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13-06-2012, 02:42 AM | #1 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
कामयाबी के पैमाने
हर दौर में समाज में सफलता का एक निश्चित पैमाना होता है। हम उसी पर लोगों को कसने के आदी हो जाते हैं, लेकिन ज्यों ही कोई उन्हीं पैमानों पर सफल होता है, खुद सफलता का उसका पैमाना बदल जाता है। इसलिए हम बहुत से सफल व्यक्तियों को असंतुष्ट पाते हैं। ऐसे लोग एक समय के बाद खुद को विफल मानना शुरू कर देते हैं। असल में हमारी इच्छाओं का अंत नहीं है। बहुत सी चीजें पा लेने के बाद भी लोग दूसरों से अपनी तुलना करते रहते हैं। जो भी चीज उनके पास नहीं होती, उसे लेकर परेशान हो जाते हैं। संभव है कि एक सफल व्यक्ति किसी को आराम करता देख दुखी हो जाए और यह सोच कर ही खुद को विफल घोषित कर दे कि उसके जीवन में सुकून नहीं है। इसीलिए संतों-विचारकों ने सफलता की अवधारणा को हमेशा संदेह की नजर से देखा, क्योंकि यह हमेशा अस्थिर रहती है। ऊपरी तौर पर भले ही इसका निश्चित रूप दिखाई देता है, किन्तु हमारे मन के भीतर यह रूप बदलती रहती है। सफल होने के लिए जरूरी है कि हम आगे देखते रहें और भविष्य की सोचें। विकसित देश तो पचास वर्ष आगे तक की योजना तैयार करके रखते हैं, लेकिन व्यक्ति के संदर्भ में मामला उलटा है। बाहर की दुनिया में भले ही वह आगे की सोचे, पर आंतरिक दुनिया में वह अक्सर पीछे भी लौटता रहता है। हम जब भी अकेले होते हैं, अपने अतीत के बारे में सोचते हैं। बीते हुए सुख को ही नहीं, दुख को भी याद करते हैं। सफलता के शिखर पर बैठा शख्स भी स्मृति में जरूर लौटता है। कितना अच्छा हो कि हम अपने बाहरी यानी सामाजिक जीवन में भी इसी तरह पीछे लौटते रहें। अगर कोई समृद्ध व्यक्ति अपने पुराने अभाव के दिनों को याद करता रहे, तो संभव है उसका वर्तमान ज्यादा सुखी हो। वह संवेदनशील बने और दूसरों के दुख को भी समझे। हालांकि आम तौर पर लोग दोहरा जीवन जीते हैं। वह अपने मन को अपने रोजमर्रा जीवन से अलग रखते हैं। अगर हर आदमी अंदर और बाहर एक जैसा हो जाए, तो दुनिया अवश्य ही थोड़ी बेहतर हो सकती है।
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13-06-2012, 04:16 AM | #2 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
लिंकन की चाय
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का शुरुआती जीवन अभावों में गुजरा था। जीवनयापन के लिए कम उम्र में उन्हें कई तरह के काम करने पड़े। कुछ दिनों तक उन्होंने चाय की दुकान पर भी नौकरी की। उन्हीं दिनों की बात है। एक महिला उनकी दुकान पर आई। उसने उनसे पाव भर चाय मांगी। लिंकन ने जल्दी-जल्दी उसे चाय तौलकर दी। रात में जब उन्होंने हिसाब-किताब किया, तो उन्हें पता चला कि उन्होंने भूलवश उस महिला को आधा पाव ही चाय दी थी। वह परेशान हो गए। पहले तो उन्होंने सोचा कि कल जब वह फिर आएगी, तो उसे आधा पाव चाय और दे देंगे। लेकिन फिर ख्याल आया कि अगर वह नहीं आई तो...। संभव है वह इधर कदम ही न रखे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें, वह अपराधबोध से घिर गए थे कि उन्होंने उसे सही मात्रा में चाय क्यों नहीं दी। फिर उन्होंने तय किया कि इसी वक्त जाकर उस महिला को बाकी चाय दी जाए। आखिर उसकी चीज है, उसने उसके पूरे पैसे दिए हैं। संयोग से लिंकन उसका घर जानते थे। उन्होंने एक हाथ में चाय ली और दूसरे हाथ में लालटेन लेकर निकल पड़े। उसका घर लिंकन के घर से तीन मील दूर था। उन्होंने उस महिला के घर पहुंचकर दरवाजा खटखटाया। महिला ने दरवाजा खोला तो उन्होंने कहा - क्षमा कीजिए, मैंने गलती से आपको आधा पाव ही चाय दी थी। यह लीजिए बाकी चाय। महिला आश्चर्य से उन्हें देखने लगी। फिर उसने कहा - बेटा, तू आगे चलकर महान आदमी बनेगा। उसकी भविष्यवाणी सच निकली।
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13-06-2012, 04:23 AM | #3 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
समय के पाबन्द रहें
जो आजीवन समय का पाबन्द रहता है, उसे लगातार कामयाबी मिलती रहती है। यदि आप अपने प्रत्येक दिन का शुभारंभ ठीक तरीके से करते हैं, तो उसका परिणाम सुखद ही होगा। प्रत्येक दिन के सुखद परिणाम आपको उन्नति की ओर ही ले जाएंगे। आप अपना लक्षय पा लेंगे। प्रत्येक दिन के सुंदर, सुखद और सरल भाव आपके लिए उन्नति के दरवाजे ही खोलते हैं। हेनरी फोर्ड खेत में पैदा हुए थे। उन्होंने सोलह साल की उम्र में खेत छोड़ा और जाने-माने आविष्कारक थॉमस अल्बा एडिसन की डेट्राइट एडिसन कंपनी में फोरमैन बन गए और प्रगति करने लगे; तब तक, जब तक कि वे चीफ इंजानियर नहीं बन गए। स्पष्ट है एडिसन उनके लिए बहुत बड़े व्यक्ति थे। हेनरी फोर्ड ने खुद से कहा, कभी इस प्रख्यात अविष्कारकर्ता से बात करने का अवसर मिलेगा, तो उनसे एक प्रश्न अवश्य पूछेंगे। हेनरी फोर्ड को 1898 में यह अवसर मिल ही गया। उन्होंने एडिसन को रोका और कहा - मिस्टर एडिसन, क्या मैं आपसे एक सवाल पूछ सकता हूं? क्या आपको लगता है कि मोटरकारों के लिए पेट्रोल ईंधन का अच्छा स्रोत हो सकता है? एडिसन के पास फोर्ड से बात करने का समय नहीं था। उन्होंने केवल हां कहा और वहां से चले गए। बात समाप्त हो गई, लेकिन इस जवाब ने फोर्ड को उत्साहित कर दिया। यहीं से फोर्ड ने एक लक्ष्य तय कर लिया और संकल्प ले लिया। ग्यारह वर्ष बाद उन्होंने 1909 में टिन लिजी नामक एक कार बनाई। उन्होंने अनेक आलोचनाएं झेली, लेकिन उन ग्यारह वर्षों में उन्होंने काम किया और इंतजार किया। उन्होंने ऊर्जा में कमी का अनुभव किया, किंतु थकान का कभी अनुभव नहीं किया। यही कारण है कि वे लक्ष्य तक पहुंचे और कामयाबी हासिल की। यदि उस समय को हाथ से निकल जाने दिया होता, तो क्या वे फोर्ड जैसी कामयाब कार कंपनी खड़ी करने में कामयाब होते? याद रखें। जब तक आप अपने विचारों, धन और समय का प्रबंधन करना नहीं सीखेंगे, तब तक आप कोई भी महत्वपूर्ण चीज हासिल नहीं कर पाएंगे। यदि आप सफल होना चाहते हैं, तो आपको विफलताओं से कभी डरना नहीं चाहिए। न ही आपको विफलताओं के माध्यम से विकास करने से डरना चाहिए।
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13-06-2012, 04:26 AM | #4 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
धूल का कमाल
सही समय पर अपनी अक्ल का इस्तेमाल ही समझदार की सबसे बड़ी निशानी होती है। विकट हालात में घबराए बगैर अपनी बुद्धि के दम पर भी बड़ी से बड़ी आफत को टाला जा सकता है। कभी भी विपरीत हालात में अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। आपकी जीत का सबसे बड़ा हथियार विवेक ही होता है। यह उन दिनों की बात है, जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। जर्मनी के सेनापति रोमेल अपनी खास रणनीतियों के लिए जाने जाते थे। एक बार अफ्रीका के एक रेगिस्तान में जर्मन सेना अंग्रेजों से युद्ध कर रही थी । तब उसके तोपखाने के गोले खत्म हो गए। अंग्रेज सेना सामने से बढ़ी चली आ रही थी। बारूद व गोले न होने से अंग्रेज सेना को रोक पाना असंभव सा हो गया था। ऐसे में साथी सेनाधिकारी दौड़े- दौड़े घबराहट में रोमेल के पास आए और बोले - सर, अंग्रेजों ने हमला बोल दिया है। हमारे पास इस समय खाली तोपों के अलावा और कुछ भी नहीं है। ऐसे में हम क्या करें ? इतनी जल्दी इस समय तो किसी भी चीज की व्यवस्था करना काफी मुश्किल है। साथियों की बातें सुनकर रोमेल थोड़ा भी नहीं घबराए। वह धैर्यपूर्वक बोले - देखो, इस तरह परेशान होने से कुछ नहीं होगा। बुद्धि और चतुराई से काम लेकर दुश्मन सेना के छक्के छुड़ाने होंगे। हमारे पास गोले ओर बारूद न सही, धूल तो है। तोपों में धूल भरो और दनादन दागो। कुछ हवाई जहाजों को भी उड़ने के लिए ऊपर छोड़ दो। रोमेल की बात मानकर ऐसा ही किया गया। तोपों की गड़गड़ाहट से आसमान हिल उठा । चारों ओर धूल ही धूल उड़ती देख कर अंग्रेज डर गए। उन्होंने समझा कि शत्रु की भारी-भरकम सेना आगे बढ़ती चली आ रही है। उड़ती हुई धूल में वे वास्तविकता का पता नहीं लगा सके। इधर जर्मन हवाई जहाजों ने भी खाली उड़ान भरकर शत्रु सेना को आतंकित कर दिया। अचानक दहशत में आ जाने से शीघ्र ही शत्रु सेना के पांव उखड़ गए और वह भाग खड़ी हुई। इस तरह रोमेल की बुद्धि और चतुराई से बिना किसी हथियार के ही सफलता मिल गई। भले ही द्वितीय विश्व युद्ध में निर्णायक जीत जर्मनी को न मिली हो, पर रोमेल को उनके शत्रु देशों के सैन्य अधिकारी भी याद करते हैं।
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13-06-2012, 04:31 AM | #5 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सबसे बड़ी कला
अगर कोई प्रतिभावान हैं और उसे वे सभी कलाएं आती हैं, जो एक प्रतिभावान के पास होनी चाहिए; तो उस प्रतिभावान को कभी अपनी प्रतिभा पर घमंड करना या इतराना नहीं चाहिए, वरना उसकी प्रतिभा के कोई मायने नहीं होते। एक युवा ब्रह्मचारी था। वह बहुत ही प्रतिभावान था। उसने मन लगाकर शास्त्रों का अध्ययन किया था। वह प्रसिद्धि पाने के लिए नई-नई कलाएं सीखता रहता था। विभिन्न कलाएं सीखने के लिए वह अनेक देशों की यात्रा भी करता था। एक व्यक्ति को उसने बाण बनाते देखा, तो उससे बाण बनाने की कला सीख ली। किसी को मूर्ति बनाते देखा, तो उससे मूर्ति बनाने की कला सीख ली। इसी तरह कहीं से उसने सुंदर नक्काशी करने की कला को भी सीख लिया। वह लगभग पंद्रह-बीस देशों में गया और वहां से कुछ न कुछ सीख कर लौटा। इस बार जब वह अपने देश लौटा, तो अभिमान से भरा हुआ था। अहंकारवश वह सबका मजाक उड़ाते हुए कहता, भला पृथ्वी पर है कोई मुझ जैसा अनोखा कलाविद्। मेरे जैसा महान कलाकार भला कहां मिलेगा। बुद्ध को उस युवा ब्रह्मचारी के बारे में पता चला, तो वह उसका अहंकार तोड़ने के लिए एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके पास आए और बोले - युवक, मैं अपने आप को जानने की कला जानता हूं। क्या तुम्हें यह कला भी आती है? वृद्ध ब्राह्मण का रूप धरे बुद्ध को युवक नहीं पहचान पाया और बोला - बाबा, भला अपने आप को जानना भी कोई कला है? इस पर बुद्ध बोले - जो बाण बना लेता है, मूर्ति बना लेता है, सुंदर नक्काशी कर लेता है अथवा घर बना लेता है वह तो मात्र कलाकार होता है। यह काम तो कोई भी सीख सकता है। पर इस जीवन में महान कलाकार वह होता है, जो अपने शरीर और मन को नियंत्रित करना सीख जाता है। अब बताओ, ये कलाएं सीखना ज्यादा बड़ी बात है या अपने जीवन को महान बनाना। बुद्ध की बातों का अर्थ समझकर युवक का अभिमान चूर-चूर हो गया और वह उनके चरणों में गिर पड़ा। वह उस दिन से उनका शिष्य बन गया।
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13-06-2012, 08:38 AM | #6 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
इस जीवन में महान कलाकार वह होता है, जो अपने शरीर और मन को नियंत्रित करना सीख जाता है।
sahi kaha hai vo hi vyakti mahaan hai jisne apne aap par kaabu pa liya hai ! |
14-06-2012, 11:07 AM | #7 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
संत की भिक्षा याचना
एक गांव में एक संत रहा करते थे। संत की आदत थी कि वह रोज एक प्रतिमा के सामने खड़े हो जाते थे तथा उस प्रतिमा से ही हाथ जोड़ कर भिक्षा की याचना करते थे। नियमित रूप से उन्हें ऐसा करते कई लोगों ने देखा, पर किसी को उनसे यह पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी कि आखिर रोज-रोज प्रतिमा के आगे खड़े होकर भिक्षा मांगने की उनकी इस हरकत का औचित्य क्या है? एक दिन एक युवा साधु ने हिम्मत जुटाई और आखिरकार उनसे पूछ ही लिया कि गुरुदेव एक जिज्ञासा है। आप प्रत्येक दिन प्रतिमा के आगे हाथ फैलाते हैं और उससे भिक्षा की याचना करते हैं, जबकि आप तो जानते ही होंगें कि पत्थर की प्रतिमा के आगे रोज-रोज इस तरह हाथ पसारने से कुछ भी नहीं मिल सकता। फिर आप व्यर्थ कष्ट क्यों करते हैं? युवा साधु की इस जिज्ञासा पर पहले ते संत कुछ देर चुप रहे। फिर उन्होने कहा - बालक, तुम्हारी यह जिज्ञासा एकदम उचित है कि मैं रोज रोज ऐसा क्यों करता हूं। मैं यह भली भांति जानता हूं कि यह प्रतिमा मुझे कुछ भी नहीं देने वाली है, फिर भी मैं उससे कुछ मांगता रहता हूं। मैं किसी आशा से इस प्रतिमा से कुछ नहीं मांगता। यह मेरा नित्य का अभ्यास कर्म है। मांगने से कुछ नहीं मिलता, यह सोचकर ही मेरे भीतर एक खास तरह का धैर्य पैदा होता है। इस धैर्य के दम पर ही मैं किसी घर में याचना करूं और मुट्ठी भर अन्न न मिले, तो मेरे मन में किसी भी तरह की निराशा नहीं पैदा होगी। मेरे मन की शांति भंग न हो, इस प्रयास के कारण ही मैं रोज इस प्रतिमा के आगे खड़ा होकर इससे कुछ मांगता हूं। यह सुनकर युवा साधु ने कहा - यह तो अद्भुत बात है। मैं तो सोच भी नहीं सकता था। सच कहूं, तो मुझे और लोगों की तरह आपकी मानसिक दशा पर संदेह होता था। क्षमा करें। वास्तव में आपने मुझे साधना का एक और तरीका बता दिया। मैं भी अब इस तरह से अभ्यास करने का प्रयत्न करूंगा। युवा साधु ने उस संत को प्रणाम किया और वहां से चला गया।
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14-06-2012, 11:16 AM | #8 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
खुद बनाएं अपना भाग्य
स्वामी विवेकानंद ने एक बार कुछ युवाओं से कहा, 'तुम अपनी गलतियों के लिए दूसरों को दोष क्यों देते हो? असल में तो तुम जो बोते हो वही काटते हो। दूसरों पर दोषारोपण हमें दुर्बल बनाता है। अपनी दुर्बलताओं के लिए किसी और को दोष मत दो। सारी जिम्मेदारी अपने कंधे पर लो। जानो कि अपने भाग्य के निर्माता तुम स्वयं हो। कोई भी देवता आकर हमारा बोझ उठाने वाला नहीं है।' जब हम यह समझ लेते हैं कि किसी कार्य के लिए स्वयं हम ही जिम्मेदार हैं, तब हम अपने श्रेष्ठतम रूप में सामने आते हैं। सारी शक्तियां और सफलताएं असल में इंसान के निकट ही होती हैं। ऐन्द्रिक सुखों एवं भोगों की इस दौड़ का कोई अंत नहीं होता, लेकिन जैसे बुरे विचार और बुरे कर्म हमेशा इंसान को नष्ट करने के लिए आतुर रहते हैं, वैसे ही अच्छे विचार और कर्म भी हजार देवदूतों के समान उसकी रक्षा के लिए सदैव तैयार होते हैं। इसलिए कोल्हू के बैल की तरह कुछ पाए बिना सिर्फ एक ही गोल घेरे में भटकने से कोई लाभ नहीं है। इंसान को स्वयं ही इस चक्र से बाहर निकलना होगा। जीवन के इस संग्राम में धूल -मिट्टी उड़ना स्वाभाविक है। जो इस धूल को सहन नहीं कर सकता, वह आगे कैसे बढ़ सकेगा? ये विफलताएं ही सफलता के मार्ग की अनिवार्य सीढ़ियां हैं। यदि कोई व्यक्ति आदर्श के साथ एक हजार गलतियां करता है, तो बिना आदर्श के वह पचास हजार गलतियां करेगा। इसलिए हर व्यक्ति के जीवन में अपना एक आदर्श होना आवश्यक है। इसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए। इस पर डटे रहने से हम कई जगह फिसलने से बच जाते हैं। व्यक्ति का चरित्र और कुछ नहीं, उसी की आदतों और वृत्तियों का ही सार है। हमारी आदतें और व्यवहार ही हमारे चरित्र का स्वरूप निश्चित करती हैं। चित्त की विशेष अवस्था उसकी श्रेष्ठता और निकृष्टता के अनुरूप ही हमारे चरित्र की सफलता और निर्बलता सुनिश्चित होती है। अच्छे चिंतन और आचरण के रूप में जिस चरित्र गठन होता है, वही बाद में साधना का रूप ले लेता है।
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17-06-2012, 10:31 AM | #9 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
संत के सवाल
यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने हित के लिए अक्सर प्रकृति से भी आमना- सामना कर बैठता है, जो बाद में उसी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। इसलिए मनुष्य को प्रकृति का उतना ही दोहन करना चाहिए जितनी उसे जरूरत है। आज मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए निरन्तर पेड़ों की कटाई कर रहा है, जो आने वाले समय के लिए उचित नहीं है। एक गांव में एक संत सदानंद का प्रवचन चल रहा था। प्रवचन के बीच में सवाल-जवाब का दौर चलता, तो कभी हंसी-मजाक का भी। एक छोटे बच्चे को संत ने बुलाया । खाने को उसे लड्डू भी दिया। फिर पूजा की थाली में रखा दीपक जलाया और लोगों को सुनाते हुए बच्चे से ठिठोली के अंदाज में पूछा - बताओ बेटा। दीपक में यह ज्योति कहां से आई? सभा में उपस्थित लोग प्रवचन का आनंद ले रहे थे। सभी इस सवाल पर विचारमग्न हो गए कि दीपक में प्रकाश आया कहां से? लेकिन इस सवाल का जवाब वह बच्चा भला कैसे दे पाएगा? तभी वह बच्चा उठा और उसने फूंक मारकर दीपक को बुझा दिया। फिर उसने संत से पूछा - महाराज, अब आप बताइए, दीपक का प्रकाश कहां गया? संत को इस प्रश्न की आशा नहीं थी। वह सोच में पड़ गए। सारी सभा में सन्नाटा छा गया। तभी संत ने उस बच्चे को गले लगाते हुए कहा - बेटा एक गूढ़ प्रश्न का गूढ़ उत्तर देकर तुमने मुझे निरुत्तर कर दिया और इससे मेरा अभिमान भी पिघला दिया। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम एक दिन दिव्यात्मा बनोगे। संत ने फिर मामले को संभालते हुए प्रवचन शुरू किया और कहा - देखा आपने? इस बच्चे ने मासूमियत में ही सही, एक बड़े तथ्य की ओर इशारा कर दिया कि जो रोशनी प्रकृति से आती है, वह वहीं चली भी जाती है। ऊर्जा अपना रूप बदलती रहती है। उसके विभिन्न रूपों का हम हमेशा सार्थक प्रयोग करें। हम सब बहुत सी चीजों को समझते हैं, पर उस समझ पर लालच और अहंकार का आवरण चढ़ जाता है। यह कदापि उचित नहीं है। संत के कथन का मर्म उपस्थित लोगों के हृदय तक उतर गया।
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17-06-2012, 10:35 AM | #10 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
कभी स्थिर न बैंठें
ज्यादातर लोग हर दिन जब दफ्तर जाते हैं, तो उनके दिमाग में सिर्फ एक ही विचार होता है - घर लौटने तक का समय गुजारना। उस जादुई समय तक पहुंचने के लिए वे दिनभर में जैसे-तैसे उतने ही काम करते हैं, जिन्हें किए बिना काम नहीं चल सकता, लेकिन आप ऐसा नहीं करेंगे। आप स्थिर नहीं बैठेंगे। नौकरी मिल जाने के बाद ज्यादातर लोगों को यही पर्याप्त लगता है कि वे लगातार वहीं काम करते रहें और हमेशा स्थिर बने रहें, लेकिन काम करना आपका अंतिम लक्ष्य नहीं है। यह तो सिर्फ लक्ष्य तक पहुंचने का साधन है। आपका असल लक्ष्य तो प्रमोशन, ज्यादा पैसा, सफलता, ऊपर का पायदान, बेहतर संपर्क बनाना और अनुभव हासिल करना है, ताकि आप कंपनी के शिखर पर पहुंच सकें। अपना स्वतंत्र बिजनस शुरू कर सकें। एक तरह से नौकरी तो अप्रासंगिक है। हां, आपको काम निपटाना होता है और हां, आपको इसे बहुत अच्छी तरह से करना होता है, लेकिन आपकी निगाह हमेशा अगले पायदान पर होनी चाहिए। नौकरी में आपका हर काम आपकी प्रगतिशील योजना में एक पड़ाव जैसा होना चाहिए। बाक़ी कर्मचारी अगले टी ब्रेक के बारे में सोच रहे हैं। शेष कर्मचारी सचमुच काम किए बिना शाम ढलने की राह देख रहे हैं, लेकिन आप नहीं। आप तो अपने अगले दांव की योजना बनाने और उस पर अमल करने में व्यस्त हैं। आदर्श स्थिति में नियमों का खिलाड़ी अपना हर काम लंच से पहले निपटा लेता है। फिर लंच के बाद शाम तक वह अपने अगले प्रमोशन के लिए अध्ययन करता है, करीबी सहयोगियों से मिल रही प्रतिस्पर्धा का मूल्यांकन करता है, हर कर्मचारी के लिए काम की प्रक्रिया को बेहतर बनाने के तरीकों पर शोध करता है, कंपनी के इतिहास और उसकी नीतियों के बारे में अपना ज्ञान बढ़ाता है। आप अपना काम लंच तक पूरा नहीं कर पाते हैं, तो आपको इसके लिए कोई ऐसा तरीका खोजना ही होगा कि जिससे आप इन सभी चीजों को दिन में कभी कर सकें और फिर लगातार आगे बढ़ते रहें।
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