17-04-2013, 01:41 AM | #401 |
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Re: कतरनें
अंग्रेजों ने भारत में रेल सेवा की शुरूआत 16 अप्रैल 1853 को अपनी प्रशासनिक सुविधा के लिए की थी लेकिन 160 वर्ष बाद करीब 16 लाख कर्मचारियों, प्रतिदिन चलने वाली 11 हजार ट्रेनों, 7 हजार से अधिक स्टेशनों एवं करीब 65 हजार किलोमीटर रेलमार्ग के साथ ‘भारतीय रेल’ आज देश की जीवनरेखा बन गयी है। रेलवे के दस्तावेज के अनुसार 16 अप्रैल 1853 को मुम्बई और ठाणे के बीच जब पहली रेल चली, उस दिन सार्वजनिक अवकाश था। पूर्वाहन से ही लोग बोरीबंदी की ओर बढ रहे थे, जहां गर्वनर के निजी बैंड से संगीत की मधुर धुन माहौल को खुशनुमा बना रही थी। साढे तीन बजे से कुछ पहले ही 400 विशिष्ट लोग ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे के 14 डिब्बों वाली गाड़ी में चढे । चमकदार डिब्बों के आगे एक छोटा फाकलैंड नाम का भाफ इंजन लगा था। करीब साढे चार बजे फाकलैंड के ड्राइवर ने इंजन चालू किया, फायरमैन उत्साह से कोयला झोंक रहा था। इंजन ने मानो गहरी सांस ली और इसके बाद भाप बाहर निकलना शुरू हुई। सीटी बजने के साथ गाड़ी को आगे बढ़ने का संकेत मिला और उमस भरी गर्मी में उपस्थित लोग आनंदविभोर हो उठे। इसके बाद फिर से एक और सिटी बजी और छुक छुक करती हुए यह पहली रेल नजाकत और नफासत के साथ आगे बढी । यह ऐतिहासिक पल था जब भारत में पहली ट्रेन ने 34 किलोमीटर का सफर किया जो मुम्बई से ठाणे तक था। रेल का इतिहास काफी रोमांच से भरा है जो 17वीं शताब्दी में शुरू होता है। पहली बार ट्रेन की परिकल्पना 1604 में इंग्लैण्ड के वोलाटॅन में हुई थी जब लकड़ी से बनायी गई पटरियों पर काठ के डब्बों की शक्ल में तैयार किये गए ट्रेन को घोड़ों ने खींचा था। इसके दो शताब्दी बाद फरवरी 1824 में पेशे से इंजीनियर रिचर्ड ट्रवेथिक को पहली बार भाप के इंजन को चलाने में सफलता मिली। भारत में रेल की शुरूआत की कहानी अमेरिका के कपास की फसल की विफलता से जुड़ी हुई है जहां वर्ष 1846 में कपास की फसल को काफी नुकसान पहुंचा था। इसके कारण ब्रिटेन के मैनचेस्टर और ग्लासगो के कपड़ा कारोबारियों को वैकल्पिक स्थान की तलाश करने पर विवश होना पड़ा था। ऐसे में भारत इनके लिए मुफीद स्थान था। अंग्रेजो को प्रशासनिक दृष्टि और सेना के परिचालन के लिए भी रेलवे का विकास करना तर्क संगत लग रहा था। ऐसे में 1843 में लार्ड डलहौजी ने भारत में रेल चलाने की संभावना तलाश करने का कार्य शुरू किया। डलहौजी ने बम्बई, कोलकाता, मद्रास को रेल सम्पर्क से जोड़ने का प्रस्ताव दिया। हालांकि इस पर अमल नहीं हो सका। इस उद्देश्य के लिए साल 1849 में ग्रेट इंडियन पेंनिनसुलर कंपनी कानून पारित हुआ और भारत में रेलवे की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ।
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17-04-2013, 01:50 AM | #402 |
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Re: कतरनें
गोपाल सिंह नेपाली की पुण्यतिथि के अवसर पर
जब दुकानदार ने लौटा लिया पुराना कार्बन कलम की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली लहरों की धारा के विपरीत चल कर हिन्दी साहित्य, पत्रकारिता और फिल्म उद्योग में ऊंचा स्थान हासिल करने वाले छायावादोत्तर काल के विशिष्ट कवि और गीतकार थे। बिहार के पश्चिम चंपारण जिले के बेतिया में 11 अगस्त 1911 को जन्मे गोपाल सिंह नेपाली की काव्य प्रतिभा बचपन में ही दिखाई देने लगी थी। एक बार एक दुकानदार ने बच्चा समझकर उन्हें पुराना कार्बन दे दिया, जिस पर उन्होंने वह कार्बन लौटाते हुए दुकानदार से कहा, इसके लिए माफ कीजिएगा गोपाल पर ... सड़ियल दिया है आपने कार्बन निकाल कर। उनकी इस कविता को सुनकर दुकानदार काफी र्शमिंदा हुआ और उसने उन्हें नया कार्बन निकाल कर दे दिया। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में पारंगत नेपालीजी की पहली कविता भारत गगन के जगमग सितारे 1930 में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। पत्रकार के रूप में उन्होंने कम से कम चार हिन्दी पत्रिकाओं रतलाम टाइम्स, चित्रपट, सुधा और योगी का सम्पादन किया। युवावस्था में नेपालीजी के गीतो की लोकप्रियता से प्रभावित होकर उन्हें आदर के साथ कवि सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा। उस दौरान एक कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर उनके एक गीत को सुनकर गद्गद हो गए। वह गीत था सुनहरी सुबह नेपाल की ढलती शाम बंगाल की कर दे फीका रंग चुनरी का दोपहरी नैनीताल की क्या दरस परस की बात यहां जहां पत्थर में भगवान है यह मेरा हिन्दुस्तान है, यह मेरा हिन्दुस्तान है...।
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17-04-2013, 01:55 AM | #403 |
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Re: कतरनें
डॉ. राधाकृष्णन की पुण्यतिथि पर
आदर्श शिक्षक, अद्वितीय राजनेता वर्तमान परिदृश्य पर नजर डालें तो हम यह साफ देख सकते हैं कि कुछ समय पहले जहां शिक्षा का प्रचार-प्रसार धर्म समझा जाता था आज वहीं यह शुद्ध व्यवसाय और धन अर्जित करने का बेहतर माध्यम बन गया है। लेकिन भारत जैसे महान देश में शिक्षक ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने ज्ञान का प्रसार केवल पैसा कमाने के लिए ही नहीं बल्कि विद्यार्थियों को सही मार्ग पर चलाने और उन्हें अच्छा नागरिक बनाने के लिए किया। इन्ही में से एक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ना सिर्फ उत्कृष्ट अध्यापक थे बल्कि भारतीय संस्कृति के महान ज्ञानी, दार्शनिक, वक्ता और विज्ञानी हिंदू विचारक भी थे। राधाकृष्णन ने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किए। उनके जन्मदिन को आज भी पूरे देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने तामउम्र देश में शिक्षा के स्तर को बेहतर बनाने का प्रयास करते रहे, लेकिन बढ़ती उम्र और बीमारियों के सिलसिले के चलते 17 अप्रेल, 1975 को उन्होंने देह त्याग दिया था। जीवन परिचय स्वतंत्र भारत के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर, 1888 को तमिलनाडु के पवित्र तीर्थ स्थल तिरुतनी ग्राम में हुआ था। इनके पिता सर्वपल्ली विरास्वामी गरीब किंतु विद्वान ब्राह्मण थे। इनके पिता पर बड़े परिवार की जिम्मेदारी थी इस कारण राधाकृष्णन को बचपन में कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वह शुरू से ही मेधावी छात्रों में गिने जाते थे। अपने विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने बाइबल के महत्वपूर्ण अंश याद कर लिए थे, जिसके लिए उन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान भी मिला। वर्ष 1902 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की जिसके लिए उन्हें छात्रवृत्ति मिली। कला संकाय में स्नातक करने के बाद उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर किया और जल्द ही मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। जानकारियां देना शिक्षा नहीं शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन ने जो अमूल्य योगदान दिया वह निश्चय ही अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। यद्यपि वे एक जाने-माने विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे, फिर भी जीवन के उत्तरार्द्ध में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में सतत योगदान करते रहे। उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है। उनका मानना था कि मात्र जानकारियां देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व है और आधुनिक युग में तकनीक की जानकारी महत्वपूर्ण भी है फिर भी व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतांत्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है। ये बातें व्यक्ति को उत्तरदायी नागरिक बनाती हैं। शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति। वह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं। वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने अनेक वर्षों तक अध्यापन किया। एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। उनका कहना था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनाया जाना चाहिए जो सबसे अधिक बुद्धिमान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। उसे अपने छात्रों का स्नेह और आदर अर्जित करना चाहिए। सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है। डॉ. राधाकृष्णन को दिए गए सम्मान शिक्षा और राजनीति में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए महान दार्शनिक शिक्षाविद और लेखक डॉ. राधाकृष्णन को देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न दिया गया। राधाकृष्णन के मरणोपरांत उन्हें मार्च 1975 में अमेरिकी सरकार द्वारा टेम्पलटन पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो कि धर्म के क्षेत्र में उत्थान के लिए प्रदान किया जाता है। इस पुरस्कार को ग्रहण करने वाले यह प्रथम गैर-ईसाई सम्प्रदाय के व्यक्ति थे। उन्हें आज भी शिक्षा के क्षेत्र में एक आदर्श शिक्षक के रूप में याद किया जाता है। राजनीतिक जीवन 1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉ. राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। यहां तक कि संविधान में उनके लिए उपराष्ट्रपति का नया पद तक बनाया गया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। बाद में पं. नेहरू का यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिए काफी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं। सितम्बर, 1952 में इन्होंने यूरोप और मिडिल ईस्ट देशों की यात्रा की ताकि नए राष्ट्र हेतु मित्र राष्ट्रों का सहयोग मिल सके। वर्ष 1962 में वे भारत के राष्ट्रपति चुने गए। उन दिनों राष्ट्रपति का वेतन 10 हजार रुपए मासिक था लेकिन प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मात्र ढाई हजार रुपए ही लेते थे और शेष राशि प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय राहत कोष में जमा करा देते थे। डॉ. राधाकृष्णन ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की इस गौरवशाली परम्परा को जारी रखा। देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचकर भी वे सादगीभरा जीवन बिताते रहे। 17 अप्रेल 1975 को हृदयाघात के कारण उनका निधन हो गया।
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17-04-2013, 04:18 AM | #404 |
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Re: कतरनें
नई किताब
वनों की निगरानी का अच्छा साधन हैं तितलियां तितलियां और छोटे-छोटे पतंगे जैव-सूचकों के रूप में काम करते हैं। उनकी इस विशेषता को देखते हुए एक नई किताब में कहा गया है कि इनका इस्तेमाल हमारे वनों की सेहत की निगरानी करने वाले एक प्रभावी साधन के रूप में किया जा सकता है। ‘बटरफ्लाईज आन द रूफ आफ द वर्ल्ड’ नामक पुस्तक में प्रकृति विज्ञानी पीटर स्मेटासेक लिखते हैं, ‘वन की सेहत का आकलन करने के लिए वे स्थानीय प्रजातियां लाभदायक होंगी, जो कि साल दर साल एक नियमित समय के दौरान सीमित क्षेत्र में पाई जाती हैं।’ एलेफ द्वारा प्रकाशित किताब में वह कहते हैं कि अगर कोई यह समझ ले कि ये प्राणी किसी और इलाके में जाकर क्यों नहीं रहते हैं तो वह अपने आप ही समझ जाएगा कि कोई घाटी या पहाड़ी ढलान विशेष क्यों महत्वपूर्ण है। भारतीय तितलियों और पतंगों के बारे में विशेषज्ञता रखने वाले स्मेटासेक विज्ञान के लिए नई लगभग एक दर्जन प्रजातियों की व्याख्या कर चुके हैं। वे उत्तराखंड के भीमताल में तितली अनुसंधान केंद्र भी चलाते हैं। इस कीटविज्ञानी के अनुसार, इन जीवित प्राणियों की मौजूदगी या गैर मौजूदगी का इस्तेमाल पर्यावरण की सेहत को दर्शाने के लिए किया जा सकता है क्योंकि ये जैव-सूचक हैं। कीट-पतंगों की रंग-बिरंगी दुनिया के रहस्यों को स्मेटासेक पश्चिमी हिमालयों में पाई जाने वाली गोल्डन बर्डविंग नामक तितलियों के उदाहरण के जरिए समझाते हैं। किताब कहती है, ‘अगर किसी को गोल्डन बर्डविंग्स अपने आसपास नहीं मिलती है तो इसका मतलब है कि वहां आसपास कोई भी सदाबहार जलस्रोत नहीं है। अगर वहां बर्डविंग्स हैं तो निश्चत तौर पर कहा जा सकत है कि वहां एरिस्टोलोशिया डाईलाटाटा नामक विकसित पौधे हैं, जिनके लिए पर्याप्त मात्रा में पानी की जरूरत होती है। इसलिए इसका अर्थ है कि आसपास कोई न कोई जलधारा होनी ही चाहिए।’ अगर किसी इलाके से बर्डविंग्स गायब होने लग जाएं ते इसका अर्थ होगा कि वहां की जलधाराएं मौसमी होने लगी हैं और एरिस्टोलोशिया पौधे पूरी तरह विकसित नहीं हो पा रहे। लेखक बताते हैं कि किस तरह तितलियां और उनके लारवा अपने भोजन और रिहाईश के लिए पौधों पर निर्भर करते हैं। वहीं अगर पौधों के जीवन की बात की जाए तो इसके लिए वह जलस्रोतों की मौजूदगी पर निर्भर करते हैं। इसमें भूजलस्रोत भी शामिल हैं। ये तितलियां उन्हीं वनों में पाई जाती हैं, जिनमें उनके पंखों के आकार की पत्तियां पाई जाती हैं। किताब में कहा गया, ‘एक वन में कई पेड़ एक समान पत्तियों वाले होते हैं। उनके बीच इन तितलियों की पहचान करना काफी मुश्किल होता है। हालांकि चीड़ के वनों में तितलियों के सूखी पत्तियों की आकृति और प्रारूप ध्यान आकर्षित करने का काम करेंगी क्योंकि चीड़ के पेड़ों उनके जैसा कुछ न होगा।’ निजी अनुभव की कहानियों से भरी यह किताब एक बड़ा समय वनों और चारगाहों में तितलियों के पीछे भागने और उन्हें पकड़ने का परिणाम है। इसका सार यही है कि वह समय आ रहा है, जब तितलियां हमारे वनों की निगरानी में हमारी मदद किया करेंगी।
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17-04-2013, 10:04 AM | #405 |
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Re: कतरनें
[QUOTE=Dark Saint Alaick;259245]
गोपाल सिंह नेपाली की पुण्यतिथि के अवसर पर नेपाली जी अपनी तमाम विसंगतियों, कष्टों और विरोधाभासों के बावजूद आम जन के संघर्षों में शामिल रहे और उनके प्रति समर्पित रहे. वे सस्ती लोकप्रियता से सदा परे रहे और उन्होंने आर्थिक संकट व फिल्मों में घाटे से जूझते हुए भी कवि ने अपनी लेखनी से अपने संकटों का रोना नहीं रोया. उन्होंने कहा था: अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी सो न सका ... ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुख-शैया पर भी सो न सका ... उनकी जन्म-शती को वर्ष भर हो चुका है. इस अवसर पर उनकी कविता 'मेरा धन है स्वाधीन कलम' से कुछ पंक्तियाँ: तुलसी चंदा तो सूर सूर, केशव से तारे दूर-दूर बाकी हैं जुगनू, मैं तो बस जागरण पक्ष में चूर-चूर रवि लाने वाला दीपक हूँ, मेरी लौ मैं लवलीन कलम. बस मेरे पास ह्रदय भर है, यह भी जग को न्यौछावर है, लिखता हूँ तो मेरे आगे सारा ब्रह्माण्ड विषय-भर है, रंगती चलती संसार-पटी यह सपनों की रंगीन कलम. ..... आदत न रही कुछ लिखने की, निंदा-वंदन-खुदगर्जी से ... उड़ने को उड़ जाए नभ में, पर छोड़े नहीं ज़मीन कलम ... उनकी स्मृति को हमारा श्रद्धा वंदन और नमन. Last edited by rajnish manga; 17-04-2013 at 10:14 AM. |
20-04-2013, 03:57 PM | #406 |
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Re: कतरनें
शकील बदायूंनी की पुण्यतिथि पर
शायद आगाज हुआ है फिर किसी अफसाने का ... अपने पुरकशिश नग्मों के जरिये रूपहले पर्दे पर रूमानियत को नयी शक्ल देने वाले मशहूर शायर शकील बदायूंनी बेशक एक ऐसे अदीब थे जिन्होंने देखने-सुनने वालों को मुहब्बत के नये पहलुओं और कशिश से रूबरू कराया और अपनी अमिट छाप छोड़ी। उत्तर प्रदेश के बदायूं शहर में तीन अगस्त 1916 को जन्में शकील ने कालजयी फिल्म मुगल-ए-आजम, चौदहवीं का चांद, साहब बीवी और गुलाम, मदर इंडिया, घराना, गंगा-जमुना और मेरे महबूब समेत अनेक फिल्मों में यादगार गीत लिखकर सुनने वालों के दिलों में आशियाना बनाया। शकील ने उर्दू शायरी में अपने रास्ते खुद चुने और ऐसे फलक पर पहुंचे जिसे देखकर आज की शायर पीढी शायद रश्क करती होगी। शकील बदायूंनी से शायरी की बुनियादी बारीकियां सीखने वाले प्रख्यात शायर पूर्व राज्यसभा सांसद बेकल उत्साही ने इस शायर के अदबी पहलू का जिक्र करते हुए बताया कि इश्क को खास अहमियत देने वाले शकील की गजलों में गजब की कशिश थी। उन्होंने कहा कि शकील ने जितने फिल्मी गीत लिखे वे निहायत अदबी थे। उनके हर लफ्ज में गहरे मायने छुपे होते थे और उन्होंने उर्दू के अल्फाज, अदाओं और कशिश को इस शिद्दत से आम अवाम तक पहुंचाया कि वह उनका मतलब समझने लगी। वह बेशक उर्दू के ऐसे दूत थे जिन्होंने इस जबान की चाश्नी को आम लोगों तक पहुंचाया। बेकल ने बताया कि वैसे तो शकील ने अनेक फिल्मी संगीतकारों के साथ काम किया लेकिन नौशाद उन्हें सबसे ज्यादा अहमियत देते थे। इसका नतीजा मुगल-ए-आजम समेत अनेक फिल्मों के गीतों के रूप में सामने आया जो आज भारतीय सिनेमा का बेशकीमत सरमाया हैं। बेकल उत्साही के मुताबिक उर्दू शायरी और उसकी विधाओं से जुड़ी तहजीब को संजोने में भी शकील का अहम योगदान रहा। इस शायर ने कभी मुशायरे पढने के लिये रकम नहीं मांगी। बेशक, शकील ने मुशायरे के मंचों को बुलंदी पर पहुंचाया। उन्होंने कहा कि वह शकील से बहुत प्रभावित रहे हैं और जब उन्होंने उर्दू शायरी की दुनिया में कदम रखा था तब शकील बुलंदी पर थे। ऐसे में उन्हें उनसे उर्दू मौसीकी के बारे में काफी कुछ सीखने को मिला। बचपन से ही शायरी की तरफ झुकाव रखने वाले शकील ने अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से तालीम हासिल की और वहां शुरुआत से ही मुशायरों में हिस्सा लेकर मकबूलियत बटोरनी शुरू कर दी। वर्ष 1944 में शकील मुम्बई चले आये और वर्ष 1947 में बनी फिल्म ‘दर्द’ के लिये गीत लिखने के साथ अपने सुनहरे सफर की शुरुआत की। संगीतकार नौशाद के साथ शकील ने बैजू बावरा, मदर इंडिया, मुगल-ए-आजम, दुलारी, शबाब और गंगा-जमुना जैसी फिल्मों में यादगार नग्मे लिखे। इसके अलावा उन्होंने संगीतकार रवि और हेमंत कुमार के साथ भी काम किया। फिल्म ‘घराना’ के गीत ‘हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं’ के लिये शकील को सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। उसके बाद वर्ष 1960 में बनी हेमंत कुमार की ‘चौदहवीं का चांद’ फिल्म के शीर्षक गीत के लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार के एक और फिल्मफेयर अवार्ड से नवाजा गया। हिन्दुस्तानी सिने जगत में अपने गीतों की गूंज छोड़कर शकील ने 20 अप्रैल 1970 को दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन अपने नग्मों की शक्ल में वह हमेशा हमारे दिलों में रहेंगे।
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29-04-2013, 07:09 AM | #407 |
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Re: कतरनें
29 अप्रैल को सातवीं पुण्यतिथि पर विशेष
पैर कटवाने की डॉक्टरी सलाह ठुकरा दी थी शंकर लक्ष्मण ने हॉकी गोल पोस्ट के सामने अंगद की तरह पैर जमाकर भारत को ओलंपिक में दो बार सुनहरी कामयाबी दिलाने वाले शंकर लक्ष्मण का जुझारूपन उनके आखिरी दम तक कायम रहा था। भारत के जुझारू गोलची का पैर उनके जीवन की संध्या बेला में गैंगरीन का शिकार हो गया था। डॉक्टरों की सलाह थी कि इसे कटवा लिया जाये, ताकि बीमारी शरीर में फैल न सके। मगर उन्होंने इस सलाह को ठुकरा दिया था और प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से अपने पैर का इलाज जारी रखा था। बीमारी से जूझते हुए 29 अप्रैल 2006 को लक्ष्मण ने यहां से करीब 20 किलोमीटर दूर अपनी जन्मस्थली महू में दम तोड़ दिया था। लेकिन जब भी भारतीय हॉकी के स्वर्णिम इतिहास के पन्ने पलटे जाते हैं, इस धाकड़ गोलची का जिक्र बरबस ही छिड़ जाता है। वह हॉकी इतिहास में पहले ऐसे गोलची थे, जिसने किसी अंतरराष्ट्रीय टीम की कप्तानी का गौरव हासिल किया था। लक्ष्मण की गिनती हॉकी के सर्वकालिक महान खिलाड़ियों में होती है और पचास व साठ के दशक में भारत के राष्ट्रीय खेल को देश में धर्म जैसा दर्जा दिलाने में उनकी अहम भूमिका थी। वर्ष 1964 के तोक्यो ओलंपिक में भारत की 1-0 से पाकिस्तान के खिलाफ खिताबी जीत में लक्ष्मण के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। खेल के जानकारों के मुताबिक लक्ष्मण ने उस जमाने में गोल बचाने की भूमिका को नये सिरे से परिभाषित किया और साबित कर दिया कि एक गोलची भी अपने बूते टीम को जीत दिला सकता है। बहरहाल, महू में सात जुलाई 1933 को जन्मे लक्ष्मण ने अपनी सफलता की इबारत उस दौर में लिखी, जब गोलची न तो छाती ढंकने वाला गार्ड पहनता था, न ही सिर बचाने के लिये हेलमेट। उसके पास रक्षा कवच के नाम पर होते थे तो सिर्फ मामूली पैड्स और हॉकी स्टिक। तोक्यो ओलंपिक (1964) से पहले लक्ष्मण मेलबर्न (1956) और रोम (1960) में आयोजित ओलंपिक में भी अपने खेल के जौहर दिखा चुके थे। तीनों खिताबी मुकाबलों में खास बात यह भी थी कि इनमें भारत का मुकाबला परंपरागत प्रतिद्वन्द्वी पाकिस्तान से था। इनमें भारत को दो बार स्वर्ण और एक बार रजत पदक हासिल हुआ।
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10-05-2013, 12:55 PM | #408 |
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Re: कतरनें
पुण्यतिथि 10 मई पर विशेष
अदब का बेजोड़ सरमाया है कैफी की ‘कैफियत’ ‘यूं ही कोई मिल गया था...’ जैसे यादगार नग्मों के जरिये कलम की रोशनी से रूमानियत की गहराइयों को नापने वाले मशहूर शायर और गीतकार कैफी आजमी की बहुरंगी ‘कैफियत’ उर्दू अदब का बेजोड़ सरमाया है और उनका साहित्य रोशनाई के जरिये समाज में बदलाव लाने की उनकी पुरजोर कोशिशों का अक्स भी पेश करता है। प्रगतिशील लेखकों के दौर के अग्रदूतों में शुमार कैफी आजमी ने जिंदगी के मुख्तलिफ पहलुओं पर कलम चलाई। उनकी रचनाओं में जहां रूमानियत का रंग बेहद चटख नजर आता है वहीं, उनके अनेक नग्मे जिन्दगी की स्याह-सफेद सचाई को भी उनके असल रूप में सामने रखकर सोचने पर मजबूर करते हैं। तरक्कीपसंद शायरों में कैफी का नाम अगली पांत में खड़े शायरों में जरूर शामिल किया जाएगा। वह एक इंकलाबी शायर थे और उन्होंने कलम की रूह को जिंदा रखने के लिये कोई समझौता नहीं किया। एक फिल्म गीतकार के रूप में भी कैफी ने कभी मूल्यों का दामन नहीं छोड़ा। जांनिसार अख्तर, शहरयार और साहिर जैसे अपने दौर के मशहूर नग्मानिगारों की तरह कैफी ने भी फिल्मी गीतों में उर्दू के कद और उसकी सभी नजाकतों को बरकरार रखा। कैफी का मानना था कि शायरी का इस्तेमाल समाज में बदलाव के औजार के तौर पर किया जाना चाहिये और अपनी इसी सोच को अमली जामा पहनाते हुए उन्होंने साम्प्रदायिक, धार्मिक कट्टरता और महिलाओं पर जुल्म के खिलाफ ढेरों शेर और कविताएं लिखीं। उनकी लिखी ‘औरत’, ‘मकान’, ‘दायरा’, ‘सांप’ और ‘बहूरानी’ शीर्षक वाली कविताएं औरतों की हालत पर उनकी फिक्र का दर्द पेश करती हैं। कैफी की रचनाओं के दर्शन और उनमें गुथी राष्ट्रवाद तथा सुधारवाद की भावना की थाह लेना आसान नहीं है। वर्ष 1919 में उत्तर प्रदेश के आजमगढ स्थित मिजवां नाम के छोटे से गांव के जमींदार खानदान में जन्मे कैफी आजमी का असली नाम अतहर हुसैन रिजवी था। महज 19 साल की उम्र में मुम्बई आए कैफी ने साल 1952 में शाहिद लतीफ द्वारा निर्देशित फिल्म ‘बुजदिल’ के लिये पहला गीत लिखा और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कैफी ने ‘शमा’, ‘कागज के फूल’, ‘शोला और शबनम’, ‘अनुपमा’, ‘आखिरी खत’, ‘हकीकत’, ‘हंसते जख्म’, ‘अर्थ’ और ‘हीर रांझा’ समेत अनेक फिल्मों को अपने गीतों से सजाया। उन्होंने जिन फिल्मों में गीत लिखे उनमें से कुछ बाक्स आफिस पर भले ही सफल नहीं हो सकीं लेकिन उनके नग्मों ने कामयाबी की नयी इबारतें लिखीं। वर्ष 1973 में इस्मत चुगताई की अप्रकाशित कहानी पर आधारित फिल्म ‘गरम हवा’ के लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ कहानी, पटकथा और संवाद के लिये फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया था। इसके पूर्व वर्ष 1970 में उन्हें ‘सात हिन्दुस्तानी’ फिल्म के लिये सर्वश्रेष्ठ गीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। इसके अलावा उन्हें पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार, महाराष्ट्र गौरव अवार्ड तथा युवा भारतीय पुरस्कार के अलावा एफ्रो-एशियन राइटर्स लोटस अवार्ड जैसे अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाजा गया था। कैफी की किताबें एवं कविता संग्रह ‘कैफियत’, ‘आवारा सजदे’, ‘सरमाया’, ‘मेरी आवाज सुनो’, ‘नयी गुलिस्तान’ और ‘जहर-ए-इश्क’ कद्रदानों के लिये किसी खजाने से कम नहीं हैं। अदब की दुनिया को अपनी कृतियों से मालामाल करके यह अजीम शायर 10 मई 2002 को इस दुनिया को हमेशा के लिये अलविदा कहकर चला गया।
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13-05-2013, 05:36 AM | #409 |
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Re: कतरनें
जीवन पर एक नज़र
नवाज शरीफ : पाकिस्तान में गरजा पंजाब का शेर पाकिस्तान में तीसरी बार वजीरे आजम का ताज पहनने जा रहे नवाज शरीफ को ‘पंजाब का शेर’ कहा जाता है, जिन्होंने भारत के साथ अमन का दौर वापस लाने का वादा किया है और जिन्हें देश की छिली कटी अर्थव्यवस्था पर मरहम लगाने वाले हाथ के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन उन्हें तालिबान के प्रति नरम भी माना जाता है। इस्पात कारोबारी नवाज फौलादी हौसले के साथ पाकिस्तान की सत्ता की ओर पेशकदमी कर रहे हैं। 1999 में बगावत के बाद सत्ता से बेदखल किए जाने और फिर जेल और निष्कासन का दुख झेलने वाले शख्स के लिए इतने तूफानी तरीके से सियासत की चोटी पर पहुंचना आसान नहीं था। शनिवार को हुए ऐतिहासिक आम चुनाव के वोटों की गिनती का काम अभी चल रहा है। शरीफ ने अपनी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-एन के मुख्यालय से जीत का ऐलान कर दिया है । पाकिस्तान टेलीविजन के अनुमान के अनुसार नवाज की पार्टी 125 सीटों पर बढत के साथ सत्ता की ओर बड़े मजबूत कदमों से बढ़ती दिखाई दे रही है। ऐसा लग रहा था कि इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी इन चुनाव में बाकी सब पर भारी पड़ेगी, लेकिन यह अनुमान गलत साबित हुए और इमरान को 34 सीटें मिलने का अंदाजा लगाया जा रहा है। 63 वर्षीय नवाज शरीफ ने देश की बदहाल अर्थव्यवस्था को नयी राह दिखाने, सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार कम करने, लाहौर से कराची तक मोटरवे बनाने और बुलेट ट्रेन चलाने का वादा किया है। प्रधानमंत्री के तौर पर शरीफ का कार्यकाल 1999 में खत्म हुआ, जब सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ ने रक्तहीन बगावत के दम पर उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया। उसके बाद के नाटकीय घटनाक्रम में नवाज अर्श से फर्श पर आन गिरे और उन्हें जेल में डाल दिया गया। उनपर मुशर्रफ को ला रहे विमान को उतरने से रोकने का प्रयास करने के आरोप लगे और लगा जैसे इस बंदे पर उपर वाले की ‘नवाजिश’ अब नहीं रही। इसके बाद के आठ बरस नवाज सउदी अरब में निर्वासन में रहे और फिर 2007 में वापस लौटे और पीपीपी के साथ मिलकर मुशर्रफ को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने का इंतजाम किया। इसे इत्तफाक ही कहेंगे कि एक वक्त नवाज की जो हालत थी, आज मुशर्रफ का वही हाल है। वह चुनाव में भाग लेने के लिए स्व निर्वासन से वापस पाकिस्तान लौटे और यहां कई तरह के इल्जामात में धर लिए गए। शरीफ हालांकि कह चुके हैं कि मुशर्रफ से उनकी कोई रंजिश नहीं है, लेकिन उन्होंने साफ शब्दों में यह ऐलान भी किया कि अगर वह सत्ता में वापस लौटे, तो पूर्व सैनिक शासक पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाएगा। अपने प्रचार के दौरान शरीफ ने भारत के साथ शांति प्रक्रिया बहाल करने की हिमायत की। उन्होंने कहा, ‘हमें बातचीत के सिरे को वहीं से उठाना है, जहां हमने 1999 में छोड़ा था। वह ऐतिहासिक मौका था और मैं वहीं से उस रास्ते पर आगे जाना चाहूंगा ... हम सब इस बात पर राजी हैं कि हमें तमाम समस्याओं को हल करना होगा, हम शांतिपूर्ण तरीके से बातचीत के जरिए तमाम मुश्किलें सुलझाएंगे।’ शरीफ ने कहा था, ‘हम उस वक्त को फिर वापस लाना चाहते हैं और उसी मुकाम से अपना सफर दोबारा शुरू करेंगे।’ उन्होंने अपने चुनाव प्रचार में अर्थव्यवस्था पर भी खासा जोर दिया गया। संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में पाकिस्तान को 186 देशों में 146वां स्थान दिया गया है। यह सूचकांक देश के लोगों के रहन सहन, स्वास्थ्य और शिक्षा के आधार पर उसका स्थान निर्धारित करता है। शरीफ ने ‘मजबूत अर्थव्यवस्था-मजबूत पाकिस्तान’ का नारा देकर जैसे अपने मुल्क के लोगों की दुखती रग पर हाथ रख दिया और देश की आवाम उन्हें अर्थव्यवस्था को बदहाली से निकालने में अहम किरदार निभाते देखना चाहती है। शरीफ ने 1990 के दशक में अपने कार्यकाल के दौरान अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के कदम उठाए थे। आर्थिक मोर्चे पर नवाज शरीफ की उपलब्धियां जहां लोगों में उम्मीद की किरण जगाती हैं, वहीं पाकिस्तानी तालिबान के लिए उनके दिल में मुलायम कोना है उससे ला्रेग चिंतित भी हैं। वह तालिबान के सैन्य नरसंहार की बजाय उन्हें बातचीत के जरिए मुख्य धारा में लाने के हामी हैं। लाहौर के एक धनी मानी परिवार में 1949 में जन्मे नवाज शरीफ ने प्राइवेट स्कूलों से शुरूआती शिक्षा ग्रहण करने के बाद पंजाब विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली और उसके बाद अपने पिता की स्टील कंपनी में काम करने लगे। 1970 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के शासनकाल में राष्ट्रीयकृत निजी उद्योगों के राष्ट्रीयकरण से इनके परिवार को बहुत नुकसान उठाना पड़ा और नवाज शरीफ के कदम सियासत की ओर मुड़ गए। जिया-उल-हक की रहनुमाई में शरीफ पहले वित्त मंत्री बने और फिर 1985 में पंजाब के मुख्य मंत्री के ओहदे तक पहुंचे। वह 1990 में प्रधानमंत्री बनने तक इस ओहदे पर बने रहे। उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते सत्ता छोड़ देनी पड़ी और उनकी परंपरागत प्रतिद्वंद्वी बेनजीर भुट्टो ने उनकी जगह ले ली।
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21-05-2013, 02:19 AM | #410 |
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Re: कतरनें
जयंती पर विशेष
प्रकृति के चित्रकार सुमित्रानंदन हिंदी साहित्य में छायावाद को स्वर्णिम युग माना जाता है, इस युग के रचनाकारों में तीन सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत प्रमुख हैं, तीनों अलग-अलग हैं। पंत की शुरुआत छायावादी थी, लेकिन बाद में उन्होंने बदलाव किया। पंत ने अपनी रचनाओं की शुरुआत छायावादी परम्परा के रूप में की। उनकी कई रचनाओं में प्रकृति का सुंदर चित्रण देखा जा सकता है। साहित्यकार रामदरश मिश्र कहते हैं, ‘पंत की तरह किसी और ने प्रकृति का वर्णन नहीं किया। प्रकृति के चित्रण में वह सब पर हावी थे।’ आजीवन अविवाहित रहे हिन्दी साहित्य के इस महत्त्वपूर्ण लेखक ने तीन नाटक, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक संस्मरण संकलन सहित करीब चालीस पुस्तकें लिखीं, जो उनकी निरन्तर सृजनशीलता को रेखांकित करती हैं। ‘गुंजन’, ‘वीणा’ आदि छायावादी कृतियों से शुरू हुआ यह साहित्यिक सफर अरविन्द-दर्शन और साम्यवादी युग-चेतना से प्रभावित ग्रंथों ‘युगांत’, ‘स्वर्णकिरण’, ‘उत्तरा’, 'पतझड़’, ‘शिल्पी’ में सिमटता हुआ ‘कला और बूढ़ा चांद’ जैसी यथार्थवादी रचना तक पहुंचा। इस रचना पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। वात्सल्य-रस की रचनाएं पंत का जन्म 20 मई, 1900 को उत्तराखंड में कुमाऊं के कौसानी गांव में हुआ था। उनके पैदा होने के कुछ घंटों बाद ही पंत की मां का स्वर्गवास हो गया। उनका नाम गोसेन दत्त रखा गया। पंत ने जब होश संभाला तो उन्हें अपने नाम से चिढ़ होने लगी और स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपना नाम सुमित्रानंदन पंत रख लिया। वह पढ़ाई के लिए इलाहाबाद पहुंचे। महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन में पंत भी शामिल हुए और इस दौरान उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। इसके बावजूद उन्होंने अपने स्तर पर अध्ययन जारी रखा। हिंदी साहित्य में पंत की कुछ महत्वपूर्ण रचनाएं ‘पल्लव’, ‘ग्रंथि’, ‘ग्राम्या’ और ‘गुंजन’ प्रमुख हैं। पंत ने भावों और विचारों को मूर्तरूप प्रदान करने के दृष्टिकोण से ‘लोकायतन’ नामक संस्था की शुरुआत की किन्तु इसमें कुछ समय उन्हें खास कामयाबी नहीं मिली। फिर वर्ष 1938 में पंत जी ने ‘रूपाभ’ नामक एक प्रगतिशील मासिक पत्र का संपादन भार सम्भाला। रघुपति सहाय, शिवदानसिंह चौहान, शमशेर जैसे लोगों के सम्पर्क में आने के बाद वह प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। 1955-1962 तक सुमित्रानंदन पंत आकाशवाणी के मुख्य प्रोड्यूसर के पद पर बने रहे। 1961 में उन्हें भारत सरकार के उच्च राष्ट्रीय सम्मान ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया गया। वर्ष 1969 में सुमित्रानंदन पंत को उनकी काव्य कृति ‘चिदम्बरा’ के लिए देश के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ’ से सम्मानित किया गया। हिंदी साहित्य में पंत ने वात्सल्य रस की रचनाओं को भी आगे बढ़ाया। पंत को अक्सर प्रकृति से जुड़ी उनकी रचनाओं से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन उनके साहित्य में वात्सल्य भी देखने को मिलता है। इसमें भी उनका योगदान महत्वपूर्ण है। पंत के जीवन से जुड़ा एक और किस्सा है, जो हिंदी सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन से जुड़ा है। अमिताभ का नाम पहले इंकलाब रखा जाना था, लेकिन पंत ने उन्हें अमिताभ नाम दिया। टेलीविजन कार्यक्रम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के दौरान खुद अमिताभ ने इस बात को सार्वजनिक किया। अमिताभ ने कहा, ‘जिस दिन मेरा जन्म हुआ, पंतजी हमारे घर पर थे। उन्होंने मेरा नामकरण किया। उनके कहने पर ही मेरा नाम अमिताभ रखा गया।’ ‘ग्राम्या’ से नई पहचान ‘ग्राम्या’ सुमित्रानंदन पंत की प्रसिद्ध रचना है। ग्राम्या में पंत की 1939 से 1940 के बीच लिखी गई कविताओं का संग्रह है। पंतजी सुकोमल भावनाओं के कवि हैं। इनके काव्य में अनेकरूपता है किंतु वे अपनी सौन्दर्य दृष्टि और सुकुमार उदात्त कल्पना के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। निसंग्रत वे प्रकृति के सुकुमार कवि हैं। प्रकृति के साथ उनकी प्रगाढ़ रागात्मकता बाल्यकाल से ही हो गई थी। पंतजी ने प्रकृति में अनेक रूपों की कल्पना की है। उन्होंने प्रकृति के अनेक सौंदर्यमय चित्र अंकित किए हैं और इसके साथ उनके उग्र रूप का भी चित्रण किया है किंतु इनकी वृत्ति मूलत: प्रकृति के मनोरम रूप वर्णन में ही रमी है। यथार्थ की नई जमीन पंत काव्य की रेखाएं चाहे टेढी-मेढ़ी हैं, किंतु उनका विकासक्रम सीधा है। इस क्रम में हम पंत को छायावादी, प्रगतिवादी, समन्वयवादी एवं मानववादी रूप में देख सकते हैं। वर्ष 1930 में पंत भाई देवीदत्त के साथ अल्मोड़ा आ गए। यहां उन्होंने फ्रायड, साम्यवाद, मार्क्सवाद आदि का गहन अध्ययन किया। वह मार्क्स के आर्थिक चिंतन से बेहद प्रभावित हुए। पूरनचन्द जोशी के सानिध्य में रहकर उनके विचारों में परिपक्वता आई। इस दौरान उन्होंने कवि के कल्पनाशील मन के लिए यथार्थ की नई जमीन तोड़ी। इसके बाद इनकी रचनाओं में मानवतावादी दृष्टिकोण उत्तरोत्तर विकसित होता गया। इसके अनंतर इनके समन्वयवादी रूप को निहारा जा सकता है। उन्होंने 28 दिसंबर, 1977 को अंतिम सांस ली।
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