30-11-2012, 12:32 PM | #421 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
30-11-2012, 12:33 PM | #422 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
तब लीला ने कहा, हे भगवती! मैं बारम्बार पूछती हूँ तुम उद्वेगवान् न होना, बड़ों का यह स्वभाव होता है कि जो शिष्य बारम्बार पूछे तो भी खेदवान नहीं होते । अब मैं पूछती हूँ कि यह जगत् क्या है और वह जगत् क्या है? दोनों में कृत्रिम कौन है और अकृत्रिम कौन है? देवी बोली, हे लीले! तूने पूछा कि कृत्रिम कौन है और अकृत्रिम कौन है सो मैं पीछे तुझसे कहूँगी । लीला बोली, हे देवि! जहाँ तुम हम बैठे हैं वह अकृत्रिम है और वह जो मेरे भर्त्ता का स्वर्ग है सो कृत्रिम है, क्योंकि सूर्यस्थान में वह सृष्टि हुई है ।
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30-11-2012, 12:33 PM | #423 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
देवी बोली, हे लीले! जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है । जो कारण सत् होता है तो कार्य भी सत् होता है और सत् से असत् नहीं होता और असत् से सत् भी नहीं होता और न कारण से अन्य कार्य होता है । इससे जैसे यह जगत् है वैसा ही वह जगत् भी है । इतना सुन फिर लीला ने पूछा, हे देवि! कारण से अन्य कार्यसत्ता होती है, क्योंकि मृत्तिका जल के उठाने में समर्थ नहीं और जब मृत्तिका का घट बनता है तब जल को उठाता है तो कारण से अन्य कार्य की भी सत्ता हुई । देवी बोली, हे लीले! कारण से अन्य कार्य की सत्ता तब होती है जब सहायकारी भिन्न होता है ।
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30-11-2012, 12:33 PM | #424 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
जहाँ सहायकारी नहीं होता वहाँ कारण से अन्य कार्य की सत्ता नहीं होती । तेरे भर्ता की सृष्टि भी कारण बिना भासी है । उसका जीवपुर्यष्टक आकाशरूप था, वहाँ न कोई समवायकारण था, और न निमित्त कारण था इससे उसको कृत्रिम कैसे कहिये? जो किसी का किया हो तो कृत्रिम हो पर वह तो आकाशरूप पृथ्वी आदिक तत्त्वों से रहित है । जो समवाय कारण ही न हो तो उसका निमित्तकारण कैसे हो । इससे तेरे भर्त्ता का सर्ग अकारण है ।
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30-11-2012, 01:08 PM | #425 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
लीला ने पूछा हे देवि! उस सर्ग की जो संस्काररूप स्मृति है सो कारण क्यों न हो? देवी बोली, हे लीले! स्मृति तो कोई वस्तु नहीं है । स्मृति आकाश रूप है । स्मृति संकल्प का नाम है सो वह भी संकल्प आकाशरूप है और कोई वस्तु नहीं वह मनोराजरूप है इससे उसकी सत्ता भी कुछ नहीं है केवल आभासरूप है । लीला बोली, हे महेश्वरि! यदि वह संकल्प मात्र आकाशरूप है तो जहाँ हम तुम बैठे हैं वह भी वही है तो दोनों तुल्य हैं ।
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