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#41 |
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![]() बेबस है जिन्दगी और मदहोश है ज़मानाइक ओर बहते आंसू इक ओर है तराना
लौ थरथरा रही है बस तेल की कमी सेउसपर हवा के झोंके है दीप को बचाना मन्दिर को जोड़ते जो मस्जिद वही बनातेमालिक है एक फिर भी जारी लहू बहाना मजहब का नाम लेकर चलती यहाँ सियासतरोटी बड़ी या मजहब हमको ज़रा बताना मरने से पहले मरते सौ बार हम जहाँ मेंचाहत बिना भी सच का पड़ता गला दबाना अबतक नहीं सुने तो आगे भी न सुनोगेमेरी कब्र पर पढ़ोगे वही मरसिया पुराना होते हैं रंग कितने उपवन के हर सुमन केहै काम बागवां का हर पल उसे सजाना |
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#42 |
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![]() बचपन से ही सपन दिखाया, उन सपनों को रोज सजाया।
पूरे जब न होते सपने, बार-बार मिलकर समझाया। सपनों के बदले अब दिन में, तारे देख रहा हूँ। सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।। पढ़-लिखकर जब उम्र हुई तो, अवसर हाथ नहीं आया। अपनों से दुत्कार मिली और, उनका साथ नहीं पाया। सपन दिखाया जो बचपन में, आँखें दिखा रहा है। प्रतिभा को प्रभुता के आगे, झुकना सिखा रहा है। अवसर छिन जाने पर चेहरा, अपना देख रहा हूँ। सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।। ग्रह-गोचर का चक्कर है यह, पंडितजी ने बतलाया। दान-पुण्य और यज्ञ-हवन का, मर्म सभी को समझाया। शांत नहीं होना था ग्रह को, हैं अशांत घर वाले अब। नए फकीरों की तलाश में, सच से विमुख हुए हैं सब। बेबस होकर घर में मंत्र का, जपना देख रहा हूँ। सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।। रोटी जिसको नहीं मयस्सर, क्यों सिखलाते योगासन? सुंदर चहरे, बड़े बाल का, क्यों दिखलाते विज्ञापन? नियम तोड़ते, वही सुमन को, क्यों सिखलाते अनुशासन? सच में झूठ, झूठ में सच का, क्यों करते हैं प्रतिपादन? जनहित से विपरीत ख़बर का, छपना देख रहा हूँ। सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।। |
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#43 |
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![]() भर गए बाज़ार नक़ली माल से
लीचियों के खोल में हैं फ़ालसे लफ़्ज़ तो इंसानियत मा'लूम है है मगर परहेज़ इस्तेमाल से ना ग़ुलामी दिल से फ़िर भी जा सकी हो गए आज़ाद बेशक़ जाल से भूल कर सिद्धांत समझौता किया अब हरिश्चंदर ने नटवरलाल से खोखली चिपकी है चेहरों पर हंसी हैं मगर अंदर बहुत बेहाल से ज़िंदगी में ना दुआएं पा सके अहले-दौलत भी हैं वो कंगाल से सोचता था…ज़िंदगी क्या चीज़ है उड़ गया फुर से परिंदा डाल से इंक़लाब अंज़ाम दे आवाम क्या ज़िंदगी उलझी है रोटी-दाल से शाइरी करते अदब से दूर हैं चल रहे राजेन्द्र टेढ़ी चाल से |
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#44 |
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![]() लोग मुझको कहें ख़राब तो क्या
और मैं अच्छा हुआ जनाब तो क्या है ही क्या मुश्तेख़ाक से बढ़ कर आदमी का है ये रुआब तो क्या उम्र बीती उन आँखों को पढ़ते इक पहेली सी है किताब तो क्या मैं जो जुगनु हूँ गर तो क्या कम हूँ कोई है गर जो आफ़ताब तो क्या ज़िंदगी ही लुटा दी जिस के लिये माँगता है वही हिसाब तो क्या मिलते ही मैं गले नहीं लगता फिर किसी को लगा खराब तो क्या आ गया जो सलीका-ए-इश्क अब ’दोस्त’ मरकर मिला सवाब तो क्या |
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#45 |
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![]() होगी तलाशे इत्र ये मछली बज़ार में
निकले तलाशने जो वफ़ा आप प्*यार में चल तो रहा है फिर भी मुझे ये गुमाँ हुआ थम सा गया है वक्त तेरे इन्तजार में जब भी तुम्हारी याद ने हौले से आ छुआ कुछ राग छिड़ गये मेरे मन के सितार में किस्मत कभी तो पलटेंगे नेता गरीब की कितनों की उम्र कट गयी इस एतबार में दुश्वारियां हयात की सब भूल भाल कर मुमकिन नहीं है डूबना तेरे खुमार में ये तितलियों के रक्स ये महकी हुई हवा लगता है तुम भी साथ हो अबके बहार में वो जानते हैं खेल में होता है लुत्फ़ क्या जिनको न कोई फर्क हुआ जीत हार में अपनी तरफ से भी सदा पड़ताल कीजिये यूँ ही यकीं करें न किसी इश्तिहार में 'नीरज' किसी के वास्ते खुद को निसार कर खोया हुआ है किसलिये तू इफ्तिखार में इफ्तिखार= मान, कीर्ति, विशिष्ठता, ख्य |
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#46 |
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![]() जो रचनाएँ थी प्रायोजित उसे मैं लिख नहीं पाया
स्वतः अन्तर से जो फूटा उसे बस प्रेम से गाया थी शब्दों की कभी किल्लत न भावों से वहाँ संगम, दिशाओं और फिजाओं से कई शब्दों को चुन लाया किया कोशिश कि सीखूँ मैं कला खुद को समझने की कठिन है यक्ष-प्रश्नों सा है बारी अब उलझने की घटा अज्ञान की मानस पटल पर छा गयी है यूँ, बँधी आशा भुवन पर ज्ञान की बारिश बरसने की बहुत मशहूर होने पर हुआ मगरूर मैं यारो नहीं पूरे हुए सपने हुआ मजबूर मैं यारो वो अपने बन गए जिनसे कभी रिश्ता नहीं लेकिन, यही चक्कर था अपनों से हुआ हूँ दूर मैं यारो अकेले रह नहीं सकते पड़ोसी की जरूरत है अगर अच्छे मिलें तो मान लें गौहर की मूरत है पड़ोसी के किसी भी हादसे को जानते हैं लोग, सुबह अखबार में पढ़ते बनी अब ऐसी सूरत है बिजलियाँ गिर रहीं घर पे न बिजली घर तलक आयी बनाते घर हजारों जो उसी ने छत नहीं पायी है कैसा दौर मँहगीं मुर्गियाँ हैं आदमी से अब, करे मेहनत उसी ने पेट भर रोटी नहीं खायी हकीकत से दुखी प्रायः यही जीवन-कहानी है नहीं मुस्कान चेहरों पे उसी की ये निशानी है चमन में है कभी पतझड़ कभी ऋतुराज आयेगा, सुमन की दोस्ती काँटों से तो सदियों पुरानी है |
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#47 |
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![]() दोस्त बन कर मुकर गया कोई
अपने दिल ही से डर गया कोई आँख में अब तलक है परछाईं दिल में ऐसे उतर गया कोई सबकी ख़्वाहिश को रख के ज़िंदा फिर ख़ामुशी से लो मर गया कोई जो भी लौटा तबाह ही लौटा फिर से लेकिन उधर गया कोई "दोस्त" कैसे बदल गया देखो मोजज़ा ये भी कर गया कोई |
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#48 |
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![]() सितम जब ज़माने ने जी भर के ढाये
भरी सांस गहरी बहुत खिलखिलाये कसीदे पढ़े जब तलक खुश रहे वो खरी बात की तो बहुत तिलमिलाये न समझे किसी को मुकाबिल जो अपने वही देख शीशा बड़े सकपकाये भलाई किये जा इबादत समझ कर भले पीठ कोई नहीं थपथपाये खिली चाँदनी या बरसती घटा में तुझे सोच कर ये बदन थरथराये बनेगा सफल देश का वो ही नेता सुनें गालियाँ पर सदा मुसकुराये बहाने बहाने बहाने बहाने न आना था फिर भी हजारों बनाये गया साल 'नीरज' तो था हादसों का न जाने नया साल क्या गुल खिलाये |
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#49 |
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![]() नज़र बे-जुबाँ और जुबाँ बे-नज़र है
इशारे समझने का अपना हुनर है सितारों के आगे अलग भी है दुनिया नज़र तो उठाओ उसी की कसर है मुहब्बत की राहों में गिरते, सम्भलते ये जाना कि प्रेमी पे कैसा कहर है जो मंज़िल पे पहुँचे दिखी और मंज़िल। ये जीवन तो लगता सिफर का सफ़र है।। रहम की वो बातें सुनाते हमेशा दिखे आचरण में ज़हर ही ज़हर है कई रंग फूलों के संग थे चमन में ये कैसे बना हादसों का शहर है है शब्दों की माला पिरोने की कोशिश सुमन ये क्या जाने कि कैसा असर है |
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#50 |
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![]() माफ़ कर दो आज देर हो गई आने में
वक़्त लग जाता है अपनों को समझाने में। किरण के संग संग ज़माना उठ जाता है .देखना पड़ता है मौका छुप के आने में । रूठ के ख़ुद को नहीं ,मुझको सजा देते हो क्या मज़ा आता है यूं मुझको तड़पाने में । एक लम्हे में कोई भी बात बिगड़ जाती है उम्र कट जाती है उलझन कोई सुलझाने में । तेरी ख़ुशबू से मेरे जिस्म "ओ"जान नशे में हैं "दीपक" जाए भला फिर क्यों किसी मयखाने में । |
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