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![]() सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति के प्रणेता भारतीय राजनीति में सबसे शक्तिशाली और प्रभावी नेहरू-गांधी परिवार से सम्बंध रखने वाले राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए देश में होने वाले सरकारी घोटालों जैसे आरोपों को स्वीकारा था। 40 साल की उम्र में देश के सबसे युवा और नौवें प्रधानमंत्री होने का गौरव हासिल करने वाले राजीव गांधी आधुनिक भारत के शिल्पकार हैं। राजनीतिक पृष्ठभूमि होने के बावजूद राजीव गांधी ने कभी भी राजनीति में रुचि नहीं थी, लेकिन राजनीति में उनका प्रवेश केवल हालातों की ही देन था। राजीव सूचना प्रौद्योगिकी में भारत की भूमिका अहम मानते थे। उन्होंने कम्प्यूटर के इस्तेमाल को आम करने की शुरुआत की। साइंस और टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देने के लिए सरकारी बजट बढ़ाए। राजीव गांधी को समाज और राजनीति में अपने उत्कृष्ट योगदान के लिए देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया गया। विज्ञान-तकनीक को बढ़ावा इसमें कोई शक नहीं कि राजीव गांधी एक दूरदर्शी नेता थे। चुनाव जीतने और सरकार में शामिल होने जैसी बातें उनके कद के आगे बौनी थीं। एयर इंडिया के पायलट रह चुके राजीव धारा प्रवाह हिंदी और अंग्रेजी बोलते-लिखते थे। चुनावी रैलियों में सुरक्षा घेरे तोड़ते हुए गांव के बुजुर्गों के पास पहुंच जाना उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था। उनकी मुस्कुराहट उम्मीदें जगाती थीं। एक ऐसे वक्त में जब कोई भी देश को आगे ले जाने के बारे में सोच नहीं रहा था, वह देश को 21वीं सदी में ले जाने की सोच विकसित कर चुके थे। राजीव सूचना प्रौद्योगिकी में भारत की भूमिका अहम मानते थे। उन्होंने कम्प्यूटर के इस्तेमाल को आम करने की शुरुआत की। साइंस और टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देने के लिए सरकारी बजट बढ़ाए। हवाई सोच से परे राजीव चाहते थे कि देश में शिक्षा का स्तर सुधरे और 1986 में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति का एलान किया। जवाहर नवोदय विद्यालय के नाम से आज ग्रामीण बच्चों को शिक्षा मिल रही है। आज इन विद्यालयों में लाखों बच्चे पढ़ रहे हैं। 1986 में राजीव ने महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (एमटीएनएल) की स्थापना की। पब्लिक कॉल आॅफिस के जरिए ग्रामीण इलाकों में संचार सेवा का तेजी से विस्तार हुआ। राजीव पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने देश में तकनीक के प्रयोग को प्राथमिकता देकर कम्प्यूटर के व्यापक प्रयोग पर जोर डाला। भारत में कम्प्यूटर को स्थापित करने के लिए उन्हें कई विरोधों और आरोपों को भी झेलना पड़ा लेकिन अब वह देश की ताकत बन चुके कम्प्यूटर क्रांति के जनक के रूप में भी जाने जाते हैं। राजनीतिक सफर भारतीय राजनीति और शासन व्यवस्था में राजीव गांधी का प्रवेश केवल हालातों की ही देन था। राजीव गांधी ने भ्रष्टाचार को देश के विकास का सबसे बड़ा दुश्मन बताया। उनका चर्चित बयान था कि सरकार के आवंटित एक रुपए में से सिर्फ 15 पैसे ही गांव तक पहुंचते हैं। वे पहले नेता थे, जिन्होंने भ्रष्टाचार को इतना करीब से पहचाना और सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार किया। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए राजीव ने कानूनों को सख्ती से लागू कराया, जो भ्रष्टाचार को रोकने में ताकतवर भी साबित हुए। उन्होंने दल-बदल विरोधी कानून भी लागू कराया, जिससे राजनीति में भ्रष्टाचार पर रोक लग सके। राजीव पर खुद भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे। उन पर बोफोर्स तोप की खरीद में घूस लेने के आरोप लगे, लेकिन कोर्ट में साबित नहीं हो पाए। अपने शासनकाल में उन्होंने प्रशासनिक सेवाओं और नौकरशाही में सुधार लाने के लिए कई कदम उठाए। कश्मीर और पंजाब में चल रहे अलगाववादी आंदोलनकारियों को हतोत्साहित करने के लिए राजीव गांधी ने कड़े प्रयत्न किए। सहयोग ही बना निधन की वजह 20 अगस्त, 1944 को जन्मे राजीव गांधी इंदिरा गांधी के पुत्र थे। इनका पूरा नाम राजीव रत्न गांधी था। सन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वह भारी बहुमत से प्रधानमंत्री बने। राजीव गांधी और उनके छोटे भाई संजय गांधी की प्रारंभिक शिक्षा देहरादून के प्रतिष्ठित दून स्कूल में हुई थी। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने लंदन के इम्पीरियल कॉलेज में दाखिला लिया साथ ही कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से इंजीनीयरिंग का पाठ्यक्रम भी पूरा किया। भारत लौटने के बाद राजीव गांधी ने लाइसेंसी पायलट के तौर पर इण्डियन एयरलाइंस में काम शुरू किया। कैम्ब्रिज में पढ़ाई के दौरान राजीव गांधी की मुलाकात एंटोनिया मैनो से हुई, विवाहोपरांत जिनका नाम बदलकर सोनिया गांधी रखा गया। छोटे भाई संजय गांधी की दुर्घटना में मृत्यु के बाद उन्होंने अपनी मां को सहयोग दिया। श्रीलंका में चल रहे लिट्टे और सिंघलियों के बीच युद्ध को शांत करने के लिए राजीव गांधी ने भारतीय सेना को श्रीलंका में तैनात कर दिया। जिसका प्रतिकार लिट्टे ने तमिलनाडु में चुनावी प्रचार के दौरान राजीव गांधी पर आत्मघाती हमला करवाया। 21 मई, 1991 को रात 10 बजे के करीब एक महिला राजीव गांधी से मिलने के लिए स्टेज तक गई और उनके पांव छूने के लिए जैसे ही झुकी उसके शरीर में लगा आरडीएक्स फट गया। इस हमले में राजीव गांधी का निधन हो गया। बनेंगी फिल्में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की जिंदगी पर आधारित एक नहीं दो फिल्में पाइप लाइन में हैं। निर्देशक आदित्य ओम के साथ शीतल तलवार उनकी जिंदगी पर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे हैं। फिल्म ‘बंदूक’ से निर्माण और निर्देशन के क्षेत्र में कूदे अभिनेता आदित्य ओम अब पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्याकांड पर एक डॉक्यू ड्रामा फिल्म ‘हू किल्ड राजीव’ बनाने जा रहे हैं। राजीव गांधी पर एक और फिल्म निर्देशिका भवाना तलवार और उनके निर्माता पति शीतल तलवार मिलकर बनाने की तैयारी कर रहे हैं। फिल्म को लेकर किसी प्रकार का विवाद न हो इसके लिए निर्माता और निर्देशक, सोनिया गांधी और राहुल गांधी से मिलकर इस फिल्म को बनाने की अनुमति लेना चाहते हैं। उनकी स्वीकृति के बाद ही यह फिल्म बननी शुरू होगी।
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पुण्यतिथि : मेहदी हसन
तेरा मिलना बहुत अच्छा लगे है... गजल गायकी के इस धुरंधर को अब उनके चाहने वाले भले ही लाइव ना सुन पाएं, लेकिन उनकी आवाज उनकी गाई गजलों के माध्यम से हमेशा लोगों के दिलों में जिंदा रहेगी। मशहूर गजल गायक मेहदी हसन का गत वर्ष 14 जून को निधन हो गया था। यह वह शख्स थे जिन्हें हिंदुस्तान व पाकिस्तान में बराबर का सम्मान मिलता था और इन्होंने अपनी गायिकी से दोनों देशों को जोड़े रखा था। जीवन परिचय राजस्थान के झुंझुनूं जिले के लूणा गांव में 18 जुलाई, 1927 को जन्में हसन का परिवार संगीतकारों का परिवार रहा है। हसन के अनुसार कलावंत घराने में उनसे पहले की 15 पीढ़ियां भी संगीत से ही जुड़ी हुई थी। कहते हैं ना कि स्कूल के पहले बच्चा अपने घर में ही प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर लेता है, वैसे ही हसन ने भी अपने पिता व संगीतकार उस्ताद अजीम खान व चाचा उस्ताद इस्माइल खान से संगीत की प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी। भारत-पाक बंटवारे के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। वहा उन्होंने कुछ दिनों तक एक साइकिल दुकान में काम किया और बाद में मोटर मेकैनिक का भी काम कर लिया, लेकिन संगीत को लेकर उनके दिल में जज्बा व जुनून था वह कभी कम नहीं हुआ। गायकी की शुरुआत वर्ष 1950 का दौर उस्ताद बरकत अली, बेगम अख्तर, मुख्तार बेगम जैसों का था, जिसमें मेहंदी हसन के लिए अपनी जगह बना पाना सरल नहीं था। एक गायक के तौर पर उन्हें पहली बार वर्ष1957 में रेडियो पाकिस्तान में बतौर ठुमरी गायक पहचान मिली। इसके बाद मेहदी हसन ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। फिर क्या था फिल्मी गीतों की दुनिया में व गजलों के समुंदर में वह छा गए। अंतिम समय गौरतलब है कि वर्ष 1957 से 1999 तक सक्रिय रहे मेहदी हसन ने गले के कैंसर के बाद पिछले 12 सालों से गाना लगभग छोड़ ही दिया था। उनकी अंतिम रिकॉर्डिग 2010 में सरहदें नाम से आई जिसमें फरहत शहजाद ने अपना लेख दिया। तेरा मिलना बहुत अच्छा लगे है... वर्ष 2009 में इस गाने की रिकार्डिग पाकिस्तान में की गई। दूसरी ओर उसी ट्रैक को सुनकर वर्ष 2010 में लता मंगेशकर ने अपनी रिकॉर्डिग मुम्बई में शुरू कर दी। हसन की हजारों गजलें कई देशों में जारी हुई। पिछले 40 साल से भी अधिक समय से संगीत की दुनिया में गूंजती शहंशाह-ए-गजल की आवाज की विरासत संगीत की दुनिया को हमेशा रौशन करती रहेगी। सम्मान और पुरस्कार मेहदी हसन को गायकी की वजह से संगीत की दुनिया में कई सम्मान प्राप्त हुए हैं। जनरल अयूब खां ने उन्हें ‘तमगा-ए-इम्तियाज’, जनरल जिया उल हक ने ‘प्राइड आॅफ परफ ॉर्मेंस’ और जनरल परवेज मुशर्रफ ने ‘हिलाल-ए-इम्तियाज’ पुरस्कार से सम्मानित किया था। इसके अलावा भारत ने वर्ष 1979 में ‘सहगल अवॉर्ड’ से सम्मानित किया।
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16 जून को 'शहरयार' के जन्मदिन पर
जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो ना पाया हमने... नई और बहुरंगी सोच को शानदार अल्फाज में पिरोकर उर्दू शायरी को नया चेहरा देने वाले मकबूल शायर अखलाक मोहम्मद खां ‘शहरयार’ अदब के ऐसे अलमबरदार थे जिन्होंने अपनी नज्मों, गजलों और फिल्मी गीतों के जरिये उर्दू को नया लब-ओ-लहजा भी दिया। उत्तर प्रदेश के बरेली में 16 जून 1936 को जन्मे शहरयार बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और उन्होंने एक शायर, गीतकार, पत्रकार और शिक्षक के किरदारों को बहुत खूबी से निभाया और जिया। शहरयार की शख्सियत के बारे में शायर बेकल उत्साही कहते हैं कि वह एक अच्छे शायर और बेहतरीन स्वभाव के धनी शख्स थे और उन्होंने खासकर अपने फिल्मी गीतों के जरिये पर्दे पर खुशी, गम, जुदाई और रुसवाई के दर्द को उर्दू की नजाकत से भरी अभिव्यक्ति देने में बहुत मदद की। उन्होंने बताया कि शहरयार अपने नाम के मुताबिक नज्म और नस्र के सुलतान थे लेकिन उन्हें ज्यादा शोहरत अपने काव्य संग्रहों से नहीं बल्कि फिल्मी गीतों के गुलदस्ते की वजह से मिली। शहरयार ने वर्ष 1972 में आयी म्यूजिकल सुपरहिट फिल्म ‘पाकीजा’ के बाद उसी स्तर की संगीतमय फिल्म बनाने की महत्वाकांक्षा से लिखी गयी ‘उमराव जान’ फिल्म में ‘दिल चीज क्या है, आप मेरी जान लीजिये’ समेत अनेक कालजयी गीत लिखकर उस फिल्म के संगीतकार खय्याम की मुराद पूरी की थी। उस फिल्म के गीत आज भी लोगों के जेहन पर चस्पां हैं। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर रहे शहरयार के सहयोगी प्रोेफेसर यासीन मजहर ने एक शिक्षक के तौर पर इस शायर के किरदार के बारे में बताया कि अलखाक खां अपने नामक के मुताबिक बेहतरीन स्वभाव के व्यक्ति थे। अखलाक खां शहरयार को एक शायर के तौर पर निखारने में मशहूर अदीब खलील-उर्रहमान आजमी की अहम भूमिका रही। शहरयार ने रोजीरोटी के लिये अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू पढाना शुरू किया था और बाद में उन्होंने वहीं अपनी आगे की शिक्षा ग्रहण की और पीएचडी की उपाधि हासिल कर ली। शहरयार वर्ष 1986 में प्रोफेसर बने और 1996 में उर्दू के विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने अदबी मैगजीन शेर-ओ-हिकमत का सम्पादन भी किया। शहरयार की फिल्मी पारी हालांकि कुछ फिल्मों तक ही सीमित रही लेकिन जितनी भी रही, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। उन्होंने ‘गमन’, ‘फासले’, ‘अंजुमन’ और ‘उमराव जान’ को अपने गीतों से सजाया। उनकी गजलें ‘दिल चीज क्या है, आप मेरी जान लीजिये’, ‘ये क्या जगह है दोस्तों’ और ‘इन आंखों की मस्ती के’ जैसे गीत बालीवुड की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में शुमार किये जाते हैं। शहरयार की नज्मों का पहला संग्रह ‘इस्म-ए-आजम’ वर्ष 1965 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद ‘हिज्र के मौसम’ और ‘ख्वाब के दर बंद हैं’ भी मंजर-ए-आम पर आये। इस शायर को वर्ष 1987 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और साल 2008 के लिये देश का शीर्ष साहित्य पुरस्कार ज्ञानपीठ अवार्ड प्रदान किया गया। शहरयार ने 13 फरवरी 2012 को अपनी कर्मभूमि अलीगढ में आखिरी सांस ली।
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नई किताब
जब ‘दम मारो दम ’ सुनकर उठकर चले गए थे एस डी बर्मन संगीतकार सचिन देव बर्मन अपने बेटे आर डी बर्मन की ‘हरे रामा, हरे कृष्णा’ फिल्म के लिए तैयार की गयी संगीत रचना ‘दम मारो दम’ को सुनकर इतने दुखी हुए थे कि रिकार्डिंग स्टूडियो से ही उठकर चले गए थे । महान संगीतकार एस डी बर्मन के बारे में इसी प्रकार की कई अन्य रोचक और दिलचस्प जानकारियां खगेश देव बर्मन द्वारा लिखी गयी किताब ‘एस डी बर्मन : द वर्ल्ड आफ हिज म्यूजिक’ में दी गयी हैं । रूपा द्वारा प्रकाशित और लेखक एस के रायचौधरी द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित किताब में सचिन दा के गानों की फेहरिस्त के अलावा उनकी अनोखी शैली और संगीत का भी विश्लेषण किया गया है । सचिन के संस्मरणों को उद्धृत करते हुए लेखक ने उनके बचपन, उनके चरित्र को आकार देने वाली घटनाओं, उनके संघर्ष के दिनों, उनकी संगीत प्रतिभा तथा महान संगीतकार बनने तक के उनके सफर का विस्तार से बखान किया है । हालांकि राहुल देव बर्मन ने अपने पिता के विपरीत एकदम भिन्न शैली को अपनाया लेकिन वह अपने पिता के प्रभाव से बच नहीं सके । सचिन दा ने आर डी को एक संगीतकार के रूप में संवारा था और उन्हें अलग अलग तरह के साजों पर हाथ आजमाने को प्रोत्साहित किया । लेखक लिखते हैं, ‘‘ वह दम मारो दम गीत के संगीत से आहत नहीं थे , न ही यह बात उन्हें बुरी लगी थी कि उन्हें अब अपने बेटे के लिए रास्ता खाली करना पड़ेगा या लंबे समय से संबंध रखने वाले देव आनंद ने ‘ हरे रामा हरे कृष्णा ’ के लिए उन्हें नजरअंदाज कर राहुल को अपना संगीत निदेशक बनाया था बल्कि वह इस बात से दुखी थे कि उनके बेटे ने उन्हें त्याग दिया था।’’ किताब के अनुसार, ‘‘ जब उन्होंने :सचिन दा ने :स्टूडियो में ‘ दम मारो दम’ गाने की रिकार्डिंग सुनी तो उन्हें बड़ी निराशा हुई । वह परेशान थे । उन्होंने सोचा कि अपने जिस बेटे को उन्होंने अपनी विरासत सौंपी थी, जिन्होंने उसे बचपन से संगीत सिखाया था , उसने उन्हें त्याग दिया है ।’’ ‘‘क्या यह विरासत में मिली संस्कृति को त्यागना था? क्या अपने पिता को त्याग देना था ? राहुल ने अपने पिता को स्टूडियो से धीरे धीरे सिर झुकाए बाहर जाते देखा। ऐसा लगता था कि कोई हारा हुआ शहंशाह , युद्ध के मैदान से जा रहा हो ।’’ सचिन दा को फुटबाल और टेनिस से बेहद प्यार था और वे इन खेलों में काफी माहिर भी थे । लेखक कहते हैं, ‘‘ यदि ईस्ट बंगाल और मोहन बगान के बीच मैच हो रहा होता था तो कोई उन्हें फुटबाल के मैदान से दूर नहीं रख सकता था। ईस्ट बंगाल के प्रबल समर्थक सचिन दा अपनी टीम के मैच हारने पर खाना पीना छोड़ देते थे । गुस्से और दुख के मारे रोते थे और उन्हें अपनी खुशमिजाजी में लौटने में कई दिन लग जाते थे ।’’ लेखक ने फिल्म ‘मिली’ के गीतों की रिकार्डिंग के दौरान उन्हें पक्षाघात होने और फुटबाल से सचिन दा के लगाव के बारे में एक किस्सा कुछ इस तरह बखान किया है : ‘‘ सचिन दा गहन कोमा की हालत में थे और उन्हें ठीक करने के सभी प्रयास विफल साबित हो रहे थे । ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने केवल एक बार आंखें खोली थी। जिस दिन ईस्ट बंगाल ने मोहन बगान को लीग मैच में 5 0 से हराया , राहुल ने यह खबर अपने पिता के कान में चिल्लाकर दी । इस पर उन्होंने एक बार आंखें खोली और सिर्फ अंतिम बार ।’’ किताब में यह भी बताया गया है कि सचिन दा को किस प्रकार संगीत जगत में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ा।
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अमर संगीत साधक एस.डी.बर्मन के जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं की जानकारी देने वाले इस समीक्षात्मक आलेख ने एक बार फिर हमें उनकी कभी न भूलने वाली गीत-रचनाओं की और उनकी आवाज़ की याद दिला दी. आपका आने बार आभार, अलैक जी.
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नई किताब
पाकिस्तानी सेना द्वारा हिंदू-जनसंहार पर चुप रहे थे निक्सन वर्ष 1971 में बांग्लादेश की स्वतंत्रता से पहले पाकिस्तानी सेना ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में सुनियोजित तरीके से हिंदू समुदाय के जनसंहार को अंजाम दिया था और निक्सन प्रशासन ने इससे आंखें मूंदे रही। एक नयी किताब में यह खुलासा किया गया है। ‘द ब्लड टेलीग्राम : निक्सन किसिंगर एंड ए फॉरगॉटन जेनोसाइड’ नामक इस किताब के लेखक गैरी जे बास ने कहा कि हालांकि भारत सरकार इस बारे में जानती थी लेकिन उसने इसे ज्यादा तवज्जो देने के बजाय इसे बांग्लादेश में बंगाली समुदाय के खिलाफ जनसंहार की संज्ञा दी थी, ताकि तत्कालीन जनसंघ के नेता इस बात को लेकर हाय तौबा नहीं मचाये। प्रिंसटन विश्वविद्यालय में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर बास कहते हैं, ‘‘इसे मूल रूप से हिंदुओं की प्रताड़ना के रूप में सामने लाने के बजाए भारत ने इसे बंगालियों के विनाश के रूप में पेश करने पर ध्यान केंद्रित किया।’’ बास ने कहा, ‘‘भारतीय विदेश मंत्रालय ने यह तर्क दिया था कि देश में बंगालियों की संख्या बहुत ज्यादा होने के कारण चुनाव हार गए पाकिस्तानी जनरल उनकी :बंगालियों की: हत्याएं कर रहे हैं ताकि ‘पूर्वी बंगाल में जनसंख्या में भारी कमी आ सके।’ और ये लोग पाकिस्तान में बहुसंख्यक न बने रह सकें।’’ किताब कहती है कि चूंकि पाकिस्तानी सेना लगातार हिंदू समुदाय को अपना निशाना बना रही थी, ऐसे में भारतीय अधिकारी नहीं चाहते थे कि जन संघ पार्टी के हिंदू राष्ट्रवादी और ज्यादा भड़कें। बास ने किताब में लिखा है, ‘‘रूस में भारत के राजदूत डी पी धर ने मास्को से पाकिस्तान की सेना पर हिंदुओं को चुन-चुनकर उनकी हत्या करने की पूर्वनियोजित नीति बनाने का दोष लगाया था लेकिन उन्होंने लिखा है कि जनसंघ जैसे दक्षिणपंथी हिंदू उग्रराष्ट्रवादी दल की उग्र प्रतिक्रिया के भय से हमने इस बात की पूरी कोशिश करी कि यह मामला भारत में प्रचारित न हो।’’ ढाका में तत्कालीन अमेरिकी कूटनीतिज्ञों ने विदेश मंत्रालय और व्हाइट हाउस दोनों को ही लिखा था कि यह हिंदुओं के ‘जनसंहार’ से कम नहीं है। किताब कहती है, ‘‘दमन का नेतृत्व करने वाले सैन्य गर्वनर लेफ्टिनेंट जनरल टिक्का खान ने तर्क दिया था कि पूर्वी पाकिस्तान भारत की दासता का सामना कर रहा है। उन्होंने कहा कि अवैध आवामी लीग हमारे उस देश के लिए तबाही ले आई होती, जिसे हमने मुस्लिमों के एक अलग देश के रूप में उपमहाद्वीप में से भारी बलिदानों के बाद हासिल किया है।’’ किताब में यह भी कहा गया कि ‘‘चीफ आॅफ आर्मी स्टाफ और चीफ आॅफ जनरल स्टाफ जैसे वरिष्ठ अधिकारियों को अक्सर यह मजाक करते हुए यह कहते सुना जाता था कि कितने हिंदू मारे गए?’’ बास ने लिखा, ‘‘लेकिन ढाका में अमेरिकी काउंसल जनरल आर्चर ब्लड द्वारा इसे ‘जनसंहार’ की भयावह संज्ञा दिए जाने का भी व्हाइट हाउस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।’’ बास के अनुसार ब्लड ने सोचा था कि जो कुछ भी हिंदुओं के साथ हो रहा था, उसकी व्याख्या के लिए ‘जनसंहार’ ही सही शब्द था। ‘‘उन्होंने बताया था कि पाकिस्तानी सेना ने भारतीय और पाकिस्तानी हिंदुओं में कोई भी भेद नहीं किया था। दोनों के साथ ही दुश्मनों की तरह व्यवहार किया था।’’ ब्लड ने लिखा, ये हिंदू विरोधी भावनाएं व्यापक रूप से फैली हुई थीं। किताब के अनुसार, भारतीय सरकार का मानना था कि पाकिस्तान लाखों हिंदुओं को निकालकर बंगालियों की संख्या कम करना चाहती है ताकि वे पाकिस्तान में बहुमत में न रह सकें। इसके साथ ही पाकिस्तान चाहता था कि वह मासूम बंगाली मुस्लिमों को कथित रूप से भड़काने वाले हिंदुओं से छुटकारा पाकर आवामी लीग को एक राजनैतिक शक्ति बनने से रोके। तत्कालीन विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह ने भारतीय कूटनीतिज्ञों की लंदन में आयोजित एक बैठक में खुलकर कहा था ‘‘भारत में हमने इस बात को ढंककर रखने की कोशिश की लेकिन विदेशियों को ये आंकड़े देने में हमें कोई झिझक नहीं है।’’ ‘‘सिंह ने अपने स्टाफ को देश के लिए गलत बयानी करने के निर्देश देते हुए कहा था: हमें इसे भारत-पाकिस्तान या हिंदू-मुस्लिम विवाद बनने से रोकना है। हमें यह दिखाना चाहिए कि दमन का सामना करने वाले शरणार्थियों में मुस्लिमों के अलावा बौद्ध और ईसाई भी हैं।’’ बास लिखते हैं कि भारत सरकार को डर था कि सच्चाई बताए जाने पर उनका अपना देश ही हिंदुओं और मुस्लिमों में बंट जाएगा। बास कहते हैं कि निक्सन प्रशासन के पास सिर्फ इस जनसंहार के ही पर्याप्त सबूत नहीं थे बल्कि उसके पास हिंदू अल्पसंख्यकों को विशेष तौर पर निशाना बनाए जाने के भी सबूत थे। तत्कालीन विदेश मंत्री हैनरी किसिंगर ने एक बार खुद राष्ट्रपति को बताया था, ‘‘उसने :याह्या ने: पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में हिंदुओं को निष्कासित करके एक और बेवकूफाना गलती की है।’’ भारत में अमेरिका के तत्कालीन राजदूत ने भी रिचर्ड निक्सन से ओवल कार्यालय में बताया था कि उनका सहयोगी ‘पाकिस्तान’ जनसंहार कर रहा है। किताब कहती है, ‘‘ओवल कार्यालय में राजदूत ने अमेरिकी राष्ट्रपति और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार से सीधे कहा था कि उनका सहयोगी जनसंहार कर रहा है। रोजाना डेढ लाख शरणार्थियों के आने की वजह यह है कि वे हिंदुओं की हत्या कर रहे हैं।’’ किताब कहती है, ‘‘न तो निक्सन ने और न ही किसिंगर ने इस पर कुछ भी कहा।’’
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बांग्लादेश के उदय से पहले तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं के बर्बर नरसंहार की ओर आज तक किसी ने इतने जोरदार अंदाज़ में नहीं उठाया जितना उक्त लेखक ने अपनी पुस्तक में उठाया है. यह हमारे लिये चौकाने वाला सच है.
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सुरों का काफिला छोड़ चला गया सुरसाज
भारतीय शास्त्रीय संगीत में पॉप का जुझारूपन घोलने वाले सुरों के सरताज मन्ना डे हिंदी सिनेमा के उस स्वर्ण युग के प्रतीक थे जहां उन्होंने अपनी अनोखी शैली और अंदाज से ‘पूछो ना कैसे मैने, अय मेरी जोहराजबी और लागा चुनरी में दाग’ जैसे अमर गीत गाकर खुद को अमर कर दिया था। मोहम्मद रफी , मुकेश और किशोर कुमार की तिकड़ी का चौथा हिस्सा बनकर उभरे मन्ना डे ने 1950 से 1970 के बीच हिंदी संगीत उद्योग पर राज किया। पांच दशकों तक फैले अपने करियर में डे ने हिंदी, बंगाली, गुजराती , मराठी, मलयालम , कन्नड और असमी मेंं 3500 से अधिक गीत गए और 90 के दशक में संगीत जगत को अलविदा कह दिया। 1991 में आयी फिल्म ‘प्रहार’ में गाया गीत ‘‘हमारी ही मुट्ठी में ’’ उनका अंतिम गीत था। महान गायक आज बेंगलूर में 94 साल की उम्र में दुनिया से रूखसत हो गए । यह संगीत की दुनिया का वह दौर था , जब रफी, मुकेश और किशोर फिल्मों के नायकों की आवाज हुआ करते थे लेकिन मन्ना डे अपनी अनोखी शैली के लिए एक खास स्थान रखते थे । रविन्द्र संगीत में भी माहिर बहुमुखी प्रतिभा मन्नाडे ने पश्चिमी संगीत के साथ भी कई प्रयोग किए और कई यादगार गीतों की धरोहर संगीत जगत को दी। पिछले कुछ सालों से बेंगलूर को अपना ठिकाना बनाने वाले मन्ना डे ने 1943 में ‘तमन्ना’ फिल्म के साथ पार्श्व गायन में अपने करियर की शुरूआत की थी। संगीत की धुनें उनके चाचा कृष्ण चंद्र डे ने तैयार की थीं और उन्हें सुरैया के साथ गीत गाना था। और ‘‘सुर ना सजे, क्या गाउं मैं’’ रातों रात हिट हो गया जिसकी ताजगी आज भी कायम है । 1950 में ‘मशाल’ उनकी दूसरी फिल्म थी जिसमें मन्ना डे को एकल गीत ‘‘उपर गगन विशाल’’ गाने का मौका मिला जिसे संगीत से सजाया था सचिन देव बर्मन ने । 1952 में डे ने एक ही नाम और कहानी वाली बंगाली तथा मराठी फिल्म ‘‘अमर भुपाली ’ के लिए गीत गाए और खुद को एक उभरते बंगाली पार्श्वगायक के रूप में स्थापित कर लिया । डे साहब की मांग दुरूह राग आधारित गीतों के लिए अधिक होने लगी और एक बार तो उन्हें 1956 में ‘‘बसंत बहार’’ फिल्म में उनके अपने आदर्श भीमसेन जोशी के मुकाबले में गाना पड़ा । ‘‘केतकी, गुलाब , जूही ’’ बोल वाले इस गीत को शुरू में उन्होंने गाने से मना कर दिया था। शास्त्रीय संगीत में उनकी पारंगता के साथ ही उनकी आवाज में एक ऐसी अनोखी कशिश थी कि आज तक उनकी आवाज को कोई कापी करने का साहस नहीं जुटा सका। यह मन्ना डे की विनम्रता ही थी कि उन्होंने बतौर गायक उनकी प्रतिभा को पहचानने का श्रेय संगीतकार शंकर जयकिशन की जोड़ी को दिया। डे ने शोमैन राजकपूर की ‘‘आवारा’’ , ‘‘श्री 420’’ और ‘‘चोरी चोरी’’ फिल्मों के लिए गाया। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘‘ मैमोयर्स कम अलाइव’’ में लिखा है , ‘‘ मैं शंकरजी का खास तौर से रिणी हूं । यदि उनकी सरपरस्ती नहीं होती तो जाहिर सी बात है कि मैं उन उंचाइयों पर कभी नहीं पहुंच पाता जहां आज पहुंचा हूं । वह एक ऐसे शख्स थे जो जानते थे कि मुझसे कैसे अच्छा काम कराना है । वास्तव में , वह पहले संगीत निदेशक थे जिन्होंने मेरी आवाज के साथ प्रयोग करने का साहस किया और मुझसे रोमांटिक गीत गवाए।’’ मन्ना डे के कुछ सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में ‘‘दिल का हाल सुने दिलवाला’’, प्यार हुआ इकरार हुआ , आजा सनम , ये रात भीगी भीगी , ऐ भाई जरा देख के चलो , कसमे वादे प्यार वफा और यारी है ईमान मेरा’शामिल है । मन्ना डे ने रफी , लता मंगेशकर, आशा भोंसले और किशोर कुमार के साथ कई गीत गए। उन्होंने अपने कई हिट गीत संगीतकार एस डी बर्मन, आर डी बर्मन, शंकर जयकिशन , अनिल बिस्वास, रोशन और सलील चौधरी, मदन मोहन तथा एन सी रामचंद्र के साथ दिए । उनकी आवाज ने न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी उनके चाहने वालों का एक हुजूम पैदा कर दिया जो उनकी लरजती आवाज के दीवाने थे । इसी के चलते उन्हें राष्ट्रीय गायक, पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे सम्मानों से नवाजा गया। मन्ना डे ने अपनी स्कूली शिक्षा कोलकाता के प्रसिद्ध स्काटिश चर्च कालेज और विद्यासागर कालेज से प्राप्त की थी। वह स्कूल के दिनों से ही गाते थे लेकिन जल्द ही उनके चाचा ने उन्हें संगीत की गंभीर रूप से शिक्षा देना शुरू कर दिया और वह अपने चाचा के साथ 1942 में मुंबई चले गए । वहां पहले उन्होंने अपने चाचा के साथ और बाद में सचिन देव बर्मन के साथ संगीत की बारिकियां सीखीं जिन्होंने उनकी प्रतिभा को सही मायने में पहचाना। एक मई 1919 को पूर्ण चंद्र और महामाया डे के घर प्रबोध चंद्र डे के रूप में कोलकाता में पैदा हुए डे को उनके चाचा कृष्ण चंद्र डे ने प्रेरित किया जो खुद भी न्यू थियेटर कंपनी के ख्यातिनाम गायक और अभिनेता थे । मन्ना नाम उन्हें उनके इन्हीं चाचा ने दिया था और वह शुरू में बैरिस्टर बनना चाहते थे लेकिन अपने चाचा के प्रभाव में उन्होंने संगीत को कैरियर के रूप में अपनाने का फैसला किया। आनंद फिल्म के लिए मन्ना डे का गाया गीत ‘जिंदगी कैसी है पहेली हाय’ को सैल चौधरी ने संगीतबद्ध किया था । अभी भी देश भर के एफएम-रेडियो चैनलों पर इस गीत को सुना जा सकता है । फिल्मों के अलावा मन्ना डे गैर-फिल्मी संगीत की दुनिया में भी काफी बड़ी विरासत पीछे छोड़ गए हैं । विशेष रूप से आधुनिक बांग्ला संगीत के क्षेत्र में जहां उनके गीत अभी भी बहुत पसंद किए जाते हैं । कव्वाली की विधा में उन्होंने ‘जंजीर’ फिल्म के लिए ‘यारी है ईमान मेरा, यार मेरी जिंदगी’ गाया, जिसे अभी भी श्रोता शौक से सुनते हैं । मन्ना डे की शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता के मशहूर स्कॉटिस चर्च कॉलेज और विद्यासागर कॉलेज में हुई । स्कूल के दिनों से ही वह दोस्तों के लिए गाते थे लेकिन उनकी इस कला को उनके चाचा ने पहचाना । डे 1942 में अपने रिश्तेदार के साथ मुंबई घुमने आए । उस दौरान उन्होंने अपने चाचा के साथ और सचिन देव बर्मन के साथ काम किया । बर्मन ने ही उनकी प्रतिभा को पहचाना । पूर्ण चन्द्र और महामाया डे के पुत्र मन्ना का जन्म एक मई 1919 को कलकत्ता में प्रबोध चन्द्र डे के रूप में हुआ । मन्ना डे अपने सबसे छोटे चाचा, मशहूर गायक और रंगकर्मी कृष्ण चन्द्र डे से बहुत प्रभावित थे । मन्ना डे नाम उन्हें अपने चाचा से मिला । शुरूआती दिनों में बैरिस्टर बनने की इच्छा रखने वाले डे अपने चाचा के प्रभाव में आकर संगीत के क्षेत्र में चले आए । उन्होंने अपने चाचा के अलावा उस्ताद दबीर खान, उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान से संगीत की शिक्षा ली । डे का विवाह केरल निवासी सुलोचना कुमारन से हुआ । दोनों को दो पुत्रियां हैं । वह सुलोचना को अपनी प्रेरणा बताते थे । उनकी जीवनी ‘जिबोरेन जल्साघोरे’ 2005 में प्रकाशित हुई थी । बाद में उसका अनुवाद अंग्रेजी, हिन्दी और मराठी में हुआ । डे ने केरल निवासी सुलोचना कुमारन से शादी की और उनकी दो बेटियां हुई । उनकी पत्नी का उनकी जिंदगी में बेहद महत्वपूर्ण रोल था और यही वजह थी कि जनवरी 2012 में सुलोचना की मृत्यु के बाद डे अपनी जिंदगी के अंतिम दिनों में एकदम उदासीन और एकांतवासी हो गए थे । वह बेंगलूर में अकेले रहते थे । डे के निधन से हिंदी फिल्म संगीत का एक अध्याय समाप्त हो गया।
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इस आलेख के लिये धन्यवाद स्वीकार करें अलैक जी.
आज मुझे मन्ना दा के बहुत से गीत, टीवी प्रोग्राम और इंटरव्यू याद आते हैं जिनमें वे एक उत्कृष्ट गायन शैली वाले कलाकार के रूप में तो सामने आते ही हैं, साथ ही एक साफ, शफ्फाफ़ और धरती से जुड़ी हुई एक महान शख्सियत के रूप में भी हर दिल अज़ीज़ बन जाते हैं. उनकी शरीके हयात सुलोचना का नक्श भी उभरता है. वे एक दुसरे के पूरक थे और एक दूसरे से बेपनाह मुहब्बत करते थे. हम मन्ना दा के निधन पर उन्हें अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनके परिवार के प्रति गहरी संवेदना प्रगट करते हैं. ईश्वर मन्ना दा की आत्मा को शान्ति प्रदान करे!!! |
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