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Old 11-04-2013, 01:09 AM   #41
rajnish manga
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Default Re: इधर-उधर से

अब कुछ पत्राचार आपके साथ बांटना चाहता हूँ. यह पत्राचार मेरे और मेरे मित्रों के मध्य समय समय पर हुआ. अति व्यक्तिगत प्रसंग इनमे से संपादित किये गए हैं:
नकोट
19.04.1976

चिरंतन मित्र,

आपका पत्र लम्बे अरसे के उपरान्त पा कर जी को तसल्ली हुयी. भाई मैं एक ऐसे स्थान पर सेवारत हूँ जहाँ फैमिली साथ रखना असंभव सी बात है. इसलिए बिटिया अपनी माँ के साथ नजीबाबाद में है. साथ में एक कविता, या जो कुछ भी हो, मुझे बहुत पसंद है, लिख कर भेज रहा हूँ जो कि बाजार से मंगवाई हुयी वस्तु के लिफ़ाफ़े पर छपी है....

स्नेहाधीन,
महावीर

संलग्न कविता:-

प्रगाढ़ संबंधों का रस
तब रिसने लगता है
जब “मैं और तुम” को
जोड़ने वाला सेतु टूटने लगता है.
फिर हम लाख प्रयत्न करें
सम्बन्धों का धागा नहीं बुन पाते.
क्योंकि उसे तो वह प्रेम रुपी
मकड़ी ही बुन सकती है
जो मर चुकी होती है –
संबंधों के बिखराव के साथ ही.
अपने तर्क में यह मुहावरा
क्यों लायें कि सूर्य से
उसकी किरण अलग नहीं हो सकती
जब कि हम जानते हैं
कि हम सूर्य नहीं हैं
तब इस बात की सावधानी
रखनी चाहिए कि
चन्द्रमा से चांदनी अलग न होने पाये.
एकाकीपन का एहसास अति कठिन होता है,
वैसे समय रिक्तता को भर देता है
यह अलग बात है.
*****

Last edited by rajnish manga; 11-04-2013 at 01:12 AM.
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Old 12-04-2013, 12:03 AM   #42
rajnish manga
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Default Re: इधर-उधर से

लीजिये कुछ शे’र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं:

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए.
(शायर: बशीर बद्र)

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फासले से मिला को.
(शायर: बशीर बद्र)

चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वगरना हम ज़माने भर को समझाने कहां जाते.
(शायर: ज्ञात नहीं)

ग़मे दुनिया को ग़मे यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
(शायर: ज्ञात नहीं)
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Old 12-04-2013, 08:22 PM   #43
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Default Re: इधर-उधर से

आकर्षक प्रस्तुतियां हम बन्धु ....आभार .
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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Old 13-04-2013, 07:57 PM   #44
rajnish manga
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Default Re: इधर-उधर से

महावीर सिंह का पत्र

नकोट
24.7.1976

तरल प्राकृतिक सौन्दर्य और
सुष्ठु मानव बोध के मित्र,
रजनीश,

कहाँ?
मेरा अधिवास कहाँ?
क्या कहा? --- ‘रूकती है गति जहाँ?
भला इस गति का शेष संभव है क्या –
करूण स्वर का जब तक मुझमे रहता है आवेश?
मैंने “मैं” शैली अपनाई
देखा दुखी एक निज भाई,
दुःख की छाया पड़ी हृदय में मेरे
झट उमड़ वेदना आई.

आज पल्लवित हुयी है डाल,
झुकेगा कल गुंजित मधुमास.
मुग्ध होंगे मधु से मधु बोल,
सुरभि से अस्थिर मरुताकाश,

कनक छाया में मलय समीर
खोलती कलिका उर के द्वार,
सुरभि प्रमुदित मधुपों के बोल
तड़प, बन जाते हैं गुंजार;
न जाने ढुलक ओस में कौन
खींच लेता मेरे दृग मौन!
“पल्लव”

शुभमस्तु
महावीर




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Old 13-04-2013, 08:18 PM   #45
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Default Re: इधर-उधर से

रजनीश मंगा का पत्र

चूरू (राजस्थान)
27/09/1976

प्रिय मित्र महावीर,
मन हो रहा था अधीर,

काफी अरसा बीत गया, न पत्र तुम्हारा आया है,
जीवन की नूतन घड़ियों में बीता युग बिसराया है?

क्या याद हमारी बीते कल की फीकी फीकी बात हुई?
पिछली शाम दफ़न कर दे जो ऐसी भी क्या प्रात हुई.

सोच रहा हूँ या तो तुमने स्थान पुराना छोड़ दिया,
या फिर तुमने अपने जीवन का धारा मोड़ दिया.

पत्र प्राप्त हो जाए यदि तो अपनी राम कथा लिखना,
जीवन की गाड़ी कैसे कैसे दौड़ रही सूचित करना.

बिटिया और भाभी का भी सब हाल बराबर दे देना,
यह सब बातें शामिल करके अगला पत्र मुझे देना.

तुम अध्यापक चित्रकला के उसमें ही डूबे रहते होगे,
जग सारा ही ऐसा होगा मन ही मन में कहते होगे.

रेगिस्तानी लोक हमारा, चित्रलिखित सा जीवन है,
न कोई नूतनता इसमें और न कोई परिवर्तन है.

तुम्हारा ही सदैव,
एकमेव,
रजनीश
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Old 13-04-2013, 08:26 PM   #46
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Default Re: इधर-उधर से

महावीर सिंह का पत्र

नकोट
1.11.1976

परम स्नेही रजनीश,
लगभग 4-5 दिन मैं घर से लम्बे अवकाश के बाद आया – दशहरा और दिवाली मन कर, तभी तुम्हारा पत्र मिला. मुझे इतनी प्रसन्नता हुयी कि वह पत्र पूरे स्टाफ व प्रधानाचार्य को भी पढ़ने से वंचित नहीं रखा. निस्संदेह आपने पत्र ह्रदय से लिखा है. परिवार में सब प्रसन्न हैं. माता जी का स्वास्थ्य प्रतिकूल चल रहा है .... स्थानान्तरण के लिए प्रयास कर रहा हूँ .... मेरी पत्नि इस वर्ष एम.ए. (संस्कृत) पूर्वार्ध रूहेलखंड विश्वविद्यालय से कर रही है. .... (हमारी बेटी) अब एक वर्ष दो माह की है. बाल सुलभ सभी चेष्टाएँ उसमे हैं. मैं आपसे प्रेमाग्रह करूँगा कि आप मुझे थोडा समय दे कर कभी गाँव पधारें. पारिवारिक जिम्मेदारियां मेरी हैं, मैं उनको निबाहूंगा. माता जी की ओर से मैं बहुत चिंतित रहता हूँ. अपना मित्र, अपना भाई जान कर मुझे कुछ सुझाव अवश्य ही लिखें.
चिरंतन मित्र,
महावीर
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Old 13-04-2013, 08:31 PM   #47
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Default Re: इधर-उधर से

महावीर सिंह का पत्र

प्रिय मित्र रजनीश,
याद तुम्हारी आ जाती है

सच कहता हूँ अब भी जब तब
याद तुम्हारी आ जाती है.

मेरे इस बीहड़ पथ से तुम,
अपनी सुरभि लुटा जाते हो,
मेरे मानस नभ में आकर
बिजली सी चमका हो.

अपनी परवशता पर मैं जब
आंसू चार बहा लेता हूँ,
जग को जीवन मिल जाता है,
मैं मन को बहला लेता हूँ.

यों मेरी जीवन अभिलाषा
दुःख में भी सुख पा जाती है
सच कहता हूँ अब भी जब तब
याद तुम्हारी आ जाति है.

तुम कहते मैं निर्मम हूँ
मैं कहता जग निर्मम है,
किन्तु हमारा दोनों का ही
निर्मम कहना भ्रम ही भ्रम है.

एक नियति के इंगित पर ही,
हम तुम क्या सब दुनिया चलती,
छलना नाना रूप बना कर
हमको तुमको सबको छलती.

छलना के नाना रूपों में
अपनी बुद्धि हिरा जाती है,
सच कहता हूँ अब भी जब तब
याद तुम्हारी आ जाती है.

अब तो जाने जैसे तैसे
कैसे जीवन बीत रहा है,
अपने में ही पल पल जल जल
जीवन का रस रीत रहा है.

एक यंत्रवत चलती रहती
मेरे इस मानव की काया,
जिसके संचालन में दिन भर
भूला रहता मम्मता माया,

अर्ध-रात्रि के सपनों में, पर
तेरी मुख छवि छ जाती है.
सच कहता हूँ अब भी जब तब
याद तुम्हारी आ जाती है.

जीवन में विश्वास नहीं है
फिर भी तो जीता जाता हूँ,
जीवन मदिरा में मादकता
नहीं, किन्तु पीता जाता हूँ.

यहाँ कर्म पथ अब पहले है
पीछे है भावुकता रानी,
पथ दुर्गम है, मैं एकाकी,
फिर भी चलता हूँ कल्याणी.

पर इस पथ में मधु अतीत के
तव सुधि चित्र बना जाती है,
सच कहता हूँ अब भी जब तब
याद तुम्हारी आ जाती है.

मार्ग भिन्न है किन्तु एक है
लक्ष्य, हमारा यह प्रिय जानो,
अपने अपने पथ पर चलने
में ही, प्राण ! प्रेम पहचानो,

दूर क्षितिज के पार वहाँ फिर
हम तुम दोनों मिल ही लेंगे,
सब अभिशाप यहाँ से लेकर
हम वरदान विश्व को देंगे,

श्रापों पर वरदान-रश्मि सी
सदा साधना मुस्काती है,
सच कहता हूँ अब भी जब तब
याद तुम्हारी आ जाती है.

महावीर (4.2.1977)
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Old 13-04-2013, 09:19 PM   #48
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Default Re: इधर-उधर से

एक बार फिर से उत्कृष्ट प्रस्तुतियों के लिए हार्दिक अभिनन्दन बन्धु….
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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Old 15-04-2013, 12:08 AM   #49
rajnish manga
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Default Re: इधर-उधर से

कवि त्रिलोचन के दो सॉनेट
1. प्रगतिशील कवियों की लिस्ट

प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है
उसमे कहीं त्रिलोचन का तो नाम नहीं था.
आँखें फाड़ फाड़ कर देखा, दोष नहीं था
पर आंखों का. सब कहते हैं कि प्रेस छली है,
शुद्धि-पत्र देखा, उसमे नामों की माला
छोटी न थी. यहाँ भी देखा, कहीं त्रिलोचन
नहीं. तुम्हारा सुन सुन कर सपक्ष आलोचन
कान पक गए थे. मैं ऐसा बैठा ठाला

नहीं, तुम्हारी बकझक सुना करूं पहले से
देख रहा हूँ, किसी जगह उल्लेख नहीं है,
तुम्हीं एक हो, क्या अन्यत्र विवेक नहीं है,
तुम सागर लांघोगे ? – डरते हो चहले से.
बड़े बड़े जो बात कहेंगे – सुनी जायेगी
व्याख्याओं में उनकी व्याख्या चुनी जायेगी.
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Old 15-04-2013, 12:10 AM   #50
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Default Re: इधर-उधर से

2. बढ़ो मृत्यु की ओर

बढ़ो मृत्यु की ओर नज़र से नज़र मिलाओ,
डर क्या है, जीवन में जो कुछ कल होना है
आज अभी हो जाए. तुम्हें यदि कुछ खोना है
तो अपने मन का भय. जड़ मूल से हिलाओ
इस दुर्बल तरु को, धक्के अनवरत खिलाओ
इस उस क्षण में उखड़ जाएगा, जो कोना है
इसका अपना, जहाँ तुम्हें साहस बोना है,
फिर इस बिरवे को विवेल जल सदा पिलाओ.

कितनी सार सम्हाल रखो पर जीवन की लौ
बुझती ही है, फिर क्यों आंसू व्यर्थ बहाए
क्यों आँखों के खारे जल में व्यर्थ नहाए.
घंटा बजता है, कारवाँ चल पड़ा है, सौ-
दो सौ की क्या गिनती, आगे फटती है पौ,
कौन कहेगा तुमने सागर व्यर्थ थहाए ?
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