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#31 |
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![]() जब से लगन लगी प्रभु तेरी सब कुछ मैं तो भूल गयी हूँ .. बिसर गयी क्या था मेरा बिसर गयी अब क्या है मेरा . अब तो लगन लगी प्रभु तेरी तू ही जाने क्या होगा .. जब मैं प्रभु में खो जाती हूं मेघ प्रेम के घिर आते हैं . मेरे मन मंदिर मे प्रभु के चारों धाम समा जाते हैं .. बार बार तू कहता मुझसे जग की सेवा कर तू मन से . इसी में मैं हूं सभी में मैं हूं तू देखे तो सब कुछ मैं हूं ..
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#32 |
Special Member
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जय जय गिरिबरराज किसोरी ।
जय महेस मुख चंद चकोरी ॥ जय गज बदन षडानन माता । जगत जननि दामिनि दुति गाता ॥ नहिं तव आदि मध्य अवसाना । अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ॥ भव भव बिभव पराभव कारिनि । बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ॥ सेवत तोहि सुलभ फल चारी । बरदायनी पुरारि पिआरी ॥ देबि पूजि पद कमल तुम्हारे । सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे ॥
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#33 |
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जय राम रमारमनं शमनं . भव ताप भयाकुल पाहि जनं ..
अवधेस सुरेस रमेस विभो . शरनागत मांगत पाहि प्रभो .. दससीस विनासन बीस भुजा . कृत दूरि महा महि भूरि रुजा .. रजनीचर बृंद पतंग रहे . सर पावक तेज प्रचंड दहे .. महि मंडल मंडन चारुतरं . धृत सायक चाप निषंग बरं .. मद मोह महा ममता रजनी . तम पुंज दिवाकर तेज अनी .. मनजात किरात निपात किये . मृग लोग कुभोग सरेन हिये .. हति नाथ अनाथनि पाहि हरे . विषया बन पांवर भूलि परे .. बहु रोग बियोगिन्हि लोग हये . भवदंघ्रि निरादर के फल ए .. भव सिंधु अगाध परे नर ते . पद पंकज प्रेम न जे करते .. अति दीन मलीन दुःखी नितहीं . जिन्ह कें पद पंकज प्रीत नहीं .. अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें . प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें .. नहिं राग न लोभ न मान मदा . तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा .. एहि ते तव सेवक होत मुदा . मुनि त्यागत जोग भरोस सदा .. करि प्रेम निरंतर नेम लियें . पद पंकज सेवत शुद्ध हियें .. सम मानि निरादर आदरही . सब संत सुखी बिचरंति मही .. मुनि मानस पंकज भृंग भजे . रघुवीर महा रनधीर अजे .. तव नाम जपामि नमामि हरी . भव रोग महागद मान अरी .. गुन सील कृपा परमायतनं . प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं .. रघुनंद निकंदय द्वंद्व घनं . महिपाल बिलोकय दीन जनं .. बार बार बर मागौं हरषि देहु श्रीरंग . पद सरोज अनपायानी भगति सदा सतसंग ..
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#34 |
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करि प्रेम निरंतर नेम लियें . पद पंकज सेवत शुद्ध हियें ..
सम मानि निरादर आदरही . सब संत सुखी बिचरंति मही .. भावना जी, भक्ति रस से पगी रचना को पढ़ कर मन आह्लादित हो गया है, आपको शतशः नमन । |
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#35 |
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aspundir जी हार्दिक आभार ...........!
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#36 |
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जागो बंसीवारे ललना
जागो बंसीवारे ललना जागो मोरे प्यारे .. रजनी बीती भोर भयो है घर घर खुले किवाड़े . गोपी दही मथत सुनियत है कंगना की झनकारे .. उठो लालजी भोर भयो है सुर नर ठाड़े द्वारे . ग्वालबाल सब करत कोलाहल जय जय शब्द उचारे .. माखन रोटी हाथ में लीजे गौअन के रखवारे . मीरा के प्रभु गिरिधर नागर शरण आया को तारे ..
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#37 |
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जानकी नाथ सहाय करें
जानकी नाथ सहाय करें जब कौन बिगाड़ करे नर तेरो ॥ सुरज मंगल सोम भृगु सुत बुध और गुरु वरदायक तेरो । राहु केतु की नाहिं गम्यता संग शनीचर होत हुचेरो ॥ दुष्ट दु:शासन विमल द्रौपदी चीर उतार कुमंतर प्रेरो । ताकी सहाय करी करुणानिधि बढ़ गये चीर के भार घनेरो ॥ जाकी सहाय करी करुणानिधि ताके जगत में भाग बढ़े रो । रघुवंशी संतन सुखदायी तुलसीदास चरनन को चेरो ॥
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#38 |
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जैसे सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को
मिल जाये तरुवर कि छाया ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है मैं जबसे शरण तेरी आया, मेरे राम भटका हुआ मेरा मन था कोई मिल ना रहा था सहारा लहरों से लड़ती हुई नाव को जैसे मिल ना रहा हो किनारा, मिल ना रहा हो किनारा उस लड़खड़ाती हुई नाव को जो किसी ने किनारा दिखाया ऐसा ही सुख ... शीतल बने आग चंदन के जैसी राघव कृपा हो जो तेरी उजियाली पूनम की हो जाएं रातें जो थीं अमावस अंधेरी, जो थीं अमावस अंधेरी युग- युग से प्यासी मरुभूमि ने जैसे सावन का संदेस पाया ऐसा ही सुख ... जिस राह की मंज़िल तेरा मिलन हो उस पर कदम मैं बढ़ाऊं फूलों में खारों में, पतझड़ बहारों में मैं न कभी डगमगाऊं, मैं न कभी डगमगाऊं पानी के प्यासे को तक़दीर ने जैसे जी भर के अमृत पिलाया ऐसा ही सुख .........!
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#39 |
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ज्योत से ज्योत जगाते चलो प्रेम की गंगा बहाते चलो
राह में आए जो दीन दुखी सबको गले से लगाते चलो ॥ जिसका न कोई संगी साथी ईश्वर है रखवाला जो निर्धन है जो निर्बल है वह है प्रभू का प्यारा प्यार के मोती लुटाते चलो, प्रेम की गंगा आशा टूटी ममता रूठी छूट गया है किनारा बंद करो मत द्वार दया का दे दो कुछ तो सहारा दीप दया का जलाते चलो, प्रेम की गंगा छाया है छाओं और अंधेरा भटक गैइ हैं दिशाएं मानव बन बैठा है दानव किसको व्यथा सुनाएं धरती को स्वर्ग बनाते चलो, प्रेम की गंगा
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#40 |
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ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैंजनियां ॥
किलकि किलकि उठत धाय गिरत भूमि लटपटाय । धाय मात गोद लेत दशरथ की रनियां ॥ अंचल रज अंग झारि विविध भांति सो दुलारि । तन मन धन वारि वारि कहत मृदु बचनियां ॥ विद्रुम से अरुण अधर बोलत मुख मधुर मधुर । सुभग नासिका में चारु लटकत लटकनियां ॥ तुलसीदास अति आनंद देख के मुखारविंद । रघुवर छबि के समान रघुवर छबि बनियां ॥
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