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Old 23-11-2012, 03:42 PM   #31
Sameerchand
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थुम्बा में रॉकेट प्रक्षेपण स्टेशन पर वैज्ञानिक एक दिन में लगभग 12 से 18 घंटे के लिए काम करते थे. इस परियोजना पर काम कर रहे वैज्ञानिकों कि संख्या सत्तर के लगभग थी . सभी वैज्ञानिक वास्तव में काम के दबाव और अपने मालिक की मांग के कारण निराश थे, लेकिन हर कोई उससे वफादार था और नौकरी छोड़ने के बारे में नहीं सोचता था .
एक दिन, एक वैज्ञानिक अपने बॉस के पास आया था और उनसे कहा - सर, मैं अपने बच्चों को वादा किया है कि मैं उन्हें हमारी बस्ती में चल रही प्रदर्शनी दिखाने के लिए ले जाऊँगा . तो मैं 5 30 बजे कार्यालय छोड़ना चाहता हूँ .

उनका बॉस ने कहा - ठीक है, तुम्हे आज जल्दी कार्यालय छोड़ने के लिए अनुमति दी जाती है.

वैज्ञानिक ने काम शुरू कर दिया. उसने दोपहर के भोजन के बाद भी अपना काम जारी रखा. हमेशा की तरह वह इस हद तक अपने काम में मशगूल था कि जब उसने अपनी घड़ी में देखा कि समय रात्रि 8.30 बज चुके थे . अचानकउसे अपना वह वादा जो उसने अपने बच्चों को किया था याद आया . उसने अपने मालिक के लिए देखा, वह वहाँ नहीं था. उसे सुबह ही बताया था, उसने सब कुछ बंद कर दिया और घर के लिए चल दिया.

अपने भीतर गहराई में, वह अपने बच्चों को निराश करने के लिए दोषी महसूस कर रहा था.

वह घर पहुंच गया. बच्चे वहाँ नहीं थे पत्नी अकेली हॉल में बैठी थी और पत्रिकाओं को पढ़ने में मशगूल थी . स्थिति विस्फोटक थी , उसे लगा कोई भी बात करने पर वह उस पर फट पड़ेगी . उसकी पत्नी ने उससे पूछा - क्या आप के लिए कॉफीलाऊं या मैं सीधे रात्रिभोज की व्यवस्था करू अगर आप भूखे है आपकी पसंद का भोजन बना है.

आदमी ने कहा - अगर तुम भी पियो तो मैं भी कॉफी लूँगा , लेकिन बच्चे कहां हैं ?? पत्नी ने कहा - आपको नहीं पता है आपका प्रबंधक 5 15 बजे आया और प्रदर्शनी के लिए बच्चों को ले गया.

असल में हुआ क्या था

मालिक ने उसे दी गई अनुमति के अनुसार उसे 5,00 बजे उसे गंभीरता से काम करते देखा और सोचा कि यह व्यक्ति काम को नहीं छोड़ सकता है , लेकिन उसने अपने बच्चों से वादा किया है कि वो उन्हें प्रदर्शनी के लिए लें जाएगा . तो वह उन्हें प्रदर्शनी के लिए लेकर गया.

मालिक ने हर बार यही नहीं किया था पर जो एक बार किया उससे उस वैज्ञानिक कि प्रतिबद्धता हमेशा के लिए स्थापित हो गयी
यही कारण है कि थुम्बा में सभी वैज्ञानिकों ने उनके मालिक के तहत काम जारी रखा जबकि तनाव जबरदस्त था.


क्या आप अनुमान लगा सकते हैं वो मेनेजर कौन था



जी हाँ वो हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री ए पी जे अब्दुल कलाम थे
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Old 23-11-2012, 03:43 PM   #32
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शिकार


एक दिन सुल्तान ने नसरुद्दीन को अपने साथ भालू के शिकार पर चलने को कहा। नसरुद्दीन जाना नहीं चाहता था पर सुल्तान को खुश करने के लिए वह साथ में जाने को तैयार हो गया।

शिकार पर गया दल जब शाम को लौटा तो सभी लोग उनसे यह जानने को उत्सुक थे कि शिकार कैसा रहा और उन्होंने नसरुद्दीन से इसके बारे में पूछा।

नसरुद्दीन बोला - "बेहतरीन" !

लोगों ने फिर उत्सुकतावश पूछा - "तुमने कितने भालू मारे?"

"एक भी नहीं "- नसरुद्दीन बोला।

"तो तुमने कितने भालुओं का पीछा किया?"- उन्होंने पूछा।

"एक भी नहीं " - नसरुद्दीन फिर बोला।

"तो तुम्हें कितने भालू दिखायी दिए?"- उन्होंने पूछा।

"एक भी नहीं "- नसरुद्दीन बोला।

तो फिर तुम यह कैसे कह सकते हो कि शिकार बेहतरीन रहा? - एक व्यक्ति ने कहा।

नसरुद्दीन ने मुस्कराते हुए कहा।- "महोदय! यह जान लीजिये, कि जब आप भालू जैसे खतरनाक जानवर के शिकार पर हों तो सबसे अच्छी बात यही है कि उससे आपका सामना ही न हो।
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Old 23-11-2012, 03:44 PM   #33
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संघर्ष की महत्ता


एक व्यक्ति को तितली का एक कोकून मिला, जिसमें से तितली बाहर आने के लिए प्रयत्न कर रही थी. कोकून में एक छोटा सा छेद बन गया था जिसमें से बाहर निकलने को तितली आतुर तो थी, मगर वह छेद बहुत छोटा था और तितली का उस छेद में से बाहर निकलने का संघर्ष जारी था.

उस व्यक्ति से यह देखा नहीं गया और वह जल्दी से कैंची ले आया और उसने कोकून को एक तरफ से काट कर छेद बड़ा कर दिया. तितली आसानी से बाहर तो आ गई, मगर वह अभी पूरी तरह विकसित नहीं थी. उसका शरीर मोटा और भद्दा था तथा पंखों में जान नहीं थी. दरअसल प्रकृति उसे कोकून के भीतर से निकलने के लिए संघर्ष करने की प्रक्रिया के दौरान उसके पंखों को मजबूती देने, उसकी शारीरिक शक्ति को बनाने व उसके शरीर को सही आकार देने का कार्य भी करती है. जिससे जब तितली स्वयं संघर्ष कर, अपना समय लेकर कोकून से बाहर आती है तो वह आसानी से उड़ सकती है. प्रकृति की राह में मनुष्य रोड़ा बन कर आ गया था, भले ही उसकी नीयत तितली की सहायता करने की रही हो. नतीजतन तितली कभी उड़ ही नहीं पाई और जल्द ही काल कवलित हो गई.

संघर्ष जरूरी है हमारे बेहतर जीवन के लिए.
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Old 23-11-2012, 03:44 PM   #34
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शायद ऊपर कोई रास्ता निकल आए


कुछ बच्चों ने तय किया कि मुल्ला नसरूद्दीन को परेशान करने के लिए जब मुल्ला कहीं चप्पल निकाले तो उसे छुपा दिया जाए.

उन्होंने एक उपाय निकाला. जब मुल्ला पास से गुजर रहा था तो मुल्ला को सुनाने के लिए एक बच्चे ने दूसरे से जोर से कहा – “सामने वाले पेड़ पर कोई भी नहीं चढ़ सकता, और मुल्ला तो कभी भी नहीं.”

मुल्ला ठिठका, पेड़ को देखा जो कि बेहद छोटा और शाखादार था. “कोई भी चढ़ सकता है इस पर – तुम भी. देखो मैं तुम्हें दिखाता हूँ कि कैसे.” ऐसा कह कर उसने अपनी चप्पलें निकाली और उन्हें अपनी कमरबंद में खोंसा और पेड़ पर चढ़ने लगा.

“मुल्ला,” बच्चे चिल्लाए क्योंकि उनका प्लान फेल हो रहा था – “ऊपर पेड़ में तुम्हारे चप्पलों का क्या काम?”

“इमर्जेंसी के लिए हमेशा तैयार रहो,” मुल्ला ने मुस्कुराते हुए बात पूरी की – “क्या पता ऊपर कोई रास्ता मिल ही जाए”
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Old 23-11-2012, 03:44 PM   #35
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किसान और गेहूँ के दाने


एक प्राचीन दृष्टान्त है. तब ईश्वर मनुष्यों के साथ धरती पर निवास करते थे. एक दिन एक वृद्ध किसान ने ईश्वर से कहा – आप ईश्वर हैं, ब्रह्माण्ड को आपने बनाया है, मगर आप किसान नहीं हैं और आपको खेती किसानी नहीं आती, इसलिए दुनिया में समस्याएँ हैं.

ईश्वर ने पूछा – “तो मुझे क्या करना चाहिए?”

किसान ने कहा - “मुझे एक वर्ष के लिए अपनी शक्तियाँ मुझे दे दो. मैं जो चाहूंगा वो हो. तब आप देखेंगे कि दुनिया से समस्याएँ, गरीबी भुखमरी सब समाप्त हो जाएंगी.”

ईश्वर ने किसान को अपनी शक्ति दे दी. किसान ने चहुँओर सर्वोत्तम कर दिया. मौसम पूरे समय खुशगवार रहने लगा. न आँधी न तूफ़ान. किसान जब चाहता बारिश हो तब बारिश होती, जब वो चाहता कि धूप निकले तब धूप निकलती. सबकुछ एकदम परिपूर्ण हो गया था. चहुँओर फ़सलें भी लहलहा रही थीं.

जब फसलों को काटने की बारी आई तब किसान ने देखा कि फसलों में दाने ही नहीं हैं. किसान चकराया और दौड़ा दौड़ा भगवान के पास गया. उसने तो सबकुछ सर्वोत्तम ही किया था. और यह क्या हो गया था. उसने भगवान को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा.

भगवान ने स्पष्ट किया – चूंकि सबकुछ सही था, कोई संधर्ष नहीं था, कोई जिजीविषा नहीं थी – तुमने सबकुछ सर्वोत्तम कर दिया था तो फसलें नपुंसक हो गईं. उनकी उर्वरा शक्ति खत्म हो गई. जीवन जीने के लिए संघर्ष अनिवार्य है. ये आत्मा को झकझोरते हैं और उन्हें जीवंत, पुंसत्व से भरपूर बनाते हैं.

यह दृष्टांत अमूल्य है. जब आप सदा सर्वदा खुश रहेंगे, प्रसन्न बने रहेंगे तो प्रसन्नता, खुशी अपना अर्थ गंवा देगी. यह तो ऐसा ही होगा जैसे कोई सफेद कागज पर सफेद स्याही से लिख रहा हो. कोई इसे कभी देख-पढ़ नहीं पाएगा.

खुशी को महसूस करने के लिए जीवन में दुःख जरूरी है. बेहद जरूरी.
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Old 23-11-2012, 03:45 PM   #36
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कांच कि बरनी (बड़ा बर्तन ) और दो कप चाय

दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे
आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ...

उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबल
टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने
की जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ ...
आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये h धीरे
- धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर
से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ
... कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना
शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर
हँसे ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ
.. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा .. सर ने टेबल के नीचे से
चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित
थोडी़ सी जगह में सोख ली गई ...

प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया –


इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो ....

टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे , मित्र
, स्वास्थ्य और शौक हैं ,

छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और

रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है ..
अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की
गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं
भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ...
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ... यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे
पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने
बच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ ,
घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको , मेडिकल चेक - अप करवाओ ... टेबल टेनिस
गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण है ... पहले तय करो कि क्या जरूरी है
... बाकी सब तो रेत है ..
छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह
नहीं बताया
कि " चाय के दो कप " क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले .. मैं सोच ही
रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ...
इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन
अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।
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Old 23-11-2012, 03:45 PM   #37
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धार्मिकता और अंधभक्ति


आप धार्मिक हैं या अंधभक्त? व्यक्ति को धार्मिक तो होना चाहिए, मगर अंधभक्त नहीं.

आर्मी के एक कमांडिंग ऑफ़ीसर की यह कहानी है –

कमांडिंग ऑफ़ीसर ने अपने नए-नए रंगरूटों से पूछा कि रायफल के कुंदे में अखरोट की लकड़ी का उपयोग क्यों किया जाता है.

“क्योंकि इसमें ज्यादा प्रतिरोध क्षमता होती है” एक ने कहा.

“गलत”

“इसमें लचक ज्यादा होती है” दूसरे ने कहा.

“गलत”

“शायद इसमें दूसरी लकड़ियों की अपेक्षा ज्यादा चमक होती है” तीसरे ने अंदाजा लगाया.

“बेवकूफी की बातें मत करो.” कमांडर गुर्राया – “अखरोट की लकड़ी का प्रयोग इस लिए किया जाता है क्योंकि यह नियम-पुस्तिका में लिखा है.”
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Old 23-11-2012, 03:46 PM   #38
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वृद्ध रहित भूमि


एक बार एक देश में यह निर्णय लिया गया कि वृद्ध किसी काम के नहीं होते, अकसर बीमार रहते हैं, और वे अपनी उम्र जी चुके होते हैं अतः उन्हें मृत्यु दे दी जानी चाहिए। देश का राजा भी जवान था तो उसने यह आदेश देने में देरी नहीं की कि पचास वर्ष से ऊपर के उम्र के लोगों को खत्म कर दिया जाए।

और इस तरह से सभी अनुभवी, बुद्धिमान बड़े बूढ़ों से वह देश खाली हो गया. उनमें एक जवान व्यक्ति था जो अपने पिता से बेहद प्रेम करता था। उसने अपने पिता को अपने घर के एक अंधेरे कोने में छुपा लिया और उसे बचा लिया।

कुछ साल के बाद उस देश में भीषण अकाल पड़ा और जनता दाने दाने को मोहताज हो गई। बर्फ के पिघलने का समय आ गया था, परंतु देश में बुआई के लिए एक दाना भी नहीं था. सभी परेशान थे। अपने बच्चे की परेशानी देख कर उस वृद्ध ने, जिसे बचा लिया गया था, अपने बच्चे से कहा कि वो सड़क के किनारे किनारे दोनों तरफ जहाँ तक बन पड़े हल चला ले।

उस युवक ने बहुतों को इस काम के लिए कहा, परंतु किसी ने सुना, किसी ने नहीं. उसने स्वयं जितना बन पड़ा, सड़क के दोनों ओर हल चला दिए। थोड़े ही दिनों में बर्फ पिघली और सड़क के किनारे किनारे जहाँ जहाँ हल चलाया गया था, अनाज के पौधे उग आए।

लोगों में यह बात चर्चा का विषय बन गई, बात राजा तक पहुँची. राजा ने उस युवक को बुलाया और पूछा कि ये आइडिया उसे आखिर आया कहाँ से? युवक ने सच्ची बात बता दी।

राजा ने उस वृद्ध को तलब किया कि उसे यह कैसे विचार आया कि सड़क के किनारे हल चलाने से अनाज के पौधे उग आएंगे। उस वृद्ध ने जवाब दिया कि जब लोग अपने खेतों से अनाज घर को ले जाते हैं तो बहुत सारे बीच सड़कों के किनारे गिर जाते हैं. उन्हीं का अंकुरण हुआ है।

राजा प्रभावित हुआ और उसे अपने किए पर पछतावा हुआ. राजा ने अब आदेश जारी किया कि आगे से वृद्धों को ससम्मान देश में पनाह दी जाती रहेगी।

कहावत है –

वृद्धस्य वचनम् ग्राह्यं आपात्काले ह्युपस्थिते।

जिसका अर्थ है – विपदा के समय बुजुर्गों का कहा मानना चाहिए.
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Old 23-11-2012, 03:46 PM   #39
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क्या मेरा वेतन बढ़ेगा?


प्रेरक सम्मेलन (मोटिवेशन सेमिनार) से लौटकर उत्साहित प्रबंधक ने अपने एक कामगार को अपने ऑफ़िस में बुलाया और कहा – “आज के बाद से अपने काम को तुम स्वयं प्लान करोगे और नियंत्रित करोगे. इससे तुम्हारी उत्पादकता बढ़ेगी.”

“इससे क्या मेरे वेतन में बढ़ोत्तरी होगी?” कामगार ने पूछा.

“नहीं नहीं, -” प्रबंधक आगे बोला – “पैसा कहीं भी प्रेरणा देने का कारक नहीं बनता और वेतन में बढ़ोत्तरी से तुम्हें कोई संतुष्टि नहीं मिलेगी.”

“ठीक है, तो जब मेरी उत्पादकता बढ़ जाएगी तब मेरा वेतन बढ़ेगा?”

“देखो, -” प्रबंधक ने समझाया “जाहिर है कि तुम मोटिवेशन थ्योरी को नहीं समझते. इस किताब को ले जाओ और इसे अच्छी तरह से पढ़ो. इसमें सब कुछ विस्तार में समझाया गया है कि किस चीज से तुममें प्रेरक तत्व जागेंगे.”

वह आदमी बुझे मन से किताब ले कर जाने लगा. जाते जाते उसने पूछा - “यदि मैं इस किताब को अच्छी तरह से पूरा पढ़ लूं तब तो मेरा वेतन बढ़ेगा?”
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Old 23-11-2012, 03:46 PM   #40
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कल्पतरू


एक बार एक आदमी घूमते-घामते स्वर्ग पहुँच गया. स्वर्ग में सुंदर नजारे देखते हुए वह बहुत देर तक घूमता रहा और अंत में थक हार कर एक वृक्ष के नीचे सो गया.

स्वर्ग में जिस वृक्ष के नीचे सोया था, वह कल्पतरू था. कल्पतरू की छांह के नीचे बैठ कर जो भी व्यक्ति जैसी कल्पना करता है, वह साकार हो जाता है.

कुछ देर बाद जब उस आदमी की आँख खुली तो उसकी थकान तो जाती रही थी, मगर उसे भूख लग आई थी. उसने सोचा कि काश यहाँ छप्पन भोग से भरी थाली खाने को मिल जाती तो आनंद आ जाता.

चूंकि वह कल्पतरू के नीचे था, तो उसकी छप्पन भोग से भरी थाली उसके कल्पना करते ही प्रकट हो गई. चूंकि उसे भूख लगी थी तो उसने झटपट उस भोजन को खा लिया. भोजन के बाद उसे प्यास लगी. उसने सोचा कि काश कितना ही अच्छा होता कि इतने शानदार भोजन के बाद एक बोतल बीयर पीने को मिल जाती. उसका यह सोचना था कि बीयर की बोतल नामालूम कहाँ से प्रकट हो गई.

उसने बीयर की बोतल खोली और गटागट पीने लगा. भूख और प्यास थोड़ी शांत हुई तो उसका दिमाग दौड़ा. यह क्या हो रहा है उसने सोचा. क्या मैं सपना देख रहा हूँ? खाना और बीयर हवा में से कैसे प्रकट हो गए? लगता है कि इस पेड़ में भूत पिशाच हैं जो मुझसे कोई खेल खेल रहे हैं. उसने सोचा.

उसका इतना सोचना था कि कल्पतरू ने उसकी यह कल्पना भी साकार कर दी. हवा में से भूत पिशाच प्रकट हो गए जो उसके साथ डरावने खेल खेलने लगे. वह आदमी डर कर सोचने लगा ये भूत प्रेत तो अब मुझे मार ही डालेंगे. मेरी मृत्यु निश्चित है.

आप समझ सकते हैं कि कल्पतरू के नीचे उसकी इस कल्पना का क्या हश्र हुआ होगा.

दरअसल हमारा दिमाग ही कल्पतरू के माफ़िक है. आप जो सोचते हैं वही होता है. सारी चीजें दो बार सृजित होती हैं. एक बार आपके दिमाग में और फिर दूसरी बार भौतिक संसार में. आज नहीं तो कल, जो आपने सोचा है, वह होकर रहेगा. बहुत बार आपकी कल्पना और चीजों के होने में इतना समय हो जाता है कि आप भूल जाते हैं कि कभी आपने इसके लिए ख्वाब भी देखे होंगे. आप अपने लिए स्वर्ग भी रचते हैं और आप अपने लिए नर्क भी रचते हैं. यदि आप स्वर्ग की सोचेंगे तो आपको स्वर्ग मिलेगा. छप्पन भोग की सोचेंगे तो छप्पन भोग मिलेगा. भूत पिशाच की सोचेंगे तो भूत पिशाच मिलेंगे.

और जब आप समझ जाते हैं कि आप अपने लिए स्वयं स्वर्ग या नर्क बुन सकते हैं तो फिर आप इस तरह की अपनी दुनिया को बनाना छोड़ सकते हैं. स्वर्ग या नर्क बनाने की जरूरत फिर किसी को नहीं होती. आप इन झंझटों से निवृत्त हो सकते हैं. मस्तिष्क की यह निवृत्ति ही मेडिटेशन (ध्यान योग) है.
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