27-06-2013, 11:05 PM | #41 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
अपोलो की कथा अपोलो एर्टेमिस नाम की कुंआरी शिकारन के नाम से बाद में विख्यात हुई देवी का जुड़वां भाई था और ज्यूस तथा लीटो का पुत्र था. इनके जन्म का प्रसंग भी बड़ा रहस्यमय व मार्मिक है. इसके पीछे भी अपोलो की पत्नि हेरा का हाथ था. वह अपोलो और लीटो के प्रणय संबंधों के खिलाफ थी और जब उसे पाता चला कि लीटो ज्यूस के बच्चे की मां बनने वाली है तो गुस्से में आकर उसने घोषणा कर दी कि लीटो कहीं भी अपने बच्चे को जन्म न दे सकेगी. स्वयं भूमि ने भी हेरा के डर से लीटो को शरण देने से मना कर दिया. अन्ततः लीटो ने एक ऐसे टापू का पता लगा लिया जो उसे प्रसव के लिए स्थान देने ले लिए तैयार हो गया. इस टापू का नाम था ‘डेलोस’ जिसका अर्थ होता है ‘प्रतिभासंपन्न’. जन्म के पश्चात अपोलो की देखभाल थेमिस ने की. उसने अपोलो को कुछ दिनों तक देवताओं द्वारा खाया जाने वाला कलेवा देती और पीने के लिये अमृत रस. इस प्रकार चंद दिनों में ही अपोलो बलिष्ठ युवक बन गया और एक देवता के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को समझने लायक और उठाने लायक हो गया. ग्रीक मिथकों के अनुसार अपोलो के बारे में बहुत सी कथायें प्रचलित हैं. इनमे से एक के अनुसार अपोलो जब सिर्फ चार दिन का ही था तो अपोलो ने डेल्फी की तरफ प्रस्थान किया जहां उसने शेष नाग का वध किया जिसने उसकी मां के ऊपर आक्रमण किया था. वह कलाओं और संगीत का संरक्षक और अच्छे स्वास्थ्य का देवता था. लेकिन उसके बारे में यह भी कहा जाता है कि वह चाहे तो प्लेग इत्यादि महामारी का प्रकोप भी पृथ्वी पर ला सकता था. ग्रीक संस्कृति में अपोलो के रुतबे का अंदाज़ डेल्फ़ी नामक स्थान पर अपोलो देवता को समर्पित प्राचीन विशाल मंदिर के भग्नावशेषों को देखने से भलीभांति हो जाता है. ** Last edited by rajnish manga; 27-06-2013 at 11:08 PM. |
27-06-2013, 11:10 PM | #42 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
ग्रीक मिथक
अपोलो का आदेश केदमस को देवता अपोलो ने आदेश दिया कि वह थेबीज़ नगर की स्थापना करे. वह थेबीज़ नगर के लिए उपयुक्त जगह की तलाश में निकल पड़ा. जब उसने इस जगह का पता लगा लिया, तो उसे वहां के रक्षक भीमकाय ड्रेगन से लड़ना पड़ा जिसने उसके सारे साथियों को मार डाला. लेकिन अंत में वह उस ड्रेगन को मारने में सफल रहा. अब वहां अपनी आबादी बढ़ाने के लिए देवी ऐथेना ने उसे निर्देश दिया कि वह ड्रेगन के दांतों को वहां गाड़ दे. ऐसा करने पर ड्रेगन के दांतों ने हथियारबंद सैनिक उगलने शुरू कर दिये. इन सैनिकों ने आपस में लड़ कर अपना सर्वनाश कर लिया अंत में केवल पांच व्यक्ति शेष बच गये. इन्हीं पांच लोगों ने थेबीज़ नगर की स्थापना की. ** |
27-06-2013, 11:13 PM | #43 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
ग्रीक मिथक
प्रेमिका के लिए ज्यूस ने वृषभ का रूप भरा यूरोपा केदमस की अत्यंत सुन्दर बहन थी. एक बार वह फूल चुन रही थी कि देवताओं के राजा ज्यूस की नजर उस पर पड़ गई और वह उस पर मोहित हो गया. वह एक अत्यंत सुन्दर और बलिष्ठ वृषभ का रूप धार कर उसके पास पहुंचा. उसके सिर पर एक चमकता घेरा था और उसके सींग भी खूब चमक रहे थे. यूरोपा को यह सुन्दर और अनोखा वृषभ बहुत पसंद आया और वह उस पर सवार हो गयी. वृषभ उसे दूर दूर तक सवारी कराते हुये समुद्र के पार ले गया. ज्यूस ने उसे अपना वास्तविक रूप दिखाया. वहां उन दोनों ने शादी कर ली. उनके कई बच्चे हए जो आगे चल कर बहुत प्रसिद्द हुये. इसी युरोपा के नाम पर यूरोप महाद्वीप का नाम पड़ा है. |
27-06-2013, 11:17 PM | #44 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
भारतीय पौराणिक आख्यान
त्रिशंकु (त्रिशंकु के विषय में कुछ-कुछ अंतर वाली कथायें विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होती हैं जिनमे से कुछ नीचे दी जा रही हैं) त्रिशंकु के मन में सशरीर स्वर्ग-प्राप्ति के लिए यज्ञ करने की कामना बलवती हुई तो वे वशिष्ठ के पास पहुचे। वसिष्ठ ने यह कार्य असंभव बतलाया। वे दक्षिण प्रदेश में वसिष्ठ के सौ तपस्वी पुत्रों के पास गये। उन्होंने कहा-'जब वसिष्ठ ने मना कर दिया है तो हमारे लिए कैसे संभव हो सकता है?' त्रिशंकु के यह कहने पर कि वे किसी और की शरण में जायेंगे, उनके गुरु-पुत्रों ने उन्हें चांडाल होने का शाप दिया। चांडाल रूप में वे विश्वामित्र की शरण में गये। विश्वामित्र ने उसके लिए यज्ञ करना स्वीकार कर लिया। यज्ञ में समस्त ऋषियों को आमन्त्रित किया गया। सब आने के लिए तैयार थे, किंतु वसिष्ठ के सौ पुत्र और महोदय नामक ऋषि ने कहला भेजा कि वे लोग नहीं आयेंगे क्योंकि जिस चांडाल का यज्ञ कराने वाले क्षत्रिय हैं, उस यज्ञ में देवता और ऋषि किस प्रकार हवि ग्रहण कर सकते हैं। विश्वामित्र ने क्रुद्ध होकर शाप दिया कि वे सब काल-पाश में बंधकर यमपुरी चले जायें तथा वहां सात सौ जन्मों तक मुर्दों का भक्षण करें। यज्ञ आरंभ हो गये। बहुत समय बाद देवताओं को आमन्त्रित किया गया पर जब वे नहीं आये तो क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अपने हाथ में सुवा लेकर कहा-'मैं अपने अर्जित तप के बल से तुम्हें (त्रिशंकु को) सशरीर स्वर्ग भेजता हूं।' त्रिशंकु स्वर्ग की ओर सशरीर जाने लगे तो इन्द्र ने कहा-'तू लौट जा, क्योंकि गुरु से शापित है। तू सिर नीचा करके यहाँ से गिर जा।' वह नीचे गिरने लगा तो विश्वामित्र से रक्षा की याचना कीं। उन्होंने कहा-'वहीं ठहरो,' तथा क्रुद्ध होकर इन्द्र का नाश करने अथवा स्वयं दूसरा इन्द्र बनने का निश्चय किया। उन्होंने अनेक नक्षत्रों तथा देवताओं की रचना कर डाली। देवता, ऋषि, असुर विनीत भाव से विश्वामित्र के पास गये। अंत में यह निश्चय हुआ कि जब तक सृष्टि रहेगी, ध्रुव, सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्र रहेंगे, तब तक विश्वामित्र का रचा नक्षत्रमंडल और स्वर्ग भी रहेंगे उस स्वर्ग में त्रिशंकु सशरीर, नतमस्तक विद्यमान रहेंगे। # # मांधाता के कुल में सत्यव्रत नामक पुत्र का जन्म हुआ। सत्यव्रत अपने पिता तथा गुरु के शाप से चांडाल हो गया था तथापि विश्वामित्र के प्रभाव से उसने सशरीर स्वर्ग प्राप्त किया। देवताओं ने उसे स्वर्ग से धकेल दिया। अत: वह सिर नीचे और पांव ऊपर किये आज भी लटका हुआ है, क्योंकि विश्वामित्र के प्रभाव से वह पृथ्वी पर नहीं गिर सकता। वही सत्यव्रत त्रिशंकु नाम से विख्यात हुआ। # # |
27-06-2013, 11:18 PM | #45 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
त्रैय्यारूणि के पुत्र का नाम सत्यव्रत था। चंचलता और कामुकतावश उसने किसी नगरवासी की कन्या का अपहरण कर लिया। त्रैय्यारूणि ने रुष्ट होकर उसे राज्य से निकाल दिया तथा स्वयं भी वन में चला गया। सत्यव्रत चांडाल के घर रहने लगा। इन्द्र ने बारह वर्ष तक उसके राज्य में वर्षा नहीं की। पत्नी को उसी राज्य में छोड़कर तपस्या करने गये हुए थे। अनावृष्टि से त्रस्त उनकी पत्नी अपने शेष कुटुंब का पालन करने के लिए मंझले पुत्र के गले में रस्सी बांधकर सौ गायों के बदले में उसे बेचने गयी। सत्यव्रत ने उसे छुड़ा दिया। गले में रस्सी पड़ने के कारण वह पुत्र गालव कहलाया। सत्यव्रत उस परिवार के निमित्त प्रतिदिन मांस जुटाता था। एक दिन वह वशिष्ठ की गाय को मार लाया। उसने तथा विश्वामित्र के परिवार ने मांस-भक्षण किया। वसिष्ठ पहले ही उसके कर्मों से रुष्ट थे। गोहत्या के उपरांत उन्होंने उसे त्रिशंकु कहा। विश्वामित्र ने उससे प्रसन्न होकर उसका राज्यभिषेक किया तथा उसे सशरीर स्वर्ग जाने का वरदान दिया। देवताओं तथा वसिष्ठ के देखते-देखते ही वह स्वर्ग की ओर चल पड़ा। उसकी पत्नी ने निष्पाप राजा हरिश्चंद्र को जन्म दिया।
# # त्रैय्यारूणि (मुचुकुंद के भाई) का एक पुत्र हुआ, जिसका नाम सत्यव्रत था। वह दुष्ट तथा मन्त्रों को भ्रष्ट करने वाला थां राजा ने क्रुद्ध होकर उसे घर से निकाल दिया। वह रसोईघर के पास रहने लगा। राजा राज्य छोड़कर वन में चला गया। एक दिन मुनि विश्वामित्र भी तपस्या करने चले गये। एक दिन मुनि पत्नी अपने बीच के लड़के के गले में रस्सी बांधकर उसे सौ गायों के बदले में बेचने के लिए ले जा रही थी। सत्यव्रत ने दयार्द्र होकर उसे बंधन मुक्त करके स्वयं पालना आरंभ कर दिया तब से उसका नाम गालव्य पड़ गया। सत्यव्रत अनेक प्रकार से विश्वामित्र के कुटुंब का पालन करने लगा, किंन्तु किसी ने उसको घर के भीतर नहीं बुलाया। एक बार क्षुधा से व्याकुल होकर उसने की एक गाय मारकर विश्वामित्र के पुत्र के साथ बैठकर खा ली। वसिष्ठ को पता चला तो वे बहुत रुष्ट हुए। विश्वामित्र घर लौटे तो स्वकुटुंब पालन के कारण इतने प्रसन्न हुए कि उसे राजा बना दिया तथा सशरीर उसे स्वर्ग में बैठा दिया। वसिष्ठ ने उसे पतित होकर नीचे गिरने का शाप दिया तथा विश्वामित्र ने वहीं रूके रहने का आशीर्वाद दिया, अत: वह आकाश और पृथ्वी के बीच आज भी ज्यों का त्यों लटक रहा है। वह तभी से त्रिशंकु कहलाया। # # |
27-06-2013, 11:19 PM | #46 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
विष्णु पुराण की कथा से अंतर यहाँ उल्लिखित है। अरुण के पुत्र का नाम सत्यव्रत था। उसने ब्राह्मण कन्या का अपहरण किया थां प्रजा ने अरुण से कहा कि उसने ब्राह्मण भार्या का अपहरण किया है, अत: राजा ने उसे चांडाल के साथ रहने का शाप देकर राज्य से निर्वासित कर दिया। वसिष्ठ को ज्ञात था कि वह ब्राह्मण कन्या थी, भार्या नहीं किंतु उन्होंने राजा की वर्जना नहीं की, अत: सत्यव्रत उनसे रुष्ट हो गया। वन में उसने विश्वामित्र के परिवार की सेवा की। एक दिन शिकार न मिलने पर वसिष्ठ की गाय का वध करके उन्हें मांस दिया। वसिष्ठ ने रुष्ट होकर उसे कभी स्वर्ग न प्राप्त कर पाने का शाप दिया तथा ब्राह्मण कन्या के अपहरण, राज्य भ्रष्ट होने तथा गोहत्या करने के कारण उसके मस्तक पर तीन शंकु (कुष्ठवात्) का चिह्न वन गया, तभी से वह त्रिशंकु कहलाया। इस सबसे दुखी हो वह आत्महत्या के लिए तत्पर हुआ, किंतु महादेवी ने प्रकट होकर उसकी वर्जना की। विश्वामित्र के वरदान तथा महादेवी की कृपा से उसे पिता का राज्य प्राप्त हुआ। उसके पुत्र का नाम हरिश्चन्द्र रखा गया। हरिश्चन्द्र को युवराज घोषित करके वह सदेह स्वर्ग-प्राप्ति के लिए यज्ञ करना चाहता थां वसिष्ठ ने उसका यज्ञ कराना अस्वीकार कर दिया। वह किसी और ब्राह्मण पुरोहित की खोज करने लगा तो रुष्ट होकर वसिष्ठ ने उसे श्वपचाकृति पिशाच होने तथा कभी स्वर्ग प्राप्त न करने का शाप दिया। विश्वामित्र त्रिशंकु से विशेष प्रसन्न थे क्योंकि उसने उनके परिवार का पालन किया था, अत: उन्होंने अपने समस्त पुण्य उसे प्रदान कर के स्वर्ग भेज दिया। श्वपचाकृति के व्यक्ति को इन्द्र ने स्वर्ग में नहीं घुसने दिया। वहां से पतित होकर उसने विश्वामित्र को स्मरण किया। विश्वामित्र ने उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया, अत: वह मध्य में रूका रह गया, विश्वामित्र उसके लिए दूसरे स्वर्ग का निर्माण करने में लग गये। यह जानकर इन्द्र स्वयं उसे स्वर्ग ले गये।
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27-06-2013, 11:22 PM | #47 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
यह "त्रिशंकु" कौन है ?
(लेखक: गगन शर्मा) सत्ता और धन आज से नहीं हजारों-हजार साल से मनुष्य के दिमाग को विकृत करते आए हैं। फिर उस असंतुलित दिमाग ने अपने स्वामी को अहम से भर सनकी बना अजीबोगरीब काम या फैसले करने पर मजबूर किया है।ऐसा ही एक चरित्र है "त्रिशंकु"। जिसका असली नाम था सत्यव्रत। सूर्यवंशी राजा सत्यव्रत। इस पर प्रभु की असीम कृपा थी। यश चारों ओर फैला हुआ था। सब ठीक-ठाक था पर उसे कुछ अनोखा करने की इच्छा सदा बनी रहती थी। अचानक एक दिन उसके दिमाग में एक कीडा कुलबुलाया और एक सनक ने जन्म लिया कि मुझे सशरीर स्वर्ग जाना है। बस फिर क्या था इस प्रयोजन के लिए उसने विशेष यज्ञ की तैयारी कर अपने कुलगुरु ऋषि वसिष्ठ को यज्ञ का संचालन करने को कहा। पर वसिष्ठ ने इस प्रकृति विरुद्ध कार्य को करने से इंकार कर दिया। राजा पर तो सनक सवार थी उसने ऋषि वसिष्ठ के पुत्रों के पास जा उनसे इस कार्य को संपन्न करवाने को कहा। पर वे भी इस गलत परंपरा को डालने को किसी भी प्रकार राजी नहीं हुए। समझाने पर भी राजा ने उनकी बात नहीं मानी और उन्हें बुरा-भला कहने लगा जिससे ऋषि पुत्रों को क्रोध आ गया और उन्होंने उसे चांडाल बन जाने का श्राप दे डाला। उसी क्षण राजा की कांति मलिन हो गयी और वह श्रीहीन हो गया। पर उसने भी हठ नहीं छोड़ा और उसी अवस्था में वह ऋषि विश्वामित्र के पास गया और सारी बात बता अपना यज्ञ पूरा करने की प्रार्थना करने लगा। उसका हाल देख ऋषी द्रवित हो गये और उन्होंने यज्ञ संचालित करने की स्वीकृति दे दी। यज्ञ में शामिल होने के लिए सारे ब्राह्मणों को आमंत्रंण भेजा गया पर वसिष्ठ पुत्रों ने यह कह कर आने से इंकार कर दिया कि ब्राह्मण कुल के हो कर वे किसी चांडाल के यज्ञ में भाग नहीं ले सकते जब कि वह यज्ञ भी एक ब्राह्मण द्वारा संचालित ना हो कर एक क्षत्रिय द्वारा किया जा रहा हो। उनके इन कटु वचनों से क्रुद्ध हो कर विश्वामित्र ने उन्हें भस्म हो जाने और अगले जन्म में चांडाल योनि में जन्म लेने का श्राप दे डाला। फिर उन्होंने यज्ञ पूरा किया और अपने तपोबल से राजा सत्यव्रत को सदेह स्वर्ग भिजवा दिया। उधर देवराज इंद्र इस गलत परंपरा से बहुत क्रोधित थे सो इसके निवारण हेतु उन्होंने सत्यव्रत को फिर नीचे की ओर ढकेल दिया। अब ऋषि के तपोबल और देव प्रकोप के कारण सत्यव्रत कहीं का ना रहा। कहते हैं आज भी वह धरती और आकाश के बीच त्रिशंकु बन लटका हुआ है। ** |
02-07-2013, 10:41 AM | #48 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
विश्वामित्र
विश्वामित्र वैदिक काल के प्रमुख ऋषियों में से एक माने गए हैं इन्हें सप्त ऋषियों में स्थान प्राप्त है, ऋषि विश्वामित्र अदम्य साहस के प्रतीक, प्रतापी और तेजस्वी महापुरुष थे, ब्राह्मणत्व ऋषि होने से पूर्व एक पराक्रमी और प्रजावत्सल राजा थे. विश्वामित्र एक उच्च कुल में जन्मे क्षत्रिय नरेश थे इनके वंश में प्रजापति, कुश, कुशनाभ और राजा गाधि जैसे महान पराक्रमी, शूरवीर एवं धर्मपरायण राजा हुए थे जिनमें से विश्वामित्र जी एक राजा गाधि के पुत्र हुए. विश्वामित्र जी अपनी गरिमा के रूप में सर्वश्रेष्ठ रहे उन जैसा अन्य कोई न था अपने पुरुषार्थ द्वारा उन्होंने क्षत्रियत्व से ब्रह्मत्व प्राप्त किया, राजर्षि से ब्रह्मर्षि बने, सबके लिये वे वन्दनीय बने, देवताओं और ऋषियों द्वारा पूज्य हुए तथा सप्तर्षियों में स्थान प्राप्त हुआ अपनी समाधिजा प्रज्ञा से अनेक मन्त्रस्वरूपों का दर्शन एवं ज्ञान प्राप्त हुआ जिस कारण इन्हें मन्त्रद्रष्टा ऋषि की उपाधि प्राप्त हुई. |
02-07-2013, 10:42 AM | #49 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति
अपने पुरुषार्थ, सच्ची लगन, उद्यम और तप द्वारा उन्होंने क्षत्रियत्व से ब्राह्मणत्व प्राप्त किया विश्वामित्र जी ने ब्राह्मण का पद प्राप्त करने के लिये कठोर तपस्या करने लगे. उनके इस कठोर तप से सभी प्रभावित होते हैं और उनकी तपस्या को भ़ंग करने के लिए नाना प्रकार के विघ्न उत्पन्न किए जाते हैं परंतु विश्वामित्र जी बिना इन सभी सकटों बाधाओं को दूर करते हुए अपनी तपस्या में लीन रहते हैं. जब एक बार अपनी तपस्या से कुछ समय के लिए निवृत होकर विश्वामित्र जी भोजन करने लगते हैं तब इंद्र उनकी परिक्षा लेने के लिए उनके समक्ष एक ब्राह्मण भिक्षुक के रुप में आकर उनसे भोजन की याचना करते हैं तब विश्वामित्र जी अपने भोजन को उन्हें दे देते हैं और स्वयं निराहार रह कर पुन: तपस्या में लीन हो जाते हैं. उनकी इस तपस्या से प्रभावित होकर देवता ब्रह्माजी से प्राथना करते हैं कि विश्वामित्र की तपस्या ने पराकाष्ठा को प्राप्त कर लिया है तथा वह क्रोध और मोह की सीमाओं से मुक्त होकर अपने तेज द्वारा समस्त सृष्टि को प्रकाशित कर रहे हैं अत: आप इनकी इच्छा की पूर्ति करें तब ब्रह्मा जी विश्वामित्र जी को सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण की उपाधि प्रदान करते हैं तथा उन्हें ओंकार, षट्कार तथा चारों वेद भी प्रदान करते हैं ओर इस प्रकार वह ब्राह्मण का पद प्राप्त करते हैं. |
02-07-2013, 10:43 AM | #50 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
धर्म ग्रंथों में विश्वामित्र
भारतीय वाङ्मय के तपस्वी, साधक, युगद्रष्टा महर्षि विश्वामित्र जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य पर विजय प्राप्त करने वाले वह महान नायक हैं जिनके जीवन चरित्र से प्रेरित होकर किसी भी वस्तु को पाना असंभव प्रतीत नहीं होता, विश्वामित्र जी भारतीय पुराण साहित्य का अद्वितीय चरित्र हैं इन्होंने नरेश रूप में राज्य विस्तार किया साधक के रूप में साधना को पाया राजर्षि पद से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया. इनके च्रित्र के आख्यान अनेक धर्म ग्रंथों में देखे जा सकते हैं रामायण, महाभारत एवं पुराणों आदि अनेक ग्रंथों में विश्वामित्र की कथा का विस्तार पूर्वक उल्लेख प्राप्त होता है, ब्रह्म-गायत्री-मन्त्र के मुख्य द्रष्टा तथा उपदेष्टा महर्षि विश्वामित्र ही हैं उन्हीं के द्वारा गायत्री मन्त्र प्राप्त हुआ है विश्वामित्र जी ने इसके अतिरिक्त अन्य जिन ग्रन्थों का प्रणयन भी किया, विश्वामित्रकल्प, विश्वामित्रसंहिता और ‘विश्वामित्रस्मृति उनके मुख्य ग्रन्थ हैं. |
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