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Old 11-11-2012, 04:55 PM   #41
amol
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Default Re: तोलस्तॉय की कहानियाँ

अजुर्न के मन में यह पाप उत्पन्न हुआ कि यह साधु झूठा है। किसी ने इसका रुपया नहीं चुराया। इसके पास रुपया था ही नहीं।
लेकिन तुरन्त ही उसको पश्चाताप हुआ कि किसी पुरुष के विषय में ऐसी कल्पना करना महापाप है। उसने मन को बहुतेरा समझाया, परंतु उसका ध्यान साधु में ही लगा रहा। पवित्र स्थान में रहने पर भी चित्त की मलिनता दूर नहीं हुई। इतने में शयन की आरती का घंटा बजा। दोनों दर्शनार्थ मन्दिर में चले गए। भीड़ बहुत थी, अजुर्न नेत्र मूंदकर भगवान की स्तुति करने लगा, परंतु हाथ बटुए पर था, क्योंकि साधु के रुपये खो जाने से संस्कार चित्त में पड़े हुए थे। अन्तःकरण का शुद्ध हो जाना क्या कोई सहज बात है!
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Old 11-11-2012, 04:56 PM   #42
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स्तुति समाप्त करके नेत्र खोलकर अजुर्न जब भगवान के दर्शन करने लगा, तब देखता क्या है कि मूर्ति के अति समीप मोहन खड़ा है। ऐ-मोहन! नहींनहीं, मोहन यहां कैसे पहुंच सकता है? सारे रास्ते तो ढूँढता आया हूं।
मोहन को साष्टांग दण्डवत करते देखकर अजुर्न को निश्चय हो गया कि मोहन ही है। स्यात किसी दूसरी राह से यहां आ पहुंचा है। चलो, अच्छा हुआ, साथी तो मिल गया।
आरती हो गई। यात्री बाहर निकलने लगे। अजुर्न का हाथ बटुए पर था कि कोई रुपये न चुरा ले। वह मोहन को खोजने लगा, पर उसका कहीं पता नहीं चला।
दूसरे दिन परातःकाल मन्दिर में जाने पर अजुर्न ने फिर देखा कि मोहन हाथ जोड़े भगवान के सम्मुख खड़ा है। वह चाहता था कि आगे ब़कर मोहन को पकड़ ले, परन्तु ज्योंही वह आगे ब़ा, मोहन लोप हो गया।
तीसरे दिन भी अजुर्न को वही दृश्य दिखाई दिया। उसने विचारा कि चलकर द्वार पर खड़े हो जाओ। सब यात्री वहीं से निकलेंगे, वहीं मोहन को पकड़ लूंगा। अतएव उसने ऐसा ही किया, लेकिन सब यात्री निकल गए, मोहन का कहीं पता ही नहीं।
एक सप्ताह बद्रीनारायण में निवास करके अजुर्न घर लौट पड़ा।
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Old 11-11-2012, 04:56 PM   #43
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राह चलते अजुर्न के चित्त में वही पुराने घर के झमेले बारबार आने लगे। सालभर बहुत होता है। इतने दिनों में घर की दशा न जाने क्या हुई हो। कहावत है-छाते लगे छः मास और छिन में होय उजाड़। कौन जाने लड़के ने क्या कर छोड़ा हो? फसल कैसी हो? पशुओं का पालनपोषण हुआ है कि नहीं?
चलतेचलते अजुर्न जब उस झोपड़े के पास पहुंचा, जहां मोहन पानी पीने गया था, तो भीतर से एक लड़की ने आकर उसका कुरता पकड़ लिया और बोली-बाबा, बाबा भीतर चलो।
अजुर्न कुरता छुड़ाकर जाना चाहता था कि भीतर से एक स्त्री बोली-महाशय! भोजन करके रात्रि को यहीं विश्राम कीजिए। कल चले जाना। वह अंदर चला गया और सोचने लगा कि मोहन यहीं पानी पीने आया था। स्यात इन लोगों से उसका कुछ पता चल जाए।
स्त्री ने अजुर्न के हाथपैर धुलाकर भोजन परस दिया। अजुर्न उसको आशीष देने लगा।
स्त्री बोली-दादा, हम अतिथिसेवा करना क्या जानें? यह सब कुछ हमें एक यात्री ने सिखाया है। हम परमात्मा को भूल गए थे। हमारी यह दशा हो गई थी कि यदि वह बू़ा यात्री न आता तो हम सबके-सब मर जाते। वह यहां पानी पीने आया था। हमारी दुर्दशा देखकर यहीं ठहर गया। हमारा खेत रेहन पड़ा था, वह छुड़ा दिया। गायबैल मोल ले दिए और सामगरी जुटाकर एक दिन न जाने कहां चला गया।
इतने में एक बुयि आ गई और यह बात सुनकर बोल उठी-वह मनुष्य नहीं था, साक्षात देवता था। उसने हमारे ऊपर दया की, हमारा उद्घार कर दिया, नहीं तो हम मर गए होते वह पानी मांगने आया। मैंने कहा, जाओ, यहां पानी नहीं। जब मैं वह बात स्मरण करती हूं, तो मेरा शरीर कांप उठता है।
छोटी लड़की बोल उठी-उसने अपनी कांवर खोली और उसमें से लोटा निकाला कुएं की ओर चला।
इस तरह सबके-सब मोहन की चचार करने लगे। रात को किसान भी आ पहुंचा और वही चचार करने लगा-निस्संदेह उस यात्री ने हमें जीवनदान दिया। हम जान गए कि परमेश्वर क्या है और परोपकार क्या। वह हमें पशुओं से मनुष्य बना गया।
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Old 11-11-2012, 04:56 PM   #44
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अजुर्न ने अब समझा कि बद्रीनारायण के मंदिर में मोहन के दिखायी देने का कारण क्या था। उसे निश्चय हो गया कि मोहन की यात्रा सफल हुई।
कुछ दिनों पीछे अजुर्न घर पहुंच गया। लड़का शराब पीकर मस्त पड़ा था। घर का हाल सब गड़बड़ था। अजुर्न लड़के को डांटने लगा। लड़के ने कहा-तो यात्रा पर जाने को किसने कहा था? न जाते। इस पर अजुर्न ने उसके मुंह पर तमाचा मारा।
दूसरे दिन अजुर्न जब चौधरी से मिलने जा रहा था, तो राह में मोहन की स्त्री मिल गई।
स्त्री-भाई जी, कुशल से तो हो? बद्रीनारायण हो आये?
अजुर्न-हां, हो आया। मोहन मुझसे रास्ते में बिछुड़ गए थे। कहो, वह कुशल से घर तो पहुंच गए?
स्त्री-उन्हें आये तो कई महीने हो गए। उनके बिना हम सब उदास रहा करते थे। लड़के को तो घर काटे खाता था। स्वामी बिना घर सूना होता है।
अजुर्न-घर में हैं कि कहीं बाहर गये हैं?
स्त्री-नहीं, घर में हैं।
अजुर्न भीतर चला गया और मोहन से बोला-रामराम, भैया मोहन, रामराम!
मोहन-राम-राम! आओ भाई! कहो, दर्शन कर आये!
अजुर्न-हां, कर तो आया, पर मैं यह नहीं कह सकता कि यात्रा सफल हुई अथवा नहीं। लौटते समय मैं उस झोंपड़े में ठहरा था, जहां तुम पानी पीने गये थे।
मोहन ने बात टाल दी और अजुर्न भी चुप हो गया, परंतु उसे दृ़ विश्वास हो गया कि उत्तम तीर्थयात्रा यही है कि पुरुष जीवन पर्यन्त परत्येक पराणी के साथ परेमभाव रखकर सदैव उपकार में तत्पर रहे।
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Old 11-11-2012, 04:57 PM   #45
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ध्रुवनिवासी रीछ का शिकार
लिओ तोलस्तॉय

अनुवाद - प्रेमचंद
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Old 11-11-2012, 04:57 PM   #46
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हम एक दिन रीछ के शिकार को निकले। मेरे साथी ने एक रीछ पर गोली चलाई। वह गहरी नहीं लगी। रीछ भाग गया। बर्फ पर लहू के चिह्न बाकी रह गए।
हम एकत्र होकर यह विचार करने लगे कि तुरंत पीछा करना चाहिए या दो-तीन दिन ठहर कर उसके पीछे जाना चाहिए। किसानों से पूछने पर एक बूढ़ा बोला- तुरंत पीछा करना ठीक नहीं, रीछ को टिक जाने दो। पाँच दिन पीछे शायद वह मिल जाए। अभी पीछा करने पर तो वह डरकर भाग जाएगा।
इस पर एक दूसरा जवान बोला- नहीं-नहीं, हम आज ही रीछ को मार सकते हैं। वह बहुत मोटा है, दूर नहीं जा सकता। सूर्य अस्त होने से पहले कहीं न कहीं टिक जाएगा, नहीं तो मैं बर्फ पर चलने वाले जूते पहनकर ढूँढ़ निकालूँगा।
मेरा साथी तुरंत रीछ का पीछा करना नहीं चाहता था, पर मैंने कहा- झगड़ा करने से क्या मतलब। आप सब गाँव को जाइए। मैं और दुगार (मेरे सेवक का नाम) रीछ का पीछा करते हैं। मिल गया तो वाह वाह! दिन भर और करना ही क्या है?
और सब तो गाँव को चले गए, मैं और दुगार जंगल में रह गए। अब हम बंदूकें संभाल कर, कमर कस, रीछ के पीछे हो लिए।
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Old 11-11-2012, 04:57 PM   #47
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रीछ का निशान दूर से दिखाई पड़ता था। प्रतीत होता था कि भागते समय कभी तो वह पेट तक बर्फ में धंस गया है, कभी बर्फ चीर कर निकला है। पहले-पहले तो हम उसकी खोज के पीछे बड़े-बड़े वृक्षों के नीचे चलते रहे, परंतु घना जंगल आ जाने पर दुगार बोला- अब यह राह छोड़ देनी चाहिए, वह यहीं कहीं बैठ गया है। धीरे-धीरे चलो, ऐसा न हो कि डर कर भाग जाए।
हम राह छोड़कर बाईं ओर लौट पड़े। पाँच सौ कदम जाने पर सामने वही चिह्न फिर दिखाई दिए। उसके पीछे चलते-चलते एक सड़क पर जा निकले। चिह्नों से जान पड़ता था कि रीछ गाँव की ओर गया है।
दुगार- महाराज, सड़क पर खोज लगाने से अब कोई लाभ नहीं। वह गाँव की ओर नहीं गया। आगे चलकर चिह्नों से पता लग जाएगा कि वह किस ओर गया है।
एक मील आगे जाने पर चिह्नों से ऐसा प्रकट होता था कि रीछ सड़क से जंगल की ओर नहीं, जंगल से सड़क की ओर आया है। उसकी उंगलियाँ सड़क की तरफ थीं। मैंने पूछा कि दुगार, क्या यह कोई दूसरा रीछ है?
दुगार- नहीं, यह वही रीछ है, उसने धोखा दिया है। आगे चलकर दुगार का कहना सत्य निकला, क्योंकि रीछ दस कदम सड़क की ओर आकर फिर जंगल की ओर लौट गया था।
दुगार- अब हम उसे अवश्य मार लेंगे। आगे दलदल है, वह वहीं जाकर बैठ गया है, चलिए।
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Old 11-11-2012, 04:58 PM   #48
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हम दोनों आगे बढ़े। कभी तो मैं किसी झाड़ी में फँस जाता था, बर्फ पर चलने का अभ्यास न होने के कारण कभी जूता पैर से निकल जाता था। पसीने से भीग कर मैंने कोट कंधे पर डाल लिया, लेकिन दुगार बड़ी फुर्ती से चला जा रहा था। दो मील चलकर हम झील के उस पार पहुँच गए।
दुगार- देखो, सुनसान झाड़ी पर चिड़ियाँ बोल रही हैं, रीछ वहीं है। चिड़ियाँ रीछ की महक पा गई हैं।
हम वहाँ से हटकर आधा मील चले होंगे कि फिर रीछ का खुर दिखाई दिया। मुझे इतना पसीना आ गया कि मैंने साफा भी उतार दिया। दुगार को पसीना आ गया था।
दुगार- स्वामी, बहुत दौड़-धूप की, अब जरा विश्राम कर लीजिए।
संध्या हो चली थी। हम जूते उतार कर धरती पर बैठ गए और भोजन करने लगे। भूख के मारे रोटी ऐसी अच्छी लगी कि मैं कुछ कह नहीं सकता। मैंने दुगार से पूछा कि गाँव कितनी दूर है?
दुगार- कोई आठ मील होगा, हम आज ही वहाँ पहुँच जाएँगे। आप कोट पहन लें, ऐसा न हो सर्दी लग जाए।
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Old 11-11-2012, 04:58 PM   #49
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दुगार ने बर्फ ठीक करके उस पर कुछ झाड़ियाँ बिछाकर मेरे लिए बिछौना तैयार कर दिया। मैं ऐसा बेसुध सोया कि इसका ध्यान ही न रहा कि कहाँ हूँ। जागकर देखता हूँ कि एक बड़ा भारी दीवानखाना बना हुआ है, उसमें बहुत से उजले चमकते हुए खंभा लगे हुए है, उसकी छत तवे की तरह काली है, उसमें रंगदार अनंत दीपक जगमगा रहे हैं। मैं चकित हो गया। परंतु तुरंत मुझे याद आई कि यह तो जंगल है, यहाँ दीवानखाना कहाँ? असल में श्वेत खंभे तो बर्फ से ढँके हुए वृक्ष थे, रंगदार दीपक उनकी पत्तियों में से चमकते हुए तारे थे।
बर्फ गिर रही थी, जंगल में सन्नाटा था। अचानक हमें किसी जानवर के दौड़ने की आहट मिली। हम समझे कि रीछ है, परंतु पास जाने पर मालूम हुआ कि जंगली खरहा है। हम गाँव की ओर चल दिए। बर्फ ने सारा जंगल श्वेत बना रखा था। वृक्षों की शाखाओं में से तारे चमकते और हमारा पीछा करते ऐसे दिखाई देते थे कि मानो सारा आकाश चलायमान हो रहा है।
जब हम गाँव पहुँचे तो मेरा साथी सो गया था। मैंने उसे जगाकर सारा वृत्तांत कह सुनाया और जमींदार से अगले दिन के लिए शिकारी एकत्र करने को कहा। भोजन करके सो रहे। मैं इतना थक गया था कि यदि मेरा साथी मुझे न जगाता, तो मैं दोपहर तक सोया पड़ा रहता। जागकर मैंने देखा कि साथी वस्त्र पहने तैयार है और अपनी बंदूक ठीक कर रहा है।
मैं- दुगार कहाँ है?
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Old 11-11-2012, 04:58 PM   #50
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साथी- उसे गए देर हुई। वह कल के निशान पर शिकारियों को इकट्ठा करने गया है।
हम गाँव के बाहर निकले। धुंध के मारे सूर्य दिखाई न पड़ता था! दो मील चलकर धुआं दिखाई पड़ा। समीप जाकर देखा कि शिकारी आलू भून रहे हैं और आपस में बातें करते जाते हैं। दुगार भी वहीं था। हमारे पहुंचने पर वे सब उठ खड़े हुए। रीछ को घेरने के लिए दुगार उन सबको लेकर जंगल की ओर चल दिया। हम भी उसके पीछे हो लिए। आधा मील चलने पर दुगार ने कहा कि अब कहीं बैठ जाना उचित है। मेरे बाईं ओर ऊँचे-ऊँचे वृक्ष थे। सामने मनुष्य के बराबर ऊँची बर्फ से ढँकी हुई घनी झाड़ियाँ थीं, इनके बीच से होकर एक पगडंडी सीधी वहाँ पहुँचती थी, जहाँ मैं खड़ा हुआ था। दाईं ओर साफ मैदान था। वहाँ मेरा साथी बैठ गया।
मैंने अपनी दोनों बंदूकों को भली भाँति देखकर विचारा कि कहाँ खड़ा होना चाहिए। तीन कदम पीछे हटकर एक ऊँचा वृक्ष था। मैंने एक बंदूक भरकर तो उसके सहारे खड़ी कर दी, दूसरी घोड़ा चाकर हाथ में ले ली। म्यान से तलवार निकाल कर देख ही रहा था कि अचानक जंगल में से दुगार का शब्द सुनाई दिया- "वह उठा, वह उठा!" इस पर सब शिकारी बोल उठे, सारा जंगल गूँज पड़ा। मैं घात में था कि रीछ दिखाई पड़ा और मैंने तुरंत गोली छोड़ी।
अकस्मात बाईं ओर बर्फ पर कोई काली चीज दिखाई दी। मैंने गोली छोड़ी, परंतु खाली गई और रीछ भाग गया।
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