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Old 07-01-2013, 04:50 PM   #31
arvind
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Default Re: सफलता की सीढ़ी।

प्रमोशन और पद मिले, तो जिम्मेवारी न भूल जायें

कई बार ऐसा होता है कि पद मिलते ही लोग उसके मद में इतने चूर हो जाते हैं कि सब कुछ भूल जाते हैं. ज्यादातर लोग यही सोचते हैं कि यह पद तो कम समय के लिए ही मिला है, सो इस पद के माध्यम से जितना कुछ हासिल किया जा सकता है, जितना आनंद उठाया जा सकता है, उठा लो.

लोग यह नहीं सोचते कि उन्हें किस जिम्मेवारी के साथ पद दिया जा रहा है. हालांकि अगर यही लोग लांग टर्म के बारे में सोचें तो फ़ायदा इसी में है कि वे पद मिलने के बाद अपनी जिम्मेवारी को प्राथमिकता दें. अगर ध्यान भटक गया, तो शायद ही लंबे समय तक पद बना रहे.

प्रबंधक मूल्यांकन का तरीका जानता है. उसके पास परफ़ॉरमेंस एनालिसिस के लिए कई टूल्स हैं. इसलिए जैसे ही आपको कोई जिम्मेवारी भरा पद दिया जाये, सबसे पहले योजना बना लें. योजना इस बात की कि कैसे आप अपनी जिम्मेवारी को बेहतर तरीके से पूरा कर सकते हैं.लिच्छवी गणराज्य में प्रत्येक शासक को पांच वर्ष के लिए चुना जाता था. ये चुनाव प्रजा तथा उच्च अधिकारियों की सहमति से होते थे. चुनाव में योग्य व्यक्ति को ही शासक बनाया जाता था.

निधिवत्स नामक एक शासक पांच वर्ष तक शासक रहने के बाद पदच्युत होने पर अपने कटु अनुभव आगामी प्रत्याशी आदित्य को सुनाते हुए बोला, तुम चुन भी लिए गये तो तुम्हें क्या मिलेगा? मात्र पांच वर्ष का शासन. पांच वर्ष तक सुख-सुविधा भोगने के बाद का समय बेहद दुखद होता है. निधिवत्स की बात सुनकर आदित्य मुस्कराते हुए बोला, नहीं निधिवत्स, मेरे साथ ऐसा नहीं होगा. शासक बनने में तुम्हारा लक्ष्य केवल सुख भोगना था, जो कि गलत था. यदि वह न होता तो तुम्हें आज इतनी पीड़ा न होती. शासक का धर्म तो सेवा और परोपकार करना है, सुख भोगना नहीं. आदित्य की बात निधिवत्स को बिल्कुल अच्छी नहीं लगी. वह मुंह बनाकर बोला, देखते हैं कि तुम चुनाव में जीतने पर सुख से कैसे दूर होते हो? चुनाव में आदित्य विजयी हुआ. सत्ता हाथ में आते ही उसने ऐसी व्यवस्था की कि राज्य में कोई भी नंगा, भूखा व निर्धन नहीं रहा. उसने सभी के लिए मकान और जीविका के साधन उपलब्ध कराए. योग्य तथा सम्मानीय व्यक्तियों को उनकी योग्यतानुसार पद उपलब्ध कराए. अशांति उत्पन्न करनेवालों को दंडित किया.

सभी को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान की. पांच वर्ष पूरे होने पर जब आदित्य के पद त्यागने की बारी आयी तो प्रतिनिधियों व प्रजा ने उसे ऐसा करने ही नहीं दिया और सर्वसम्मति से उसे अगले पांच वषाब के लिए फ़िर से शासक बना दिया. यह देख कर निधिवत्स उसके पास आया और उससे क्षमा मांगते हुए बोला, आदित्य तुम्हारा कहना ठीक था. सेवा और परोपकार का भाव ही व्यक्ति की स्थिति को सुदृढ़ बनाता है. इस प्रकार आदित्य अपनी सेवा और परोपकार की भावना से लिच्छवी की प्रजा का चहेता शासक बन गया.

बात पते की
-अगर संस्थान में आपको कोई जिम्मेवारी भरा पद दिया जाता है, तो हमेशा उसकी गरिमा बनाये रखें और खुद को जिम्मेवार साबित करें.
-पद मिलने के बाद आपकी प्राथमिकता में पद की जिम्मेवारी सबसे पहले होनी चाहिए, बाकी सब कुछ बाद में.
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Old 07-01-2013, 04:53 PM   #32
arvind
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नकारात्मक लोगों से दूरी ही भली है

यह बात तब की है, जब दिल्ली में रह कर मैं पढ़ाई करता था. वहां डीएमएस का पैकेट दूध सुबह 5 बजे आ जाता था. सस्ता और शुद्ध होने के कारण इसे लेने के लिए लोगों की लाइन लगती थी.

हमारे अपार्टमेंट में जब दूध की गाड़ी आती थी, तो अक्सर दो-तीन लोग ऐसे होते थे, जो हमेशा लाइन तोड़ कर दूध लेते थे. उन्हें कोई कुछ नहीं बोलता था. कॉलेज में भी सबसे कड़क शिक्षक चंद लड़कों की गलतियों पर उन्हें कुछ नहीं कहते. पिछले दिनों ऐसी ही एक घटना रजनीश ने मुझे सुनायी.

उसने बताया-जब मैं अपनी नौकरी में साइट इंजीनियर बन कर निर्माण साइट पर गया, तो मेरे साथियों ने कहा कि इन दो लेबरों से काम और समय के बारे में ज्यादा न कहें. मुझे अजीब लगा. साइट पर 90 लेबर काम करते थे, जो नियमों के अनुसार काम करते थे.

ये दोनों लेबर सुबह व खाने की छुट्टी के बाद देर से आते और अधिक मेहनत का काम दिये जाने पर काम किसी दूसरे को सौंप कर खुद हल्का-फ़ुल्का काम करते. मैंने जब अपने साथियों से इस बारे में बात की तो उन्होंने इन्हें न छेड़ने की सलाह दी.

एक दिन देर से आने पर मैंने उन दोनों को काम से बाहर कर दिया. थोड़ी देर बाद मैंने देखा की सभी लेबर काम छोड़ कर उन दोनों के साथ बातें कर रहे हैं. मेरे काफ़ी समझाने पर भी वे काम पर नहीं लौटे. उनका कहना था कि पहले वे मेरे बॉस से बात करेंगे फ़िर काम करेंगे.बॉस को हेड आफिस से बुलाया गया.

लेबर मेरी उपस्थिति में बात करने को तैयार नही हुए. बॉस से बातचीत के बाद लेबर वापस काम पर लग गये. बॉस ने मुझे अकेले में बुलाया और बताया कि तुमने जिन दो लेबरों को काम से निकाला था, उन्होंने कहा कि वे तुम्हारी मनमानी नहीं चलने देते थे, इसलिए तुमने ऐसा किया.

लेबर तुमसे ज्यादा उनकी बातें मानते हैं, इसलिए तुमने उन्हें काम से निकाला. लेबर का भी मानना है कि तुम कभी भी किसी को भी निकाल दोगे. मेरे बॉस ने उन दोनों लेबर को समझाया कि उनके रहते लेबर पर मनमानी नहीं होगी. सबूत के तौर पर मेरे द्वारा निकाले गये दोनों लेबर का वेतन बढ़ा कर उन्हें प्रमोट कर दिया गया.

मैंने जब सफ़ाई देनी चाही तो मेरे बॉस बोले, मुझे पता है तुम सौ प्रतिशत सही हो, पर मैनेजमेंट का फ़ंडा है कि परेशानियां खड़ी करनेवालों से तब तक जबरदस्ती छेड़खानी नहीं करनी चाहिए, जब तक कि उसका काम प्रोडक्ट के लिए नुकसानदायक न बन जाये. और जब ऐसा हो, तो बिना देरी किये उसे सीधे हटा देना चाहिए.

रजनीश की कहानी सुन तत्काल मेरी आंखों के सामने कॉलेज के दिनों की घटनाएं धूम गयी. बहुत बार हम अपने अहंकार में सामनेवाले की नकारात्मकता जानते हुए भी छेड़छाड़ कर देते हैं, जिसका खामियाजा हमें भुगतान पड़ सकता है. नकारात्मक लोगों से अधिक दूरी भली मान कर उनसे छेड़खानी न करें.

बात पते की

- नकारात्मक लोगों से छेड़खानी न करना ही आपके लिए, टीम के लिए और अंतत: प्रोडक्ट के लिए अच्छा है.
- नकारात्मक व्यक्ति को तब तक न छेड़ें, जब तक वह प्रोडक्ट के लिए नुकसानदायक न हो और जब ऐसा हो तो उसे हटाने में देर न करें.
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Old 08-01-2013, 03:01 PM   #33
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परिस्थितियां एक-सी नहीं रहतीं, लेकिन आप रहें

आप चाहे नौकरी में हों या व्यवसाय में कई बार स्थितियां अनुकूल होने पर आप इतने उत्साहित हो जाते हैं, कि उस उत्साह में ही आपसे कुछ गलत भी हो जाता है. इसी तरह स्थितियां प्रतिकूल रहने पर आप इतने निराश हो जाते हैं कि आपको उसका नुकसान उठाना पड़ता है.

क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है? असल में हमें अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रहता. भावनाओं का आवेग दिमाग पर इस कदर हावी रहता है कि हम उसे प्रदर्शित किये बगैर रह नहीं पाते.

परिस्थितियां कैसी भी हों, हमें अपना रियेक्शन या अपनी भावनाएं हमेशा संतुलित रखने का प्रयास करना चाहिए.एक संत के पास कोई युवक आया. उसने संत से शांति का रास्ता पूछा. संत ने उसको उसी शहर में किसी सेठ के पास भेज दिया. सेठ ने युवक की पूरी बात सुनी. उसने युवक को बैठने के लिए कहा और फ़िर इसके बाद बिना कोई बातचीत किये अपने काम में व्यस्त हो गया.कभी वह ग्राहकों से बातें करता, कभी फ़ाइलें देखता, कभी मुनीम को निर्देश देता और कभी फ़ोन पर सूचनाएं भेजता. काफ़ी देर तक उसकी व्यस्तता देख युवक ने सोचा, यह मुझे क्या बतायेगा, इसे तो दम मारने की भी फ़ुर्सत नहीं है. यह तो इतना व्यस्त है कि इसे अपने ही काम के लिए समय नहीं मिल पा रहा है, तो मुझे क्या समय देगा.

अचानक सेठ का सबसे बड़ा मुनीम उसके पास हांफ़ता हुआ आया और सेठ को संबोधित कर कहा, गजब हो गया. अपना मालवाही जहाज समुद्री तूफ़ान में फ़ंस गया है. उसके डूबने की आशंका है.सेठ बोला, मुनीम जी! अधीर क्यों हो रहे हैं? अनहोनी कुछ भी नहीं हुआ है. जहाज डूबने की नियति थी तो उसे कोई कैसे बचा सकता है? सेठ की बात सुन कर मुनीम कुछ आश्वस्त होकर चला गया. दो घंटे बाद मुनीम फ़िर वापस आया और उत्साहित होकर बोला, सेठ जी! तूफ़ान शांत हो गया. हमारा जहाज डूबा नहीं, सुरक्षित तट पर आ गया. माल उतारते ही दोगुनी कीमत में बिक गया. सेठ पहले की ही तरह शांत और गंभीर रहा. फ़िर बोला, मुनीम जी! इसमें इतनी खुशी की क्या बात है? तूफ़ान अगर नहीं आता, तो भी क्या आप इतने ही खुश होते.

व्यापार में घाटा और मुनाफ़ा होता ही रहता है. हमें दोनों ही तरह की परिस्थितियों के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए. पैसा आता है तो जा भी सकता है. युवक साक्षी भाव से सेठ का प्रत्येक व्यवहार देख रहा था. वह बोला, सेठ साहब! मैं जाता हूं. मुझे आपके जीवन से सही पाठ मिल गया. अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों में संतुलन बनाये रखना बेहद जरूरी है.हमें भी इस आदत को अपनी डेली लाइफ़ में शामिल करना चाहिए, ताकि सफ़लता की ओर बढ़नेवाला हमारा एक-एक कदम संतुलित हो.

-बात पते की-
-अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों में संतुलन बनाये रखना बेहद जरूरी है.
-अनुकूल स्थितियों में अति उत्साहित न हों और प्रतिकूल स्थितियों में निराश न हों, सफ़लता का यह आजमाया हुआ फ़ार्मूला है.
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Old 08-01-2013, 03:05 PM   #34
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निराश न हों, हिम्मत रखें और प्रयास जारी रखें

आज की युवा पीढ़ी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह सब कुछ पा लेना चाहता है और वह भी समय से पहले. ज्यादातर युवा प्रयास भी करते हैं, इनमें से कुछ शुरुआती असफ़लता से घबरा जाते हैं, तो कुछ लगातार प्रयास जारी रखते हैं. आप भले ही सामान्य योग्यतावाले हों, लेकिन आपका प्रयास अगर जारी है, तो आपको सफ़ल होने से कोई नहीं रोक सकता.

कई प्रतिभाशाली युवा ऐसे भी हैं, जो एक ही दिशा में लगातार कार्य करने की क्षमता खोने लगे हैं. राह में थोड़ी भी रुकावट उनके कार्य की दिशा बदल देती है. सफ़लता की ऊंची मंजिलें पाना है तो बाधाएं तो आयेंगी ही, उन्हें दूर करने के लिए लगातार प्रयास करने होंगे.

निरुत्साहित होने से बात नहीं बनेगी. और वैसे भी निराश होने का क्या फ़ायदा? आपको खुद पर भरोसा है? अगर आपका जवाब हां है, तो यकीन मानें आप हर वह काम करने में सफ़ल होंगे, जो आपने अपने हाथ में लिया है. आपको करना बस इतना है कि सोच सकारात्मक रखें.एक बार राजा को अपने लिए एक अतिविश्वसनीय सेनापति की जरूरत थी.

उसने चार योग्य पुरुषों का चयन किया, जिनका काम महल की बावड़ी से पानी लाकर एक ड्रम भरना था. प्रत्येक को पानी निकालने के लिए बांस की बेंत से बनी बाल्टी दी गयी. जब बावड़ी से पानी खींचा जाता, बाल्टी ऊपर आने तक उसमें केवल 2 चुल्लू पानी रह जाता और वह भी 2-4 कदम चलने पर रिस जाता. पहले व्यक्ति ने 10-12 बार प्रयास किया और यह कह कर बैठ गया कि राजा ने असंभव कार्य दिया है.

दूसरा व्यक्ति आधे घंटे तक प्रयास करता रहा और उसे भी पहले व्यक्ति की बात सही लगने लगी. वह भी पहले व्यक्ति के पास गया. तीसरा और चौथा व्यक्ति लगातार प्रयास करता रहा. लगातार प्रैक्टिस से कुएं से लगभग 40-50 कदम तक चलने पर बाल्टी खाली हो जाती थी. सैकड़ों बार के प्रयास के बाद तीसरे व्यक्ति ने हिम्मत छोड़ दी.

वह अन्य दो के पास बैठ गया. चौथे व्यक्ति ने प्रयास नहीं छोड़ा, उसे विश्वास था कि राजा ने संभव कार्य दिया है. लगातार काम करने से ही सफ़लता मिलेगी. दोपहर बाद उसने देखा की बांस की बेंत फ़ूलने लगी है और छोटे छिद्र बंद होते जा रहे हैं और पानी ज्यादा दूरी तक ले जाया जा सकता है.

शाम होने तक बांस की बेंत फ़ूल गयी और पानी का रिसना बहुत कम हो गया. उस बाल्टी से कुछ पानी ड्रम में डाला जा सका. रात होने तक पानी का ड्रम भर गया और उस चौथे व्यक्ति को राजा द्वारा सेनापति नियुक्त कर दिया गया.सामान्य योग्यतावालों में भी निरंतर प्रयास करनेवाला व्यक्ति आगे बढ़ जाता है. आपमें योग्यता है, आप सफ़लता पाना चाहते हैं और आपने सोच-समझ कर अपनी क्षमतानुसार कार्य की दिशा चुनी है तो कार्य में छोटी-बड़ी रुकावट आ सकती है. निराश ना हों हिम्मत रखें. सफ़लता जरूर मिलेगी.

-बात पते की-
-सामान्य योग्यतावालों में भी निरंतर प्रयास करनेवाला व्यक्ति आगे बढ़ जाता है.
-किन्हीं भी परिस्थितियों में प्रयास नहीं बंद करना चाहिए.
-रुकावटें आयेंगी, लेकिन उनसे निराश न हों, खुद पर भरोसा रखें.
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Old 08-01-2013, 03:11 PM   #35
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भरोसे के साथ सोचे हुए काम पर आगे बढ़ें

ऑफ़िस में एक सहयोगी थे. मैं जब उनसे कहता कि कुछ दिन और नौकरी कर पैसे इकट्ठे कर लूं, फ़िर नौकरी छोड़ कर बिजनेस करूंगा. इस बात पर वे कहते कि जिनके दिमाग में बिजनेस करना होता है, वे संसाधन इकट्ठा नहीं करते. वे तो बस जितना उनके पास है, उसी में शुरुआत कर देते हैं.

नौकरी करनेवाले और बिजनेस करनेवाले दोनों अलग-अलग सोच के होते हैं. यह जरूरी नहीं कि हर अच्छा कर्मचारी सफ़ल बिजनेसमैन बन जाये. हालांकि मैं उनकी बातों से पूरी तरह सहमत नहीं होता था. वजह थी कि मेरे कई ऐसे मित्र हैं, जो कुछ साल नौकरी करने के बाद बिजनेस में आये और आज एक सफ़ल बिजनेसमैन हैं.

एक समय था, जब अमेरिकी कारोबारी किंग सी जिलेट आर्थिक तंगी से गुजर रहे थे. पिता पेटेंट का काम करते थे. पहले तो काम ठीक चल रहा था, फ़िर बाद में परिस्थितियों ने मुंह मोड़ना शुरू कर दिया. अक्सर उनके पास खाने तक के पैसे नहीं रहते थे. वह जैसे-तैसे गुजारा कर रहे थे.

शुरू में कुछ दोस्तों ने उनकी मदद की, पर बाद में उन्होंने भी मुंह फ़ेरना शुरू कर दिया. जिलेट अपने लिए कोई काम ढूंढ़ रहे थे. काम की तलाश में वह सुबह निकल जाते और थके-मांदे देर रात को वापस आते.

आखिरकार 17 साल की उम्र में उन्हें एक कंपनी में सेल्समैन का काम मिल गया. वे मन लगाकर अपना काम करने लगे. कंपनी में काम करने के दौरान उन्हें अपने निदेशक से यह समझने का मौका मिला कि डिस्पोजेबल चीजों की काफ़ी डिमांड रहती है. उसी समय उनके दिमाग में यह बात बैठ गयी कि डिस्पोजेबल चीजों का ही धंधा करना है.

एक दिन शेविंग करते समय उन्हें बहुत परेशानी हो रही थी. उस्तरे की धार निकल चुकी थी और वह मुश्किल से काम करता था. उस दिन जिलेट ने सोचा कि दाढ़ी बनाने की क्या कोई तकनीक नहीं इजाद की जा सकती है. उसी समय उन्हें एक ऐसे ब्लेड बनाने का ख्याल आया, जिसे प्रयोग करने के बाद फेंका जा सके.

अब समस्या थी पैसों की. पैसों की कमी के कारण वह उसके लिए जरूरी मशीन खरीदने में असमर्थ थे, लेकिन जिलेट पर डिस्पोजेबल ब्लेड बनाने की धुन सवार हो चुकी थी, इसलिए उन्होंने कर्ज लेकर मशीन खरीदी. फ़िर वे ब्लेड बनाने में जुट गये. पहली बार उन्हें सफ़लता नहीं मिली और वे पूरी तरह कर्ज में डूब गये. लोग उन पर हंसते थे, मगर इतने मुश्किल समय में भी जिलेट ने हिम्मत नहीं हारी और अपने काम में पूरी तन्मयता से लगे रहे.

उन्हें अपने ऊपर भरोसा था. आखिरकार उन्होंने ब्लेड बनाने में सफ़लता हासिल कर ही ली. कुछ ही समय में उनके द्वारा बनाये गये ब्लेडों की पूरे विश्व में धूम मच गयी. उनके पास दौलत और शोहरत दोनों आ गयी. आज भी उनके बनाए जिलेट ब्लेड की पूरी दुनिया में जबरदस्त मांग है.

- बात पते की
* अच्छा आइडिया हो, तो संसाधन की कमी कोई मायने रखती है.
* खुद पर भरोसा रखें और असफ़लता से घबराए नहीं.
* दिमाग में कोई आइडिया आये, तो उसे ऐसे ही जाने न दें. उसे लागू करने के लिए योजना बनायें.
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Old 08-01-2013, 03:15 PM   #36
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दूसरों को बड़ा मानें, लेकिन स्वयं को असहाय नहीं

एक पुराने मित्र के साथ बातें हो रही थीं. उसने बताया कि फ़ेसबुक पर पिछले दिनों कॉलेज के एक मित्र ने सभी स्कूली साथियों को निमंत्रण भेजा. निमंत्रण में शिक्षकों को भी शामिल होना था. कॉलेज की कैंटीन में कार्यक्रम रखा गया था. तय समय पर मैं कैंटीन पहुंच गया. अपने पुराने और कुछ नये शिक्षकों से मिल कर मन प्रसन्न हो गया.

इनमें से कई शिक्षकों ने मुझे मेरे नाम से पुकारा. एक शिक्षक जिन्हें मैं बहुत तंग किया करता था, पूछा कि हर साल आप सैकड़ों बच्चों को पढ़ाते हैं. फ़िर लगभग 10 साल बाद आपने मुझे मेरे नाम से कैसे पुकारा. वह मुस्कुराने लगे. कहा, तुम जैसे लड़के साल दो साल में एकाध ही निकलते हैं.

10 साल में पच्चीस-तीस लड़कों के नाम याद रखना कौन-सी बड़ी बात है. तब मैंने हैरानी से पूछा, ऐसी कौन-सी बात थी मुझमें, जिसने आपकी नजरों में मुझे खास बना दिया. उन्होंने कहा कि तुमने कॉलेज में प्रेंसीडेट का चुनाव लड़ा था और कुछ वोट से चुनाव हार गये थे. तब विजय रैली में तुमने जीते हुए प्रतिद्वंद्वी को अपने कंधे पर बैठा कर घुमाया था.

जब किसी ने पूछा तुमने ऐसा क्यों किया, तब तुमने तीन बातें कहीं, पहला, यह व्यक्ति मेरा बहुत अच्छा दोस्त व बहुत अच्छा इंसान है, दूसरा मैं अपने कॉलेज से बहुत अधिक प्यार करता हूं और तीसरा, अब मेरे कट्टर समर्थक यह समझ लें कि हमें किसके नेतृत्व में काम करना है. यदि हम चाहते हैं कि दूसरे हमें कंधे पर लेकर नाचे तो हमें बहुत अधिक मेहनत करनी होगी. तुम्हारे हार स्वीकार करने के ढंग ने हमारा दिल जीत लिया.

मैंने अपने साथियों से कहा कि यह लड़का खास है और आज तक जाने कितनी जगह नाम सहित तुम्हारा उदाहरण दिया है. मित्र की ये बातें मुझे अंदर तक छू गयीं.

सचमुच नेतृत्व करने के लिए जबरदस्त हिम्मत की जरूरत होती है. हार के बाद जीतने की इच्छाशक्ति, गिरने के बाद उठ खड़े होने की मानसिकता और सबसे बड़ी बात विपरीत परिस्थितियों में धीरज खोये बिना आगे बढ़ने की चाहत व्यक्ति को एक अच्छा लीडर बना सकता है. लीडर का मतलब राजनेता नहीं अपने क्षेत्र, समाज, कार्यस्थल, दोस्तों के मध्य अग्रणी व्यक्ति बनना है.

प्राकृतिक रूप से अधिकततर लोग दूसरे के अनुयायी बनना पसंद करते हैं. दूसरों को बड़ा मानना अच्छी बात है, लेकिन स्वयं को असहाय समझ कर समर्पण करना कमजोरी होती है. जब आप मान लेते हैं कि आप दूसरे की तरह उत्कृष्ठ नहीं बन सकते, तब आप आगे बढ़ने की संभावनाएं भी खत्म कर देते हैं. हम जिनका उदाहरण देते हैं, उनके लिए भी उदाहरण बन सकते हैं.

जिंदगी असीमित संभावना का भंडार हैं. यदि आप मान लें कि आप केवल अनुयायी बनने के लिए पैदा नहीं हुए तो आप दिल से खुद को सच्चा नेतृत्व करने वाला पायेंगे. और तब जब पीछे मुड़ कर देखेंगे तो कई अनुयायियों को अपने पीछे खड़े पायेंगे.

- बात पते की
* यदि आप मान लें कि आप केवल अनुयायी बनने के लिए पैदा नहीं हुए हैं, तो आप दिल से खुद को सच्चा नेतृत्वकर्ता पायेंगे.
* दूसरे के सामने समर्पण न करें. अपना रास्ता खुद बनायें.
* धीरज खोये बिना आगे बढ़ने की चाहत ही आपको लीडर बनाती है.
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Old 08-01-2013, 03:19 PM   #37
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टांग खिंचाई की प्रवृत्ति से प्रगति नहीं हो सकती

थाली के बैंगन की बड़ी विचित्र प्रवृत्ति होती है. किसी को मालूम ही नहीं पड़ता कि वह कब और किधर लुढ़क जाये. जिधर भी थोड़ा-सा ढलान मिला, बस ढल गया उस तरफ़. आपके आसपास और यहां तक कि आपके ऑफ़िस में भी आपको कई ऐसे थाली के बैंगन मिल जायेंगे, जो समय-समय पर अपना पाला बदलते रहते हैं.

कहने का मतलब ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो कभी किसी की चापलुसी में लगे रहते हैं, तो कभी किसी और की. उन्हें जहां संभावनाएं दिखायी देती हैं, वे खुद को उसी तरफ़ मोड़ देते हैं. ऐसे लोग टांग खिंचाई में भी उस्ताद होते हैं.

अगर किसी काम को पूरी टीम मिल कर करे, तो उस काम में सफ़लता मिलनी निश्चित है, लेकिन अगर सफ़लता का क्रेडिट हर कोई अकेले लेना चाहे, तो टांग खिंचाई की प्रवृत्ति जन्म लेती है. ऐसे में हर किसी का यही प्रयास रहता है कि कैसे दूसरे को कमजोर, कामचोर और नकारा साबित करे, ताकि संस्थान उन पर भरोसा कर उन्हें बेहतर मौका उपलब्ध कराये.

ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि वे कितना भी प्रयास कर लें, अगर उनमें प्रतिभा नहीं है, तो लाख टांग खिंचाई करने के बावजूद मौका उन्हें नहीं मिलेगा. टांग खिंचाई का ज्यादा से ज्यादा यही फ़ायदा मिल सकता है कि सामनेवाला का नुकसान होगा. ऐसे लोगों को अपनी क्रियेटिविटी टांग खींचने में नहीं खुद के लिए रास्ता बनाने में लगाना चाहिए.

केकड़ा वृत्ति की बात काफ़ी प्रचलित है. केकड़े का व्यवहार कैसा होता है, सब जानते हैं. समुद्र तट पर एक पर्यटक ने देखा कि मछुआरे समुद्र में जाल फ़ेंकते हैं. उसमें मछलियां भी फ़ंसती हैं और केकड़े भी. मछुआरे मछलियों को टोकरियों में डाल कर उस पर ढक्कन रख देते हैं, लेकिन केकड़ों की टोकरी पर कोई ढक्कन नहीं डालते.

समुद्र तट पर घूम रहा वह पर्यटक अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाया.उसके मन में तरह-तरह के सवाल उठने लगे. आखिरकार उससे रहा न गया. उसने मछुआरे के सामने अपनी जिज्ञासा रखी. पर्यटक ने मछुआरे से कहा कि तुम्हारे लिए मछलियां और केकड़े एक समान हैं और दोनों उपयोगी भी हैं, फ़िर मछलियों के लिए इतनी सुरक्षा और केकड़ों के प्रति लापरवाही.

इसकी वजह क्या है? मछुआरा पर्यटक के मन की जिज्ञासा को समझ गया. उसने कहा, आप मछली और केकड़े की प्रवृत्ति से परिचित नहीं हैं. इसलिए ऐसा पूछ रहे हैं. मछलियों के टोकरे पर ढक्कन न रखूं तो वे ऐसा उछाल मारेंगी कि सीधे समुद्र के पानी में जाकर गिरेंगी.

केकड़े ऐसा नहीं कर सकते. उनकी यह आदत ही नहीं है.इतना कह कर उसने टोकरे से एक केकड़े को बाहर निकालने की कोशिश की तो दूसरे ने उसकी टांग पकड़ ली. पर्यटक देखता ही रह गया. कहने का मतलब यह कि जहां टांग खिंचाई की प्रवृत्ति होती है, वहां प्रगति नही हो सकती.

बात पते की

- जहां टांग खिंचाई की प्रवृत्ति होती है, वहां किसी की भी प्रगति नहीं हो सकती.
- क्रियेटिविटी का इस्तेमाल टांग खींचने में नहीं आगे बढ़ने के लिए करें.
- टीम से अलग अकेले क्रेडिट लेना चाहेंगे, तो नुकसान सभी का होगा.
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Old 09-01-2013, 12:15 AM   #38
Dark Saint Alaick
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Default Re: सफलता की सीढ़ी।

अति उत्तम विचारों से परिपूर्ण सूत्र है, अरविन्दजी। सीखने को बहुत कुछ है यहां। बस, सीखने की इच्छा होनी चाहिए। आपके सूत्र ने मुझे काफी प्रेरणा दी। आभार।
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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Old 10-01-2013, 02:48 PM   #39
arvind
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Default Re: सफलता की सीढ़ी।

कॉपी में नहीं, क्रियेशन पर भरोसा रखें

9 मार्च को बार्बी का जन्मदिन है. बार्बी का जन्मदिन पूरी दुनिया में उत्साह के साथ मनाया जाता है. हर बच्चा चाहता है कि उसके पास एक बार्बी डॉल हो. यह आसान नहीं था कि किसी डॉल को इस प्रकार डिजाइन किया जाये कि वह दुनिया भर के बच्चों की चहेती बन जाये.

बार्बी डॉल की सफ़लता बिजनेस में सफ़लता के कई मंत्र बताती है. 1959 में जब रथ हैंडलर ने फ़ैशन डॉल के रूप में बार्बी को लांच किया, तब न तो उन्हें और न ही उनके पति इलियट को भविष्य में इसे मिलनेवाले रिस्पांस का अंदाजा था. बार्बी को बनाने का आइडिया अमेरिकी बिजनेसवूमन रथ हैंडलर (1916-2002) के दिमाग में आया था.

अपनी बेटी को कागज की गुड़िया से खेलते देख रथ ने महसूस किया कि बच्चों को डॉल को बड़ों का लुक देने में बड़ा मजा आता है. उस समय जो डॉल चलन में थीं, वे छोटे बच्चों को रिप्रजेंट करती थीं. तब रथ ने एडल्ट बॉडीवाली एक डॉल बनाने की सोची, पर न तो उनके पति को यह आइडिया जंचा और ना ही वे अपने आइडिया को हकीकत में उतार पायीं. 1956 में जब वे यूरोप टूर पर गयीं तो जर्मनी की डॉल लिली को देखकर उनके दिमाग में बार्बी का आइडिया फ़िर जागा.

लिली काफ़ी हद तक बार्बी जैसी ही थी. उसका कैरेक्टर एक वर्किंग गर्ल के रूप में डिजाइन किया गया था. अमेरिका लौटने पर रथ ने इंजीनियर की मदद से डॉल पर दोबारा काम किया और फ़ाइनल होने पर उसे बार्बी नाम दिया.

बार्बी नाम रथ की बेटी बारबरा के नाम पर दिया गया था. इस तरह न्यूयॉर्क के अमेरिकन इंटरनेशनल टॉय फ़ेयर में 9 मार्च 1959 को बार्बी लांच की गयी. इसके बाद तो मैटल कंपनी ने लिली डॉल के राइट्स खरीद लिए और लिली का प्रोडक्शन बंद कर दिया और पूरा ध्यान बार्बी पर फ़ोकस किया.

पहले ही साल में इसकी बिक्री ने 3 लाख 50 हजार तक पहुंच गयी. अब तक दुनिया के 150 से भी ज्यादा देशों में करीब एक अरब से ज्यादा बार्बी डॉल बिक चुकी हैं. बढ़ती लोकप्रियता के चलते बार्बी के साथ उसकी एसेसरीज, बुक्स, फ़ैशन आइटम और विडियो गेम्स भी बने. बार्बी एंड द डायमंड कैसल नाम से बार्बी पर ऐनमेशन फ़िल्म भी बनायी गयी.

1974 में न्यूयार्क सिटी के टाइम्स स्क्वायर के एक हिस्से का नाम एक सप्ताह के लिए बार्बी बोलीवर्ड कर दिया गया था. बार्बी डॉल की सफ़लता ने यह साबित कर दिया कि अगर आप जिंदगी में कुछ करना चाहते हैं, तो बस अपनी आंखें खुली रखें. देखें कि लोगों की जरूरतें क्या है? सोचें कि आप अपने प्रोडक्ट या सर्विस के माध्यम से कैसे और क्या अलग दे सकते हैं.

बेहतर करने के लिए यह जरूरी है कि आप न केवल कुछ अलग दें, बल्कि समय-समय पर खुद को और फ़िर अपने प्रोडक्ट या सर्विस को भी अपडेट करते रहें. कॉपी में नहीं, क्रियेशन में विश्वास रखें.

बात पते की

- अच्छा और अलग प्रोडक्ट देना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी
- यह भी है कि समय के हिसाब से अपने प्रोडक्ट को अपडेट करते रहें.
- बिजनेस करना है तो आंखें खुली रखें और देखें कि लोगों की जरूरतें क्या हैं.
- सोचें कि आप ऐसा क्या अलग दे सकते हैं, जो और नहीं दे पा रहे हैं.
arvind is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2013, 03:10 PM   #40
arvind
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Default Re: सफलता की सीढ़ी।

अच्छे आचरण के बिना योग्यता की अहमियत नहीं

लगभग 7 साल पहले की बात है. एक कर्मचारी को लेकर मैं असमंजस में था. उसकी कई शिकायतें मिल चुकी थीं. लगभग हर दूसरे-तीसरे दिन कोई न कोई साथी उसकी शिकायत लेकर आ जाता. असमंजस इसलिए, क्योंकि काम के मामले में वह काफ़ी अनुभवी और दक्ष था. मैं उसे हटाना भी नहीं चाहता था और बाकी साथियों को बेहतर माहौल भी देना चाहता था. मैंने इस बारे में जब अपने बॉस से बात की तो उन्होंने कहा कि टीम के रूप में काम करने के लिए उसकी योग्यता और विद्वता का तब तक बेहतर यूज नहीं किया जा सकता, जब तक कि उसका आचरण अच्छा न हो.

अगर यूज करोगे, तो टीम के बाकी सदस्यों को काम का बेहतर माहौल नहीं मिल पायेगा. दूसरी तरफ़ उस व्यक्ति पर नियंत्रण रखना अलग एक काम हो जायेगा. इससे तुम्हारा काम भी प्रभावित होगा. बेहतर होगा कि उसे नोटिस दे दो. मुझे दु:ख था, लेकिन ऐसा करने का अच्छा परिणाम रहा.प्राचीन समय में वाराणसी के राज पुरोहित हुआ करते थे, देव मित्र. राजा को राज पुरोहित की विद्वता और योग्यता पर बहुत भरोसा था. इसलिए राजा उनकी हर बात मानते थे. प्रजा के बीच भी उनका काफ़ी आदर था. एक दिन राज पुरोहित के मन में सवाल उठा कि लोग जो मेरा सम्मान करते हैं, उसका कारण क्या है? उन्होंने इसका उत्तर पाने के लिए योजना बनायी.

अगले दिन दरबार से लौटते समय उन्होंने राज कोषागार से एक स्वर्ण मुद्रा चुपचाप ले ली, जिसे कोष अधिकारी ने देखकर भी नजरंदाज कर दिया. राज पुरोहित ने दूसरे दिन भी दरबार से लौटते समय दो स्वर्ण मुद्राएं उठा लीं. कोष अधिकारी ने देख कर सोचा कि शायद किसी प्रयोजन के लिए वे ऐसा कर रहे हैं, बाद में अवश्य बता देंगे. तीसरे दिन राज पुरोहित ने मुट्ठी में स्वर्ण मुद्राएं भर लीं. इस बार कोष अधिकारी ने उन्हें पकड़ कर सैनिकों के हवाले कर दिया. उनका मामला राजा तक पहुंचा. न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे राजा ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि राज पुरोहित द्वारा तीन बार राजकोष का धन चुराया गया है. इस दुराचरण के लिए उन्हें तीन महीने की कैद दी जाये ताकि वह फ़िर कभी ऐसा अपराध न कर सकें.

राजा के निर्णय से राज पुरोहित को अपने सवाल का जवाब मिल चुका था. राज पुरोहित ने राजा से निवेदन किया, राजन मैं चोर नहीं हूं. मैं यह जानना चाहता था कि आपके द्वारा मुझे जो सम्मान दिया जाता है, उसका सही अधिकारी कौन है, मेरी योग्यता, विद्वता या मेरा सदाचरण. आज सभी लोग समझ गये हैं कि सदाचरण को छोड़ते ही मैं दंड का अधिकारी बन गया हूं. सदाचरण और नैतिकता ही मेरे सम्मान का मूल कारण थी. इस पर राजा ने कहा कि वह उनकी बात समझ रहे हैं, मगर दूसरों को सीख देने के लिए उनका दंडित होना आवश्यक है.
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