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Old 14-11-2011, 07:33 PM   #31
Dark Saint Alaick
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50वें साल में प्रवेश कर गया यसुदास का गायन कैरियर



तिरूअनंतपुरम ! भारतीय संगीत के दिग्गज के जे यसुदास ने पार्श्वगायक के तौर पर आज 50 वें साल में प्रवेश कर लिया। उन्होंने विभिन्न भाषाओं में 50,000 से अधिक गीतों के लिए अपने स्वर दिये हैं जिसमें उनकी मातृभाषा मलयालम भी शामिल है। यसुदास ने सबसे पहले 14 नवंबर 1961 को एक संत-सुधारक श्रीनारायन गुरू की एक कविता की चार पंक्तियों को गुनगुनाया था। इस गीत को मलयालम फिल्म ‘कलप्पडुकल’ में लिया गया था जिसका संगीत एम बी श्रीनिवास ने दिया था। उस समय देश के सबसे अधिक सुने जाने वाले गायकों में शामिल यसुदास के सैकड़ों ऐसे गीत हैं जो आज भी लोगों को उनके मधुर स्वर के कारण बार-बार याद आते हैं। मलयालम के अलावा, तमिल, हिन्दी, तेलगु, कन्नड़, बंगाली, गुजराती जैसे क्षेत्रीय और विदेशी भाषाओं में रशियन, अरबी, लैटिन और अंग्रेजी भाषाओं में भी गायिकी की है। संगीत समीक्षकों के मुताबिक, यसुदास की आवाज में इतनी मिठास होने का कारण उनका अभ्यास, प्रतिबद्धता और कड़ी मेहनत है।
यसुदास की आवाज में काफी विविधता है जिसके कारण उन्होंने विविध प्रकार के गीत गाये। महान गायक यसुदास ने तीन पीढियों की महिला गायिकाओं के साथ युगलबंदी की है जिसमें से कई कलाकार जैसे पी सुशीला एस जानकी, पी लीला, वानी जयराम, चित्रा और सुजाता मशहूर गायिका रही हैं। यसुदास ने महान संगीतकारों जैसे डी देवराजन, एम एस बाबूराज, के राघवन, एम एस विश्वनाथन और एम के अर्जुन के लिए गीत गया है। उन्हें गायकी के लिए सात बार सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार का खिताब दिया गया है। मलयालम, तमिल, कन्नड, तेलगु और बांगला जैसी क्षेत्रीय भाषाओं में गायन के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक लिए उन्होंने राज्य पुरस्कार से नवाजा गया है।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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Old 23-11-2011, 06:55 PM   #32
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इंटरनेट ने लौटाई परंपरागत कश्मीरी संगीत की खोई लोकप्रियता


श्रीनगर ! इंटरनेट कश्मीर के परंपरागत संगीत के उद्धारक के रूप में सामने आया है। चाहे वह चकेर हो या सूफी संगीत, बॉलीवुड और टेलीविजन के मुकाबले पिछले दो दशकों से यह पिछड़ गया था लेकिन इंटरनेट ने उसे उसकी खोई लोकप्रियता वापस दिला दी है। केबल चैनलों और टीवी धारावाहिकों के आने से पहले परंपरागत कश्मीरी संगीत ही लोगों के मनोरंजन का एकमात्र माध्यम हुआ करता था। कश्मीरी संगीत कार्यक्रम स्थानीय इलाकों में घाटी के एकमात्र रेडियो स्टेशन से प्रसारित किए जाते थे। वह चकेर और सूफी कश्मीरी गायकों का स्वर्णिम दौर था। उस दौर के गायकों का नाम आज भी कश्मीर के पिछली पीढी को उस दौर की याद दिलाता है। कश्मीरी संगीत आंतकवाद से भी प्रभावित हुआ क्योंकि कुछ आतंकी संगठनों ने गाना गाने और सुनने को इस्लाम के विरूद्ध घोषित कर दिया था। राज्य सरकारें भी गायकों और संगीत को प्रोत्साहन देने में असफल रही। केबल चैनलों के आने से लोगों ने कश्मीरी संगीत सुनना और कम कर दिया। लेकिन अब एक बार फिर से कश्मीरी संगीत की धुन वादी में गूंजने लगी है। इंटरनेट ने तकनीक प्रिय युवाओं को कश्मीरी संगीत के पुराने गौरव की ओर मोड़ दिया है। अब्दुल गफ्फार कनीहामी का गाया 23 साल पुराना गीत ‘मौज’ पिछले साल यूट्यूब पर अपलोड किया गया जिसे अभी तक हजारों लोगों ने देखा और सुना है। यूट्यूब द्वारा जारी किए गए आंकड़ों से पता चला है कि यह वीडियो दुनिया भर में लोगों ने देखा जिसमें दुनिया के अलग अलग हिस्सों में रहने वाले कश्मीरी शामिल हैं।
कनीहामी ने अपने जवानी के दिनों में यह गीत गाया था। आज दो दशक बाद कनीहामी इस पर बात करते हुए कहते हैं कि इंटरनेट ने घाटी के गुम हो चुके संगीत कलाकारों को युवाओं के बीच वापसी का मौका दिया है। कनीहामी ने पीटीआई से बात करते हुए कहा, ‘‘इंटरनेट कश्मीरी संगीत को बढावा दे रहा है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘युवाओं के लिए पांच-छह घंटे निकालकर महफिलों में आकर गाना गाना और संगीत सुनना मुश्किल काम है। लेकिन इंटरनेट के माध्यम से वह घर बैठे हमारा संगीत सुन सकते हंै। कनीहामी कश्मीर गुलावकर (गायकों) समाज के महासचिव और वरिष्ठ गायक हैं जिन्हें कश्मीरी संगीत की अलग-अलग विधाओं और काव्य रूपों की पूरी समझ है। उन्होंने कहा, ‘‘सूफी संगीत के अपने छिपे हुए अर्थ हैं, इसे इसी रूप में गाया जाता है। इसे समझने के लिए संयम और समझ होना जरूरी है। वहीं चकेर लोक संगीत है। यह गतिशील है इसमें सामाजिक मुद्दों, हास्य, पुरानी कहानियों आदि का मिश्रण होता है। दूसरे कश्मीरी कलाकार जिनके वीडियो इंटरनेट पर उपलब्ध हैं उनमें गुलजार अहमद गनी, अली मोहम्मद शेख, अब्दुल राशिद हफीज, मोहम्मद सुल्तान भट, गुलाम मोहम्मद दार, वाहिद जिलानी और गुलाम हसन सोफी के नाम शामिल हैं। कश्मीरी सूफी संगीत के पुरोधा मोहम्मद अब्दुल्ला तिबतबाकल के संगीत को भी इंटरनेट के माध्यम से नया जीवन मिला है। उनके वीडियो भी काफी लोग पसंद कर रहे हैं।
एक अन्य कश्मीरी गायक वाहिद जिलानी ने कहा कि इंटरनेट द्वारा कश्मीरी संगीत का प्रचार एक अच्छा संकेत है लेकिन लोगों को इन वीडियो और गानों को अपलोड करते समय ध्यान देना चाहिए क्योंकि यह हमारी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिलानी ने कहा, ‘‘कई बार जो वीडियो अपलोड किए जाते हैं वे देखने लायक नहीं होते। उनमें कविताओं को अश्लील वीडियो के साथ मिला दिया जाता है।’’ उन्होंने कहा कि वैसे समय बदल रहा है और इंटरनेट इन गानों को नये दर्शकों तक पहुंचा रहा है जिससे कश्मीरी संगीत के विकास में जरूर मदद मिलेगी। कनीहामी ने भी कहा कि कश्मीरी संगीत उद्योग में बदलाव जरूर आया है लेकिन कुछ विकास नहीं हुआ है। उन्होंने सरकारी संस्थाओं के भ्रष्टाचार में शामिल होने की शिकायत करते हुए कहा कि कश्मीरी कलाकारों को एक पिंजड़े में बंद कर दिया गया है जहां से उन्हें बाहर नहीं निकलने दिया जा रहा है।
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Old 27-11-2011, 04:54 PM   #33
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बड़े भैय्या के मुकाबले लोकसभा में अधिक सक्रिय हैं वरूण गांधी



नयी दिल्ली ! उत्तर प्रदेश में इन दिनों चुनावी पिच तैयार करने में जुटे राहुल गांधी लोकसभा में सक्रियता के मुकाबले में छोटे भाई वरूण गांधी से पिछड़ गए हैं । 15वीं लोकसभा का कार्यकाल शुरू होने के बाद अभी तक वरूण न केवल हाजिरी के मामले में राहुल से आगे रहे हैं, बल्कि सवाल पूछने के मामले में भी उन्होंने बड़े भाई से बाजी मार ली है । लोकसभा सचिवालय से मिली जानकारी के अनुसार 15वीं लोकसभा में कांग्रेस महासचिव राहुल की हाजिरी का प्रतिशत 43 था, वहीं उत्तर प्रदेश के पीलीभीत से भाजपा सांसद वरूण की उपस्थिति का आंकड़ा 64 फीसदी रहा है। वरूण की मां और राहुल की चाची मेनका गांधी की हाजिरी का आंकड़ा लोकसभा में 70 फीसदी रहा है । इसी प्रकार वरूण गांधी ने जहां लोकसभा में दो विभिन्न मुद्दों पर चर्चाओं में हिस्सा लिया तो वहीं राहुल गांधी ने केवल एक चर्चा में भागीदारी की । लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान सवाल पूछने के मामले में भी वरूण गांधी काफी आगे हैं । वरूण गांधी ने प्रश्नकाल के दौरान 389 पूरक और अनुपूरक सवाल किए, जबकि राहुल गांधी ने कोई सवाल नहीं किया।
लोकसभा सचिवालय से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि न केवल वरूण गांधी, राहुल गांधी के मुकाबले अधिक सक्रिय हैं, बल्कि उनकी मां तथा आंवला (उत्तर प्रदेश) से सांसद मेनका गांधी भी लोकसभा में सक्रिय भूमिका अदा करती हैं । वरूण और मेनका गांधी ने अभी तक एक एक गैरसरकारी विधेयक पेश किया है, जबकि राहुल गांधी यहां भी छोटे भाई से पीछे रह गए हैं । उन्होंने कोई गैर सरकारी विधेयक आज तक किसी भी मुद्दे पर पेश नहीं किया। लोकसभा में मेनका गांधी का हाजिरी का प्रतिशत जहां 70 फीसदी रहा है, वहीं उन्होंने अब तक पांच बार विभिन्न मुद्दों पर हुई चर्चाओं में भाग लिया है तथा 138 पूरक और अनुपूरक सवाल किए हैं । उन्होंने एक निजी विधेयक भी पेश किया है । देवरानी के मुकाबले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की उपस्थिति का प्रतिशत लोकसभा में केवल 42 फीसदी रहा है।
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Old 27-11-2011, 07:35 PM   #34
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आज हरिवंश राय बच्चन की जयंती पर

सांप्रदायिकता और जातिवाद पर एक प्रहार है बच्चन की मधुशाला



‘मधुशाला’ के मायने बहुत से लोगों के लिए अलग हो सकते हैं, लेकिन इस एक शब्द के पर्यायवाची ढूंढने निकलें तो जुबान पर बरबस एक ही नाम आता है ‘हरिवंश राय बच्चन’। बच्चन की यह अद्भुत रचना अपने निराले काव्य शिल्प और शब्दों के सटीक चयन के कारण हिन्दी काव्य प्रेमियों के दिल पर आज भी राज कर रही है। बच्चन की इस कृति में हाला, प्याला, मधुशाला और मधुबाला जैसे चार प्रतीकों के जरिए कई क्रांतिकारी और मर्मस्पर्शी भावों को अभिव्यक्ति दी गई है।

युवा कवि और कथाकार विपिन कुमार शर्मा का कहना है कि मधुशाला में डॉ. बच्चन ने सरल लेकिन चुभते शब्दों में सांप्रदायिकता, जातिवाद और व्यवस्था के खिलाफ भी आवाज उठाई है। विपिन ने कहा, ‘‘शराब को जीवन की उपमा देकर बच्चन ने मधुशाला के माध्यम से साप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने की सीख दी।’’

हिन्दू और मुसलमान के बीच कटुता पर प्रहार करते हुए बच्चन ने लिखा:

मुसलमान और हिन्दू हैं दो,

एक मगर उनका प्याला,

एक मगर उनका मदिरालय,

एक मगर उनकी हाला,

दोनों रहते एक न जब तक,

मंदिर मस्जिद में जाते,

मंदिर-मस्जिद बैर कराते,

मेल कराती मधुशाला

हरिवंश राय बच्चन ने हालांकि मधुशाला पर दो किताबें लिखीं। एक किताब ‘‘खैय्याम की मधुशाला’’ थी। यह मधुशाला मूलत: फारसी में लिखी गई उमर खैय्याम की रचना से प्रेरित है और इस मूल रचना का रचनाकाल बच्चन की मधुशाला से आठ सौ वर्ष पहले का है। उन्होंने जो दूसरी मधुशाला लिखी, वह पाठकों के बीच काफी चर्चित हुई और उसकी लाखों प्रतियां बिकीं। इस मधुशाला को हर उम्र के लोगों ने सराहा और इसे एक कालजयी कृति के तौर पर पहचान मिली। बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के पास स्थित प्रतापगढ जिले के बाबूपट्टी गांव में हुआ था। वर्ष 1926 में 19 साल के हरिवंश राय ने 14 वर्षीय श्यामा से विवाह किया। लेकिन 1936 में श्यामा का टीबी से देहांत हो गया। 1941 में उन्होंने तेजी से विवाह किया।

वर्ष 1955 में हरिवंश राय दिल्ली आ गए और विदेश मंत्रालय में ‘आॅफिसर आॅन स्पेशल ड्यूटी’ के पद पर दस साल काम किया। इसी दौरान वह आधिकारिक भाषा के तौर पर हिंदी के विकास से जुड़े और अनुवाद तथा लेखन से उन्होंने इस भाषा को समृद्ध किया। उन्होंने शेक्सपीयर के मैकबेथ और ओथेलो तथा भागवद् गीता का हिन्दी अनुवाद किया। वर्ष 1966 में उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया। तीन साल बाद उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से और 1976 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। 31 अक्तूबर 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने ‘एक नवंबर 1984’ लिखी जो उनकी अंतिम कविता थी। ‘मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन मेरा परिचय’ कहने वाले हरिवंश ने 18 जनवरी 2003 को अंतिम सांस ली।
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29 नवंबर को जे आर डी टाटा की पुण्यतिथि पर

भारतीय नागर विमानन के भी जनक थे टाटा समूह के शीर्ष पुरुष



सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित देश के प्रसिद्ध उद्योगपति जे आर डी टाटा न केवल टाटा समूह को शिखर पर ले जाने वाले व्यवसायी थे बल्कि वह भारतीय नागर विमानन के जनक भी थे। विप्रो लिमिटेड के अध्यक्ष अजीम प्रेमजी का कहना है कि जेआरडी टाटा ने हमेशा ही बड़े सपने देखे। उन्होंने हमेशा ही राष्ट्रीय सीमा के पार देखा, जबकि कई भारतीय उद्योगपतियों ने अपने आप को राष्ट्रीय सीमा से घेरे रखा। इससे जेआरडी को न केवल टाटा समूह को बल्कि भारतीय उद्योग को अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर लाने में मदद मिली।
फ्रांस के पेरिस में 29 जुलाई, 1904 को जन्मे जेआरडी टाटा का बचपन का ज्यादातर समय फ्रांस में ही गुजरा, अतएव फ्रेंच उनकी पहली भाषा थी। उनके पिता रतनजी दादाभाई टाटा पारसी थे और मां सुजान फ्रांसीसी महिला थीं। प्रारंभ में विमान उड़ाने का प्रशिक्षण लेने वाले जेआरडी टाटा को 10 फरवरी, 1929 को पायलट का लाइसेंस मिला। भारत में पहली बार यह लाइसेंस मिला था। उन्होंने 1932 में भारत की पहली वाणिज्यिक एयरलाइन ‘टाटा एयरलाइन’ शुरू की, जो 1946 में एयर इंडिया बन गयी। उन्हें विमानन क्षेत्र का जनक माना जाता है।
जे आर डी टाटा 1925 में अवैतनिक एप्रेंटिस के रूप में टाटा एंड संस से जुड़े। सन् 1938 में वह उसके अध्यक्ष चुने गए और भारत के सबसे बड़े औद्योगिक घराने के प्रमुख बने। उन्होंने इस्पात, इंजीनियरिंग, उर्जा, रसायन आदि में गहरी रूचि ली। कई दशक की अध्यक्षता के दौरान उन्होंने टाटा समूह की कंपनियों की संख्या 15 से बढाकर 100 तक पहुंचा दी तथा इसकी परिसंपत्ति 62 करोड़ रूपए से 100 अरब रूपए तक पहुंच गयी। जे आर डी टाटा ने ऐसा करने में उच्च नैतिक मापदंडों पालन किया तथा रिश्वत और कालाधन से बिल्कुल परहेज किया।
वह सर दोराबजी टाटा न्यास की स्थापना से लेकर करीब आधी शताब्दी तक तक उसके न्यासी रहे। उनके मार्गदर्शन में सन् 1941 में न्यास ने एशिया के प्रथम कैंसर अस्पताल ‘टाटा मेमोरियल सेंटर फार कैंसर, रिसर्च एंड ट्रीटमेंट’ खोला। न्यास ने टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंसेज, टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ फंडामेंटल रिसर्च तथा नेशनल सेंटर फार परफार्मिंग आर्ट की भी स्थापना की। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर डॉ. डी. सुब्बाराव का कहना है कि देश के विकास के लिये जे आर डी टाटा पूरी तरह कटिबद्ध थे और वह कमजोर वर्ग के उत्थान के प्रति समर्पित थे।
सुब्बाराव के अनुसार एक बार जब जेआरडी टाटा ने मदर टेरेसा से कहा कि भारत की गरीबी उन्हें व्यथित कर देती है, तब मदर ने उनसे कहा था, ‘‘मिस्टर टाटा, आप अधिक उद्योग धंधे खोलिए, लोगों को अधिकाधिक रोजगार दीजिए और बाकी ईश्वर के भरोसे छोड़िए।’’
टाटा ने कंपनी के मामलों में कर्मचारियों को अपनी आवाज रखने देने के लिए प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच संबंध कार्यक्रम शुरू किया। कर्मचारियों के कल्याण में विश्वास रखने वाले टाटा ने आठ घंटे के काम, मुफ्त चिकित्सा सहायता, भविष्य निधि, दुर्घटना मुआवजा योजना शुरू की। उनका मानना था कि घर से काम पर निकलने से लेकर घर लौटने तक कर्मचारी ड्यूटी पर है। वह 89 वर्ष की उम्र में स्विटरजरलैंड के जिनीवा में 29 नवंबर, 1993 को चल बसे। उनके सम्मान में संसद की कार्यवाही स्थगित की गई, जबकि गैर संसद सदस्य के लिए ऐसा नहीं होता है।
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दो दिसंबर को जन्मदिन पर

बच्चों की पत्रिका 'चंदामामा' की स्थापना की थी बी. नागी रेड्डी ने



सामाजिक सरोकारों से जुड़े सहज विषयों को मसाले में लपेट कर बॉक्स आफिस पर सफल बनाने का नुस्खा अच्छी तरह समझने वाले फिल्म निर्माता निर्देशक बी. नागी रेड्डी ने बच्चों की पत्रिका चंदामामा की स्थापना की थी और आज करीब 65 साल बाद भी इस पत्रिका का सफर जारी है।

फिल्म समीक्षक माया सिंह ने बताया ‘‘बी. नागी रेड्डी की दिलचस्पी लेखन में शुरू से ही रही। 1945 में उन्होंने आंध्र ज्योति नामक तेलुगु अखबार निकाला। 1947 में उन्होंने बच्चों की पत्रिका चंदामामा शुरू की। आज करीब 65 साल बाद भी चंदामामा बच्चों की पसंदीदा पत्रिका है और लगभग दर्जन भर भाषाओं में इसका प्रकाशन हो रहा है।’’

फिल्म समीक्षक के. के. यादव ने बताया ‘‘बी. नागी रेड्डी की फिल्मों को बहुत अधिक गहराई वाली फिल्मों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। लेकिन उनकी फिल्मों की खासियत यह थी कि वह विषय को दिलचस्प तरीके से उठाते थे और फिल्म को बॉक्स आफिस पर सफल बनाने के लिए गीत, संगीत, एक्शन, रोमांच, थ्रिलर आदि का भरपूर इस्तेमाल करते थे।’’

वरिष्ठ पत्रकार एवं फिल्म समीक्षक आलोक शर्मा ने कहा ‘‘उनकी बनाई फिल्म पाताल भैरवी का शीर्षक ही बता देता है कि यह कैसी फिल्म होगी। लेकिन अपने समय में यह फिल्म हिट रही और इसका कारण फिल्म निर्माण से जुड़े हर तत्व का बेहद खूबसूरती से इस्तेमाल करना था। फिल्म निर्माण को वह एक ऐसी कला समझते थे जिसमें उनके अनुसार, कई प्रयोग करने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। यही वजह है कि चेन्नई में उन्होंने विजय वाहिनी स्टूडियो स्थापित किया जो अपने दौर में एशिया का सबसे बड़ा फिल्म स्टूडियो था।’’

यादव के अनुसार, ‘‘श्रीमान श्रीमती में उन्होंने हास्य के साथ सभी पक्षों को एक कसी हुई पटकथा में पिरोया और यह एक यादगार फिल्म बनी। इसमें भी विषय आम व्यक्ति से जुड़ा हुआ ही था लेकिन पेश करने का अंदाज निराला था। यही बी नागी रेड्डी की खासियत थी।’’

आंध्रप्रदेश के कडप्पा जिले के पोट्टिपाडु गांव में दो दिसंबर 1912 को जन्मे बोम्मीरेड्डी नागी रेड्डी (बी. नागी रेड्डी) ने अपने करिअर की शुरूआत तेलुगु फिल्म निर्माता के तौर पर की थी। उन्होंने अपने मित्र और साझीदार अलुर चक्रपाणि के साथ मिल कर चार दशक में चार दक्षिण भारतीय भाषाओं और हिन्दी में 50 से अधिक फिल्में बनाइ’। पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक घटनाक्रम और मसाला फिल्मों को दर्शकों के पसंदीदा विषयों के जरिये पेश करने वाले बी नागी ने अपने मित्र चक्रपाणि के निधन के बाद फिल्में बनाना ही बंद कर दिया। इसके बाद वह समाज सेवा में जुट गए। वर्ष 1972 में उन्होंने विजय मेडिकल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट की स्थापना की। इस ट्रस्ट ने 1972 में ही विजय अस्पताल की और 1987 में विजय स्वास्थ्य केंद्र की स्थापना की।

उन्होंने पाताल भैरवी, मिसम्मा, माया बाजार, गुंडम्मा कथा, राम और श्याम, श्रीमान श्रीमती, जूली तथा स्वर्ग नरक फिल्में बनाइ’। हिन्दी, तेलुगु और तमिल सिनेमा में योगदान के लिए उन्हें कई सम्मान मिले। भारत सरकार ने 1986 में उन्हें प्रतिष्ठित दादा साहेब फाल्के सम्मान प्रदान किया। आंध्रप्रदेश सरकार ने 1987 में उन्हें रघुपति वेंकैया अवार्ड, तमिलनाडु सरकार ने 1972 में कलैमामनी अवार्ड से सम्मानित किया। 25 फरवरी 2004 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
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तीन दिसंबर को जयंती पर
खुदीराम : 19 साल की उम्र में देश पर कर दी जान निसार



भारत की जंग ए आजादी का इतिहास क्रांति की एक से बढकर एक घटनाओं से भरा पड़ा है। इसी कड़ी में खुदीराम बोस का भी नाम शामिल है जो केवल 19 साल की उम्र में देश के लिए मर मिटे। पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में तीन दिसंबर 1889 को जन्मे खुदीराम बोस ने आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए नौवीं कक्षा के बाद ही पढाई छोड़ दी थी । उन्होंने रेवोल्यूशनरी पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और वंदेमातरम लिखे पर्चे वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बंगाल विभाजन के विरोध में 1905 में चले आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भूमिका रही ।

इतिहासकार शिरोल ने खुदीराम के बारे में लिखा है कि बंगाल के इस वीर को लोग अपना आदर्श मानने लगे थे। साहस के मामले में खुदीराम का कोई जवाब नहीं था । 28 फरवरी 1906 को जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो वह कैद से भाग निकले । दो महीने बाद वह फिर से पकड़े गए, लेकिन 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया। प्रोफेसर कांति प्रसाद के अनुसार खुदीराम का क्रांतिकारी व्यक्तित्व बचपन में ही दिखाई देने लगा था । एक बार खुदीराम ने क्रांतिकारी नेता हेमचंद्र कानूनगो का रास्ता रोककर अंग्रेजों को मारने के लिए उनसे बंदूक मांगी। खुदीराम की मांग से हेमचंद्र यह सोचकर आश्चर्यचकित रह गए कि इस बालक को कैसे पता कि उनके पास बंदूक मिल सकती है।

खुदीराम ने छह दिसंबर 1907 को नारायणगढ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया, लेकिन वह बच गया। उन्होंने 1908 में दो अंग्रेज अधिकारियों वाटसन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया, लेकिन ये दोनों भी बच निकले। बंगाल का यह वीर क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड से बेहद खफा था । इस जज ने कई क्रांतिकारियों को कड़ा दंड दिया था। खुदीराम ने अपने साथी प्रफुल्ल चंद चाकी के साथ मिलकर किंग्सफोर्ड को मारने की योजना बनाई। दोनों मुजफ्फरपुर आए और 30 अप्रैल 1908 को सेशन जज की गाड़ी पर बम से हमला किया लेकिन उस समय इस गाड़ी में किंग्सफोर्ड की जगह उसकी परिचित दो यूरोपीय महिलाएं सवार थीं जो मारी गईं। इन क्रांतिकारियों को इसका काफी अफसोस हुआ।

पुलिस उनके पीछे लगी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। खुदीराम पकड़े गए, जबकि प्रफुल्ल चंद चाकी ने खुद को गोली मारकर जान दे दी। ग्यारह अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में खुदीराम को फांसी दे दी गई। देश के लिए शहीद होने के समय खुदीराम की उम्र मात्र 19 साल थी। बलिदान के बाद यह वीर इतना प्रसिद्ध हो गया कि बंगाल के जुलाहे ‘खुदीराम’ लिखी धोती बुनने लगे। शिरोल ने लिखा है, ‘‘बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। स्कूल बंद रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।’’
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शाहन के शाह/सूफी संतों ने दिलायी मिटती पहचान एक महामनीषी को

हिन्दू ने ललद्यद तो मुस्लिमों ने लाल अरीफा में खोजी आस्था

वह पगली-सी महिला तो अपने में मस्त थी। लेकिन कुछ शरारती बच्चों ने उसे छेड़ना शुरू कर दिया। पगली ने कोई प्रतिकार नहीं किया। यह देखकर बच्चे कुछ ज्यादा ही वाचाल हो गये। पूरे इलाके में यह माहौल किसी खासे मनोरंजक प्रहसन से कम नहीं था। बच्चों के हो-हल्ले ने बाजार में मौजूद लोगों को भी आकर्षित कर लिया। कुछ ने शरारती बच्चों को उकसाया तो कुछ खुद ही इस खेल में शामिल हो गये। कुछ ऐसे भी लोग थे, जो सक्रिय तो नहीं रहे, लेकिन मन ही मन उस पगली को परेशान देखकर विह्वल हो उठे। मामला भड़कता देख एक दुकानदार ने हस्तक्षेप कर ही दिया और शरारती बच्चों को डांट कर भगाते हुए पगली को अपनी दूकान पर ले आया। पानी पिलाया, बोला: इन लोगों को तुमने डांटा क्यों नहीं।

पगली ने कोई जवाब देने के बजाय दुकानदार से थोड़ा कपड़ा मांगा। मिलते ही उसके दो टुकडे कर दोनों को तुलवा लिया। दोनों का वजन बराबर था। अब एक को दाहिने और दूसरे को बायें कंधे पर रख कर बाजार निकल गयीं। कोई निंदा करता तो दाहिने टुकड़े पर गांठ लगा लेतीं और प्रशंसा करने पर बांयें कंधे के टुकड़े पर। शाम को वापस लौटीं तो दोनों टुकड़े दुकानदार को देते हुए बोली : इसे तौल दीजिए।

दोनों टुकड़ों को गौर से दुकानदार ने देखा एक में गांठें ही गांठें थी, जबकि दूसरे में बस चंद ही गांठ। बहरहाल, तौल कर बताया कि दोनों टुकड़ों के वजन में कोई अंतर नहीं है। पगली ने जवाब दिया : किसी की निंदा या प्रशंसा की गांठों से क्या असर पड़ता है। दुकानदार अवाक रह गया। फौरन पगली के पैरों पर गिर पड़ा। यह थीं लल्लेश्वरी उर्फ लालदेई। बस इसी एक घटना से लल्लेश्वरी के सामने कश्मीरी लोग नतमस्तक हो गये। इसके बाद तो इस महिला के ज्ञान के मानसरोवर से वह अद्भुत बातें लोगों के सामने फूट पड़ी जिसकी ओर लोग अब तक अज्ञान बने हुए थे। उनकी वाणी से फूटे काव्य रूपी वाक्यों को कश्मीरी समाज ने वाख के नाम से सम्मानित कर बाकायद पूजना शुरू कर दिया। यह परम्परा आज तक कायम है।

यह चौदहवीं शताब्दी की बात है। श्रीनगर में पोंपोर के पास ही है सिमपुर गांव। मात्र 15 किलोमीटर दूर। यहां के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी थीं ललदेई। शुरू से ही शिव की उपासना में लीन रहने के चलते वे अपने आसपास की घटनाओं के प्रति बहुत ज्यादा लिप्त नहीं रहती थीं। पास के ही पद्यपुरा गांव के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में उनका विवाह हुआ। हालांकि लल्लेश्वरी खुद भी पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन वे अपने अनपढ़ पति को स्वीकार नहीं कर सकीं। उन्हें लगता था कि स्वयं को अभिव्यक्त कर पाने लायक क्षमता तो मानव में होनी ही चाहिए। बस, उन्होंने घर-परिवार को छोड़ दिया और शिव-साधना का मार्ग अख्तियार कर लिया। भावनाओं का समंदर हिलोरें तो ले ही रहा था, अब वह जन-जन तक पहुंचने लगा। बस कुछ ही समय के भीतर ललद्यद की रचनाएं घर-घर पहुंच गयीं। बाद में तो उन्हें कश्मीरी भाषा और साहित्य की विधात्री देवी तक की उपाधि जन-जन ने दे दी।

यह वह दौर था जब कश्मीर में दो परस्पर विरोधी संस्कृतियों में घमासान मचा हुआ था। राजनीतिक अशांति जनमानस को बुरी तरह मथ रही थी। प्रताड़ना के नये-नये किस्से लिखे और सुने जा रहे थे। लेकिन इसके साथ ही एक ओर जहां ब्राह्मण भक्तिवाद लोगों को एकजुट कर ताकत दे रहा था, वहीं सूफीवाद भी लोगों में प्रेम और अपनत्व का भाव पैदा करने का अभियान छेड़ हुए था। अचानक ही कश्मीर में इन दोनों भक्ति-संस्कृतियों का मिलन हो गया। शिवभक्ति में लीन ललद्यद को सूफी शेख नूरउद्दीन का साथ मिल गया। लेकिन अब तक ललदेई ने कुण्डलिनी योग के साथ हठयोग, ज्ञान योग, मंत्रयोग और भक्तियोग में महारथ हासिल कर ली थी। इधर-उधर भटकने के बजाय वे ईश्वर को अपने आसपास ही खोजने की वकालत करती हैं।

उनका कहना था कि मैंने शिव को पा लिया है, और यह मुझे कहीं और नहीं, बल्कि खुद अपनी ही जमीन पर खड़ी आस्थाओं में मिल गया। बाद के करीब छह सौ वर्षों तक उन्हें केवल हिन्दू ही नहीं, बल्कि मुस्लिम धर्मगुरुओं ने पूरे सम्मान के साथ याद किया। चाहे वे 18 वीं शताब्दी की रूपा भवानी रही हों या फिर 19 वीं सदी के परमानन्द, सभी ने ललदेई की जमकर प्रशंसा की और जाहिर है इनकी लीकें ललद्यद की राह से ही गुजरीं। लेकिन यह कहना गलत होगा कि वे हिन्दुओं तक ही सीमित रहीं। बल्कि हकीकत तो यह रही कि हिन्दू तो उनका नाम तक बिगाड़ चुके थे। ललिता का नाम बिगड़ कर लाल हो गया। पहचान तक खत्म हो जाती अगर सूफियों ने उन्हें न सहेजा होता। वह तो सन 1654 में बाबा दाउद मुश्काती ने अपनी किताब असरारूल-अबरार में उनके बारे में न लिखा होता। सन 1746 में लिखी वाकियाते-कश्मीर में भी उन पर खूब लिखा गया।

दरअसल, ललद्यद ने कश्मीर में तब प्रचलित सिद्धज्ञान के आधार पर पनपे प्रकाश में स्वयं की शुद्धता, मसलन सदाचार व मानव कल्याण को न केवल खुद अपनाया, बल्कि अपने भाव-व्यवहार से दूसरों को भी इसी राह पर चलने की प्रेरणा दी। बाद के साहित्यकारों और आलोचकों ने उन्हें कश्मीरी संस्कृति का कबीर तक मान लिया। लल्लेश्वरी के नाम एक नहीं, अनेक हैं। लोगों ने उन्हें मनमाने नामों से पुकारा है। जिसमें जो भाव आया, उसने उन्हें इसी भाव से पुकार लिया। किसी ने उन्हें ललेश्वरी कहा, तो किसी ने लल्लेश्वरी, ललद्यद, ललारिफा, लला अथवा ललदेवी तक कह दिया। किसी की निगाह में वे दैवीय क्षमताओं से युक्त साक्षात भगवान की प्रतिमूर्ति हैं तो कोई उन्हें कश्मीरी भाषा की महान कवि मानता है। एक ओर जहां उनके नाम पर स्थापित प्रचीन मंदिर में बाकायदा उनकी उपासना होती है, वहीं लाल-वाख के नाम से विख्यात उनके प्रवचनों का संकलन कश्मीरी साहित्य का एक बेहद महत्वपूर्ण अंग समझा जाता है।

दरअसल, संत परम्परा को कश्मीर में श्रेष्ठ बनाने के लिए लल्लेश्वरी का योगदान महानतम माना जाता है। कहा जाता है कि शिव की भक्ति में हमेशा लीन रहने वाली इस कवयित्री के जीवन में सत्य, शिव और सुंदर का अपूर्व समन्वय और संयोजन था। वह विरक्ति के साथ ही भक्ति की भी प्रतीक थीं। उन्होंने विरक्ति की ऊंचाइयों का स्पर्श किया और इसी माध्यम से शिव स्वरूप में स्वयं को लीन करते हुए वे अपने तन-मन की सुध तक भूल जाती थीं। वे गली-कूचों में घूमती रहती थीं। शेख नूरउद्दीन को ललदेई के बारे में यह बात महज यूं ही नहीं कहनी पड़ी होगी:- उन्होंने ईश्वरीय प्रेम का अमृत पिया, और हे मेरे मौला, मुझे भी वैसा ही तर कर दे। सन 1320 में जन्मी लाल अरीफा यानी ललद्यद सन 1389 में परमशिव में स्थाई आश्रय पा गयीं। लेकिन किंवदंती के अनुसार अंत समय में उनके हिन्दू-मुसलमान भक्त उनके पास भीड़ की शक्ल में मौजूद थे कि अचानक ही उनकी देह से एक शिव-आकार की ज्योति निकली और इसके पहले कि कोई कुछ समझ पाता, वह अनंत आकाश में शिवलीन हो गयी।

-कुमार सौवीर
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पांच दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवक दिवस पर

स्वयंसेवक जुड़ते जाते हैं और बढता जाता है कारवां...


देश में बढते भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने वाले गांधीवादी कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आंदोलन को जन जन तक पहुंचाने में स्वयंसेवकों ने ‘भगीरथ’ प्रयास किया, जिसकी बदौलत इसे देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी भरपूर समर्थन मिला। टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य मनीष सिसौदिया ने बताया कि अन्ना का भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाया जा रहा पूरा आंदोलन स्वयंसेवकों पर आधारित है । उन्होंने कहा, ‘‘जन लोकपाल के लिये चलाये जा रहे इस आंदोलन के दौरान हमने स्वयंसेवकों को कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं दिया। हमने केवल स्वयंसेवकों को अपना विचार बताया और लोग इससे जुड़ते चले गये । पूरे आंदोलन के दौरान हमेशा हमने यही किया जैसे जंतर मंतर पर जब अन्ना जी अनशन करने वाले थे तब हमने संदेश दिया 74 साल का बूढा आदमी आपके बच्चों के लिये अनशन कर रहा है। आप अपने देश के लिये क्या कर रहे हैं ।’’
उन्होंने कहा, ‘‘स्वयंसेवकों को यदि ठीक ढंग से यह बता दिया जाये कि क्या करना है और क्यूं करना है तो वह अपने आप आंदोलन से जुड़ते जाते हैं और उसे आगे बढाते हैं । दिल्ली में अन्ना जी से जुड़े हुए 150 समर्पित स्वयंसेवक हैं, जो अपना काम करने के साथ साथ इस आंदोलन के लिये अपना समय दे रहे हैं ।’’
टीम अन्ना की साइबर मीडिया की कमान संभालने वाले स्वयंसेवक शिवेंद्र सिंह चौहान ने बताया कि इस आंदोलन की शुरूआत 30 जनवरी 2011 को भ्रष्टाचार के खिलाफ रामलीला मैदान से जंतर मंतर तक रैली निकाले जाने से हुई । इसके बाद उन्होंने फेसबुक के जरिये देश के अन्य शहरों मुंबई, औरंगाबाद, पटना और वाराणसी में अपने साथियों को ऐसी ही रैली के लिये सहमत किया। उन्होंने कहा, ‘‘इसी के साथ फेसबुक पेज के जरिये हमारे अभियान की शुरूआत हो गई और हमने लोगों को उनके अपने शहर में जुड़ने, एकजुट होने और स्वयंसेवक बनने के लिये आमंत्रित करना शुरू किया । इस अभियान को जबर्दस्त समर्थन मिला और हमने 30 जनवरी को 60 शहरों में बेहद आसानी से रैली निकाली।’’
शिवेंद्र ने कहा, ‘‘सब कुछ स्वयंसेवकों द्वारा आयोजित किया जाता था और हम केवल उन्हें दिशा निर्देश भेज देते थे । हम उन्हें शांतिपूर्वक रैली निकालने और अपनी मांगों को रखने के बारे में बताते थे। इस दौरान अमेरिका में रह रहे कुछ भारतीयों ने भी हमारे फेसबुक पेज के जरिये हमसे संपर्क किया । मैंने उनसे अमेरिका के शहरों में इसी तरह के विरोध प्रदर्शन आयोजित करने का अनुरोध किया और चार लोगों ने बहुत उत्सुकता के साथ इसका जवाब दिया। इन भारतीयों ने अमेरिका के न्यूयार्क, लास एंजिलिस, वाशिंगटन डीसी और शिकागो में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली निकली । हमारे इस आंदोलन का वैश्विक स्तर पर विस्तार केवल स्वयंसेवकों से मिली मदद की वजह से हुआ और यह लगातार बढ रहा है।’’

इस आंदोलन को मिली अपार सफलता पर सिसौदिया ने कहा, ‘‘यदि लोगों को यह लग गया कि कोई आंदोलन मेरे फायदे के लिये है तो अपने आप वह इससे जुड़ जाते हैं । आज के समय में हरेक व्यक्ति अपनी पहचान ढूंढ रहा है । अन्ना जी के आंदोलन के साथ जुड़कर लोगों को लगा कि यह देश और समाज के लिये उपयोगी है और इसीलिये लोग इससे जुड़ते गये।’’ गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र स्वयंसेवकों के योगदान के बारे में जन जागरूकता बढाने के लिये वर्ष 1985 से आज के दिन को अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवक दिवस के रूप में मना रहा है। इस बार संयुक्त राष्ट्र स्वयंसेवकों की स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी करने जा रहा है।
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श्रद्धांजलि
तू तो न आए तेरी याद सताए



ताउम्र जिंदगी का जश्न मनाने वाले ‘सदाबहार’ अभिनेता देव आनंद सही मायने में एक अभिनेता थे जिन्होंने अंतिम सांस तक अपने कर्म से मुंह नहीं फेरा। देव साहब की तस्वीर आज भी लोगों के जेहन में एक ऐसे शख्स की है जिसका पैमाना न केवल जिंदगी की रूमानियत से लबरेज था बल्कि जिसकी मौजूदगी आसपास के माहौल को भी नयी ताजगी से भर देती थी। इस करिश्माई कलाकार ने ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया’ के दर्शन के साथ जिंदगी को जिया । यह उनकी 1961 में आयी फिल्म ‘ हम दोनों’ का एक सदाबहार गीत है और इसी को उन्होंने जीवन में लफ्ज दर लफ्ज उतार लिया था।
देव साहब ने बीती रात लंदन में दुनिया को गुडबॉय कह दिया। सुनते हैं कि उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। वैसे तो वह जिंदगी के 88 पड़ाव पार कर चुके थे लेकिन वो नाम जिसे देव आनंद कहा जाता है, उसका जिक्र आने पर अब भी नजरों के सामने एक २०-25 साल के छैल छबीले नौजवान की शरारती मुस्कान वाली तस्वीर तैर जाती है जिसकी आंखों में पूरी कायनात के लिए मुहब्बत का सुरूर है। देव साहब के अभिनय और जिंदादिली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब राज कपूर और दिलीप कुमार जैसे कलाकारों ने फिल्मों में नायक की भूमिकाएं करना छोड़ दिया था उस समय भी देव आनंद के दिल में रूमानियत का तूफान हिलोरे ले रहा था और अपने से कहीं छोटी उम्र की नायिकाओं पर अपनी लहराती जुल्फों और हालीवुड अभिनेता ग्रेगोरी पैक मार्का इठलाती टेढी चाल से वह भारी पड़ते रहे। ‘जिद्दी’ से शुरू होकर देव साहब का फिल्मी सफर ‘जानी मेरा नाम ’, ‘देस परदेस’, ‘हरे रामा हरे कृष्ण’ जैसी फिल्मों से होते हुए एक लंबे दौर से गुजरा और अपने अंतिम सांस तक वह काम करते रहे । उनकी नयी फिल्म ‘ चार्जशीट’ रिलीज होने के लिए तैयार है और वह अपनी फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ की अगली कड़ी पर भी काम कर रहे थे, लेकिन इस नयी परियोजना पर काम करने के लिए देव साहब नहीं रहे। बीते सितंबर में अपने 88वें जन्मदिन पर दिए एक अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘‘मेरी जिंदगी में कुछ नहीं बदला है और 88वें साल में मैं अपनी जिंदगी के खूबसूरत पड़ाव पर हूं। मैं उसी तरह उत्साहित हूं, जिस तरह 20 साल की उम्र में होता था। मेरे पास करने के लिए बहुत काम है और मुझे ‘चार्जशीट’ के रिलीज होने का इंतजार है। मैं दर्शकों की मांग के अनुसार, ‘हरे रामा हरे कृष्णा आज’ की पटकथा पर काम कर रहा हूं।’’
देव साहब की फिल्में न केवल उनकी आधुनिक संवेदनशीलता को बयां करती थीं बल्कि साथ ही भविष्य की एक नयी इबारत भी पेश करती थीं । वह हमेशा कहते थे कि उनकी फिल्में उनके दुनियावी नजरिए को पेश करती हैं और इसीलिए सामाजिक रूप से प्रासंगिक मुद्दों पर ही आकर बात टिकती है। उनकी फिल्मों के शीर्षक ‘अव्वल नंबर’, ‘सौ करोड़’, ‘सेंसर’, ‘मिस्टर प्राइम मिनिस्टर’ तथा ‘चार्जशीट’ इसी बात का उदाहरण हैं। वर्ष 2007 में देव साहब ने अपने संस्मरण ‘रोमांसिंग विद लाइफ’ में स्वीकार किया था कि उन्होंने जिंदगी में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और हमेशा भविष्य को आशावादी तथा विश्वास के नजरिए से देखा। अविभाजित पंजाब प्रांत में 26 सितंबर 1923 को धर्मदेव पिशोरीमल आनंद के नाम से पैदा हुए देव आनंद ने लाहौर के गवर्नमेंट लॉ कालेज से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की शिक्षा हासिल की थी। नामी गिरामी वकील किशोरीमल के वह दूसरे नंबर के बेटे थे । देव की छोटी बहन शीलकांता कपूर है, जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फिल्म निर्माता शेखर कपूर की मां हैं । उनके बड़े भाई चेतन आनंद और छोटे भाई विजय आनंद थे। अभिनय के प्रति उनकी दीवानगी उन्हें अपने गृह नगर से मुंबई ले आयी जहां उन्होंने 160 रूपये प्रति माह के वेतन पर चर्चगेट पर सेना के सेंसर आफिस में कामकाज संभाल लिया । उनका काम था सैनिकों द्वारा अपने परिजनों को लिखे जाने वाले पत्रों को पढना ।
उन्हें पहली फिल्म 1946 में ‘हम एक हैं’ मिली । पुणे के प्रभात स्टूडियो की इस फिल्म ने उनके कैरियर को कोई रफ्तार नहीं दी। इसी दौर में उनकी दोस्ती साथी कलाकार गुरू दत्त से हो गयी और दोनों के बीच एक समझौता हुआ । समझौता यह था कि यदि गुरू दत्त ने फिल्म बनायी तो उसमें देव आनंद अभिनय करेंगे। देव आनंद को पहला बड़ा ब्रेक अशोक कुमार ने ‘जिद्दी’ में दिया । बांबे टाकीज की इस फिल्म में देव साहब के साथ कामिनी कौशल थी और 1948 में आयी इस फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए। 1949 में देव आनंद खुद निर्माता की भूमिका में आ गए और नवकेतन नाम से अपनी फिल्म कंपनी की शुरूआत की और अपने वादे के अनुसार उन्होंने गुरू दत्त को ‘बाजी ’ (1951) के निर्देशन की जिम्मेदारी सौंपी । दोनों की यह जोड़ी नए अवतार में बेहद सफल रही। 40 के उत्तरार्द्ध में देव साहब को गायिका अभिनेत्री सुरैया के साथ कुछ फिल्मों में काम करने का मौका मिला जो उस जमाने की स्थापित अभिनेत्री थी। इन फिल्मों की शूटिंग के दौरान उनकी सुरैया से नजरें लड़ गयीं और प्रेम की चिंगारी ऐसी भड़की कि इस जोड़ी को दर्शकों ने सिल्वर स्क्रीन पर हाथों हाथ लिया । इन्होंने एक के बाद एक सात सफल फिल्में दी, जिनमें विद्या (1948), जीत (1949 ), अफसर (1950 ), नीली (1950 ), दो सितारे (1951 ) तथा सनम (1951 ) थीं । विद्या के गाने ‘किनारे किनारे चले जाएंगे’ की शूटिंग के दौरान सुरैया और देव आनंद के बीच प्यार का पहला अंकुर फूटा था। इस फिल्म की शूटिंग के दौरान नाव डूबने लगी, तो देव साहब ने ही जान की बाजी लगाकर सुरैया को डूबने से बचाया था। बेचैन दिल को देव अधिक समय तक संभाल नहीं पाए और ‘जीत’ के सेट पर सुरैया के सामने प्यार का इजहार कर दिया, लेकिन सुरैया की नानी ने हिंदू होने के कारण देव साहब के साथ उनके संबंधों का विरोध किया। इसी वजह से सुरैया तमाम उम्र कुंवारी बैठी रहीं। नवकेतन के बैनर तले देव साहब ने 2011 तक 31 फिल्में बनायीं। ग्रेगोरी पैक स्टाइल में उनका डायलाग बोलने का अंदाज, उनकी खूबसूरती पर चार चांद लगाते उनके हैट (टोपी) और एक तरफ झुककर, हाथों को ढीला छोड़कर हिलाते हुए चलने की अदा ... उस जमाने में लड़कियां देव साहब के लिए पागल रहती थीं ।
‘जाल’, ‘दुश्मन’, ‘काला बाजार’ और ‘बंबई का बाबू’ फिल्मों में उन्होंने नायक की भूमिका को नए और नकारात्मक तरीके से पेश किया। अभी तक उनके अलोचक उन्हें कलाकार के बजाय शिल्पकार अधिक मानते थे, लेकिन ‘काला पानी’ जैसी फिल्मों से उन्होंने अपने आलोचकों की बोलती बंद कर दी। उसके बाद 1961 में आयी ‘हम दोनों’ और 1966 में आयी ‘गाइड’ ने तो बालीवुड इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में दर्ज कर दिया। 1970 में उनकी सफलता की कहानी का सफर जारी रहा और ‘जानी मेरा नाम’ तथा ‘ज्वैल थीफ ’ ने उन्हें नयी उंचाइयों पर पहुंचा दिया जिनका निर्देशन उनके भाई विजय आनंद ने किया था। वर्ष 2002 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित देव साहब राजनीतिक रूप से भी सक्रिय रहे थे। उन्होंने फिल्मी हस्तियों का एक समूह बनाया, जिसने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में लगाए गए आपातकाल के खिलाफ आवाज उठायी थी। 1977 के संसदीय चुनाव में उन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव प्रचार किया और ‘नेशनल पार्टी आफ इंडिया’ का भी गठन किया, जिसे बाद में उन्होंने भंग कर दिया। कुछ भी कहिए 1923 से शुरू हुआ देव साहब का सफर अब मंजिल पर पहुंच कर एक नई मंजिल की ओर निकल गया है। ऐसे में दिल से बस एक सदा निकलती है - अभी न जाओ छोड़कर।
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