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Old 05-09-2014, 07:26 PM   #391
jai_bhardwaj
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Default Re: छींटे और बौछार

स्मृतियों की घनी छाँव से क्या मिलता ?
जब नेह-डगर पर चलकर मेरा जी जलता
आह! तीक्ष्ण है शूल हृदय-'जय'-अन्तर में
दहके अंगारे मिलते,जब चाही है शीतलता
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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Old 05-09-2014, 07:27 PM   #392
jai_bhardwaj
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Default Re: छींटे और बौछार

विगत से सीखें, आगत देखें, बढ़ते ही जाएँ
धरा गगन की छाती पर बस चढ़ते ही जाएँ
रुकें नही व श्रांत न होवें 'जय' पल भर को,
जनमानस पर विजय पताका हम फहराएँ
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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Old 08-09-2014, 10:40 PM   #393
ndhebar
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Default Re: छींटे और बौछार

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Originally Posted by jai_bhardwaj View Post
विगत से सीखें, आगत देखें, बढ़ते ही जाएँ
धरा गगन की छाती पर बस चढ़ते ही जाएँ
रुकें नही व श्रांत न होवें 'जय' पल भर को,
जनमानस पर विजय पताका हम फहराएँ
उत्तम सिख जय भैया
__________________
घर से निकले थे लौट कर आने को
मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए
बिगड़ैल
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Old 09-09-2014, 05:22 PM   #394
jai_bhardwaj
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Default Re: छींटे और बौछार

आभार ढेबर बन्धु। धन्यवाद।
__________________
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Old 09-09-2014, 05:23 PM   #395
jai_bhardwaj
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Default Re: छींटे और बौछार

कभी जब आँख उठती थी, गगन से फूल झरते थे
कभी जब आँख झुकती थी, दिलों में शूल उठते थे
समय का चक्र घूमा 'जय' कि वह मझधार में डूबा
कभी जिसको सरलता से, हजारों कूल मिलते थे ||
__________________
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Old 09-09-2014, 06:16 PM   #396
Dr.Shree Vijay
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Thumbs up Re: छींटे और बौछार

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Originally Posted by jai_bhardwaj View Post
कभी जब आँख उठती थी, गगन से फूल झरते थे
कभी जब आँख झुकती थी, दिलों में शूल उठते थे
समय का चक्र घूमा 'जय' कि वह मझधार में डूबा
कभी जिसको सरलता से, हजारों कूल मिलते थे ||

कालचक्र का बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया.......


__________________


*** Dr.Shri Vijay Ji ***

ऑनलाईन या ऑफलाइन हिंदी में लिखने के लिए क्लिक करे:

.........: सूत्र पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दे :.........


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Old 25-09-2014, 06:35 PM   #397
jai_bhardwaj
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Default Re: छींटे और बौछार

धन्यवाद बन्धुओं। आभार।





"जय माता दी"

तुम्हे रातों में देखा तो, सितारों में दिखीं मुझको
तुम्हे दिन में निहारा तो, किरणों में मिली मुझको
मेरी पलकों में रहती हो, हृदय पथ पर टहलती 'जय',
मगर फिर भी नहीं मिलती तेरे मन की गली मुझको
__________________
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Old 25-09-2014, 10:07 PM   #398
rajnish manga
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Default Re: छींटे और बौछार

आपकी सुंदर कविता पढ़ कर मुझे अपनी ही कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं, वही पेश कर रहा हूँ:

जब से देखा तुझे हमने बहारों को नहीं देखा.
ज़मीं के ख्व़ाब देखे हैं सितारों को नहीं देखा.
तमन्ना मौज की करते हैं तूफ़ान से मोहब्बत में,
हमें अरसा हुआ हमने किनारों को नहीं देखा.
__________________
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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Old 30-09-2014, 11:18 AM   #399
rafik
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Default Re: छींटे और बौछार

शायद प्यार में नहीं था दोस्ती सा दम..
शायद इस लिए दोस्त साथ निभाता रहा
मुझे पता ना चला क्या ज्यादा था या कम
मगर प्यार तो रास्ते भर रुलाता रहा... तुम्हारे घर में दरवाज़ा है लेकिन तुम्हे खतरे का अंदाज़ा नहीं है
हमें खतरे का अंदाज़ा है लेकिन हमारे घर में दरवाज़ा नहीं है |
__________________


Disclaimer......!
"The Forum has given me all the entries are not my personal opinion .....! Copy and paste all of the amazing ..."
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Old 03-10-2014, 10:26 PM   #400
rajnish manga
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Default Re: छींटे और बौछार

इस सूत्र पर पोस्ट न. 400 भी भाई जय भारद्वाज जी की होनी चाहिए, यही सोच कर उनकी एक विशेष रचना जो उन्होंने दिसंबर 2012 में पोस्ट की थी, उद्धृत करना चाहता हूँ. आशा है सभी मित्रों को यह रचना दोबारा पढ़ कर दोगुना आनंद आयेगा:

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Originally Posted by jai_bhardwaj View Post
बन्धुओं, 24 वर्ष पूर्व 18 दिसंबर 1987 को रचित यह हिंदी ग़ज़ल आप सभी के सम्मुख प्रस्तुत है। कृपया आनंद लें। हार्दिक धन्यवाद।


नीरव एकाकी हृदय भवन में आज आ गया कोई।
शुभ्र धवलतम पृष्ठ पे अपना चित्र बना गया कोई।।

अब तक मेरा जीवन था एक बंजर धरती जैसा
वारि भरा जलधर बनके,झड़ी लगा गया कोई ।।

पतझड़ का था चिर निवास मेरे मन उपवन में
बन आह्लादक आमोदक, ऋतुराज छा गया कोई ।।

विरह वेदना बहती रहती, मेरे मन-अन्तर में
हर्ष भरे गीतों के लेकिन आज गा गया कोई ।।

खंडहर जैसा पडा हुआ था मेरा मनः पटल
बहुरंगी सपनों को लाकर वहाँ सजा गया कोई ।।

शव-सदृश व प्रवाहहीन थी सभी उमंगें मेरी
नवजीवन की वर्षा करके उन्हें जगा गया कोई ।।

विवशता के बंधन में आँसू ही बहाए हैं
सुना सुना कर छंद हास्य के, आज हँसा गया कोई ।।

बिखर गयी थी आशाएं, अनंत रात की चादर में
नई सुबह की सुखद बात की आस दिला गया कोई ।।

इच्छाओं के शुष्क पुष्प थे दुःख के आँचल में
उन्हें दृष्टि स्पर्श मात्र से, पुनः खिला गया कोई ।।

पूर्ण विराम प्राप्ति की इच्छा थी 'जय' प्राण पथिक की
अति समीप उद्देश्य विन्दु को आज हटा गया कोई ।।

नीरव एकाकी हृदय भवन में आज आ गया कोई।
शुभ्र धवलतम पृष्ठ पे अपना चित्र बना गया कोई।।
__________________
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