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Old 11-12-2012, 08:32 AM   #41
ALEX
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कलावती की शिक्षा........ . . . श्यामसुन्दर ने विरक्त होकर कहा-''कला! यह मुझे नहीं अच्छा लगता।'' कलावती ने लैम्प की बत्ती कम करते हुए सिर झुकाकर तिरछी चितवन से देखते हुए कहा-''फिर मुझे भी सोने के समय यह रोशनी अच्छी नहीं लगती।'' श्यामसुन्दर ने कहा-''तुम्हारा पलँग तो इस रोशनी से बचा है। तुम जाकर सो रहो।'' और तुम रात भर यों ही जागते रहोगे।'' अब की धीरे से कलावती ने हाथसे पुस्तक भी खींच ली।श्यामसुन्दर को इस स्नेह में भी क्रोध आ गया। तिनक गये-''तुम पढऩे का सुख नहीं जानती, इसलिए तुमको समझाना ही मूर्खता है।'' कलावती ने प्रगल्भ होकर कहा-''मूर्ख बनकर थोड़ा समझा दो।'' श्यामसुन्दर भड़कउठे, उनकी शिक्षिता उपन्यास की नायिका उसी अध्याय में अपने प्रणयी के सामने आयी थी- वह आगे बातचीत करती; उसी समय ऐसा व्याघात। 'स्त्रीणामाद्य प्रणय-वचनं' कालिदास ने भी इसे नहीं छोड़ा था। कैसा अमूल्य पदार्थ! अशिक्षिता कलावती ने वहीं रस भंगकिया। बिगड़कर बोले-''वह तुम इस जन्म में नहीं समझोगी।'' कलावती ने और भी हँसकर कहा-''देखो, उस जन्म में भी ऐसा बहानान करना।'' पुष्पाधार में धरे हुए नरगिस के गुच्छे ने अपनी एकटक देखती हुई आँखों से चुपचाप यह दृश्य देखा और वह कालिदास के तात्पर्य को बिगाड़ते हुए श्यामसुन्दर की धृष्टता न सहन कर सका, और शेष 'विभ्रमोहि प्रियेषु' का पाठ हिलकर करने लगा। -- -- श्यामसुन्दर ने लैम्प की बत्ती चढ़ायी, फिर अध्ययन आरम्भ हुआ। कलावती अब की अपने पलँग पर जा बैठी। डब्बा खोलकर पान लगाया, दो खीली लेकर फिर श्यामसुन्दर के पास आयी। श्याम ने कहा-''रख दो।'' खीलीवाला हाथ मुँह की ओर बढ़ा, कुछ मुख भी बढ़ा, पान उसमें चला गया। कलावती फिर लौटी ओर एकचीनी की पुतली लेकर उसे पढ़ाने बैठी-''देखो, मैं तुम्हें दो-चार बातें सिखाती हूँ, उन्हें अच्छी तरह रट लेना। लज्जा कभी न करना, यह पुरुषों की चालाकी है,जो उन्होंने इसे स्त्रियों के हिस्से कर दिया है। यह दूसरे शब्दों में एक प्रकार का भ्रम है, इसलिए तुम भी ऐसा रूप धारण करना कि पुरुष, जो बाहर से अनुकम्पा करते हुए तुमसे भीतर-भीतर घृणा करते हैं, वह भी तुमसे भयभीत रहें, तुम्हारे पास आने का साहस न करें। और कृतज्ञ होना दासत्व है। चतुरों ने अपना कार्य-साधन करने का अस्त्र इसे बनाया है। इसीलिए इसकी ऐसी प्रशंसा की है कि लोग इसकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। किन्तु है यह दासत्व। यह शरीर कानहीं, किन्तु अन्तरात्मा का दासत्व है। इस कारण कभी-कभी लोग बुरी बातों का भी समर्थन करते हैं। प्रगल्भता, जो आजकल बड़ी बाढ़ पर है, बड़ी अच्छी वस्तु है। उसके बल से मूर्ख भी पण्डित समझे जाते हैं। उसका अच्छा अभ्यास करना, जिसमें तुमको कोई मूर्ख न कह सके, कहने का साहस ही न हो। पुतली! तुमने रूप का परिवर्तन भी छोड़ दिया है, यह और भी बुरा है। सोने के कोर की साड़ी तुम्हारे मस्तक को अभी भी ढँके हैं, तनिक इसे खिसका दो। बालों को लहरा दो।लोग लगें पैर चूमने, प्यारी पुतली! समझी न?'' श्यामसुन्दर के उपन्यास की नायिका भी अपने नायक के गले लग गयी थी, प्रसन्नता से उसका मुख-मण्डल चमकने लगा। वह अपना आनन्द छिपा नहीं सकता था। पुतली की शिक्षा उसने सुनी कि नहीं, हम नहीं कह सकते, किन्तु वह हँसने लगा। कलावती को क्या सूझा, लो वह तो सचमुच उसके गले लगी हुई थी। अध्याय समाप्त हुआ। पुतली को अपना पाठ याद रहा कि नहीं, लैम्प के धीमे प्रकाश में कुछ समझ न पड़ा।
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Old 11-12-2012, 08:36 AM   #42
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1.गुंडा(समाप्त) 2. सिकंदर की शपथ(समाप्त) 3.अशोक(समाप्त) 4.पाप की पराजय..(समाप्त) 5. पत्थर की पुकार(समाप्त) 6. उस पार का योगी(समाप्त) 7.करुणा की विजय(समाप्त) 8.कलावती की शिक्षा(समाप्त) 9.चक्रवर्ती का स्तंभ..(जल्द ही )
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Old 13-12-2012, 10:44 AM   #43
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चक्रवर्ती का स्तंभ.... . ''बाबा यह कैसे बना?इसको किसने बनाया? इस पर क्या लिखा है?'' सरलाने कई सवाल किये। बूढ़ा धर्मरक्षित, भेड़ों के झुण्ड को चरते हुए देख रहा था। हरी टेकरी झारल के किनारे सन्ध्या के आपत की चादर ओढ़ कर नया रंग बदल रही थी। भेड़ों की मण्डली उस पर धीरे-धीरे चरती हुईउतरने-चढऩे में कई रेखा बना रही थी। अब की ध्यान आकर्षित करने के लिए सरला ने धर्मरक्षित का हाथ खींचकर उस स्तम्भ को दिखलाया। धर्मरक्षित ने निश्वास लेकर कहा-''बेटी, महाराज चक्रवर्ती अशोक ने इसे कब बनाया था। इस पर शील और धर्म की आज्ञा खुदी है। चक्रवर्ती देवप्रिय ने यह नहीं विचार कियाकि ये आज्ञाएँ बक-बक मानी जायँगी। धर्मोन्मत्त लोगों ने इस स्थान को ध्वस्तकर डाला। अब विहार मेंडर से कोई-कोई भिक्षुकभी कभी दिखाई पड़ता है।'' वृद्ध यह कहकर उद्विग्न होकर कृष्ण सन्ध्या का आगमन देखने लगा। सरला उसी के बगल में बैठ गयी। स्तम्भ के ऊपर बैठा हुआ आज्ञा का रक्षक सिंह धीरे-धीरे अन्धकार में विलीन हो गया। थोड़ी देर में एक धर्मशील कुटुम्ब उसी स्थान पर आया। जीर्ण स्तूप पर देखते-देखते दीपावली हो गयी। गन्ध-कुसुम से वह स्तूप अर्चित हुआ। अगुरु की गन्ध, कुसुम-सौरभ तथा दीपमाला से वह जीर्ण स्थान एक बारआलोकपूर्ण हो गया। सरला का मन उस दृश्य से पुलकित हो उठा। वह बार-बार वृद्ध को दिखाने लगी, धार्मिक वृद्ध की आँखों में उसभक्तिमयी अर्चना से जल-बिन्दु दिखाई देने लगे। उपासकों में मिलकर धर्मरक्षित और सरला ने भी भरे हुए हृदय से उस स्तूप को भगवान् के उद्देश्य से नमस्कार किया। -- -- टापों के शब्द वहाँ से सुनाई पड़ रहेहैं। समस्त भक्ति के स्थान पर भय ने अधिकारकर लिया। सब चकित होकरदेखने लगे। उल्काधारी अश्वारोहीऔर हाथों में नंगी तलवार! आकाश के तारों ने भी भय से मुँह छिपा लिया। मेघ-मण्डली रो-रो कर मना करने लगी, किन्तु निष्ठुर सैनिकों ने कुछ न सुना। तोड़-ताड़, लूट-पाट करके सब पुजारियों को, 'बुतपरस्तों' को बाँध कर उनके धर्म-विरोध कादण्ड देने के लिए ले चले। सरला भी उन्हीं में थी। धर्मरक्षित ने कहा-''सैनिकों, तुम्हारा भी कोई धर्म है?'' एक ने कहा-''सर्वोत्तम इस्लाम धर्म।'' धर्मरक्षित-''क्या उसमें दया की आज्ञा नहीं है?'' उत्तर न मिला। धर्मरक्षित-''क्या जिस धर्म में दया नहींहै, उसे भी तुम धर्म कहोगे?'' एक दूसरा-''है क्यों नहीं? दया करना हमारे धर्म में भी है।पैगम्बर का हुक्म है, तुम बूढ़े हो, तुम पर दया की जा सकती है। छोड़ दो जी, उसको।'' बूढ़ा छोड़ दिया गया। धर्मरक्षित-''मुझे चाहे बाँध लो, किन्तु इन सबों को छोड़ दो। वह भी सम्राट् था, जिसने इस स्तम्भ पर समस्त जीवों के प्रति दया करने की आज्ञा खुदवा दी है। क्या तुमभी देश विजय करके सम्राट् हुआ चाहते हो?तब दया क्यों नहीं करते?'' एक बोल उठा-''क्या पागल बूढ़े से बक-बक कर रहे हो? कोई ऐसी फिक्र करो कि यह किसी बुत की परस्तिश का ऊँचा मीनार तोड़ा जाय।'' सरला ने कहा-''बाबा, हमको यह सब लिये जा रहे हैं।'' धर्मरक्षित-''बेटी,असहाय हूँ, वृद्ध बाँहों में बल भी नहींहै, भगवान् की करुणा का स्मरण कर। उन्होंने स्वयं कहा है कि-''संयोग: विप्रयोगन्ता:।'' निष्ठुर लोग हिंसा के लिए परिक्रमण करने लगे। किन्तु पत्थरों में चिल्लाने की शक्ति नहीं है कि उसे सुनकर वे क्रूर आत्माएँ तुष्ट हों। उन्हें नीरव रोने में भी असमर्थ देखकर मेघ बरसने लगे। चपला चमकने लगी। भीषण गर्जन होने लगा। छिपने के लिए वे निष्ठुर भी स्थान खोजने लगे। अकस्मात् एक भीषण गर्जन और तीव्र आलोक, साथ ही धमाका हुआ। चक्रवर्ती का स्तम्भ अपने सामने यह दृश्य न देख सका। अशनिपात से खण्ड-खण्ड होकर गिर पड़ा। कोई किसी का बन्दी न रहा।
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Old 13-12-2012, 10:48 AM   #44
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1.गुंडा(समाप्त) 2. सिकंदर की शपथ(समाप्त) 3.अशोक(समाप्त) 4.पाप की पराजय..(समाप्त) 5. पत्थर की पुकार(समाप्त) 6. उस पार का योगी(समाप्त) 7.करुणा की विजय(समाप्त) 8.कलावतीकी शिक्षा(समाप्त) 9.चक्रवर्ती का स्तंभ..(समाप्त) 10.दुखिया(जल्द ही )
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Old 15-12-2012, 09:32 AM   #45
ALEX
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दुखिया.......
पहाड़ी देहात, जंगल के किनारे के गाँव और बरसात का समय! वह भी ऊषाकाल! बड़ा ही मनोरम दृश्य था। रात की वर्षा से आम के वृक्ष तराबोर थे। अभी पत्तों से पानी ढुलक रहा था। प्रभात के स्पष्ट होने पर भी धुँधले प्रकाश में सड़क के किनारे आम्रवृक्ष के नीचे बालिका कुछ देख रही थी। 'टप' से शब्द हुआ, बालिका उछल पड़ी, गिराहुआ आम उठाकर अञ्चल में रख लिया। (जो पाकेट की तरह खोंस कर बना हुआ था।)
दक्षिण पवन ने अनजान में फल से लदी हुई डालियों से अठखेलियाँ कीं। उसका सञ्चित धन अस्त-व्यस्त हो गया। दो-चार गिर पड़े। बालिका ऊषा की किरणों के समान ही खिल पड़ी। उसका अञ्चल भर उठा। फिर भी आशा में खड़ी रही। व्यर्थ प्रयास जान कर लौटी, और अपनी झोंपड़ी की ओर चल पड़ी। फूस की झोंपड़ी में बैठा हुआ उसका अन्धा बूढ़ा बाप अपनी फूटी हुई चिलम सुलगा रहा था। दुखिया ने आतेही आँचल से सात आमों में से पाँच निकाल कर बाप के हाथ में रख दिये। और स्वयं बरतन माँजने के लिए 'डबरे' की ओर चल पड़ी।
बरतनों का विवरण सुनिए, एक फूटी बटुली, एक लोंहदी और लोटा, यही उस दीन परिवार का उपकरण था। डबरे के किनारे छोटी-सी शिला पर अपने फटे हुए वस्त्र सँभाले हुए बैठकर दुखिया ने बरतन मलना आरम्भ किया।
अपने पीसे हुए बाजरे के आटे की रोटी पकाकर दुखिया ने बूढ़े बाप को खिलाया और स्वयं बचा हुआ खा-पीकर पास ही के महुए के वृक्ष की फैलीजड़ों पर सिर रख कर लेट रही। कुछ गुनगुनाने लगी। दुपहरी ढल गयी। अब दुखिया उठी और खुरपी-जाला लेकर घास छीलने चली। जमींदार के घोड़े के लिए घास वह रोज दे आती थी, कठिन परिश्रम से उसने अपने काम भर घास कर लिया, फिर उसे डबरे में रख कर धोने लगी।
सूर्य की सुनहली किरणें बरसाती आकाश पर नवीन चित्रकार की तरह कई प्रकार के रंग लगाना सीखने लगीं। अमराई और ताड़-वृक्षों की छाया उस शाद्वल जल में पड़कर प्राकृतिक चित्र का सृजन करने लगी। दुखिया को विलम्ब हुआ, किन्तु अभी उसकी घास धो नहीं गयी, उसे जैसे इसकी कुछ परवाह न थी। इसी समय घोड़े की टापों केशब्द ने उसकी एकाग्रता को भंग किया।
जमींदार कुमार सन्ध्या को हवा खाने के लिए निकले थे। वेगवान 'बालोतरा' जातिका कुम्मेद पचकल्यान आज गरम हो गया था। मोहनसिंह से बेकाबू होकर वह बगटूट भाग रहाथा। संयोग! जहाँ पर दुखिया बैठी थी, उसी के समीप ठोकर लेकर घोड़ा गिरा। मोहनसिंह भी बुरी तरह घायल होकर गिरे। दुखिया ने मोहनसिंह की सहायता की। डबरे सेजल लाकर घावों को धोनेलगी। मोहन ने पट्टी बाँधी, घोड़ा भी उठकर शान्त खड़ा हुआ। दुखिया जो उसे टहलाने लगी थी। मोहन ने कृतज्ञता की दृष्टि से दुखिया को देखा, वह एक सुशिक्षित युवक था। उसने दरिद्र दुखिया को उसकी सहायता के बदले ही रुपया देना चाहा। दुखिया ने हाथ जोड़कर कहा-''बाबू जी , हम तो आप ही के गुलाम हैं। इसी घोड़े को घास देने से हमारी रोटी चलती है।''
अब मोहन ने दुखिया को पहिचाना। उसने पूछा-
''क्या तुम रामगुलाम की लडक़ी हो?''
''हाँ, बाबूजी।''
''वह बहुत दिनों से दिखता नहीं!''
''बाबू जी, उनकी आँखों से दिखाई नहीं पड़ता।''
''अहा, हमारे लड़कपन में वह हमारे घोड़े को, जब हम उस पर बैठते थे, पकड़कर टहलाता था। वह कहाँ है?''
''अपनी मड़ई में।''
''चलो, हम वहाँ तक चलेंगे।''
किशोरी दुखिया को कौन जाने क्यों संकोच हुआ, उसने कहा-
''बाबूजी, घास पहुँचाने में देर हुई है। सरकार बिगड़ेंगे।''
''कुछ चिन्ता नहीं; तुम चलो।''
लाचार होकर दुखिया घास का बोझा सिर पर रखे हुए झोंपड़ी की ओर चल पड़ी। घोड़े पर मोहन पीछे-पीछे था।
3
''रामगुलाम, तुम अच्छे तो हो?''
''राज! सरकार! जुग-जुग जीओ बाबू!'' बूढ़े ने बिना देखे अपनी टूटी चारपाई से उठते हुए दोनों हाथ अपने सिर तक ले जाकर कहा।
''रामगुलाम, तुमने पहचान लिया?''
''न कैसे पहचानें, सरकार! यह देह पली है।''उसने कहा।
''तुमको कुछ पेन्शनमिलती है कि नहीं?''
''आप ही का दिया खाते हैं, बाबूजी। अभीलडक़ी हमारी जगह पर घास देती है।''
भावुक नवयुवक ने फिर प्रश्न किया, ''क्यों रामगुलाम, जब इसका विवाह हो जायेगा,तब कौन घास देगा?''
रामगुलाम के आनन्दाश्रु दु:ख की नदी होकर बहने लगे। बड़े कष्ट से उसने कहा-''क्या हम सदा जीते रहेंगे?''
अब मोहन से नहीं रहा गया, वहीं दो रुपये उस बुड्ढे को देकर चलते बने। जाते-जाते कहा-''फिर कभी।''
दुखिया को भी घास लेकर वहीं जाना था। वहपीछे चली।
जमींदार की पशुशाला थी। हाथी, ऊँट, घोड़ा, बुलबुल, भैंसा, गाय, बकरे, बैल, लाल, किसी की कमी नहीं थी। एक दुष्ट नजीब खाँइन सबों का निरीक्षक था। दुखिया को देर से आते देखकर उसे अवसर मिला। बड़ी नीचता से उसने कहा-''मारे जवानी के तेरा मिजाज ही नहींमिलता! कल से तेरी नौकरी बन्द कर दी जायगी। इतनी देर?''
दुखिया कुछ नहीं बोलती, किन्तु उसको अपने बूढ़े बाप की यादआ गयी। उसने सोचा, किसी तरह नौकरी बचानी चाहिए, तुरन्त कह बैठी-
''छोटे सरकार घोड़ेपर से गिर पड़े रहे। उन्हें मड़ई तक पहुँचाने में देर .....।''
''चुप हरामजादी! तभी तो तेरा मिजाज और बिगड़ा है। अभी बड़े सरकार के पास चलते हैं।''
वह उठा और चला। दुखिया ने घास का बोझापटका और रोती हुई झोंपड़ी की ओर चलती हुई। राह चलते-चलते उसे डबरे का सायंकालीन दृश्य स्मरण होने लगा। वह उसी में भूल कर अपने घर पहुँच गई।
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Last edited by ALEX; 15-12-2012 at 09:40 AM.
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1.गुंडा(समाप्त)
2. सिकंदर की शपथ(समाप्त)

3.अशोक(समाप्त)
4.पाप की पराजय..
(समाप्त)
5. पत्थर की पुकार(समाप्त)
6. उस
पार का योगी(समाप्त)
7.करुणा की विजय
(समाप्त)
8.कलावतीकी शिक्षा(समाप्त)

9.चक्रवर्ती का स्तंभ..(समाप्त)
10.दुखिया(समाप्त)
11.प्रलय(जल्द ही )
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Old 17-12-2012, 08:44 AM   #47
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प्रलय
हिमावृत चोटियों की श्रेणी, अनन्त आकाशके नीचे क्षुब्ध समुद्र! उपत्यका की कन्दरा में, प्राकृतिक उद्यान में खड़े हुए युवक ने युवती से कहा-''प्रिये!''
''प्रियतम! क्या होने वाला है?''
''देखो क्या होता है, कुछ चिन्ता नहीं-आसव तो है न?''
''क्यों प्रिय! इतना बड़ा खेल क्या यों ही नष्ट हो जायेगा?''
''यदि नष्ट न हो, खेलज्यों-का-त्यों बना रहे तब तो वह बेकार हो जायेगा।''
''तब हृदय में अमर होने की कल्पना क्यों थी?''
''सुख-भोग-प्रलोभन के कारण।''
''क्या सृष्टि की चेष्टा मिथ्या थी?''
''मिथ्या थी या सत्य, नहीं कहा जा सकता- पर सर्ग प्रलय के लिए होता है, यह निस्सन्देह कहा जायगा, क्योंकि प्रलय भी एक सृष्टि है।''
''अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए बड़ाउद्योग था''-युवती ने निश्वास लेकर कहा।
''यह तो मैं भी मानूँगा कि अपने अस्तित्व के लिए स्वयं आपको व्यय कर दिया।''-युवक ने व्यंग्य से कहा।
युवती करुणाद्र्रहो गयी। युवक ने मन बदलने के लिए कहा-''प्रिये! आसव ले आओ।''
युवती स्फटिक-पात्र में आसव ले आयी।युवक पीने लगा।
''सदा रक्षा करने पर भी यह उत्पात?'' युवती ने दीन होकर जिज्ञासा की।
''तुम्हारे उपासकों ने भी कम अपव्यय नहीं किया।'' युवक ने सस्मित कहा।
''ओह, प्रियतम! अब कहाँ चलें?'' युवती ने मान करके कहा।
कठोर होकर युवक ने कहा-''अब कहाँ, यहीं से यह लीला देखेंगे।''
सूर्य का अलात-चक्र के समान शून्य में भ्रमण, और उसके विस्तार का अग्नि-स्फुलिंग-वर्षा करते हुए आश्चर्य-संकोच! हिम-टीलों का नवीन महानदों के रूप में पलटना, भयानक ताप से शेष प्राणियों का पलटना! महाकापालिक के चिताग्नि-साधन का वीभत्स दृश्य! प्रचण्ड आलोक का अन्धकार!!!
युवक मणि-पीठ पर सुखासीन होकर आसव पान कर रहा है। युवती त्रस्त नेत्रों से इस भीषण व्यापार को देखते हुए भी नहीं देखरही है। जवाकुसुम सदृश और जगत् का तत्काल तरल पारद-समान रंग बदलना, भयानक होनेपर भी युवक को स्पृहणीय था। वह सस्मित बोला-''प्रिये! कैसा दृश्य है।''
''इसी का ध्यान करके कुछ लोगों ने आध्यात्मिकता का प्रचार किया था।'' युवती ने कहा।
''बड़ी बुद्धिमत्ता थी!'' हँस कर युवक ने कहा। वह हँसी ग्रहगण की टक्कर के शब्द से भी कुछ ऊँची थी।
''क्यों?''
''मरण के कठोर सत्य से बचने का बहाना या आड़।''
''प्रिय! ऐसा न कहो।''
''मोह के आकस्मिक अवलम्ब ऐसे ही होते हैं।'' युवक ने पात्र भरते हुए कहा।
''इसे मैं नहीं मानूँगी।'' दृढ़ होकर युवती बोली।
सामने की जल-राशि आलोड़ित होने लगी। असंख्य जलस्तम्भ शून्य नापने को ऊँचे चढऩे लगे। कण-जाल से कुहासा फैला। भयानक ताप पर शीतलता हाथ फेरने लगी। युवती ने और भी साहस से कहा-''क्या आध्यात्मिकता मोह है?''
''चैतनिक पदार्थों का ज्वार-भाटा है। परमाणुओं से ग्रथित प्राकृत नियन्त्रण-शैली का एक बिन्दु! अपना अस्तित्व बचाये रखने की आशा में मनोहरकल्पना कर लेता है। विदेह होकर विश्वात्मभाव की प्रत्याशा, इसी क्षुद्र अवयव में अन्तर्निहित अन्त:करण यन्त्र का चमत्कार साहस है, जो स्वयं नश्वर उपादनों को साधन बनाकर अविनाशी होने का स्वप्न देखता है। देखो, इसी सारे जगत् के लय की लीला में तुम्हें इतना मोह हो गया?''
प्रभञ्जन का प्रबल आक्रमण आरम्भ हुआ। महार्णव की आकाशमापक स्तम्भ लहरियाँ भग्न होकर भीषण गर्जन करने लगीं। कन्दरा के उद्यान का अक्षयवट लहरा उठा। प्रकाण्ड शाल-वृक्ष तृण की तरह उस भयंकर फूत्कार से शून्य में उड़ने लगे। दौड़ते हुए वारिद-वृन्द के समान विशाल शैल-शृंग आवर्त में पड़कर चक्र-भ्रमण करने लगे। उद्गीर्ण ज्वालामुखियों के लावे जल-राशि को जलानेलगे। मेघाच्छादित, निस्तेज, स्पृश्य, चन्द्रबिम्ब के समान सूर्यमण्डल महाकापालिक के पिये हुए पान-पात्र की तरह लुढक़ने लगा। भयंकर कम्प और घोर वृष्टि में ज्वालामुखी बिजली के समान विलीन होने लगे।
युवक ने अट्टहास करते हुए कहा-''ऐसी बरसात काहे को मिलेगी!एक पात्र और।''
युवती सहमकर पात्र भरती हुई बोली-''मुझे अपने गले से लगा लो, बड़ा भय लगता है।''
युवक ने कहा-''तुम्हारा त्रस्तकरुण अर्ध कटाक्ष विश्व-भर की मनोहर छोटी-सी आख्यायिका का सुख दे रहा है। हाँ एक.....''
''जाओ, तुम बड़े कठोर हो .....।''
''हमारी प्राचीनता और विश्व की रमणीयता ने तुम्हें सर्ग और प्रलय की अनादि लीला देखने के लिए उत्साहित किया था। अब उसका ताण्डव नृत्य देखो। तुम्हें भी अपनी कोमल कठोरता का बड़ा अभिमान था .....।''
''अभिमान ही होता, तो प्रयास करके तुमसे क्यों मिलती? जाने दो, तुम मेरे सर्वस्व हो। तुमसे अब यह माँगती हूँ कि अब कुछ न माँगूँ, चाहे इसके बदले मेरी समस्त कामना ले लो।'' युवती ने गले में हाथ डालकर कहा।
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भयानक शीत, दूसरे क्षण असह्य ताप, वायु के प्रचण्ड झोंकों में एक के बाद दूसरे की अद्*भुत परम्परा, घोर गर्जन, ऊपर कुहासाऔर वृष्टि, नीचे महार्णव के रूप में अनन्त द्रवराशि, पवन उन्चासों गतियों से समग्र पञ्चमहाभूतों को आलोड़ित कर उन्हें तरल परमाणुओं के रूप में परिवर्तित करने के लिए तुला हुआ है। अनन्त परमाणुमय शून्य में एक वट-वृक्षकेवल एक नुकीले शृंग के सहारे स्थित है। प्रभञ्जन के प्रचण्ड आघातों से सब अदृश्य है। एक डाल पर वही युवक और युवती! युवक के मुख-मण्डल के प्रकाश से ही आलोक है।युवती मूर्च्छितप्राय है। वदन-मण्डल मात्र अस्पष्ट दिखाई दे रहा है। युवती सचेत होकर बोली-
''प्रियतम!''
''क्या प्रिये?''
''नाथ! अब मैं तुमको पाऊँगी।''
''क्या अभी तक नहीं पाया था?''
''मैं अभी तक तुम्हें पहचान भी नहीं सकी थी। तुम क्याहो, आज बता दोगे?''
''क्या अपने को जान लिया था; तुम्हारा क्या उद्देश्य था?''
''अब कुछ-कुछ जान रही हूँ; जैसे मेरा अस्तित्व स्वप्न था; आध्यात्मिकता का मोह था; जो तुमसे भिन्न, स्वतन्त्र स्वरूप की कल्पना कर ली थी, वह अस्तित्व नहीं, विकृति थी। उद्देश्य की तो प्राप्ति हुआ हीचाहती है।''
युवती का मुख-मण्डल अस्पष्ट प्रतिबिम्ब मात्र रह गया था-युवक एक रमणीय तेज-पुंज था।
''तब और जानने की आवश्यकता नहीं, अब मिलना चाहती हो?''
''हूँ'' अस्फुट शब्द का अन्तिम भाग प्रणव के समान गूँजने लगा!
''आओ, यह प्रलय-रूपी तुम्हारा मिलन आनन्दमय हो। आओ।''
अखण्ड शान्ति! आलोक!! आनन्द!!!
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Old 19-12-2012, 07:47 PM   #48
ALEX
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***आकाशदीप***
''बन्दी!''

''क्या है? सोने दो।''

''मुक्त होना चाहतेहो?''

''अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।''

''फिर अवसर न मिलेगा।''

''बड़ा शीत है, कहीं से एक कम्बल डालकर कोईशीत से मुक्त करता।''

''आँधी की सम्भावनाहै। यही अवसर है। आज मेरे बन्धन शिथिल हैं।''

''तो क्या तुम भी बन्दी हो?''

''हाँ, धीरे बोलो, इसनाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी हैं।''

''शस्त्र मिलेगा?''

''मिल जायगा। पोत से सम्बद्ध रज्जु काट सकोगे?''

''हाँ।''

समुद्र में हिलोरें उठने लगीं। दोनों बन्दी आपस में टकराने लगे। पहले बन्दी ने अपने को स्वतन्त्र कर लिया। दूसरे का बन्धन खोलने का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक-दूसरे को स्पर्श सेपुलकित कर रहे थे। मुक्ति की आशा-स्नेह का असम्भावित आलिंगन। दोनों ही अन्धकार में मुक्त हो गये। दूसरे बन्दी ने हर्षातिरेक से उसको गले से लगा लिया। सहसाउस बन्दी ने कहा-''यह क्या? तुम स्त्री हो?''

''क्या स्त्री होनाकोई पाप है?''-अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा।

''शस्त्र कहाँ है-तुम्हारा नाम?''

''चम्पा।''

तारक-खचित नील अम्बर और समुद्र के अवकाश में पवन ऊधम मचारहा था। अन्धकार से मिलकर पवन दुष्ट हो रहा था। समुद्र में आन्दोलन था। नौका लहरों में विकल थी। स्त्री सतर्कता से लुढक़ने लगी। एक मतवाले नाविक के शरीर से टकराती हुई सावधानी से उसका कृपाण निकालकर, फिर लुढक़ते हुए, बन्दी केसमीप पहुँच गई। सहसा पोत से पथ-प्रदर्शक नेचिल्लाकर कहा-''आँधी!''

आपत्ति-सूचक तूर्य बजने लगा। सब सावधान होने लगे। बन्दी युवक उसी तरह पड़ा रहा। किसी ने रस्सी पकड़ी, कोई पाल खोल रहा था। पर युवक बन्दी ढुलक कर उस रज्जु के पास पहुँचा, जो पोत से संलग्न थी। तारे ढँक गये। तरंगें उद्वेलित हुईं, समुद्र गरजने लगा। भीषण आँधी, पिशाचिनी के समान नाव को अपने हाथों में लेकर कन्दुक-क्रीड़ा और अट्टहास करने लगी।

एक झटके के साथ ही नाव स्वतन्त्र थी। उस संकट में भी दोनों बन्दी खिलखिला कर हँस पड़े। आँधी के हाहाकार में उसे कोई नसुन सका।
अनन्त जलनिधि में ऊषा का मधुर आलोक फूट उठा। सुनहली किरणों और लहरों की कोमल सृष्टि मुस्कराने लगी। सागर शान्त था। नाविकों ने देखा, पोत का पता नहीं। बन्दी मुक्त हैं।

नायक ने कहा-''बुधगुप्त! तुमको मुक्त किसने किया?''

कृपाण दिखाकर बुधगुप्त ने कहा-''इसने।''

नायक ने कहा-''तो तुम्हें फिर बन्दी बनाऊँगा।''

''किसके लिये? पोताध्यक्ष मणिभद्र अतल जल में होगा-नायक! अब इस नौका का स्वामी मैं हूँ।''

''तुम? जलदस्यु बुधगुप्त? कदापि नहीं।''-चौंक कर नायक ने कहा और अपना कृपाण टटोलने लगा! चम्पा ने इसके पहले उस पर अधिकार कर लिया था। वहक्रोध से उछल पड़ा।

''तो तुम द्वंद्वयुद्ध के लिये प्रस्तुत हो जाओ;जो विजयी होगा, वह स्वामी होगा।''-इतना कहकर बुधगुप्त ने कृपाण देने का संकेत किया। चम्पा ने कृपाण नायक के हाथ में दे दिया।

भीषण घात-प्रतिघात आरम्भ हुआ। दोनों कुशल, दोनों त्वरित गतिवाले थे। बड़ी निपुणता से बुधगुप्त ने अपना कृपाण दाँतों से पकड़कर अपने दोनों हाथ स्वतन्त्र कर लिये। चम्पा भय और विस्मय से देखने लगी। नाविक प्रसन्न हो गये। परन्तु बुधगुप्त ने लाघव से नायक का कृपाण वाला हाथ पकड़ लिया और विकटहुंकार से दूसरा हाथ कटि में डाल, उसे गिरा दिया। दूसरे ही क्षण प्रभात की किरणों में बुधगुप्त का विजयी कृपाण हाथों में चमक उठा। नायक की कातर आँखें प्राण-भिक्षा माँगने लगीं।

बुधगुप्त ने कहा-''बोलो, अब स्वीकार है कि नहीं?''

''मैं अनुचर हूँ, वरुणदेव की शपथ। मैं विश्वासघात नहीं करूँगा।'' बुधगुप्त नेउसे छोड़ दिया।

चम्पा ने युवक जलदस्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनी स्निग्ध दृष्टि और कोमल करों से वेदना विहीन कर दिया। बुधगुप्त के सुगठित शरीर पर रक्त-बिन्दु विजय-तिलक कर रहे थे।

विश्राम लेकर बुधगुप्त ने पूछा ''हम लोग कहाँ होंगे?''

''बालीद्वीप से बहुत दूर, सम्भवत: एक नवीन द्वीप के पास, जिसमें अभी हम लोगों का बहुत कम आना-जाना होता है। सिंहल के वणिकों का वहाँ प्राधान्य है।''

''कितने दिनों में हम लोग वहाँ पहुँचेंगे?''

''अनुकूल पवन मिलनेपर दो दिन में। तब तक के लिये खाद्य का अभावन होगा।''

सहसा नायक ने नाविकों को डाँड़ लगाने की आज्ञा दी, और स्वयं पतवार पकड़कर बैठ गया। बुधगुप्त के पूछने पर उसने कहा-''यहाँ एक जलमग्न शैलखण्ड है। सावधान न रहने से नाव टकराने काभय है।'
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''तुम्हें इन लोगोंने बन्दी क्यों बनाया?''
''वणिक् मणिभद्र कीपाप-वासना ने।''
''तुम्हारा घर कहाँहै?''
''जाह्नवी के तट पर। चम्पा-नगरी की एक क्षत्रिय बालिका हूँ। पिता इसी मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे। माता का देहावसान हो जाने पर मैं भी पिता के साथ नाव पर ही रहने लगी। आठ बरस से समुद्र ही मेरा घर है।तुम्हारे आक्रमण के समय मेरे पिता ने ही सात दस्युओं को मारकर जल-समाधि ली। एक मास हुआ, मैं इस नील नभ के नीचे, नील जलनिधि के ऊपर, एक भयानक अनन्ततामें निस्सहाय हूँ-अनाथ हूँ। मणिभद्र ने मुझसे एक दिन घृणित प्रस्ताव किया। मैंने उसे गालियाँ सुनाईं। उसी दिन से बन्दी बना दी गई।''-चम्पा रोष से जल रही थी।
''मैं भी ताम्रलिप्ति का एक क्षत्रिय हूँ, चम्पा! परन्तु दुर्भाग्य से जलदस्यु बन कर जीवन बिताता हूँ। अब तुम क्या करोगी?''
''मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूँगी। वह जहाँ ले जाय।'' -चम्पा की आँखें निस्सीम प्रदेश में निरुद्देश्य थी। किसी आकांक्षा के लाल डोरे न थे। धवल अपांगों में बालकों के सदृश विश्वास था। हत्या-व्यवसायी दस्यु भी उसे देखकर काँप गया। उसके मन मेंएक सम्भ्रमपूर्ण श्रद्धा यौवन की पहली लहरों को जगाने लगी। समुद्र-वक्ष पर विलम्बमयी राग-रञ्जित सन्ध्या थिरकने लगी। चम्पा के असंयत कुन्तल उसकी पीठ पर बिखरे थे। दुर्दान्त दस्यु ने देखा , अपनी महिमा में अलौकिक एक तरुण बालिका! वह विस्मय से अपने हृदय को टटोलने लगा। उसे एक नई वस्तु का पता चला। वह थी-कोमलता!
उसी समय नायक ने कहा-''हम लोग द्वीप के पास पहुँच गये।''
बेला से नाव टकराई। चम्पा निर्भीकता से कूद पड़ी। माँझी भी उतरे। बुधगुप्त ने कहा-''जब इसका कोई नाम नहीं है, तो हम लोग इसे चम्पा-द्वीप कहेंगे।''
चम्पा हँस पड़ी।
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Last edited by ALEX; 19-12-2012 at 08:06 PM.
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अलेक्स जी यह लास्ट वाला पोस्ट दिख नहीं रहा है
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