08-01-2013, 08:13 AM | #31 |
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Re: जानिए जैन धर्म को
1.आत्म संयम से स्वर्ग प्राप्त होता है,किंतु असंयत,इन्द्रिय -लिप्सा अपार अंधकार पूर्ण नर्क के लिए खुला हुआ राजपथ है। 2.जो पुरूष समझ -बूझकर अपनी इच्छाओं का दमन करता है,उसे सभी सुखद वरदान प्राप्त होंगे। 3.यदि तुम्हारे एक शब्द से भी किसी को कष्ट पहुँचता है,तो तुम अपनी भलाई नष्ट समझो। 4.आग का जला हुआ तो समय पाकर अच्छा हो जाता है,परन्तु वचन का घाव सदा हरा बना रहता है। 5.और किसी को चाहे तुम मत रोको,पर जिव्हा को अवश्य लगाम लगाओ क्योंकि बेलगाम की जिव्हा बहुत दुःख देती हैं।
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
08-01-2013, 08:14 AM | #32 |
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Re: जानिए जैन धर्म को
सत्यता
1.सच्चाई क्या है? जिससे दूसरों को कुछ भी हानि न पहुँचे, उस बात का बोलना ही सच्चाई है। 2.उस झूठ में भी सत्यता कि विशेषता है ,जिसके परिणाम में नियम से भलाई ही होती है। 3.जिस बात को तुम्हारा मन मानता है कि वह झूठ है,उसे कभी मत बोलो,क्योंकि झूठ बोलने से स्वयं तुम्हारी अंतरात्मा ही तुम्हें जलाएगी। 4.जिस मनुष्य का मन असत्य से अपवित्र नहीं है,वह सबके हृदय पर शासन करेगा।
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09-01-2013, 09:40 PM | #33 |
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Re: जानिए जैन धर्म को
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09-01-2013, 09:44 PM | #34 |
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Ranakpur-Jain-Temple
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09-01-2013, 09:46 PM | #35 |
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Re: जानिए जैन धर्म को
महावीर स्वामी महावीर स्वामी का जन्म वैशाली के निकट कुण्डग्राम में एक क्षत्रिय राजपरिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। 30 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी सत्य की खोज में घर-परिवार छोड़ निकल पड़े। 12 वर्ष की कठिन तपस्या के बाद जम्भिय ग्राम के निकट ऋजुपालि की सरिता के तट पर इन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई। इन्द्रियों को जीतने के कारण ये जिन तथा महान पराक्रमी होने के कारण महावीर कहलाए। 30 वर्षों तक इन्होंने अपने धर्म का प्रचार किया और अंत में 72 वर्ष की आयु में राजगृह के समीप पावापुरी में इन्हें निर्वाण की प्राप्ति हुई। इनके जन्म व मृत्यु के समय में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान इनका जन्म 540 ईसा पूर्व और कुछ 599 ईसा पूर्व मानते हैं। कुछ विद्वान इनकी मृत्यु 468 ईसा पूर्व और कुछ 527 ईसा पूर्व मानते हैं। शिक्षाएं: जैन धर्म के अनुसार ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है। सृष्टि अनादि काल से विद्यमान है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मों के अनुसार फल भोगते हैं। कर्म फल ही जन्म-मृत्यु का कारण है। कर्म फल से छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है। जैन धर्म में संसार दु:खमूलक माना गया है। दु:ख से छुटकारा पाने के लिए संसार का त्याग आवश्यक है। कर्म फल से छुटकारा पाने के लिए त्रिरत्न का अनुशीलन आवश्यक बताया गया है।
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09-01-2013, 09:46 PM | #36 |
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Re: जानिए जैन धर्म को
त्रिरत्न:
सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन व सम्यक आचरण जैन धर्म के त्रिरत्न हैं। सम्यक ज्ञान का अर्थ है शंका विहीन सच्चा व पूर्ण ज्ञान। सम्यक दर्शन का अर्थ है सत् तथा तीर्थंकरों में विश्वास। सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुख-दु:ख के प्रति समभाव सम्यक आचरण है। जैन धर्म के अनुसार त्रिरत्नों का पालन करके व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो सकता है और मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। त्रिरत्नों के पालनार्थ आचरण की पवित्रता पर विशेष बल दिया गया है। इसके लिए पांच महाव्रतों का पालन जरूरी बताया गया है।
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09-01-2013, 09:47 PM | #37 |
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Re: जानिए जैन धर्म को
पंचमहाव्रत
1: अहिंसा: जैन धर्म में अहिंसा संबंधी सिद्धान्त प्रमुख है। मन, वचन तथा कर्म से किसी के प्रति असंयत व्यवहार हिंसा है। पृथ्वी के समस्त जीवों के प्रति दया का व्यवहार अहिंसा है। 2: सत्य: जीवन में कभी भी असत्य नहीं बोलना चाहिए। क्रोध व मोह जागृत होने पर मौन रहना चाहिए। जैन धर्म के अनुसार भय अथवा हास्य-विनोद में भी असत्य नहीं बोलना चाहिए। 3: अस्तेय: चोरी नहीं करनी चाहिए और न ही बिना अनुमति के किसी की कोई वस्तु ग्रहण करनी चाहिए। 4: अपरिग्रह: किसी प्रकार के संग्रह की प्रवृत्ति वर्जित है। संग्रह करने से आसक्ति की भावना बढ़ती है। इसलिए मनुष्य को संग्रह का मोह छोड़ देना चाहिए। 5: ब्रह्मचर्य: इसका अर्थ है इन्द्रियों को वश में रखना। ब्रह्मचर्य का पालन भिक्षुओं के लिए अनिवार्य माना गया है।
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09-01-2013, 09:48 PM | #38 |
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Re: जानिए जैन धर्म को
प्रमुख संप्रदाय
महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात उनकी शिक्षा को लेकर जैन धर्म दो संप्रदायों में वि•ाक्त हो गया। एक मत ‘श्वेताम्बर’ कहलाया जिसके जिसके समर्थक स्थूलभद्र हुए और दूसरा मत ‘दिगम्बर’ कहलाया जिसके समर्थक भद्रबाहु हुए। इनमें कुछ भेद हैं। श्वेताम्बर श्वेत वस्त्र धारण करते थे जबकि दिगम्बर महावीर स्वामी की तरह वस्त्रहीन रहते थे। श्वेताम्बर स्त्री के लिए मोक्ष संभव मानते थे जबकि दिगम्बर इसके विरुद्ध थे। श्वेताम्बर ज्ञान प्राप्ति के बाद भोजन ग्रहण करने में विश्वास रखते थे, जबकि दिगम्बर के अनुसार आदर्श साधु को भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। श्वेताम्बर जैन अगमों- अंग, उपांग, प्रकीर्णक, वेदसूत्र, मूलसूत्र तथा अन्य में विश्वास करते थे जबकि दिगम्बर केवल 14 पूर्वों में विश्वास करते थे। श्वेताम्बर के अनुसार महावीर ने यशोदा से विवाह किया जबकि दिगम्बर के अनुसार विवाह नहीं किया। श्वेताम्बर 19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ को स्त्री मानते हैं जबकि दिगम्बर पुरुष। श्वेताम्बर पार्श्वनाथ के अनुयायी थे जबकि दिगम्बर महावीर स्वामी के। इन मतभेदों के बाद भी दोनों संप्रदायों का दार्शनिक आधार एक ही है। श्वेताम्बर संप्रदाय के प्रमुख आचार्य सिद्धसेन, दिवाकर, हरिभद्र, स्थूलभद्र आदि थे। दिगम्बर संप्रदाय के प्रमुख आचार्य भद्रबाहु, नेमिचंद, ज्ञानचंद, विद्यानंद आदि थे।
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11-01-2013, 05:35 PM | #39 |
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Re: जानिए जैन धर्म को
जैन आगम
जैन-साहित्य का प्राचीनतम भाग ‘आगम’ के नाम से कहा जाता है। ये आगम 46 हैं- अंग (12) : आयारंग, सूयगडं, ठाणांग, समवायांग, भगवती, नायाधम्मकहा, उवासगदसा, अंतगडदसा, अनुत्तरोववाइयदसा, पण्हवागरण, विवागसुय, दिठ्ठवाय। उपांग (12) : ओवाइय, रायपसेणिय, जीवाभिगम, पन्नवणा, सूरियपन्नति, जम्बुद्दीवपन्नति, निरयावलि, कप्पवडंसिया, पुप्फिया, पुप्फचूलिया, वण्हिदसा। पइन्ना (10) : चउसरण, आउरपचक्खाण, भत्तपरिन्ना, संथर, तंदुलवेयालिय, चंदविज्झय, देविंदत्थव, गणिविज्जा, महापंचक्खाण, वोरत्थव। छेदसूत्र (6) : निसीह, महानिसीह, ववहार, आचारदसा, कप्प (बृहत्कल्प), पंचकप्प। मूलसूत्र (4) : उत्तरज्झयण, आवस्सय, दसवेयालिय, पिंडनिज्जुति। नंदि और अनुयोग। आगम ग्रन्थ काफी प्राचीन है, तथा जो स्थान वैदिक साहित्य क्षेत्र में वेद और बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक का है, वही स्थान जैन साहित्य में आगमों का है। आगम ग्रन्थों में महावीर के उपदेशों तथा जैन संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाली अनेक कथा-कहानियों का संकलन है।
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13-01-2013, 07:59 AM | #40 |
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Re: जानिए जैन धर्म को
ऋषभदेव से जुडी है जैन धर्म की प्राचीनता
भारत के धर्म और इतिहास में दो धाराएँ एक प्रवृत्ति मार्गी और दूसरी निवृत्ति मार्गी हुई हैं। प्रवृत्ति सारिकता एवं भौतिकता का मार्ग दिखाती है तो निवृत्ति सांसारिकता से हटकर मोक्ष मार्ग की ओर ले ती है। निवृत्ति मार्गी इच्छाओं के निरोध पर जोर देते थे। आत्म-शुद्धि ही उनका मुख्य उद्देश्य था। निवृत्ति मार्गियों के आराध्य भगवान महावीर हुए हैं।आत्मशुद्धि ही उनका मुख्य उद्देश्य था। जैन धर्म के अनुसार तीर्थंकर एक युग या एक क्षेत्र में चौबीस ही होते हैं। भगवान महावीर भरत क्षेत्र व इस युग के चौबीसवें अंतिम तीर्थंकर थे। उनके पहले 23 तीर्थंकर और हो चुके हैं, जिनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं। इसके पहले नाभिनन्दन, यदुनन्दन, नेमिनाथ और काशीराजपुत्र पार्श्वनाथ आदि हो चुके हैं। भगवान महावीर के बाद तक भी उनके अनुयायी साधु या गृहस्थों को जैन नाम से नहीं जाना जाता था अपितु निर्ग्रंध नाम से पुकारा जाता था। ऐसा शायद ‘जिन’ अर्थात जितेन्द्रिय पुरुषों से सम्बन्ध के कारण कहा गया हो। भगवान महावीर से पहले यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अदिष्ट नेमि इन तीन तीर्थंकरों के नाम का उल्लेख है। भागवत पुराण में ऋषभदेव को जैन धर्म की परम्परा का संस्थापक बताया गया है। जैन परम्परा के प्रथम प्रणेता भगवान ऋषभदेव की स्मृति भागवत पुराण में उल्लेखित नहीं होती तो हमें ज्ञात ही नहीं हो पाता कि भारत के प्रारम्भिक इतिहास में, मतलब मनु की पाँचवी पीढी में एक राजा ने अपना राज्य कुशलता पूर्वक चलाया था और उसने कर्मण्यता व ज्ञान का प्रसार भी किया था। वह स्वयं में एक महान दार्शनिक था। उसने अपने जीवन के आचरण से सिद्ध किया था कि दुनिया में रहते हुए भी दुनिया से हटकर जीवन जिया जा सकता है। ऐसे महामानव को जैन परम्परा में प्रथम तीर्थंकर माना गया है। भागवत परम्परा में उसे विष्णु का अवतार मानकर भगवान ऋषभदेव कहा गया है। महाभारत में विष्णु के सहस्त्र नामों में श्रेयांस, अनंत, धर्म, शांति और सम्भवनाथ आये हैं और शिव नामों में ऋषभ, अजित, अनंत और धर्म नाम का उल्लेख है। विष्णु और शिव दोनो का सुव्रत दिया गया है। ये सभी नाम भगवान महावीर से पहले हुए 23 तीर्थंकरों में से हैं। इससे सिद्ध होता है कि जैन धर्म में तीर्थंकरों की परम्परा रही है, जो प्राचीन तो है ही। देश में दार्शनिक राजाओ की लंबी परम्परा रही है परंतु ऐसा विराट व्यक्तित्व दुर्लभ रहा है जो एक से अधिक परम्पराओं में समान रूप से मान्य व पूज्य रहा हो। भगवान ऋषभदेव उन दुर्लभ महापुरुषों में से एक हुए हैं। भागवत पुराण में उन्हें विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक माना गया है। वे आग्नीघ्र राजा नाभि के पुत्र थे। माता का नाम मरुदेवी था। दोनो परम्पराएँ उन्हें इक्ष्वाकुवंशी और कोसलराज मानती हैं। ऋषभदेव को जन्म से ही विलक्षण सामुद्रिक चिह्न थे। शैशवकाल से ही वे योग विद्या में प्रवीण होने लगे थे। जैन परम्पराओं की पुष्टि अनेक पुराणों से सिद्ध हो चुकी है। इन पुराणों के अनुसार ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर देश का नाम भारत पडा। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है के जैन परम्परा में भगवान ऋषभदेव की दार्शनिक, सांसारिक कर्मण्यशीलता पर अधिक जोर है जबकि भागवत परम्परा में उनकी दिगम्बरता पर अधिक बल दिया गया है। भगवान ऋषभदेव का समग्र परिचय पाने के लिये दोनो परम्पराओं का समुचित अध्ययन करना आवश्यक है। जैन परम्परा में कुलवरों की एक नामावली है, जिनमें ऋषभदेव 15वें और उनके पुत्र 16वें कुलकर हैं। कुलकर वे विशिष्ट पुरुष होते हैं, जिन्होंने सभ्यता के विकास में विशेष योगदान दिया हो। जैसे तीसरे कुलकर क्षेमंकर ने पशुओं का पालन करना सिखाया तो पाँचवें सीमन्धर ने सम्पत्ति की अवधारणा दी और उसकी व्यवस्था करना सिखाया। ग्यारहवें चन्द्राभ ने कुटुम्ब की परम्परा डाली और 15वें कुलकर ऋषभदेव ने अनेक प्रकार का योगदान समाज को दिया। युद्धकला, लेखनकला, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या आदि के माध्यम से समाज के जीवन विकास में महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया। जो लोग हमारे भारत में लेखन कला का प्रारम्भ बहुत बाद में होना मानते हैं उन्हें ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहिए। ब्राह्मी के नाम पर ही भारत की प्राचीनतम लिपि कहलाई है। भागवत परम्परानुसार ऋषभदेव को परम वीतरागी, दिगम्बर, परमहंस और अवधूत राजा के रूप में गुणगान शैली में लिखने वाला सश्रद्ध अर्थात सिर झुकाए हुए बताया गया है। आध्यात्मिक चिंतन की उच्चतम सीमा को छू लेने के पश्चात ऋषभदेव ने अजगर वृत्ति धारण कर ली थी तदनुसार वे अजगर के सदृश पडे रहते और खान पान लेटे-लेटे मिल जाता तो ग्रहण कर लेते अन्यथा नहीं मिलता तो भी इस अवस्था में तृप्त रहते थे। ऋग्वेद में शब्द वृषभ है। विशेषण के रूप में इसका अर्थ दार्शनिक होने का उल्लेख एकाधिक बार हुआ है। एक जगह ऋषभदेव का सम्बन्ध कृषि और गौपालन के संदर्भ में भी हुआ है, जो परम्परा की पुष्टि का द्योतक है। जैन परम्परा में सभी तेर्थंकरों में से सिर्फ ऋषभदेव को ही सिर के बाल लंबे होने के कारण केशी कहा गया है। इनकी कन्धों से नीचे तक केश वाली दो हजार वर्ष प्राचीन कुशाणकालीन दिगम्बर प्रतिमा भी मिली है।
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