे।
हमारी बसें अब प्रकृति के आंचल में दौड़ रही थी। चारों तरफ हरियाली, स्वच्छ वायु, मन तो मचलेगा ही। सभी एकाग्रचित प्रकृति का आनंद ले रहे थे। हंसते-खेलते शाम की चाय मंडी के होटल मांडव में पी गई। अधिकारियों ने कहा मौसम के कारण ही आप लोग कुछ लेट हुए अत: रात्रि भोजन की व्यवस्था मनाली के बदले कुल्लू में ही की गई। अधिकारियों ने हमारी भूख को ध्यान में रखते हुए भोजन की व्यवस्था कुल्लू में कर दी। कुल्लू का होटल अति मनोहारी लग रहा था। प्रकृति के बीच जैसे छोटा सा घोंसला बना हो। रात्रि का भोजन कुल्लू के होटल से करते लगभग रात्रि के एक बजे मनाली के होटल व्यास में पहुंचे। सुन्दर अति सुन्दर व्यवस्था। सभी को अलग-अलग कक्ष दिए गए। सारे कक्ष आधुनिक सुविधाओं में परिपूर्ण थे। सभी यात्रियों को अपने-अपने कमरे में जाकर सोने में रात्रि के 1.30 हो गए। होटल व्यास के अधिकारी श्री कपूर तो रात्रि के लगभग 2.15 पर सभी की व्यवस्था हो जाने के बाद ही वहां से गए। क्योंकि अभी तक दूसरी बस नहीं पहुंची थी। लगभग 2 बजे रात्रि में मोटवाणी जी ने मुझे जगाया, व्यवस्था की बात हुई। |
09-12-2013, 09:29 PM | #40 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
प्रात: उठते ही व्यास नदी पर बना होटल व्यास, पहाड़ों से घिरा, हल्की-हल्की फुहार, भीनी-भीनी नैसंर्गिक खुशबू ने सभी के मन को मोह लिया। मनाली से आगे की यात्रा के लिए हमें स्वादिष्ट जलपान व दोपहर का भोजन मिला। साथ ही एक सुन्दर साथी, हमराही श्री के.एल. मस्ताना, जो हमें आगे की यात्रा का आंखों देखा हाल सुनाने के लिए तथा हमारा मार्गदर्शन करने हेतु हमारे साथ आए। मस्ताना जी का जैसा नाम वैसा काम। अपने मधुर व्यवहार से उन्होंने हमारी यात्रा को और खुशहाल बना दिया। मस्ताना जी, श्री पाण्डे के स्थान पर हमारे साथ चले।
अब हम पूर्णत: हिमाचल की गोद में थे। लगभग 5-6 किमी. की दूरी पर रोहतांग पास (समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 13,500 फीट) पहुंचे। यहां से व्यास नदी का उद्गम माना जाता है और यहीं पर ऋषि व्यास का मन्दिर बना है। यहां का मौसम ठंडा था। वातावरण में आक्सीजन भी थोड़ी कम थी। लेकिन सभी प्रकृति का पूर्ण आनंद ले रहे थे सभी अपने-अपने अंदाजों में फोटो खिंचवा रहे थे। बच्चों-बूंढ़ों में कोई अंतर नहीं दिख रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों प्रकृति की सारी खूबियां अपने छोटे-छोटे कैमरों में कैद कर लेंगे। रोहतांग पास (दर्रा) से हम आग बढ़े। लगभग 2 घण्टे के पश्चात् हम लोग केलांग पहुंचे। यह स्थान समुद्र के तल से 10,500 फीट की ऊंचाई पर है तथा लाहौल स्पीति जिले का जिला मुख्यालय है। केलांग में हम सभी ने भोजन लिया। यहां से हमारे साथ सुरक्षा अधिकारी भी चल पड़े। हमें अपने व्यूह में समा लिया उन्होंने। यद्यपि कोई विशेष डर नहीं थी। लेकिन भई हम इस सिंधु दर्शन अभियान के पहले बस यात्री थे। पर हमें तो सिर्फ मस्ती, मौसम, माहौल और मस्ताना के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा था। दोपहर के भोजन के पश्चात् हम बारालाचा पास (दर्रा) से होते हुए रात्रि में लगभग 8.30 बजे सुर्चू पहुंचे। यह स्थान एक समतल मैदान था। चारों ओर काले-काले पहाड़ दिख रहे थे। रात में झरने की आवाजें भी आ रही थी। प्रकृति की माया अपरम्पार है। यह हिमाचल प्रदेश का अंतिम गांव है। यहां पर हिमाचल पर्यटन विभाग ने हमारे लिए रात्रि विश्राम की व्यवस्था की थी। |
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