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Old 29-06-2013, 09:12 AM   #41
VARSHNEY.009
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काँच की बरनी और दो प्याले चाय
जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है, सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है, और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं, उस समय यह बोध कथा, "काँच की बरनी और दो प्याला चाय" हमें पढ़ लेनी चाहिये।

दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं। उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बड़ी बरनी मेज पर रखी और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची...
उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ?
हाँ... आवाज आई...
फिर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी, समा गए, फिर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्या अब बरनी भर गई है, छात्रों ने एक बार फिर हाँ.... कहा
अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया, वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई, अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे....
फिर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ?
हाँ... अब तो पूरी भर गई है... सभी ने एक स्वर में कहा...
सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो प्याले निकालकर उसमें की चाय जार में डाली, चाय भी रेत के बीच स्थित थोड़ी सी जगह में सोख ली गई....

प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया – इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो..... टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्त्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं, छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बडा़ मकान आदि हैं, और रेत का मतलब, और भी छोटी-छोटी बेकार सी बातें, मनमुटाव, झगड़े है... अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते, रेत जरूर भर सकती थी.... ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है....यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पड़े रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा.... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है। अपने बच्चों के साथ खेलो, बगीचे में पानी डालो, सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ, घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फेंको , मेडिकल चेक-अप करवाओ.... टेबल-टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो, वही महत्त्वपूर्ण है.... पहले तय करो कि क्या जरूरी है.... बाकी सब तो रेत है...
छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे...

अचानक एकने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि "चाय के दो प्याले" क्या हैं ?

प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले...मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया.... इसका उत्तर यह है कि.... जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो प्याले चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये।
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Old 29-06-2013, 09:12 AM   #42
VARSHNEY.009
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शिव जी का तंत्र
बहुत समय पहले की बात है एक बड़ा सा तालाब था उसमें सैकड़ों मेंढक रहते थे। तालाब में कोई राजा नहीं था, सच मानो तो सभी राजा थे। दिन पर दिन अनुशासन हीनता बढ़ती जाती थी और स्थिति को नियंत्रण में करने वाला कोई नहीं था। उसे ठीक करने का कोई यंत्र तंत्र मंत्र दिखाई नहीं देता था। नई पीढ़ी उत्तरदायित्व हीन थी। जो थोड़े बहुत होशियार मेंढक निकलते थे वे पढ़-लिखकर अपना तालाब सुधारने की बजाय दूसरे तालाबों में चैन से जा बसते थे।
हार कर कुछ बूढ़े मेंढकों ने घनी तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया और उनसे आग्रह किया कि तालाब के लिये कोई राजा भेज दें। जिससे उनके तालाब में सुख चैन स्थापित हो सके। शिव जी ने प्रसन्न होकर नंदी को उनकी देखभाल के लिये भेज दिया। नंदी तालाब के किनारे इधर उधर घूमता, पहरेदारी करता लेकिन न वह उनकी भाषा समझता था न उनकी आवश्यकताएँ। अलबत्ता उसके खुर से कुचलकर अक्सर कोई न कोई मेंढक मर जाता। समस्या दूर होने की बजाय और बढ़ गई थी। पहले तो केवल झगड़े झंझट होते थे लेकिन अब तो मौतें भी होने लगीं।
फिर से कुछ बूढ़े मेंढकों ने तपस्या से शिव जी को प्रसन्न किया और राजा को बदल देने की प्रार्थना की। शिव जी ने उनकी बात का सम्मान करते हुए नंदी को वापस बुला लिया और अपने गले के सर्प को राजा बनाकर भेज दिया। फिर क्या था वह पहरेदारी करते समय एक दो मेंढक चट कर जाता। मेंढक उसके भोजन जो थे। मेंढक बुरी तरह से परेशानी में घिर गए थे।
फिर से मेंढकों ने घबराकर अपनी तपस्या से भोलेशंकर को प्रसन्न किया और कहा कि आप कोई पशु पक्षी राज करने के लिये न भेजें कोई यंत्र या मंत्र दे दें जिससे तालाब में सुख शांति स्थापित हो सके। शिव ने सर्प को वापस बुला लिया और अपनी शिला उन्हें पकड़ा दी। मेंढकों ने जैसे ही शिला को तालाब के किनारे रखा वह उनके हाथ से छूट गई और बहुत से मेंढक दबकर मर गए। मेंढकों की समस्याओं हल होना तो दूर उनके ऊपर मुसीबतों को पहाड़ टूट पड़ा
फिर क्या था। तालाब के मेंढकों में हंगामा मच गया। चीख पुकार रोना धोना वे मिलकर शिव की उपासना में लग गए,
'हे भगवान, आपने ही यह मुसीबत हमें दी है, आप ही इसे दूर करें।'
शिव भी थे तो भोलेबाबा ही, सो जल्दी से प्रकट हो गए।
मेंढकों ने कहा, 'आपका भेजा हुआ कोई भी राजा हमारे तालाब में व्यवस्था नहीं बना पाया। समझ में नहीं आता कि हमारे कष्ट कैसे दूर होंगे। कोई यंत्र या मंत्र काम नहीं करता। आप ही बताएँ हम क्या करें
?'

इस बार शिव जी जरा गंभीर हो गए। थोड़ा रुक कर बोले, यंत्र मंत्र छोड़ो और स्वतंत्र स्थापित करो। मैं तुम्हें यही शिक्षा देना चाहता था। तुम्हें क्या चाहिये और तुम्हारे लिये क्या उपयोगी वह केवल तुम्हीं अच्छी तरह समझ सकते हो। किसी भी तंत्र में बाहर से भेजा गया कोई भी विदेशी शासन या नियम चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो तुम्हारे लिये अच्छा नहीं हो सकता। इसलिये अपना स्वाभिमान जागृत करो, संगठित बनो, अपना तंत्र बनाओ और उसे लागू करो। अपनी आवश्यकताएँ समझो, गलतियों से सीखो। माँगने से सबकुछ प्राप्त नहीं होता, अपने परिश्रम का मूल्य समझो और समझदारी से अपना तंत्र विकसित करो।
मालूम नहीं फिर से उस तालाब में शांति स्थापित हो सकी या नहीं। लेकिन इस कथा से भारतवासी भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।
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Old 29-06-2013, 09:12 AM   #43
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श्रम का पुरस्कार
बहुत दिनों पहले की बात है, गिलहरी पूरी तरह काली हुआ करती थी। छोटी-छोटी झाड़ियों के बीच, घास के मैदानों में, ऊँचे बड़े पेड़ों पर रेंगती फिरती कूदती फाँदती लेकिन लोग उसे सुंदर प्राणी नहीं समझते थे। गिलहरी को गाँव के परिवारों के साथ रहना पसंद था लेकिन गाँव वाले उसे पसंद नहीं करते थे। वह घरों में पहुँच जाती तो बच्चे डर जाते और लोग उसे भगाने लगते।

गाँव में एक आश्रम था जिसमें साधू बाबा रहते थे। गिलहरी उनके पास रहने लगी। जो बाबा खाते वह गिलहरी खाती, जो वे यज्ञ हवन करते उसकी साक्षी बनती और जो वे जप मंत्र पढ़ते उसके पुण्य का लाभ उठाती। धीरे धीरे गिलहरी बीज, कंद और मूल खाने वाली साध्वी बन गई। कुछ समय बाद बाबा रामेश्वरम की तीर्थयात्रा पर निकले तो वह गिलहरी भी उनके साथ हो ली। रामेश्वरम के समुद्र तट पर बाबा ने जहाँ डेरा डाला वहीं किसी पेड़ पर एक कोटर में गिलहरी ने भी अपना घर बना लिया।

रामेश्वरम में थोड़ा ही समय बीता था कि राम और रावण का युद्ध छिड़ गया और राम जी ने सिंधु में सेतु निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया। नल और नील के नेतृत्व में बन्दर और भालू समुद्र में पत्थर डालकर सेतु बनाने लगे। यह देखकर गिलहरी भी रेत के कण उठाकर समुद्र में डालने लगी। यह छोटा सा काम था लेकिन बड़े निर्माण में छोटे से छोटे काम का महत्व होता है, यह समझकर नल नील ने उसे टोका नहीं और वह अपना काम करती रही। भगवान राम भी उसे चुपचाप काम करते देखते। जिस दिन पुल का निर्माण पूरा हुआ, उस दिन, नन्हीं सी गिलहरी द्वारा प्रदर्शित उत्तरदायित्व, लगन और श्रम की भावना को पुरस्कृत करने के लिये भगवान राम ने उसे अपने हाथों में उठाया और आशीर्वाद से भरी अपनी अँगुलियों को उस पर फेरा।

आश्चर्य ! भगवान राम के हाथ और ऊँगलियों के निशान जहाँ लगे वहाँ का रंग भगवान की त्वचा जैसा साँवला हो गया और वह अत्यंत आकर्षक दिखाई देने लगी। कहते हैं तभी से गिलहरी की गणना सुंदर प्राणियों में होने लगी। गाँव के बच्चे उसे देखकर खुश हो जाते, उसे बगीचों से कोई नहीं भगाता और लोग उससे खूब प्रेम करते। गिलहरी को मिले इस वरदान से उसके आगे की संतति भी सुंदर हुई। अंत में जब सेतु निर्माण का इतिहास लिखा गया तब हर कवि और रचनाकार ने उस नन्हीं गिलहरी का उल्लेख अपनी रचना में किया।
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Old 29-06-2013, 09:13 AM   #44
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स्वर्ग और नरक
एक युवक था। वह बंदूक और तलवार चलाना सीख रहा था। इसलिए वह यदा-कदा जंगल जाकर खरगोश, लोमड़ी और पक्षियों आदि का शिकार करता। शिकार करते-करते उसे यह घमंड हो गया कि उसके जैसा निशानेबाज़ कोई नहीं है और न उसके जैसा कोई तलवार चलाने वाला। आगे चलकर वह इतना घमंडी हो गया कि किसी बड़े के प्रति शिष्टाचार भी भूल गया।
उसके गाँव के बाहर कुटिया में एक संत रहते थे। वह एक दिन उनके पास पहुँचा। न उन्हें प्रणाम किया और न ही अपना परिचय दिया। सीधे उनके सामने पड़े आसन पर बैठ गया और कहने लगा, 'लोग बेकार में स्वर्ग-नरक में विश्वास करते हैं?
संत ने उससे पूछा, 'तुम तलवार साथ में क्यों रखते हो?'
उसने कहा, 'मुझे सेना में भर्ती होना है, कर्नल बनना है।'
इस पर संत ने कहा, 'तुम्हारे जैसे लोग सेना में भर्ती किए जाते हैं? पहले अपनी शक्ल शीशे में जाकर देख लो।'

यह सुनते ही युवक ग़ुस्से में आ गया और उसने म्यान से तलवार निकाल ली। तब संत ने फिर कहा, 'वाह! तुम्हारी तलवार भी कैसी है? इससे तुम किसी भी बहादुर आदमी का सामना नहीं कर सकते, क्यों कि वीरों की तलवार की चमक कुछ और ही होती है।'
फिर तो युवक गुस्से से आग-बबूला हो गया और संत को मारने के लिए झपटा। तब संत ने शांत स्वर से कहा, 'अब तुम्हारे लिए नरक का दरवाज़ा खुल गया।'
यह सुनते ही युवक की अक्ल खुल गई और उसने तलवार म्यान में रख ली। अब वह सर झुककर संत के सामने खड़ा था और अपराधी जैसा भाव दिखा रहा था। इस पर संत ने कहा, 'अब तुम्हारे लिए स्वर्ग का दरवाज़ा खुल गया।'
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Old 29-06-2013, 09:13 AM   #45
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स्वाभिमान

कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति का एक पत्र पाकर पं. मदन मोहन मालवीय असमंजस में पड़ गए। वे बुदबुदाए - "अजीब प्रस्ताव रखा है यह तो उन्होंने। क्या कहूँ, क्या लिखूँ?"
पास बैठे एक सज्जन ने पूछा, "ऐसी क्या अजीब बात लिखी है पंडित जी उन्होंने।"
वे मुसकुराकर बोले, "कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति महोदय, मेरी सनातन उपाधि छीन कर एक नई उपाधि देना चाहते हैं।" वे लिखते हैं - यह कहकर वे पत्र पढ़ने लगे। उस पत्र में लिखा था - "कलकत्ता यूनिवर्सिटी आपको डॉक्टरेट की सम्मानित उपाधि से अलंकृत करके अपने आपको गौरवान्वित करना चाहती है। हम भी गौरवान्वित हो सकेंगे। आप अपनी बेशकीमती स्वीकृति से शीघ्र ही सूचित करने की कृपा कीजिए।"
"प्रस्ताव तो उचित ही है। आप ना मत कर दीजिएगा मालवीय जी महाराज, यह तो हम वाराणसी वासियों के लिए विशेष गर्व एवं गौरव की बात होगी।" तभी एक अन्य सज्जन ने हाथ जोड़ कर कहा उनसे।
"अरे बहुत ही भोले हो भैय्ये तुम तो। वाराणसी के गौरव में वृद्धि नहीं होगी। यह तो वाराणसी के पांडित्य को जलील करने का प्रस्ताव है। बनारस के पंडितों को अपमानित करनेवाली तजवीज़ है यह।" बहुत ही व्यथित मन से मालवीय जी बोले।
अगले ही क्षण उन्होंने उस पत्र का उत्तर लिखा - "मान्य महोदय! आपके प्रस्ताव के लिए धन्यवाद। मेरे उत्तर को अपने प्रस्ताव का अनादर मत मानिएगा। मेरा पक्ष सुनकर आप उस पर पुनर्विचार ही कीजिएगा। मुझको आपका यह उपाधि वितरण प्रस्ताव अर्थहीन लग रहा है। मैं जन्म और कर्म दोनों से ही ब्राह्मण हूँ। किसी भी ब्राह्मण धर्म की मर्यादाओं के अनुरूप जीवन बिताता है। 'पंडित' से बढ़कर अन्य कोई भी उपाधि नहीं हो सकती । मैं 'डाक्टर मदन मोहन मालवीय' कहलाने की अपेक्षा 'पंडित मदन मोहन मालवीय' कहलवाना अधिक पसंद करूँगा। आशा है आप इस ब्राह्मण के मन की भावना का आदर करते हुए इसे 'डाक्टर' बनाने का विचार त्याग कर 'पंडित' ही बना रहने देंगे।"
वृद्धावस्था में भी मालवीय जी तत्कालीन वाइसराय की कौंसिल के वरिष्ठ काउंसलर थे। उनकी गहन और तथ्यपूर्ण आलोचनाओं के बावजूद वाइसराय उनकी मेधा, सौजन्य, सहज पांडित्य आदि के क़ायल थे। एक बार एक ख़ास भेंट के कार्यक्रम के दौरान वाइसराय ने कहा - "पंडित मालवीय, हिज़ मेजेस्टी की सरकार आपको 'सर' की उपाधि से अलंकृत करना चाहती है। आप इस उपाधि को स्वीकार करके इस उपाधि का गौरव बढ़ाने में हमारी मदद करें।"
मालवीय जी ने तुरंत मुसकुराकर उत्तर दिया - "महामहिम वाइसराय जी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद कि आप मुझे इस योग्य मानते हैं किंतु मैं वंश परंपरा से प्राप्त अपनी सनातन उपाधि नहीं त्यागना चाहता। एक ब्राह्मण के लिए 'पंडित' की उपाधि ही सर्वोपरि उपाधि है। यह मुझे ईश्वर ने प्रदान की है। मैं इसे त्याग कर उसके बंदे की दी गई उपाधि को क्यों कर स्वीकार करूँ?"
वाइसराय उनके तर्क से खुश होकर बोले - "आपका निर्णय सुनकर हमें आपको पांडित्य पर जो गर्व था, वह दुगुना हो गया। आप वाकई सच्चे पंडित हैं जो उसके गौरव गरिमा की रक्षा के लिए कोई भी प्रलोभन त्याग सकते हैं।"
एक बार काशी के पंडितों की एक सभा ने मालवीय जी महाराज का नागरिक अभिनंदन करके उन्हें उस समारोह के दौरान ही 'पंडितराज' की उपाधि प्रदान किए जाने का प्रस्ताव किया। यह सुनकर सभा के कार्यकर्ताओं के सुझाव का विरोध करते हुए वे बोले - "अरे पंडितों, पांडित्य का मखौल क्यों बना रहे हो, पंडित की उपाधि तो स्वत: ही विशेषणातीत है। इसलिए आप मुझको पंडित ही बना रहने दीजिए।"
फिर वे हँसकर बोले - "जानते हो 'पंडित' 'महापंडित' बन जाता है तो उसका एक पर्यायवाची वैशाखनंदन 'गधा' बनकर मुस्कराता है व्याकरणाचार्यों के पांडित्य पर।"
और पंडित जी के विनोद में बात आई गई हो गई। वे न तो डाक्टर बने, न 'सर' हुए न ही 'पंडितराज' इस सबसे दूर स्वाभिमान के साथ जीवन भर पांडित्य का गौरव बढ़ाते रहे।
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Old 29-06-2013, 09:14 AM   #46
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सत्कार और तिरस्कार
एक थका माँदा शिल्पकार लंबी यात्रा के बाद किसी छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम के लिये बैठ गया। अचानक उसे सामने एक पत्थर का टुकड़ा पड़ा दिखाई दिया। उसने उस सुंदर पत्थर के टुकड़े को उठा लिया, सामने रखा और औजारों के थैले से छेनी-हथौड़ी निकालकर उसे तराशने के लिए जैसे ही पहली चोट की, पत्थर जोर से चिल्ला पड़ा, "उफ मुझे मत मारो।" दूसरी बार वह रोने लगा, "मत मारो मुझे, मत मारो... मत मारो।

शिल्पकार ने उस पत्थर को छोड़ दिया, अपनी पसंद का एक अन्य टुकड़ा उठाया और उसे हथौड़ी से तराशने लगा। वह टुकड़ा चुपचाप वार सहता गया और देखते ही देखते उसमे से एक एक देवी की मूर्ती उभर आई। मूर्ती वहीं पेड़ के नीचे रख वह अपनी राह पकड़ आगे चला गया।

कुछ वर्षों बाद उस शिल्पकार को फिर से उसी पुराने रास्ते से गुजरना पड़ा, जहाँ पिछली बार विश्राम किया था। उस स्थान पर पहुँचा तो देखा कि वहाँ उस मूर्ती की पूजा अर्चना हो रही है, जो उसने बनाई थी। भीड़ है, भजन आरती हो रही है, भक्तों की पंक्तियाँ लगीं हैं, जब उसके दर्शन का समय आया, तो पास आकर देखा कि उसकी बनाई मूर्ती का कितना सत्कार हो रहा है! जो पत्थर का पहला टुकड़ा उसने, उसके रोने चिल्लाने पर फेंक दिया था वह भी एक ओर में पड़ा है और लोग उसके सिर पर नारियल फोड़ फोड़ कर मूर्ती पर चढ़ा रहे है।

शिल्पकार ने मन ही मन सोचा कि जीवन में कुछ बन पाने के लिए शुरू में अपने शिल्पकार को पहचानकर, उनका सत्कारकर कुछ कष्ट झेल लेने से जीवन बन जाता हैं। बाद में सारा विश्व उनका सत्कार करता है। जो डर जाते हैं और बचकर भागना चाहते हैं वे बाद में जीवन भर कष्ट झेलते हैं, उनका सत्कार कोई नहीं करता
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Old 29-06-2013, 09:14 AM   #47
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समय की पाबंदी

बात साबरमती आश्रम में गांधी जी के प्रवास के दिनों की है। एक दिन एक गाँव के कुछ लोग बापू के पास आए और उनसे कहने लगे, "बापू कल हमारे गाँव में एक सभा हो रही है, यदि आप समय निकाल कर जनता को देश की स्थिति व स्वाधीनता के प्रति कुछ शब्द कहें तो आपकी कृपा होगी।"
गांधी जी ने अपना कल का कार्यक्रम देखा और गाँव के लोगों के मुखिया से पूछा, "सभा के कार्यक्रम का समय कब है?"
मुखिया ने कहा, "हमने चार बजे निश्चित कर रखा है।"
गांधी जी ने आने की अपनी अनुमति दे दी।
मुखिया बोला, "बापू मैं गाड़ी से एक व्यक्ति को भेज दूँगा, जो आपको ले आएगा। आपको अधिक कष्ट नहीं होगा।
गांधी जी मुस्कराते हुए बोले, "अच्छी बात है, कल निश्चित समय मैं तैयार रहूँगा।"
अगले दिन जब पौने चार बजे तक मुखिया का आदमी नहीं पहुँचा तो गांधी जी चिंतित हो गए। उन्होंने सोचा अगर मैं समय से नहीं पहुँचा तो लोग क्या कहेंगे। उनका समय व्यर्थ नष्ट होगा।

गांधी जी ने एक तरीक़ा सोचा और उसी के अनुसार अमल किया। कुछ समय पश्चात मुखिया गांधी जी को लेने आश्रम पहुँचा तो गांधी जी को वहाँ नहीं पाकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। लेकिन वह क्या कर सकते थे। मुखिया सभा स्थल पर पहुँचा तो उन्हें यह देख कर और अधिक आश्चर्य हुआ कि गांधी जी भाषण दे रहे हैं और सभी लोग तन्मयता से उन्हें सुन रहे हैं।
भाषण के उपरांत मुखिया गांधी जी से मिला और उनसे पूछने लगा, "मैं आपको लेने आश्रम गया था लेकिन आप वहाँ नहीं मिले फिर आप यहाँ तक कैसे पहुँचे?"
गांधी जी ने कहा, "जब आप पौने चार बजे तक नहीं पहुँचे तो मुझे चिंता हुई कि मेरे कारण इतने लोगों का समय नष्ट हो सकता है इसलिए मैंने साइकिल उठाई और तेज़ी से चलाते हुए यहाँ पहुँचा।"
मुखिया बहुत शर्मिंदा हुआ। गांधी जी ने कहा, "समय बहुत मूल्यवान होता है। हमें प्रतिदिन समय का सदुपयोग करना चाहिए। किसी भी प्रगति में समय महत्वपूर्ण होता है।"
अब उस युवक की समझ में मर्म आ चुका था।
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सहनशीलता
एक दरोगा संत दादू की ईश्वर भक्ति और सिद्धि से बहुत प्रभावित था। उन्हें गुरु मानने की इच्छा से वह उनकी खोज में निकल पड़ा। लगभग आधा जंगल पार करने के बाद दरोगा को केवल धोती पहने एक साधारण-सा व्यक्ति दिखाई दिया। वह उसके पास जाकर बोला, "क्यों बे तुझे मालूम है कि संत दादू का आश्रम कहाँ है?"
वह व्यक्ति दरोगा की बात अनसुनी कर के अपना काम करता रहा। भला दरोगा को यह सब कैसे सहन होता? लोग तो उसके नाम से ही थर-थर काँपते थे उसने आव देखा न ताव लगा ग़रीब की धुनाई करने। इस पर भी जब वह व्यक्ति मौन धारण किए अपना काम करता ही रहा तो दरोगा ने आग बबूला होते हुए एक ठोकर मारी और आगे बढ़ गया।
थोड़ा आगे जाने पर दरोगा को एक और आदमी मिला। दरोगा ने उसे भी रोक कर पूछा, ''क्या तुम्हें मालूम है संत दादू कहाँ रहते है?''
''उन्हें भला कौन नहीं जानता, वे तो उधर ही रहते हैं जिधर से आप आ रहे हैं। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर उनका आश्रम है। मैं भी उनके दर्शन के लिए ही जा रहा था। आप मेरे साथ ही चलिए।'' वह व्यक्ति बोला।
दरोगा मन ही मन प्रसन्न होते हुए साथ चल दिया। राहगीर जिस व्यक्ति के पास दरोगा को ले गया उसे देख कर वह लज्जित हो उठा क्यों संत दादू वही व्यक्ति थे जिसको दरोगा ने मामूली आदमी समझ कर अपमानित किया था। वह दादू के चरणों में गिर कर क्षमा माँगने लगा। बोला, ''महात्मन् मुझे क्षमा कर दीजिए, मुझसे अनजाने में अपराध हो गया।''
दरोगा की बात सुनकर संत दादू हँसते हुए बोले, ''भाई, इसमें बुरा मानने की क्या बात? कोई मिट्टी का एक घड़ा भी ख़रीदता है तो ठोक बजा कर देख लेता है। फिर तुम तो मुझे गुरु बनाने आए थे।''
संत दादू की सहिष्णुता के आगे दरोगा नतमस्तक हो गया।
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Old 29-06-2013, 09:14 AM   #49
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सही चुनाव

एक राजा को अपने दरबार के किसी उत्तरदायित्वपूर्ण पद के लिए योग्य और विश्वसनीय व्यक्ति की तलाश थी। उसने अपने आस-पास के युवकों को परखना
शुरू किया। लेकिन वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया। तभी एक महात्मा का पदार्पण हुआ, जो इसी तरह यदा-कदा अतिथि बनकर सम्मानित हुआ करते थे। युवा राजा ने वयोवृद्ध संन्यासी के सम्मुख अपने मन की बात प्रकट की -

"मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ। अनेक लोगों पर मैंने विचार किया। अब मेरी दृष्टि में दो हैं, इन्हीं दोनों में से एक को रखना चाहता हूँ।"
"कौन हैं ये दोनों?"
"एक तो राज परिवार से ही संबंधित हैं, पर दूसरा बाहर का है। उसका पिता पहले हमारा सेवक हुआ करता था, उसका देहांत हो गया है। उसका यह बेटा
पढ़ा-लिखा सुयोग्य है।"

"और राज परिवार से संबंधित युवक? उसकी योग्यता 'मामूली' है।''
"आपका मन किसके पक्ष में है?"
"मेरे मन में द्वंद्व है, स्वामी!"
"किस बात को लेकर?"
"राज परिवार का रिश्तेदार कम योग्य होने पर भी अपना है, और. . ."
"राजन! रोग शरीर में उपजता है तो वह भी अपना ही होता है, पर उसका उपचार जंगलों और पहाड़ों पर उगने वाली जड़ी-बूटियों से किया जाता है। ये चीज़ें
अपनी नहीं होकर भी हितकर होती हैं।"

राजा की आँखों के आगे से धुंध छँट गई। उसने निरपेक्ष होकर सही आदमी को चुन लिया।
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Old 29-06-2013, 09:14 AM   #50
VARSHNEY.009
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Default Re: प्रेरक प्रसंग

साधुमन
भारतीय साहित्य में ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं जो हमारे जीवन में प्रेरणा–स्त्रोत बन जाते हैं और अनजाने ही हमें एक ऐसा संदेश भी दे जाते हैं जो हमारे संस्कारों को भी परिष्कृत करता है। एक ऐसा ही प्रसंग स्वामी विवेकानंद के संदर्भ में आज भी हमें भावविह्वल कर जाता है। बात उस समय की है, जब विवेकानंद जी को शिकागो की धर्मसभा में भारतीय संस्कृति पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था। वे भारत के प्रथम संत थे जिन्हें अंतरराष्ट्रीय सर्वधर्म सभा में प्रवचन देने हेतु आमंत्रित किया गया था।

स्वामी विवेकानंद के गुरू रामकृष्ण परमहंस का देहांत हो चुका था। इसलिए इस महती यात्रा पर जाने से पूर्व उन्होंने गुरू मां शारदा ह्यस्वामी रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नीहृ से आशीर्वाद लेना आवश्यक समझा। वे गुरू मां के पास गये, उनके चरण स्पर्श किये और उन्हें अपना मंतव्य बताते हुए बोले, "मां, मुझे भारतीय संस्कृति पर बोलने के लिए अमरीका से आमंत्रण मिला है। मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए ताकि मैं अपने प्रयोजन में सफल हो सकूं।"

मां शारदा ने अधरों पर मधुर स्मित लाते हुए कहा, "आशीर्वाद के लिए कल आना। मैं पहले देख लूंगी कि तुम्हारी पात्रता है भी या नहीं? और बिना सोचे–विचारे मैं आशीर्वाद नहीं दिया करती हूं।"

विवेकानंदजी सोच में पड़ गये, मगर गुरू मां के आदेश का पालन करते हुए दूसरे दिन फिर उनके सम्मुख उपस्थित हो गये। मां शारद रसोईघर में थीं।
विवेकानंदजी ने कहा, "मां मैं आशीर्वाद लेने आया हूं।"
"ठीक है आशीर्वाद तो तुझे मैं सोच–समझकर दूंगी। पहले तू मुझे वो चाकू उठाकर दे दे मुझे सब्जी काटनी है।" मां शारदा ने कहा।

विवेकानंदजी ने चाकू उठाया और विनम्रतापूर्वक मां शारदा की ओर बढ़ाया। चाकू लेते हुए ही मां शारदा ने अपने स्निग्ध आशीर्वचनों से स्वामी विवेकानंद को नहला–सा दिया। वे बोलीं, "जाओ नरेन्द्र मेरे समस्त आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं। तुम अपने उद्देश्य में अवश्य ही सफलता प्राप्त करोगे।
तुम्हारी सफलता में मुझे कोई संदेह नहीं रहा है।"

स्वामीजी हतप्रभ। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि गुरू मां के आशीर्वाद और मेरे चाकू उठाने के बीच ऐसा क्या घटित हो गया? शंका निवारण के प्रयोजन से उन्होंने गुरू मां से पूछ ही लिया, "आपने आशीर्वाद देने से पहले मुझसे चाकू क्यों उठवाया था?"

"तुम्हारा मन देखने के लिए।" मां शारदा ने कहा, "प्रायः जब भी किसी व्यक्ति से चाकू मांगा जाता है तो वह चाकू की मूठ अपनी हथेली में समो लेता है और चाकू की तेज फाल दूसरे के समक्ष करता है। मगर तुमने ऐसा नहीं किया। तुमने चाकू की फाल अपनी हथेली में रखी और मूठवाला सिरा मेरी तरफ बढ़ाया।

यही तो साधु का मन होता है, जो सारी आपदा को स्वयं झेलकर भी दूसरे को सुख ही प्रदान करना चाहता है। वह भूल से भी किसी को कष्ट नहीं देना चाहता। अगर तुम साधुमन नहीं होते तो तुम्हारी हथेली में भी चाकू की मूठ होती, फल नहीं।"
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