15-01-2011, 05:54 PM | #41 |
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Re: मेरी पसंदीदा हिंदी फिल्में
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15-01-2011, 05:55 PM | #42 |
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Re: मेरी पसंदीदा हिंदी फिल्में
राजकपूर की तुलना में हृशिकेष मुखर्जी न्यू थियेटर्स के ज्यादा प्रतिनिधि फिल्मकार थे। वे बिमल रॉय के साथ - साथ देबकी बोस और पी. सी. बरूआ से भी प्रभावित थे। बिमल रॉय ने अपने कैरियर का प्रारंभ एक कैमरामैन के रूप में किया था। सिनेमैटोग्राफी उनके निर्देशन को प्रारंभ से ही नियंत्रित करती थी। जबकि हृशिकेष मुखर्जी ने अपनी शुरूआत एक संपादक के रूप में की थी। अत: एक निर्देशक के रूप में या पटकथा लेखक के रूप में उनका दृष्टिकोण संपादक की तरह किफायती बना रहता है। गुलजार के निर्देशन एवं लेखन पर उनका गीतकार वाला रूप हावी रहता है। आनंद केदार शर्मा के जोगन या चित्रलेखा की तरह नैरेटिव प्रधान फिल्म नहीं है। इसमें नैरेटिव और स्पेकटेकल का संपादकीय कौशल से किया गया किफायती संतुलन है। यह मूलत: प्रतीकात्मक एवं लाक्षणिक रूप से हिन्दू दृष्टि में जीवन एवं मृत्यु तथा भाग्य एवं पुनर्जन्म की आनंद - दायक कहानी कहती है। इसमें हिन्दू संस्कृति का उदात्त रूप पेश किया गया है जिसमें मुसलमान और ईसाई पात्रों को भी सहजता से जीवन जीने और संबंध बनाने में दिक्कत नहीं होती। आनंद फिल्म का हिन्दू धर्म भारतीय संस्कृति की तरह बहुआयामी, सहनशील एवं लचीला है।
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15-01-2011, 05:58 PM | #43 |
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Re: मेरी पसंदीदा हिंदी फिल्में
आनंद फिल्म 1970 में बनी। इसकी कहानी हृशिकेष मुखर्जी ने खुद लिखी थी। अमेरिका में 1969 में द गॉड फादर उपन्यास का प्रकाशन हुआ था इसके लेखक मारियो पूजो थे। 1969 में शक्ति सामंत ने आराधना फिल्म बनायी थी जिससे राजेश खन्ना सुपर सितारा बने। इतालवी मूल के फ्रांसिस फोर्ड कपोला ने 1972 में 'द गॉड फादर' फिल्म का पहला भाग बनाया था। 1975 में इससे प्रेरित दो फिल्में बनीं फिरोज खान की धर्मात्मा और रमेश सिप्पी की शोले। भारत में अपराध का महिमामंडन 1975 से ही हुआ। लेकिन 'द गॉड फादर' में केवल अपराध का महिमामंडन नहीं था, फ्रांसिस फोर्ड कपोला ने माफिया को अमेरिकी पूंजीवाद के रूपक में बदल दिया था। गॉडफादर में अमेरिका में रहते आए एक इतालवी माफिया परिवार के 1945 से 1955 तक के दस सालों का वृतांत उकेरा गया है। यह दरअसल द्वितीय विश्वयुध्द के बाद उभरी विश्व व्यवस्था में अमेरिकी पूंजीवाद का उत्कर्ष काल है। द गॉडफादर का नायक एक बूढ़ा डॉन विटो कॉरलेऑन है जो अमेरिकी पूंजीवाद के प्रतीक माफिया परिवार का मुखिया है। बूढ़ा होता डॉन विटो हिंसा के आदेश देता है, जो दरअसल पूंजी और ताकत को हासिल करने की युक्तियां भी हैं। लेकिन फिल्म में माफियाओं के बीच खूनी खेल ही नहीं चलता, वहां अपराध के बीच परिवारों में मानवीय संबंधों के वृतांत भी दिखते हैं। यह फिल्म अपराध करने वालों के परिवारों में फैले प्रेम संबंधों, तनावों, इर्ष्या, वात्सल्य और रहस्यों की भूल भुलैया में भी उसी खूबी के साथ जाती है, जिस तरह वह हिंसा के नरक में उतरती है। एक बड़े माफिया परिवार के शीर्ष पर बैठे डॉन विटो का अपने परिवार से गजब का जुड़ाव है। विटो का अभिनय मार्लन ब्रैंडो ने निभाया था। इसके लिए उन्हें सबसे अच्छे अभिनेता का ऑस्कर भी मिला था। आनंद और गॉडफादर की तुलना करके भारतीय और अमेरिकी संस्कृति के अंतर को समझ सकते हैं। आनंद की मृत्यु के बाद पूरी फिल्म में करूणा की लहर फैल जाती है जबकि माफिया के दो गुटों के बीच लड़ाई में जब विटो के बेटे सनी की हत्या होती है तो बेटे का शव विराग नहीं और गहरी हिंसा का उत्प्रेरक बन जाता है। यह अधिकार क्षेत्र और शक्ति बनाए रखने का दुष्चक्र और विवशता है। भारत की पहली फिल्म ' राजा हीरश्चन्द्र' थी जबकि अमेरिका की पहली फिल्म ' द ग्रेट ट्रेन रॉबरी' थी। तब से भारतीय सिनेमा और अमेरिकी सिनेमा का मूल स्वर नहीं बदला है। 1970 के दशक में आनंद और द गॉडफादर इसका उदाहरण है।
(साभार: डा० अमित कुमार शर्मा, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली) |
15-01-2011, 06:56 PM | #44 | |
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Re: मेरी पसंदीदा हिंदी फिल्में
Quote:
पहले वे इस किरदार को निभाने के लिए शशि कपूर के पास गए फिर किशोर कुमार के पास पर "जब जब जो जो होना है तब तब वो वो होता है" की तर्ज पर दोनों के मना करने पर उनकी तलाश राजेश खन्ना पर आकर रुक गयी इसके बाद आगे भी हृशि दा ने राजेश खन्ना के साथ दो बार काम किया बावर्ची(1972) और नमक हराम(1973) में
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15-01-2011, 07:08 PM | #45 | |
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Re: मेरी पसंदीदा हिंदी फिल्में
किसी एक फिल्म के बारे में क्या कहूँ, मुझे तो बस फ़िल्में पसंद है
भाई लोग मैं तो फ़िल्मी कीड़ा हूँ मेरा मानना है की कोई फिल्म अच्छी या बुरी नहीं होती, अच्छा या बुरा तो उसे देखने वालों का नजरिया होता है बस कोई किसी को पसंद आती है किसी को नहीं बुरी से बुरी फिल्म(आलोचक की नजर में) को भी परदे पर देखना उसके निर्देशक का सपना होता है और उसके लिए तो कम से कम वो सबसे अच्छी फिल्म होती है आप लोग अपनी चर्चा जारी रखिये अगर मुझे कुछ पता हुआ तो मैं अवश्य लिखूंगा जैसे Quote:
कोर्ट का दृश्य, ट्रेन का दृश्य, और उस चाल का दृश्य जिसमे खून हुआ होता है/
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15-01-2011, 07:19 PM | #46 |
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Re: मेरी पसंदीदा हिंदी फिल्में
correction के लिए धन्यवाद. लगभग ९० प्रतिशत दृश्य एक ही कमरे में थे.
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15-01-2011, 07:34 PM | #47 | |
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Re: मेरी पसंदीदा हिंदी फिल्में
Quote:
कोर्ट समाज के १२ जाने माने लोगो को आखिरी फैसला लेने के लिए नियुक्त करती है. और यह १२ लोग एक कमरे में बैठ कर काफी घंटो की बहस के बाद फैसला लेते है. हालाँकि फिल्म के शुरु में ज्यूरी के ११ सदस्य इस बात पर पूरी मजबूती से सहमत हैं कि लड़का अपराधी मानसिकता वाला एक नौजवान है और उसने झगड़ा होने पर अपने बाप की हत्या कर दी. ज्यादातर सदस्यों के लिये इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि लड़के के साथ न्याय हो रहा है या अन्याय. उन्होने तो चौकन्ने होकर अदालत में केस भी नहीं सुना है। उनके दिमाग इस बात से ज्यादा प्रभावित हैं कि चूँकि पुलिस ने लड़के को पकड़ा है और उसके घर के नीचे और सामने रहने वाले दो गवाहों ने उसके खिलाफ गवाही दी है तो लड़के को अपने बाप का हत्यारा होना ही चाहिये. इसमें कोई दो राय हो नहीं सकतीं और लड़का बेकसूर होता तो उसका वकील सिद्ध न कर देता अदालत में? पर वह तो चुप ही रहा सरकारी वकील के सामने क्योंकि उसके पास कोई तर्क था ही नहीं. जब एक गवाह ने बाप-बेटे के बीच होने वाले झगड़े की पुष्टि की और लड़के को झगड़े के फौरन बाद घर से नीचे भागते हुये देखा और लड़के के घर के सामने वाले घर में रहने वाली एक औरत ने अपनी खिड़की से उस लड़के को चाकू मारते हुये देखा तो शक की कोई गुँजाइश बचती ही नहीं कि लड़का ही अपने बाप का कातिल है. किसी को अपने परिवार के साथ फिल्म देखने जाना है, किसी को कुछ और काम निबटाने हैं और ऐसे सब सदस्य जल्दी में हैं, इस केस पर राय देने में. जब सभी लोगों की राय से समूह का अध्यक्ष लड़के के मुजरिम होने या न होने के बारे में वोटिंग करवाता है तो जल्दी से घर जाने की सोच रखने वाले लोगों को एक बड़ा झटका लगता है जब वे पाते हैं कि एक महोदय यानि K K Raina ने अपना वोट लड़के को बेकसूर मानते हुये दिया है. और इस तरह एक आदमी ही उस लड़के का support करता है, फिर आगे क्या होता है आखिरी फैसला क्या होता है. इसके लिए आप यह फिल्म देखे. लोगों के समूह में बहुत मुश्किल होता है किसी एक व्यक्ति का समूह में शामिल अन्य लोगों की राय के खिलाफ अकेले खड़ा होना. लेकिन यह इस फिल्म में दिखाया गया है.
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16-01-2011, 09:36 AM | #48 |
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Re: मेरी पसंदीदा हिंदी फिल्में
अधिकतर लोग कहते है B grade फिल्में बकवास होती हैं और उनका बॉक्स ऑफिस पर सफल होना बहुत ही मुश्किल होता है. आज मैं एक बी grade फिल्म की चर्चा करूंगा जो की बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट साबित हुई थी.
फिल्म का नाम है सुरक्षा
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16-01-2011, 09:57 AM | #49 |
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Re: मेरी पसंदीदा हिंदी फिल्में
यह फिल्म एक अँग्रेज़ी फिल्म 'Man with the Golden Gun' से प्रेरित थी. "Man with the Golden Gun 1974 में बनी एक जेम्स बॉन्ड series की 9वी जासूसी फिल्म थी. इसके हीरो रोजर मूर थे, उन्होने जेम्ज़ बॉन्ड का किरदार निभाया था.
सुरक्षा 1979 में release हुई थी, इसका direction रविकान्त नागाईच ने किया था. मिथुन, रंजीता, जीवन, जगदीप, इफ़्तेखार, अरुणा ईरानी ने मुख्य किरदार निभाए थे. सुरक्षा की खास बातें थी ::
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16-01-2011, 10:08 AM | #50 |
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Re: मेरी पसंदीदा हिंदी फिल्में
इस फिल्म की कहानी कुछ इस तरह से थी. गन मास्टर g9 यानि मिथुन दा भारत सरकार के सेक्रेट agent होते है. इनकी केवल एक ही कमजोरी है वो है लडकिया. एक अन्य सेक्रेट agent का क़त्ल दुश्मन के लोग कर देते है और उसके बाद सरकार गन मास्टर को उस गिरोह का पता लगाने और कुछ सेक्रेट फाइल जो पुराने agent के पास थी तो दूंदने का काम सौपती है.
फिर गन मास्टर इस कार्य को अंजाम देते है और जैसा की इस तरह की फिल्मों में होता है दुश्मन की हार होती है और सेक्रेट agent २ लडकियों के साथ प्यार करते करते अपने मिसन को complete करता है. इस बीच गन मास्टर पर कई सारे हमले होते है और वो बहादुरी से उनका सामना करके दुश्मनों को हरा देता है. फिल्म की कहानी तो आज के दर्शको को शायद ज्यादा पसंद ना आये लेकिन इस फिल्म के कुछ खास दृश्य मैं यहाँ शेयर करना चाऊँगा.
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