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Old 09-05-2011, 09:05 PM   #31
MissK
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Default Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ

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Originally Posted by झटका View Post
इसका नाम बोलने में मेरी जबान बार बार फंसती है

सूत्र अच्छा है
continue......

अरे ये क्या बात हुयी?
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काम्या

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Old 09-05-2011, 09:09 PM   #32
abhisays
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Originally Posted by MissK View Post
अभी पोस्टिंग में केरेक्टर्स को लेकर कुछ समस्या आ रही अतः बाकि भाग समस्या का हल मिलने के बाद डालूंगी..
Are you still facing this issue?
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अब माई हिंदी फोरम, फेसबुक पर भी है. https://www.facebook.com/hindiforum
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Old 09-05-2011, 09:29 PM   #33
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Default Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ

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Originally Posted by abhisays View Post
Are you still facing this issue?
Yes... it's not taking the spaces between the words and also not letting me make lengthier posts like I did in the first story. It looks something like this when I post or see the preview---

जिन्हेंसमझनाथा, वहसमझचुकेथेऔरवहसुरक्षितभीहोचुकेथे।शेषजोयेसुनकरगयेथ े, किचारआनेकागेहँऔरचारआनेकीहाथभरलम्बीरोटीमिलतीहै, वोलूटरहेथे।क्योंकिवहाँजाकरउन्हेंयहभीपताचलाकिचारसेर कागेहँखरीदनेकेलिएएकरुपयेकीभीजरूरतहोतीहै।औरहाथभरलम् बीरोटीकेलिएपूरीचवन्नीदेनीपड़तीहै।औरयेरुपया, अठन्नियाँनकिसीदुकानमेंमिलींनहीखेतोंमेंउगीं।इन्हेंप ्राप्तकरनाइतनाहीकठिनथाजितनाजीवितरहनेकेलिएभाग-दौड़।
जबखुल्लमखुल्लाइलाकोंसेअल्पसंख्यकोंकोनिकालनेकानिर्ण यलियागयातोबड़ीकठिनाईसामनेआयी।ठाकुरोंनेसांफकहदियाकिस ाहबजनताऐसीगुँथी-मिलीरहतीहैकिमुसलमानोंकोचुनकरनिकालनेकेलिएस्टांफकीजर ूरतहै।जोकिएकफालतूखर्चहै।वैसेआपअगरजमीनकाकोईटुकड़ाशरण ार्थियोंकेलिएखरीदनाचाहेंतोवोखालीकराएजासकतेहैं।जानव रतोरहतेहीहैं।जबकहिएजंगलसाफकरवादियाजाए।
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Old 09-05-2011, 10:07 PM   #34
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Default Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ

आगे की कहानी..

जिन्हें समझना था, वह समझ चुके थे और वह सुरक्षित भी हो चुके थे। शेष जो ये सुनकर गये थे, कि चार आने का गेहँ और चार आने की हाथ भर लम्बी रोटी मिलती है, वो लूट रहे थे। क्योंकि वहाँ जाकर उन्हें यह भी पता चला कि चार सेर का गेहँ खरीदने के लिए एक रुपये की भी जरूरत होती है। और हाथ भर लम्बी रोटी के लिए पूरी चवन्नी देनी पड़ती है। और ये रुपया, अठन्नियाँ न किसी दुकान में मिलीं न ही खेतों में उगीं। इन्हें प्राप्त करना इतना ही कठिन था जितना जीवित रहने के लिए भाग-दौड़।
जब खुल्लमखुल्ला इलाकों से अल्पसंख्यकों को निकालने का निर्णय लिया गया तो बड़ी कठिनाई सामने आयी। ठाकुरों ने सांफ कह दिया कि साहब जनता ऐसी गुँथी-मिली रहती है कि मुसलमानों को चुनकर निकालने के लिए स्टांफ की जरूरत है। जो कि एक फालतू खर्च है। वैसे आप अगर जमीन का कोई टुकड़ा शरणार्थियों के लिए खरीदना चाहें तो वो खाली कराए जा सकते हैं। जानवर तो रहते ही हैं। जब कहिए जंगल साफ करवा दिया जाए।
अब शेष रह गये कुछ गिने-चुने परिवार जो या तो महाराजा के चेले-चपाटे में से थे और जिनके जाने का सवाल ही कहाँ। और जो जाने को तुले बैठे थे उनके बिस्तर बँध रहे थे। हमारा परिवार भी उसी श्रेणी में आता था। जल्दी न थी। मगर इन्होंने तो आकर बौखला ही दिया। फिर भी किसी ने अधिक महत्त्व नहीं दिया। वह तो किसी के कान पर जूँ तक न रेंगती और वर्षों सामान न बँधता जो अल्लाह भला करे छब्बा मियाँ का, वो पैंतरा न चलते। बड़े भाई तो जाने ही वाले थे, कह-कहकर हार गये थे तो मियाँ छब्बा ने क्या किया कि स्कूल की दीवार पर 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' लिखने का फैसला कर लिया। रूपचन्द जी के बच्चों ने इसका विरोध किया और उसकी जगह 'अखंड भारत' लिख दिया। निष्कर्ष ये कि चल गया जूता और एक-दूसरे को धरती से मिटा देने का वचन। बात बढ़ गयी। यहाँ तक कि पुलिस आ गयी और जो कुछ गिनती के मुसलमान बचे थे उन्हें लॉरी में भरकर घरों में भिजवा दिया गया।
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Old 09-05-2011, 10:10 PM   #35
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Default Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ

अब सुनिये, कि ज्योंही बच्चे घर में आये, हमेशा हैंजा, महामारी के हवाले करनेवाली माएँ ममता से बेकरार होकर दौड़ीं और कलेजे से लगा लिया। और कोई दिन ऐसा भी होता कि रूपचन्द जी के बच्चों से छब्बा लड़कर आता तो दुल्हन भाभी उसकी वह जूतियों से मरहम-पट्टी करतीं कि तौबा भली और उठाकर इन्हें रूपचन्द के पास भेज दिया जाता कि पिलाएँ उसे अरंडी का तेल और कोनेन का मिश्रण, क्योंकि रूपचन्द जी हमारे खानदानी डाक्टर ही नहीं, अब्बा के पुराने दोस्त भी थे। डाक्टर साहब की दोस्ती अब्बा से, इनके बेटों की भाइयों से, बहुओं की हमारी भावजों से, और नयी पौध की नयी पौध से आपस में दाँतकाटी दोस्ती थी। दोनों परिवार की वर्तमान तीन पीढ़ियाँ एक-दूसरे से ऐसी घुली-मिली थीं कि कोई सोच भी नहीं सकता था कि भारत के बँटवारे के बाद इस प्रेम में दरार पड़ जाएगी। जबकि दोनों परिवारों में मुस्लिम लीगी, काँग्रेसी और महासभाई मौजूद थे। धार्मिक और राजनीतिक वाद-विवाद भी जमकर होता था मगर ऐसे ही जैसे फुटबॉल या क्रिकेट मैच होता है। इधर अब्बा काँग्रेसी थे तो उधर डॉक्टर साहब और बड़े भाई लीगी थे तो उधर ज्ञानचन्द महासभाई, इधर मँझले भाई कम्युनिस्ट थे तो उधर गुलाबचन्द सोशलिस्ट और फिर इसी हिसाब से मर्दों की पत्नियाँ और बच्चे भी इसी पार्टी के थे। आमतौर पर जब बहस-मुबाहिसा होता तो काँग्रेस का पलड़ा हमेशा भारी रहता, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट गालियाँ खाते मगर काँग्रेस ही में घुस पड़ते। बच जाते महासभाई और लीगी। ये दोनों हमेशा साथ देते वैसे वह एक-दूसरे के दुश्मन होते, फिर भी दोनों मिलकर काँग्रेस पर हमला करते।
लेकिन इधर कुछ साल से मुस्लिम लीग का जोर बढ़ता जा रहा था और दूसरी ओर महासभा का। काँग्रेस का तो बिलकुल पटरा हो गया। बड़े भाई की देख-रेख में घर की सारी पौध केवल दो -एक पक्षपात रहित काँग्रेसियों को छोड़कर नेशनल गार्ड की तरह डट गयी। इधर ज्ञानचन्द की सरदारी में सेवक संघ का छोटा-सा दल डट गया। मगर प्रेम वही रहा पहले जैसा।
''अपने लल्लू की शादी तो मुन्नी ही से करूँगा।'' महासभाई ज्ञानचन्द के लीगी पिता से कहते, ''सोने के पाजेब लाऊँगा।''
''
यार मुलम्मे की न ठोक देना।'' अर्थात् बड़े भाई ज्ञानचन्द की साहूकारी पर हमला करते हैं।
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Old 09-05-2011, 10:13 PM   #36
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Default Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ

और इधर नेशनल गार्ड दीवारों पर, ''पाकिस्तान जिन्दाबाद'' लिख देते और सेवक संघ का दल इसे बिगाड़ कर 'अखंड भारत' लिख देता। यह उस समय की घटना है जब पाकिस्तान का लेन-देन एक हँसने-हँसाने की बात थी।
अब्बा और रूपचन्द यह सब कुछ सुनते और मुस्कुराते और फिर सबको एक बनाने के इरादे बाँधने लगते।
अम्मा और चाची राजनीति से दूर धनिये, हल्दी और बेटियों के जहेजों की बातें किया करतीं और बहुएँ एक-दूसरे के फैशन चुराने की ताक में लगी रहतीं, नमक-मिर्च के साथ-साथ डॉक्टर साहब के यहाँ से दवाएँ भी मँगवायी जातीं। हर दिन किसी को छींक आयी और वह दौड़ा डाक्टर साहब के पास या जहाँ कोई बीमार हुआ और अम्मा ने दाल भरी रोटी बनवानी शुरू की और डाक्टर साहब को कहला भेजा कि खाना हो तो आ जाएँ। अब डाक्टर साहब अपने पोतों का हाथ पकड़े आ पहुँचे।
चलते वक्त पत्नी कहतीं, ''खाना मत खाना सुना।''
''हँ तो फिर फीस कैसे वसूल करूँ देखो जी लाला और चुन्नी को भेज देना।''
''हाय राम तुम्हें तो लाज भी नहीं आती'' चाची बड़बड़ातीं। मजा तो तब आता जब कभी अम्मा की तबीयत खराब होती और अम्मा काँप जातीं।
''ना भई ना मैं इस जोकर से इलाज नहीं करवाऊँगी।'' मगर घर के डाक्टर को छोड़कर शहर से कौन बुलाने जाता। डाक्टर साहब बुलाते ही दौड़े चले आते, ''अकेले-अकेले पुलाव उड़ाओगी तो बीमार पड़ोगी।'' वह चिल्लाते।
''जैसे तुम खाओ हो वैसा औरों को समझते हो'' अम्मा पर्दे के पीछे से भिनभिनातीं।
''अरे ये बीमारी का तो बहाना है भई, तुम वैसे ही कहला भेजा करो, मैं आ जाया करूँगा। ये ढोंग काहे को रचती हो।'' वो ऑंखों में शरारत जमाकर मुस्कुराते और अम्मा जल कर हाथ खींच लेती और बातें सुनातीं। अब्बा मुस्कुरा कर रह जाते।
एक मरीज को देखने आते तो घर के सारे रोगी खड़े हो जाते। कोई अपना पेट लिये चला आ रहा है तो किसी का फोड़ा छिल गया। किसी का कान पक गया है तो किसी की नाक फूली पड़ी है।
''क्या मुसीबत है डिप्टी साहब! एकाध को जहर दे दूँगा। क्या मुझे 'सलोतरी' समझ रखा है कि दुनिया भर के जानवर टूट पड़े।'' वह रोगियों को देखते जाते और मुस्कुराते।
और जहाँ कोई नया बच्चा जनमने वाला होता तो वह कहते
''मुंफ्त का डाक्टर है पैदा किए जाओ कमबख्त के सीने पर कोदो दलने के लिए।''
मगर ज्योंही दर्द शुरू होता, वह अपने बरामदे से हमारे बरामदे का चक्कर काटने लगते। चीख चिंघाड़ से सबको बौखला देते। मौहल्ले-टोले वालों का आना तक मुश्किल।
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Old 09-05-2011, 10:18 PM   #37
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Default Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ

पर ज्योंही बच्चे की पहली आवांज इनके कानों में पहुँचती वह बरामदे से दरवाजा, दरवाजे से कमरे के अन्दर आ जाते और इनके साथ अब्बा भी बावले होकर आ जाते। औरतें कोसती-पीटती पर्दे में हो जातीं। बच्चे की नाड़ी देखकर वह उसकी माँ की पीठ ठोकते 'वाह मेरी शेरनी', और बच्चे का नाल काटकर उसे नहलाना शुरू कर देते। अब्बा घबरा-घबराकर फूहड़ नर्स का काम करते। फिर अम्मा चिल्लाना शुरू कर देतीं
''लो गजब खुदा का ये मर्द हैं कि जच्चा घर में पिले पड़ते हैं।''
परिस्थिति को भाँप कर दोनों डाँट खाए हुए बच्चे की तरह बाहर भागते।
अब फिर अब्बा के ऊपर जब फालिज का हमला हुआ तो रूपचन्द जी अस्पताल से रिटायर हो चुके थे और इनकी सारी प्रैक्टिस इनके और हमारे घर तक ही सीमित रह गयी थी। इलाज तो और भी कई डाक्टर कर रहे थे मगर नर्स के और अम्मा के साथ डाक्टर साहब ही जागते, और जिस समय से वह अब्बा को दंफना कर आये, खानदानी प्रेम के इलावा इन्हें जिम्मेदारी का भी एहसास हो गया। बच्चों की फीस माफ कराने स्कूल दौड़े जाते। लड़कियों-बालियों के दहेज के लिए ज्ञानचन्द की वाणी बन्द रखते। घर का कोई भी विशेष कार्य बिना डॉक्टर साहब की राय के न होता। पश्चिमी कोने को तुड़वाकर जब दो कमरे बढ़ाने का प्रश्न उठा तो डाक्टर साहब की ही राय से तुड़वाया गया।
''उससे ऊपर दो कमरे बढ़वा लो'', उन्होंने राय दी और वह मानी गयी। फजन एफ. . में साइंस लेने को तैयार न था, डाक्टर साहब जूता लेकर पिल पड़े मामला ठंडा हो गया। फरीदा, मियाँ से लड़कर घर आन बैठी, डाक्टर साहब के पास उसका पति पहुँचा और दूसरे दिन उनकी मँझली बहू शीला जब ब्याह कर आयी तो आया का झगड़ा भी समाप्त हो गया। बेचारी अस्पताल से भागी आयी। फीस तो दूर की चीज है ऊपर से छठे दिन कुर्ता-टोपी लेकर आयी।
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Old 09-05-2011, 10:22 PM   #38
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पर आज जब छब्बा लड़कर आये तो इनकी ऐसी आवभगत हुई जैसे मैदान मार कर आया हो कोई बहादुर मर्द। सभी ने इसकी बहादुरी का वर्णन जानना चाहा और बहुत-सी जवानों के सामने अम्मा गँगी बनी रहीं। आज से नहीं, वह 15 अगस्त से जब डाक्टर साहब के घर पर तिरंगा झंडा लहराया और अपने घर पर लीग का झंडा टँगा था उसी दिन से उनकी जुबान को चुप लग गयी थी। इन झंडों के बीच एक लम्बी खाई का निर्माण हो चुका था। जिसकी भयानक गहराई अपनी दुखी ऑंखों से देख-देखकर सिहर जातीं अम्मा। फिर शरणार्थियों की संख्या बढ़ने लगी। बड़ी बहू के मौके वाले बहावलपुर से माल लुटाकर और किसी तरह जान बचाकर जब आये तो खाई की चौड़ाई और बढ़ गयी। फिर रावलपिंडी से जब निर्मला के ससुराल वाले मूर्च्छित अवस्था में आये तो इस खाई में अजगर फुँफकारें मारने लगे। जब छोटी भाभी ने अपने बच्चे का पेट दिखाने को भेजा तो शीला भाभी ने नौकर को भगा दिया।
और किसी ने भी इस मामले पर वाद-विवाद नहीं छेड़ा, सारे घर के लोग एकदम रुक गये। बड़ी भाभी तो अपने हिस्टीरिया के दौरे भूलकर लपाझप कपड़े बाँधने लगीं। ''मेरे ट्रंक को हाथ न लगाना'' अम्मा की जुबान अन्त में खुली और सबके सब हक्का-बक्का रह गये।
''क्या आप नहीं जाएँगी।'' बड़े भइया तैश से बोले।
''नौजमोई मैं सिन्धों में मरने जाऊँ। अल्लाह मारियाँ बुर्के-पाजामे फड़काती फिरे हैं।''
''तो सँझले के पास ढाके चली जाएँ।''
''ऐ वो ढाके काहे को जाएँगी। वहाँ बंगाली की तरह चावल हाथों से लसेड़-लसेड़ कर खाएँगी।'' सँझली की सास ममानी बी ने ताना दिया।
''तो रावलपिण्डी चलो फरीदा के यहाँ'', खाला बोलीं।
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Old 09-05-2011, 10:24 PM   #39
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Default Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ

''तौबा मेरी, अल्लाह पाक पंजाबियों के हाथों मिट्टी गन्दी न कराये। मिट गये दोंजखियों (नरक वासी) की तो जुबान बोले हैं।'' आज तो मेरी कम बोलने वाली अम्मा पटापट बोलीं।
''ऐ बुआ तुम्हारी तो वही मसल हो गयी कि ऊँचे के नीचे, भेर लिये कि पेड़ तले बैठी तेरा घर न जानूँ। ऐ बी यह कट्टू गिलहरी की तरह गमजह मस्तियाँ कि राजा ने बुलाया है। लो भई झमझम करता हाथी भेजा। चक-चक ये तो काला-काला कि घोड़ा भेजा, चक-चक ये तो लातें झाड़े कि...''
वातावरण विषैला-सा था इसके बावजूद कहकहा पड़ गया। मेरी अम्मा का मुँह जरा-सा फूल गया।
''क्या बच्चों की-सी बातें हो रही हैं।'' नेशनल गार्ड के सरदार अली बोले।
''जिनका सर न पैर, क्या इरादा है यहाँ रहकर कट मरने का।''
''तुम लोग जाओ अब मैं कहाँ जाऊँगी अपनी अन्तिम घड़ी में।''
''तो अन्तिम घड़ियों में कांफिरों से गत बनवाओगी?'' खाला बी पोटलियों को गिनती जाती थीं। और पोटलियों में सोने-चाँदी के गहनों से लकर करहडियों का मंजन, सूखी मेथी, और मुल्तानी मिट्टी तक थी। इन चीजों को वो ऐसे कलेजे से लगा कर ले जा रही थीं मानो पाकिस्तान का एस्ट्रलिंग बैलेंस कम हो जाएगा। तीन बार बड़े भाई ने जलकर इनकी पुराने रोहड़ की पोटलियाँ फेकीं। पर वह ऐसी चिंघाड़ीं मानो अगर उनकी यह दौलत न गयी तो पाकिस्तान गरीब रह जाएगा। फिर मजबूर होकर बच्चों की मौत में डूबी हुई गदेलों की रुई की पोटलियाँ बाँधनी पड़ीं। बर्तन बोरों में भरे गये। पलंगों के पाचे-पट्टियाँ खोलकर झलंगों में बाँधी गयीं , और देखते ही देखते जमा जमाया घर टेढ़ी-मेढ़ी गठरियों और बोगचों में परिवर्तित हो गया। अब तो सामानों के पैर लग गये हैं। थोड़ा सुस्ताने को बैठा है अभी फिर उठकर नाचने लगेगा।
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Old 09-05-2011, 10:27 PM   #40
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पर अम्मा का ट्रंक ज्यों का ज्यों रखा रहा।
''आपा का इरादा यहीं मरने का है तो इन्हें कौन रोक सकता है'', भाई साहब ने अन्त में कहा।
और मेरी मासूम सूरत वाली अम्मा भटकती ऑंखों से आसमान को तकती रहीं, जैसे वो स्वयं अपने आपसे पूछती हों, कौन मार डालेगा? और कब?
''
अम्मा तो सठिया गयी हैं। इस उम्र में इनकी बुध्दि ठिकाने पर नहीं है'' मँझला भाई कान में खुसपुसाया।
''क्या मालूम इन्हें कि कांफिरों ने मासूमों पर तो और भी अत्याचार किया है। अपना देश होगा तो जान-माल की तो सुरक्षा होगी।''
अगर मेरी कम बोलने वाली अम्मा की जुबान तेंज होती तो वह जरूर कहतीं, 'अपना देश है किस चिड़िया का नाम? लोगो! वह है कहाँ अपना देश ? जिस मिट्टी में जन्म लिया, जिसमें लोट-पोट कर पले-बढ़े वही अपना देश न हुआ तो फिर जहाँ चार दिन को जाकर बस जाओ वह कैसे अपना देश हो जाएगा? और फिर कौन जाने वहाँ से भी कोई निकाल दे। कहे जाओ नया देश बसाओ। अब यहाँ सुबह का चिराग बनी बैठी हँ। एक नन्हा-सा झोंका आया और देश का झगड़ा समाप्त और ये देश उजड़ जाने और बसाने का खेल मधुर भी तो नहीं। एक दिन था मुंगल अपना देश छोड़कर नया देश बसाने आये थे। आज फिर चलो देश बसाने, देश न हुआ पैर की जूती हो गयी, थोड़ा कसी नहीं कि उतार फेंकी और फिर दूसरी पहन ली' मगर अम्मा चुप रहीं। अब इनका चेहरा पहले से अधिक थका हुआ मालूम होने लगा। जैसे वह सैकड़ों वर्षों से देश की खोज में खाक छानने के बाद थककर बैठी हों और इस खोज में स्वयं को भी खो चुकी हों।
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