15-05-2012, 02:53 PM | #41 |
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Re: कुतुबनुमा
मीडिया आजकल राजनीतिक रूप से चर्चा में है। मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। रविवार को राजस्थान की राजधानी जयपुर में मीडिया से जुड़े दो बड़े कार्यक्रम हुए। एक कार्यक्रम नेशनल सैटेलाइट चैनल के शुभारंभ का था और दूसरा पत्रकारों के सम्मान का। सेटेलाइट टीवी के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत मुख्य अतिथि थे, जबकि पत्रकार सम्मान समारोह में देश के जाने-माने पत्रकार रामबहादुर राय। दोनों कार्यक्रमों में मीडिया की वर्तमान स्थिति पर सवाल उठाते हुए चिंता जताई गई और जिम्मेदारियों की चर्चा गई। इसमें कोई दोराय नहीं कि टीवी चैनल पर प्रसारित और अखबारों में छपी खबरों को लोग सबसे ज्यादा तरजीह देते हैं। गांव-देहात सहित शहरों में भी छपी हुई खबरों को सबसे ज्यादा विश्वसनीय माना जाता है। गांव-ढाणियों में तो लोग इस बात पर अच्छी-खासी बहस भी करते हैं कि अखबार में छपी है, इसलिए यह बात गलत हो ही नहीं सकती। सच्चाई यह है कि मीडिया का व्यापारीकरण होता जा रहा है। इसके अलावा भी कई कारण हैं। इसलिए कई बार असावधानीवश या अन्य कारणों से अखबारों या टीवी चैनलों पर गलत खबरें भी आती हैं। टीवी चैनलों पर आजकल सबसे चर्चित शख्स निर्मल बाबा भी संकट में फंसे हुए हैं। वे फलां रंग के कपड़े पहनने, गोलगप्पे खाने, चैटिंग करने, फलां मंदिर में जाकर इतने रुपए का प्रसाद चढ़ाने के नुस्खे लोगों को बताते थे, अब उनके खिलाफ पुलिस जांच कर रही है। निर्मल बाबा के टीवी चैनलों पर छाए रहने का कारण पूरा व्यावसायिक है। अब बात करें पत्रकार सम्मान समारोह की। इसमें जाने-माने पत्रकार रामबहादुर राय ने मीडिया को आईना दिखाने में कसर नहीं छोड़ी। उनका कहना था कि आज की परिस्थितियों में मीडिया मोटा और रोगी हो गया है और इसका चरित्र बदल गया है। उन्होंने देश में चलने वाले 650 चैनल और प्रकाशित होने वाली बयासी हजार पत्र-पत्रिकाएं जो कुछ छपता और प्रसारित होता है, उस पर सवाल उठाए। राय का कहना था कि समय के साथ अखबार मुनाफाखोरी और सत्ता की बांह मरोड़ने वाला उपक्रम बन गए हैं। इतना ही नहीं, चुनाव के समय खबरों के बेचने-खरीदने के साथ अब तो सामान्यत: संस्थानों की खरीद हो रही है। उन्होंने मीडिया पर एकाधिकार करने वाले समूहों को लोकतंत्र का खतरा बताते हुए कहा कि ये देश के नीति निर्माताओं को दबाने के लिए किया जा रहा है। इन सब चर्चाओं का निष्कर्ष यही है कि मीडिया की विश्वसनीयता और चरित्र पर आज जो सवाल उठ रहे हैं, उस पर मीडिया संस्थानों और पत्रकार संगठनों को विचार करने की जरूरत है ताकि खबरों पर लोगों का विश्वास बना रहे।
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15-05-2012, 03:14 PM | #42 |
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Re: कुतुबनुमा
जो कहा, उस पर अमल करें सांसद
संसद के साठ वर्ष पूर्ण होने के मौके पर आयोजित विशेष सत्र में जिस तरह से प्रधानमंत्री समेत वक्तव्य देने वाले सभी सदस्यों ने संसद को सर्वोच्च मानते हुए जो भावनाएं व्यक्त की, वह निश्चित रूप से हमारे लोकतंत्र के लिए एक अच्छा संकेत है। सदस्यों ने कार्यवाही में बार-बार बाधा पहुंचाए जाने पर चिन्ता व्यक्त करते हुए आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता जताई, साथ ही दलगत राजनीति से ऊपर उठकर संसद के आधिपत्य का संरक्षण किए जाने पर भी जोर दिया। सदन के नेता प्रणव मुखर्जी ने ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत बताई, जिससे संसद की कार्यवाही बाधित नहीं हो और चर्चा के माध्यम से मुद्दों का समाधान निकाला जाए। यह तो तय है कि कई बार सदन में कई मुद्दों पर उत्तेजना बढ़ जाती है, जिसके कारण कार्यवाही बाधित होती है और प्रणव मुखर्जी ने भी माना कि इसमें हमारे दल के लोग भी होते हैं और दूसरे दलों के लोग होते हैं, लेकिन अगर कामकाज बाधित होता है, तब हम अपनी बात नहीं रख पाते। हमें ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत है, जिससे सदन का कामकाज बाधित नहीं हो; लेकिन लगता है कि विपक्ष कहता कुछ है और करता कुछ है। रविवार को हुई इस गहन चर्चा के बावजूद विपक्षी सदस्यों ने सोमवार को दोनों सदनों में केन्द्रीय मंत्री पी. चिदम्बरम के एक मामले को लेकर शोर किया और सदन की कार्यवाही भी दो बार स्थगित करनी पड़ी। राज्यसभा में भाजपा के बलबीर पुंज चिदम्बरम के एयरसेल मामले को उठाने लगे, तो सभापति डॉ. हामिद अंसारी ने कहा कि यह मामला शून्यकाल में उठाया जाना चाहिए, लेकिन पुंज ने एक नहीं सुनी और बार-बार चिदम्बरम का मामला उठाने लगे। प्रश्नकाल बाधित हो गया और सदन की कार्यवाही पर भी इसका असर पड़ा। इस पर संसदीय कार्य राज्यमंत्री राजीव शुक्ला ने कहा- कल ही हमने कसमें खाई हैं। आज तो ऐसा न कीजिए। अपना धैर्य मत खोइए। तब जाकर पुंज ने अपना स्थान ग्रहण किया। कुल मिलाकर संसद सदस्यों को अब यह तो देखना ही होगा कि उनकी करनी और कथनी में अंतर न हो। निश्चित रूप से संसद हमारे लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था है और यहां जिन भी विषयों पर चर्चा होती है वह न केवल मूल्यवान होती है, बल्कि उस पर अमल भी होता है। ऐसे में सभी सदस्यों, खासकर विपक्ष को संसद की गरिमा का ध्यान रखना ही चाहिए। यहां अटल बिहारी वाजपेयी के संसदीय आचरण का स्मरण किया जाना चाहिए कि किस तरह वे 'सिर्फ विरोध के लिए विरोध' नहीं कर अच्छे कार्यों के लिए सत्ता पक्ष की सदैव प्रशंसा भी किया करते थे और यही वह सबसे बड़ी वज़ह थी कि जब भी वे कोई प्रतिकूल टिप्पणी करते थे, तो सारा देश उसे गंभीरता से लेता था ! आज जरूरत यही है कि प्रत्येक संसद सदस्य उसी आचरण का अनुसरण करे !
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17-05-2012, 12:59 AM | #43 |
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Re: कुतुबनुमा
फिक्सिंग के जाल से बचना ही होगा
हमारे शास्त्रों में कहा गया है - अति सर्वत्र वर्जियेत। अति किसी भी चीज की हो, कहीं भी हो, खराब ही होती है। देश में क्रिकेट बेहद लोकप्रिय खेल हो चुका है। बारहों माह हमारे देश की टीम और उसके खिलाड़ी किसी न किसी मैच में खेलते दिखार्ई दे जाएंगे। इस खेल में खिलाड़ियों को पैसा भी मानो छप्पर फाड़ कर मिल रहा है, मगर फिर भी यह खेल स्पॉट फिक्सिंग के दलदल में फंसता चला जा रहा है। फटाफट क्रिकेट के नए संस्करण 'आईपीएल' ने भी देश के क्रिकेट प्रेमियों को एक नया मनोरंजन प्रदान किया। इस स्पर्धा में भी पैसा अनाप-शनाप है, लेकिन एक टीवी चैनल ने दावा किया कि उसने एक स्टिंग आपरेशन किया है, जिसमें कई खिलाड़ियों को छिपे हुए कैमरे में यह स्वीकार करते हुए कैद किया गया है कि उन्हें अनाधिकृत रूप से आईपीएल नीलामी में तय राशि से कहीं अधिक पैसा मिलता है। इसकी प्रारंभिक जांच हुई। आईपीएल के अध्यक्ष राजीव शुक्ला ने मंगलवार शाम घोषणा की कि पांच प्रथम श्रेणी क्रिकेटरों को स्पाट फिक्सिंग प्रकरण में क्रिकेट के सभी प्रारूपों से निलंबित कर दिया गया है। शुक्ला ने यह भी कहा कि ये खिलाड़ी तब तक निलंबित रहेंगे, जब तक आयुक्त रवि स्वामी इस मामले जांच पूरी नहीं कर लेते। स्वामी की रिपोर्ट बीसीसीआई की अनुशासन समिति को अंतिम कार्रवाई के लिए सौंपी जाएगी। निलंबित किए गए पांच खिलाड़ी टी.पी. सुधींद्र, मोहनीश मिश्रा, अभिनव बाली, अमित यादव और शलभ श्रीवास्तव हैं। इस पूरे प्रकरण में यह बात साफ हो गई कि क्रिकेट में इतनी दौलत बरसने के बावजूद खिलाड़ियों को पैसे के लिए किस तरह बरगलाया जा सकता है। ऐसे में सरकार और क्रिकेट प्रबंधन से जुड़े लोगों को इस पर न केवल गौर करना होगा, बल्कि यह भी ध्यान देना होगा कि भद्र लोगों का माना जाने वाला यह खेल कहीं फिक्सिंग में ही उलझ कर अपनी चमक न खो दे, क्योंकि आईपीएल तो वैसे भी विशुद्ध रूप से पैसों की चमक वाली स्पर्धा है। इस खबर के सामने आते ही उच्च स्तर पर हलचलें तेज हुई, जो यह जाहिर करता है कि सरकार इस विषय पर काफी गंभीर है। राजीव शुक्ला ने पहले ही कह दिया था कि यदि कोई खिलाड़ी स्पाट फिक्सिंग का दोषी पाया गया, तो उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। आशा की जानी चाहिए भारतीय क्रिकेट में अब ऐसा नहीं होगा।
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17-05-2012, 11:10 PM | #44 |
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Re: कुतुबनुमा
दाऊद के साथियों पर प्रतिबंध : अच्छा कदम
दक्षिण एशिया में अपराध और आतंकवाद के गठजोड़ को निशाना बनाते हुए अमेरिका ने कुख्यात अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम के दो आला गुर्गों छोटा शकील और टाइगर मेमन को मादक पदार्थों का प्रमुख तस्कर घोषित कर इन पर ‘किंगपिन अधिनियम’ के तहत प्रतिबंध लगाने की जो घोषणा की है, वह वास्तव में स्वागतयोग्य कदम है। अमेरिका का यह कदम भारत द्वारा इस विषय पर अब तक उठाए जा रहे कदमों की ही एक तरह से पुष्टि भी है, क्योंकि भारत पिछले कई बरसों से यह कहता आ रहा है कि नारकोटिक आतंकवाद केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि दुनियाभर के लिए खतरा है। भारत तो अब तक यह भी कहता रहा है कि छोटा शकील, टाइगर मेमन के अलावा उनका आका दाऊद पिछले कई वर्षों से पाकिस्तान में हैं और उसे वहां पूरा संरक्षण भी मिला हुआ है। भारत द्वारा पाकिस्तान को दी गई ‘सर्वाधिक वांछित’ लोगों की सूची में इन तीनों के नाम भी हैं। अमेरिकी वित्त विभाग के विदेशी संपत्ति नियंत्रण कार्यालय ने छोटा शकील और टाइगर मेमन को मादक पदार्थों का विशेष रूप से नामित तस्कर तो करार दिया ही है, साथ ही यह भी घोषणा की है कि भविष्य में कोई अमेरिकी नागरिक उनके साथ वित्तीय या वाणिज्यिक लेन-देन नहीं कर सकेगा। यदि शकील और मेमन की कोई संपत्ति अमेरिका के अधिकार-क्षेत्र में होगी, तो उसे भी जब्त कर लिया जाएगा। छोटा शकील दाऊद का दायां हाथ माना जाता है, जो दाऊद की ‘डी कंपनी’ और दूसरे संगठित आपराधिक एवं आतंकवादी संगठनों के बीच समन्वय कायम करने का काम करता है। टाइगर मेमन भी दाऊद का दूसरा भरोसेमंद साथी है, जो समूचे दक्षिण एशिया में संगठन के कारोबार पर नियंत्रण रखता है। वर्ष 1993 के मुंबई धमाकों में दाऊद, शकील और मेमन की संलिप्तता के लिए भारतीय अधिकारी तो उनकी तलाश कर ही रहे हैं, इंटरपोल ने भी शकील और मेमन के लिए औपबंधिक गिरफ्तारी वारंट या रेड कॉर्नर नोटिस जारी कर रखा है। खुद दाऊद को अमेरिका ने 2003 में विशेष तौर पर नामित वैश्विक आतंकवादी और वर्ष 2006 में मादक पदार्थों का प्रमुख विदेशी तस्कर घोषित किया था। ऐसे में इन्हें संरक्षण देने वालों को चाहिए कि वह इन्हें सहारा देने की बजाय न्याय के दायरे में लाएं।
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18-05-2012, 02:22 AM | #45 |
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Re: कुतुबनुमा
स्वतंत्र न्यायपालिका पर विश्वसनीयता की मुहर
भारत की न्यायपालिका कितनी विश्वसनीय है उस पर अंतर्राष्ट्रीय न्याय अदालत (आईसीजे) ने हाल ही में उस वक्त मुहर लगा दी, जब उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश दलबीर भंडारी का चयन आईसीजे में किया गया। यह भारत के लिए तो गर्व की बात है ही, साथ ही इससे यह भी साबित होता है कि दुनिया की नजरों में भारतीय न्यायपालिका की शीर्षस्थ अदालत की छवि कितनी साफ-सुथरी है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को पूरी दुनिया की अदालतों में उदाहरण के रूप में पेश भी किया जाता है। खुद न्यायाधीश भंडारी ने अपने चयन के बाद कहा कि अपनी स्वतंत्रता, साख एवं लोकतंत्र को मजबूती देने के लिए भारतीय उच्चतम न्यायालय की अलग पहचान और इज्जत है और इसी का नतीजा है कि एक भारतीय को 15 सदस्यीय आईसीजे में स्थान मिला है। 64 वर्षीय भंडारी का चुनाव आईसीजे के सदस्य जार्डन के न्यायाधीश शौकत अल खास्वानेह के इस्तीफे के कारण खाली हुई सीट पर हुआ है और इस चुनाव में उन्होंने फिलीपींस के न्यायाधीश फ्लोरेण्टिनो फेलिसियानो को हराया। न्यायाधीश भंडारी को संयुक्त राष्ट्र महासभा के 180 में से 122 वोट मिले। जबकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 15 में से 13 वोट भंडारी के पक्ष में पड़े। प्राप्त मतों के आधार पर ही यह कहा जा सकता है कि 95 प्रतिशत मत भारत के पक्ष में पड़े जो यह साबित भी करता है कि भारत को लेकर दुनिया के अन्य देशों में कितना विश्वास है। न्यायाधीश भंडारी का कहना है कि हाल के वर्षों में आईसीजे का महत्व काफी बढ़ गया है। पहले केवल समुद्री क्षेत्रों से जुडे मामले आते थे लेकिन अब पर्यावरण और पारिस्थितिकी संरक्षण से जुडे मामलों का बोझ भी काफी बढ़ता जा रहा है। भंडारी संयुक्त राष्ट्र के प्रधान न्यायिक संस्थान आईसीजे में छह साल सेवाएं देंगे। वह दोबारा नौ साल के लिए फिर चुने जा सकते हैं। एक भारतीय का इस संस्थान में पहुंचना सचमुच गौरव की बात है और इस पद के चुनाव में भंडारी की जीत भारत, भारतवासियों और जीवंत एवं स्वतंत्र न्यायपालिका की भी बड़ी जीत है। हर देशवासी की अब यही इच्छा होगी कि जो गरिमा भारतीय न्यायपालिका ने अब तक हासिल की है, वह गरिमा न्यायाधीश भंडारी की आईसीजे में मौजूदगी से और बढ़े और खुद भंडारी आईसीजे की उम्मीदों पर खरे उतरें।
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21-05-2012, 02:33 AM | #46 |
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Re: कुतुबनुमा
व्यावसायिकता में नख-दन्त और नेत्र विहीन होता मीडिया
गत दिनों तमिलनाडु की मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली अन्ना द्रमुक सरकार ने जब अपने कार्यकाल का एक वर्ष पूरा किया, तो उसे लेकर मीडिया ने जो कवरेज किया उससे साफ जाहिर हो गया कि अब मीडिया के मायने और उसके काम करने के तरीके ही बदल चुके हैं। एक राज्य के मुख्यमंत्री का एक साल का कार्यकाल पूरा हो और उसकी चमक दमक केवल चेन्नई तक ही नहीं, राजधानी दिल्ली तक पहुंच जाए, तो यह साफ कहा जा सकता है कि इसमें मीडिया, खासकर प्रिंट मीडिया की भी बड़ी भूमिका रही है। यदि इसकी गहराई में उतरा जाए, तो एक बात तो साफ हो जाती है कि तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता इतना तो जान ही चुकी हैं कि अपने मकसद के लिए मीडिया का इस्तेमाल किस तरह से किया जा सकता है। सप्ताह भर पहले से ही अखबारों में, जिनमें खुद को राष्ट्रीय स्तर का बताने वाले अखबार भी शामिल हैं, सरकारी तौर पर होने वाले समारोह के बड़े-बड़े फोटो प्रकाशित होने लगे थे। ऐसा लगा मानो जयललिता ने इन अखबारों को मुंहमांगी कीमत देकर खरीद लिया हो। केवल दिल्ली ही नहीं, बल्कि देश के लगभग सभी अंग्रेजी अखबारों के पहले और अंतिम पेज जयललिता के गुणगान से पटे रहे। लग रहा था कि इस सरकार ने एक ही साल में इतना काम कर दिया, जितना शायद ही पहले कभी हुआ हो। इसे मीडिया का व्यावसायिकता की तरफ बढ़ना ही कहा जाएगा कि देश के लगभग सभी प्रमुख अंग्रेजी समाचार पत्रों के 16 मई के अंक में मुख्य पृष्ठ पर जया ही छाई रहीं । कुछ अखबारों में चार पेज के भी विज्ञापन दिए गए हैं। अंग्रेजी अखबारों के पहले पेज जया की आदमकद फोटो के साथ एक साल के उनके कामकाज के गुणगान से भरे पड़े थे। अगर उपलब्ध सूचनाओं को सच माना जाए, तो मीडिया के लिए इस विज्ञापन अभियान की खातिर जयललिता ने 25 करोड़ का बजट तय किया गया था। हद तो तब हो गई, जब कई समाचार पत्रों में जयललिता को उनके चुनावी वादों जैसे चावल के मुफ्त वितरण, मिक्सर ग्राइंडर्स, गाय-बकरियां और बेटी की शादी के लिए मंगलसूत्र देते हुए चित्रों को भी दर्शाया गया अर्थात यह साफ हो गया कि ऐसा सब कुछ प्रकाशित करने से पहले मीडिया ने यह देखने तक की जहमत नहीं उठाई कि जो सामग्री वे प्रकाशित कर रहे हैं, उसमें सच्चाई भी है अथवा नहीं। जयललिता ने तो अपनी आत्म-प्रशंसा के लिए पैसे को पानी की तरह बहाया, लेकिन इससे यह भी सिद्ध हो गया कि मीडिया में अब विज्ञापनों का ही बोलबाला हो गया है। पैसा फैंको और तमाशा देखो की स्थिति बन गई है, लेकिन यहां सवाल उठता है कि जब पैसे के आगे विवेक नतमस्तक हो जाएगा, तो मीडिया अपने पाठकों या दर्शकों को सच्चाई से रूबरू कैसे करवा पाएगा। हाल ही इस विषय पर हुई बहस में भी यह सामने आया था कि इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया में इन दिनों विज्ञापनों की भरमार के कारण वे अपने पाठकों या दर्शकों के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। सरकार ने भी इस मसले पर गौर किया है और पिछले दिनों यह निर्णय किया गया कि ऐसा प्रावधान किया जाएगा कि कोई चैनल एक घंटे के कार्यक्रम में बारह मिनट से ज्यादा का विज्ञापन प्रसारित न करे। ट्राई ने हाल ही ऐसे निर्देश जारी भी कर दिए हैं। निश्चित रूप से अब ऐसा करना जरूरी भी हो गया है, वरना व्यावसायिकता की दौड़ में मीडिया अपनी मूल भावना से ही भटक जाएगा और वही करेगा, जो पिछले दिनों जयललिता के मामले में हुआ।
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21-05-2012, 11:31 AM | #47 |
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Re: कुतुबनुमा
विरादरी पर ही सवाल उठा रहे हैं बड़े भाई
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
23-05-2012, 01:07 PM | #48 |
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Re: कुतुबनुमा
अपनी बिरादरी पर कलम चलाना खतरे से खाली नहीं है, और खतरों से खेलना ही मेरा शगल है, अतः मीडिया पर मैं लगातार लेखन करता हूं ! कई पत्र-पत्रिकाओं में मेरा 'मीडिया-विमर्श' बहुत लोकप्रिय माना जाता है ! वहां मैं नियमित लिखता हूं, यहां अवसर विशेष होने पर, बस ... यही फर्क है !
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23-05-2012, 04:15 PM | #49 |
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Re: कुतुबनुमा
सपा सरकार के पीछे हटने से पैदा होता संदेह
उत्तर प्रदेश में पिछली बहुजन समाज पार्टी सरकार के भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ जांच के बाद लोकायुक्त की सिफारिश पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं होना वास्तव में संदेह पैदा करता है। लोगों को यह अंदेशा होने लगा है कि जिस सरकार से तंग आकर उन्होने समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंपी थी, वह भी किसी प्रकार के कदम उठाने से क्यों हिचकिचा रही है। इसी आशंका के आधार पर राज्य कांग्रेस ने अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा सरकार के कामकाज पर ही ऐतराज उठाया है, जो काफी हद तक वाजिब भी लगता है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और विधायक अखिलेश प्रताप सिंह ने हाल ही सवाल उठाया कि सपा सरकार मायावती के कार्यकाल के घोटाले की जांच के लिए एजेंसी का गठन कर रही है, लेकिन लोकायुक्त एन.के. मेहरोत्रा की सिफारिश पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। उनका यह भी कहना है कि लोकायुक्त ने बसपा सरकार में मंत्री रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी और रामवीर उपाध्याय के खिलाफ सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय से जांच के आदेश दिए हैं। सरकार जांच का आदेश नहीं देकर भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई के अपने वादे से मुकर रही है। सपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी यह वादा किया था कि अगर पार्टी सत्ता में आई, तो भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होगी। आखिर क्या वजह है कि अब सत्ता का सुख भोग रही यह सरकार कोई कदम उठाने से हिचकिचा रही है और लोकायुक्त की सिफारिश के बावजूद कुछ नहीं हो रहा है। हालांकि लोकायुक्त ने कार्रवाई के लिए मुख्यमंत्री को कई बार पत्र भी लिखा है। मौजूदा सरकार जिस तरह से लोकायुक्त की सिफारिश को नजरअंदाज कर रही है, उस पर तो शक होना लाजिमी है ही, साथ ही ऐसा लगता है कि सरकार लोकायुक्त जैसी संस्था को कमजोर करने में लगी है। अभी समय ज्यादा गुजरा नहीं है। मौजूदा सपा सरकार को चाहिए कि वह राज्य के लोगों की भावनाओं का आदर करे, क्योंकि राज्य की जनता ने भ्रष्टाचार से परेशान होकर ही समाजवादी पार्टी को इस उम्मीद के साथ सत्ता सौंपी थी कि अब उसे स्वच्छ प्रशासन मिलेगा। यह तो तय है कि पिछली सरकार ने कई योजनाओं में जनता के धन की बर्बादी की थी, लेकिन अब उस भ्रष्टाचार को लोगों के सामने लाने का जिम्मा सपा का है और उसे यह जिम्मा उठाना ही चाहिए।
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26-05-2012, 12:54 AM | #50 |
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Re: कुतुबनुमा
अपनों के ही दबाव में फंसती भाजपा
इन दिनों भाजपा में जो कुछ भी हो रहा है, उससे तो यही लगता है कि यह दल अपने ही नेताओं के दबाव के दलदल में फंसता जा रहा है। गुरूवार को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मुंबई में शुरू हुई बैठक से ऐन पहले जिस तरह से कार्यकारिणी के आमंत्रित सदस्य संजय जोशी ने इस्तीफा दिया, उसने साफ कर दिया कि पार्टी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और राजस्थान में प्रतिपक्ष की नेता वसुंधरा राजे के कितने दबाव में है। कई दिनों से यह चर्चा तो थी कि पार्टी प्रमुख नितिन गडकरी से अपनी नाराजगी और अपने धुर विरोधी संजय जोशी की कार्यकारिणी की बैठक में मौजूदगी के चलते मोदी इस बैठक में नहीं आएंगे, लेकिन इन चर्चाओं पर सच्चाई की मुहर उस वक्त लग ही गई, जब जोशी के इस्तीफे के कुछ ही घंटे बाद मोदी ने यह ऐलान किया कि वे राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेने जा रहे हैं। मोदी ने गत वर्ष दिसंबर में नई दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी इसलिए हिस्सा नहीं लिया था कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के प्रचार में गडकरी ने संजय जोशी को शामिल किया था। मोदी ने तब विधानसभा चुनाव में भी प्रचार में हिस्सा नहीं लिया था अर्थात मोदी बार-बार भाजपा में अपना वर्चस्व दिखाने में सफल हो रहे हैं और पार्टी प्रमुख कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। इसके पीछे गडकरी की क्या मजबूरी है, यह तो वे खुद या भाजपा ही जाने, लेकिन इस घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया कि पार्टी अब तक जिस अंदरूनी अनुशासन के लिए जानी जाती थी, उस नाम की कोई चीज अब वहां नहीं रह गई है। पार्टी को इस पर विचार करना चाहिए कि वे क्या परिस्थितियां हैं, जिनके कारण बुधवार को उत्तराखंड में उनके विधायक किरण मंडल ने पार्टी छोड़ कांग्रेस में शामिल होने की घोषणा तो कर ही दी और विधानसभा से भी इस्तीफा दे दिया, ताकि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा उनकी सीट से चुनाव लड़ सकें। अब तो यह जगजाहिर हो चुका है कि भाजपा में दबाव की राजनीति हावी होती जा रही है और क्षेत्रीय नेता अपने निजी लाभ के लिए किसी भी सीमा तक जा रहे हैं। कर्नाटक में जो हुआ और अब तक हो रहा है, उससे भी यह लगने लगा है कि पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा बेलगाम हो चुके हैं और पार्टी के मुखिया उन पर नियंत्रण में नाकाम हो रहे हैं। खुद येदियुरप्पा ने भी कुछ दिनों पहले कहा था कि वे पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में हिस्सा लेने नहीं जाएंगे। कार्यकारिणी की बैठक में कल हुआ घटनाक्रम और भी चिंतनीय है ! येदियुरप्पा ने नरेंद्र मोदी को पार्टी का प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने की मांग कर डाली और सुषमा स्वराज और लालकृष्ण आडवानी के बारे में सूचनाएं आईं कि वे पार्टी की रैली में नज़र नहीं आएंगे, इससे कयास लगाए गए कि पार्टी पर गडकरी और मोदी की पकड़ मज़बूत हो गई है, लेकिन ऐसा मान लेना अभी जल्दबाजी होगा ! पार्टी के आधार रहे नेताओं को किनारे लगा कर कोई भी संगठन आज तक जनता का मन नहीं जीत सका है, इतिहास इसका गवाह है ! ज़ाहिर है कि अगर भाजपा को अगले लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करना है, तो उसे अपने नेताओं को अनुशासन का पाठ पुनः पढ़ाना होगा !
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