09-12-2013, 10:31 PM | #41 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
sarchu 23 अगस्त की प्रात: सुर्चू में हमने सभा की, हल्का व्यायाम किया, प्रार्थना की और लगभग 8.30 प्रात: तैयार होकर लेह की और, सिन्धु मैया के दर्शन हेतु चल पड़े। सुर्चू से हम सभी के लिए वहां के व्यवस्थापक श्री रामपाल ठाकुर ने बहुत ही सुन्दर डिब्बे में स्वादिष्ट जलपान दिया। शुभकामनाएं दी, आज हमें लगभग 270 किमी. यात्रा करनी थी। सुर्चू से लेह का यह सफर अपने आप में कुछ अलग था। सुर्चू को पार करते ही हमें सेना ने अपनी सुरक्षा चौकी पर रोका। हमारा स्वागत किया। हमें फलों के रस के 27 पैकेट दिए और हमारे साथ सुरक्षा अधिकारियों को भेजा। हमने भारत माता की जय का उद्घोष किया। आयोलाल-झूलेलाल को याद किया। हिमाचल पीछे छूट गया, अब हम जम्मू-कश्मीर राज्य के लद्दाख क्षेत्र में थे। संकरे रास्ते, ऊंचे-ऊंचे पर्वत हरियाली बहुत कम, बिल्कुल सीधे व नग्न पहाड़। मन को अच्छे भी लगे, डर भी लगा। कभी हमारे ऊपर पहाड़ तो कभी हम पहाड़ों के ऊपर। अभी-अभी तो नीचे थे, अब सबसे ऊपर चल रहे हैं। लोगों में अथाह उत्साह। देशभक्ति के गीतों का गान। कश्मीर व लद्दाख पर गर्मा-गर्म चर्चा, मन मस्तिष्क पूर्णत: यहीं का हो चुका था। हम सभी अपने-अपने घरों को भूल चुके थे। याद था तो सिर्फ प्रिय भारत देश। भारत की सभ्यता, संस्कृति। उसकी रक्षा के उपाय। देश के वीर सैनिक, मस्तिष्क में समुद्र मंथन हो रहा था। कुछ अमृत, कुछ हलाहल बाहर आ रहा था। प्रकृति ने पूर्णत: हम पर विजय पा ली थी। Last edited by rajnish manga; 09-12-2013 at 10:38 PM. |
09-12-2013, 10:41 PM | #42 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
सुर्चु से लेह की यात्रा में हमें लगभग 50 किमी. का पहाड़ों के बीच मैदानी भाग मिला। हल्की-हल्की घास। गहरी-गहरी खाई। मदमाता मौसम। और उसके बाद पूरे सफर का सर्वाधिक ऊंचा दर्रा "लपांगला', जो लगभग 18000 फीट की ऊंचाई पर था। वहां पहुंचते ही सभी केचेहरे खिल उठे। चांदी के वर्क के भांति पहाड़ों पर धूप नजर आ रही थी। ऐसा लग रहा था। मानों चांदी के पहाड़ हमें अपने पास बुला रहे हों। अदभूत दृश्य था। प्रकृति का। कैमरे बाहर निकल पड़े। लेकिन स्वास्थ्य की दृष्टि से सुर्चू में चिकितस्कों ने यहां अधिक देर न रूकने का कठोर निर्देश दिया था। कारण, यहां आक्सीजन की समस्या थी। परन्तु हम सभी स्वस्थ रहे। किसी को भी कुछ न हुआ।
दोपहर के लगभग हम सेना के शिविर में पहुंचे। यहां लेफिटनेंट कर्नल श्री बी.एल. ग्रेबाल हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। पुन: वर्दियों के बीच में एक वीराना स्थान। हमारे वीरे सैनिक देश के लिए मर मिटने को तैयार यहां अकेले सिर्फ भारत मां की याद में रह रहे हैं। श्री ग्रेवाल ने हमे स्वादिष्ट भोजन करवाया, वहां पर हमारे लिए बूंदी भी बनाई गई थी। सभी ने जी भरकर खाया। सभी ने वहां पर सैनिकों के जीवन को नजदीक से देखा, समझा। और सभी ने मन ही मन यह प्रण किया आज से हमारा व्यवहार इन वीर सैनिकों के प्रति सदैव सकारात्मक होगा। चलते समय ले. कर्नल ने हमें हमारी सुखद यात्रा हेतु शुभ-कामनाएं दी, हम सभी ने उन्हें भी अपने स्नेह का स्वाद चखाया। दिल दोनों तरफ से भरे थे। आंसू आंखों तक आ गए थे। लगभग तीन बजे हम यहां से आगे बढ़े। सायंकाल पुन: एक सैन्य शिविर में हमें शाम की चाय मिली। और ढेर सा प्यार मिला! हम सभी यात्री वीर सैनिकों से इतना प्यार पाकर उनके हो चुके थे। इसतरह यह यात्रा और आगे बढ़ी और लगभग रात्रि के 8.45 पर लेह के सेना शिविर में पहुंचे। हमारी रहने की सुन्दर व्यवस्था की गई। वीर सैनिकों के साथ हम भी वैरकों में रहने चले गए। 24 अगस्त की प्रात: तक दूसरी बस लेह नहीं पहुंची थीं, चिंता बढ़ रही थी। सूचना मिली कि मोटवाणी जी बस को लेकर लगभग 2 बजे दोपहर में पहुंचेगें। मैं बस की प्रतीक्षा करने लगा। तभी दूर से अपनी बस आती दिखी। बस जैसे-जैसे शिविर के निकट आ रही थी। आयोलाल झुलेलाल, सिंधुमाता की जय, भारत माता की जय के उद्घोष सुनाई देते जा रहे थे। बस पहुंची, बस के यात्री पहुंचे। हम सभी ने लेह, लद्दाख पहुंचकर सिंधु दर्शन अभियान को सफल बनाने के लिए संकल्प प्रस्तुत किया, और सिन्धु नदी के तट पर आयोजित इस कार्यक्रम शामिल हो गए। ** |
17-07-2014, 03:47 PM | #43 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
जन्नत कहीं है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है कहते हैं कि जहांगीर जब सबसे पहली बार कश्मीर पहुंचे तो कहा कि जन्नत कहीं है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।
मैं १९७५ की जून में कश्मीर गया था। मुन्ने की मां कभी नहीं गयी। हम लोगों ने कई बार कश्मीर जाने का प्रोग्राम बनाया पर बस जा न सका। हमारे सारे दायित्व समाप्त हैं। इसलिये मन पक्का कर, इस गर्मी में हम लोग कश्मीर के लिये चल दिये। दिल्ली से श्रीनगर के लिये हवाई जहाज पकड़ा। रास्ते में भोजन मिला। प्लेट में एक प्याला भी था। चाय नहीं मिली पर जब प्लेट वापस जाने लगी। तो मैने परिचायिका से पूछा कि यदि चाय या कॉफी नहीं देनी थी तो प्लेट में कप क्यों रखा था। वह मुस्कराई और बोली, ‘आज फ्लाईट में बहुत भीड़ है। फ्लाईट केवल एक घन्टे की है इतनी देर में सबको चाय या कॉफी दे कर सर्विस समाप्त करना मुश्किल था। इसलिये नहीं दी, पर लौटते समय जरूर मिलेगी।’परिचायिका का मुख्य काम तो अच्छी तरह से बात करना होता है। लौटते समय कौन किससे मिलता है। बम्बई का फैशन और कश्मीर का मौसम – दोनो का कोई ठिकाना नहीं है श्रीनगर पहुंचते ही, हम टैक्सी पकड़कर पहलगांव के लिए चल दिये। पहलगांव समुद्र तट से लगभग ७५०० लगभग फीट की ऊँचाई पर है। यहां लिडर और शेषनाग नदियों का संगम है। श्रीनगर से पहलगांव का रास्ता लिडर नदी के साथ चलता है और सुन्दर है।हमारे टैक्सी चालक का नाम ओमर था। उसने कहा कि बम्बई का फैशन और कश्मीर का मौसम दोनो एक जैसे हैं, पता नहीं कब बदल जाय। बहुत ज्लद ही इसका अनुभव हो गया। रास्ते में कहीं पांच मिनट बारिश, तो फिर तेज धूप। रास्ते में हमने रूक कर कशमीरी कहवा पिया। यह सुगंधित चाय सा था। इसमें दूध तो नहीं पर दालचीनी और बादाम पड़े थे। पहलगांव में हम हीवान (Heevan) होटल में ठहरे। यह होटल लिडर नदी के बगल में है। खिड़की के बाहर सफेद हिम अच्छादित पहाड़ या फिर पेड़ों से भरी हरी पहाड़ियां थीं। देखने में मन भावन दृश्य था। पहलगांव, पहुंचते शाम हो चली थी। लिडर नदी पर रैफ्टिंग भी होती है। मैंने सोचा क्यों न रैफ्टिंग कर ली जाय। होटेल वालों ने कार से दो किलोमीटर ऊपर नदी के किनारे छुड़वाया फिर नदी पर रैफ्ट के ऊपर, तेज धार के साथ, तीन किलोमीटर का सफर – सर पर हैमलेट और बदन पर जैकट। रैफ्टिंग करने में पूरी तरह भीग गये। बीच में पानी भी बरसने लगा, रही सही कमी भी पूरी हो गयी। रैफ्ट ने होटल के आगे छोड़ा । वहां से दौड़ लगाकर वापस होटल आए तो कुछ गर्मी आई। कमरे में आकर कपड़े बदले फिर गर्म चाय पी तो जान में जान आयी। हम लोग पहले मां के साथ ऐसी जगहों पर जाते थे। मां हमेशा एक छोटी बोतल में ब्रांण्डी साथ रखती थी। ठंड लगने पर गर्म दूध में एक चम्मच ब्रांडी डालकर पीने के लिए देती थी। हम लोग ब्रांडी नहीं ले गए थे। मुझे फिर मां की याद आयी। अगली बार अवश्य साथ ले जाऊंगा। यदि आप यह सोचते हैं कि कश्मीर में विस्की से गर्मी पा सकती हैं। तो भूल जाइये। इस्लाम में शराब पीना हराम है। वहां अधिकतर लोग मुसलमान हैं इसलिये कश्मीर में शराब हराम है। हां, चोरी छिपे जरूर पी जाती है। यहां पर आकर लगा कि हमे छाता भी लाना चाहिए था मालुम नहीं कब, पांच मिनट के लिए बरसात। कश्मीर में एक अनुभव और हुआ। यहां होटल अच्छे हैं। खाना अच्छा है पर तौलिये साफ नहीं होते हैं। उसका कारण यह बताया कि सूखने में मुश्किल होती है। मुझे लगा कि अपने साथ छोटे छोटे तौलिये भी रहने चाहिये ताकि बदन पोंछा जा सके। बहुत अच्छा हुआ कि मैंने पहुंचते ही रैफ्टिंग कर ली। मुन्ने की मां ने नहीं की थी। उसे डर लगता था। अगले दिन रैफ्टिंग नहीं हो रहीं थी। होटल वाले ने बताया कि किसी ने रैफ्टिंग वाले को पीट दिया था इसलिए उनकी हड़ताल है। एक बार का वे २०० रूपये लेते हैं। एक दिन में कम से कम १००० लोग रैफ्टिंग करते हैं। यानि हड़ताल में २ लाख का घाटा। सच है हड़ताल से, हड़ताल करने वालों का ही घाटा होता है। अगले दिन हम लोग आड़ू गये। आड़ू ले जाने के लिये स्थानीय टैक्सी करनी होती है। हमने भी एक टैक्सी की। उसके चालक का नाम शहनवाज था। आड़ू में प्राकृतिक सौंदर्य है। वहां लोग पहुंच कर घोड़े पर घूमते हैं। हम लोग घोड़े पर नहीं गये। पैदल ही घूमने निकल गये। यह सुन्दर जगह है। जब हम लोग पैदल जाने लगे तो हमारा टैक्सी चालक, शहनवाज, भी हमारे साथ था। उसका कहना था, ‘कश्मीरी पाकिस्तान के साथ नहीं जाना चाहते। वे या तो हिन्दुस्तान के साथ या फिर स्वतंत्र रहना चाहते हैं। उसके मुताबिक पाकिस्तान उग्रवाद फैला रहा है पर पैरा-मिलिट्री फोर्स भी उग्रवादी की तरह काम कर रही है। यदि किसी के घर उग्रवादी जबरदस्ती घुस जाय। तो उसके घर की महिलाओं की इज्जत लूटते हैं। आग लगा देते हैं।’ |
17-07-2014, 03:49 PM | #44 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
आड़ू बहुत छोटा सा गांव है जिसमें एक सरकारी मिडिल स्कूल है। दो साल पहले तक यह पांचवी तक था अब ८वीं तक है। इसे जवाहरलाल नेहरू ने शुरू करवाया था। मैं हमेशा स्कूल, विश्वविद्यालय में बच्चों के साथ समय व्यतीत करना चाहता हूं। उनके साथ रह कर जीवन में नया-पन आता है। इसलिये इस स्कूल में बच्चों से मिलने पहुंच गया।
इस स्कूल में लगभग १५० बच्चे हैं। हम जब वहां पहुंचे तो वे प्रार्थना कर रहे थे। उसके बाद हर बच्चा आकर कोई गीत सुनाता था या सामान्य ज्ञान का प्रश्न पूछता था। वे अध्यापक को उस्ताद शब्द से संबोधित कर रहे थे। उस्ताद के अनुसार यह उन्हे नेतृत्व करने की शिक्षा देता है। स्कूल में अंग्रेजी, उर्दू तथा कश्मीरी पढ़ाई जाती थी। कुछ बच्चों ने अंग्रेजी में सवाल पूछे और कविता भी सुनायी, कुछ ने उर्दू में भी सुनायी। मैनें कुछ समय बच्चों के साथ गुजारा। मैंने उनसे पूछा कि उनका सबसे पसंदीदा हीरो कौन है उनका जवाब था मिथुन चक्रवर्ती। मुझे आश्चर्य हुआ। उन्होंने इसका कारण यह बताया कि वह बहुत अच्छी फाइट करता है इसलिए वह पसन्द है। उनके उस्ताद जी ने बताया कि वहां ‘ज़ी क्लासिक’ चैनल आता है उसमें पुरानी पिक्चरें आती है इसलिए वे मिथुन चक्रवर्ती का नाम ले रहे हैं। मैने भी विद्यार्थियों से एक सवाल पूछा। मिथुन चक्रवर्ती के यहां एक चौकीदार था। एक दिन सुबह हवाई जहाज से मिथुन को कलकत्ता जाना था। चौकीदार ने जाने के लिए मना किया। उसने कहा, ‘मैंने अभी सपना देखा है कि हवाई जहाज की दुर्घटना हो गयी है और सब यात्री मर गये हैं।’मिथुन चक्रवर्ती उस फ्लाइट से नहीं गये। उस फ्लाइट की दुर्घटना हो गयी और सब यात्री मर गये। मिथुन चक्रवर्ती ने चौकीदार को इनाम दिया पर नौकरी से निकाल दिया । मैंने पूछा, ‘इनाम तो इसलिए दिया कि जान बच गयी पर चौकीदार को नौकरी से क्यों निकाला।’कुछ संकेत देने के बाद एक बच्चे ने सही जवाब बता दिया। |
17-07-2014, 03:49 PM | #45 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
कश्मीर में जल्द ही अन्तरजाल की याद आने लगी। पहलगांव में एक ही साईबर कैफे है। वहां पहुंचा तो पता चला कि वह खराब है :-(
पहलगांव में कोई हिन्दू या सिख नहीं है पर पुलिस स्टेशन के सामने एक मंदिर और गुरूद्वारा है। मेरे पूछने पर बताया गया, ‘जब अमरनाथ की यात्रा होती है तो यात्री इसमें जातें हैं। सिख यात्रियों के लिए गुरूद्वारा में लंगर होता है।’पहलगांव में ९ होल का गोल्फ कोर्स है। उस पर काम चल रहा है और अन्तरराष्ट्रीय स्तर का १८ होल का गोल्फ कोर्स बन रहा है। इस समय इसके तीन होल पर ही खेल हो सकता है। पहलगांव से पास में चन्दरबाड़ी भी है। यहां टैक्सी से जाया जा सकता है। यहां पर बर्फ रहती है और स्लेजिंग की जा सकती है। हमारे लिये समय कम था। यह करना संभव नहीं था। इसलिये वहां नहीं गये। |
17-07-2014, 03:50 PM | #46 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
आप स्विटज़रलैण्ड में हैं पहलगांव में बाईसरन भी देखने की जगह है। वहां पैदल या फिर घोड़े पर बैठ कर जाया जा सकता है। वहां जाने के लिये रोड तो है पर बहुत खराब है। घोड़े वालों की विरोध के कारण, टैक्सी नहीं जा सकती पर आप अपनी कार से जा सकते हैं।बाईसरन, एक घासस्थली (Meadow) है। वहां हम लोग घोड़ों पर गये। पहुंचते ही, घोड़े वाले ने कहा, ‘आप लोग स्विटज़रलैण्ड में हैं।’मैं कभी स्विटज़रलैण्ड नहीं गया इसलिये कह नहीं सकता कि उसकी बात सच है या नहीं पर यह जगह बहुत खूबसूरत बड़ा सा मैदान है। हम जब मुन्ने के साथ ऎसी जगह जाते थे तो हमेशा चटाई रखते थे और फिर शतरंज होता था। मुन्ने की मां को शतरंज पसन्द नहीं है इसलिए उसके साथ तो नहीं खेला जा सकता। हांलाकि यदि वह खेलती होती तो भी मैं उससे जीत नहीं पाता। कहीं पत्नियों से चालों में कोई जीत सका है। ऐसी जगह हम लोग कभी-कभी donkey-donkey भी खेलते थे। इसमें गेंद या फ्रिस्बी को एक फेकता है और दूसरा पकड़ता है। पहली बार न पकड़े जाने पर D दूसरी बार O और इसी तरह से जो पहले Donkey बन जाय वह बाहर। शिव-पार्वती का निवास – गौरीमर्ग पर अब गुलमर्ग हम लोग पहलगांव से गुलमर्ग पहुंचे। गुलमर्ग लगभग ९,००० फीट पर है। कहा जाता है कि यहां शिव-पार्वती का निवास है इसलिये यह गौरीमर्ग कहलाता था। सोलहवीं शताब्दी में कश्मीर के सुलतान यूसुफ शाह ने इसका नाम गुलमर्ग अर्थात फूलों की घाटी (Valley) कर दिया।हम तुम बॉबी हट में बन्द हों गुलमर्ग में एक मन्दिर है जिसमें ‘आप की कसम’ फिल्म के गाने ‘जय जय शिवशंकर’ के कुछ भाग की शूटिंग हुई है। इसकी कुछ शूटिंग श्रीनगर के शंकराचार्य मंदिर में हुई है। गुलमर्ग में ‘बॉबी हट’ है। इस फिल्म के एक गाने ‘हम तुम एक कमरे में बन्द हों’ की शूटिंग इसी हट में हुई है।गुलमर्ग में १८ होल का गोल्फ कोर्स है। यह दुनिया का सबसे ऊंचा पर स्थित गोल्फ कोर्स है। यह बहुत सुन्दर है पर यह बहुत अच्छी स्थिति में नहीं था। इस पर कोई भी खेल नहीं रहा था। |
17-07-2014, 04:14 PM | #47 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
गुलमर्ग में अगले दिन हम लोग सुबह ‘गंडोला’ तारगाड़ी पर गऐ। १० बजे टिकट मिलना था, लाइन पर लगे रहे, लगभग ११ बजे टिकट मिला। गंडोला दो चरण में है पहला चरण खिलनमर्ग के पास तक १०,५०० फीट तक जाता है और दूसरा चरण उपर १३,००० फीट तक जाता है। दूसरे चरण पर जाने के लिये हम लोग ने लाइन लगायी। यहां पर मेरी मुलाकात अहमदाबाद में काम कर रहे डाक्टरों से हुई। वे मुझसे गुजराती में बात करने लगे। मैं ने बताया कि मैं गुजरात से नहीं हूं न ही गुजराती समझ पाता हूं। इसके बाद वे हिन्दी में बात करने लगे।
इन लोगों के मुताबिक गुजरात के हालात बहुत अच्छे हैं। मैने पूछा कि क्या मुसलमान भी ऎसा सोचते हैं। उन्होंने कहा, ‘हम चार परिवार एक साथ आये हैं एक मुसलमान परिवार है। आप उन्हीं से पूछ लीजये।’मैंने मुसलमान डाक्टर से बात की तो उसका भी वही जवाब था। इनका कहना था, ‘हमारे अस्पताल में कोई बिजली का जेनरेटर नहीं है। क्योंकि पिछले दो साल में एक मिनट के लिए भी बिजली नहीं गयी। हालांकि बिजली के लिए ८/-रू० प्रति यूनिट देना पड़ता है। पानी भी २४ घंटे आता है। अगले पाँच साल में गुजरात बाकी राज्यों को बहुत पीछे छोड़ देगा।’मैंने कहा कि मीडिया तो कुछ अलग सी रिपोर्ट करता है। उनके मुताबिक, मीडिया सनसनीखेज बातों पर निर्भर है। वे अक्सर कुछ ज्यादा या गलत लिख देते हैं। कुछ समय पहले गुजरात में पुलिस मुठभेड़ (Encounter) में कुछ लोग मार दिये गये थे। मिडिया के मुताबिक यह फर्जी मुठभेड़ था। मैंने इसके बारे में उनके क्या कहना है। उनका जवाब था, ‘वह शक्स पुलिस को मारने के जुर्म में हत्यारा था इसलिए मुठभेड़ में मार दिया गया। ऎसा हर जगह होता है। पुलिस ने यदि बचाव के लिये मुख्य मंत्री का नाम डाल दिया तो कोई बात नहीं। हमारे गुजरात में रात को लड़किया सुरक्षित (Safely) घूम सकती हैं।’मुन्ने को जब अमेरिका जाना था तो मैं कुछ साल पहले, उसे स्पोकन इंगलिश की परीक्षा दिलवाने, अहमदाबाद ले गया था। मुझे कुछ इसी तरह का अनुभव हुआ था हांलाकि मुझे गुजरात का अधिक अनुभव नहीं है। मुझे यह डाक्टर पसंद आये। वे अपने प्रदेश के बारे अच्छे विचार रखते थे। उत्तर भारत के कई प्रदेशों के लोग, अपने प्रदेश के बारे में अच्छी राय नहीं रखते हैं। मैं उन लोगों से और बात करना चाहता था और उनके चित्र भी लेना चाहते था पर वहां ओले गिरने लगे। हमें श्रीनगर भी जाना था। हमें लगा कि हम दूसरे चरण में नहीं जा पायेंगे और वापस आ गए। हम लोगों से गलती हो गयी थी। सुबह खिलनमर्ग तथा आसपास हमें घोड़े पर चले जाना चाहिये था दस बजे तक सारा काम कर गंडोला के पहले स्टेज पर घोड़े से पहुंचकर, दूसरे स्टेज का टिकट लेना चाहिये था। मिलता तो ठीक था नहीं तो गंडोला से वापस चले आना था। गंडोला में एक तरफ का भी टिकट मिलता है। चलिये अगली बार इसी तरह से ही करेंगे। |
17-07-2014, 04:14 PM | #48 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
हम लोग गुलमर्ग से श्रीनगर आये। यहां हम हाउस बोट में रहे। यहां पर मेरी मुलाकात हेलगा कैटरीना से हुई। वे फिनलैण्ड से हैं और डाक्टर हैं। कैटरीना साड़ी बहुत अच्छी तरह से पहने हुयी थी। मेरे उन्हें यह बताने पर, मुस्कराईं और बोलीं,
‘मैं भारत तीसरी बार आई हूं। मुझे यह देश बेहद पसन्द है। मुझे पढ़ना अच्छा लगता है और पहली बार, कृष्णामूर्ती को पढ़ने के बाद, मैंने भारत आने का मन बनाया था।’ कैटरीना के एक लड़का (१६साल) और एक लड़की (१४ साल) है। वे तलाकशुदा हैं पर उनकी पती से अब भी मित्रता है। इस समय उनके पती, उनके घर में रह कर बच्चों की देखभाल कर रहे हैं। Linus Torvalds फिनलैंड से है। वे, १९९१ में, हेलसिंकी पॉलीटेक्निक में पढ़ रहे थे। उस समय, उन्होने Linux का करनल (Kernel) प्रकाशित किया था। जाहिर है हमारी बातों में Linus Torvalds भी थे। कैटरीना ने बताया कि Linus Torvalds का सही उच्चारण लीनुस टोरवाल्डस् है और फिनलैंड में Linux को लीनुक्स बोलते हैं न कि लिनेक्स। क्या मालुम क्या सही और क्या नहीं। कैटरीना में मुझसे पूंछा कि क्या मैं लीनुस के परिवार के बारे में जानता हूं। मैंने कहा कि मैंने उसकी आत्मजीवनी ‘Just for fun : The story of a accidental revolutionary’ पढ़ी है। इस लिये उनके जीवन के बारे में काफी कुछ मालुम है। यह पुस्तक कैटरीना ने नहीं पढ़ी थी। मैंने उसे बताया कि यह पुस्तक बहुत अच्छी है और न केवल पढ़ने योग्य है पर प्रेरणा की स्रोत है। उसने वायदा किया कि वह उसे पढ़ेगी और अगली बार हम उस पर कुछ बात भी करेंगे। कैटरीना के बताया,‘फिनलैण्ड की सबसे अच्छी बात वहां की सुरक्षा है। हमारे देश में यहां टैक्स ज्यादा है पर चिकित्सा, पढ़ाई सब मुफ्त है। सारे विश्वविद्यालय सरकारी हैं। मैं बढ़ई के चार बच्चों में से एक हूं। मेरे पिता डाक्टरी की पढ़ाई का पैसा नहीं दे सकते थे पर मैं डाक्टर इसलिए बन पायीं क्योंकि पढ़ाई के लिए पैसे नहीं देना पड़ा।’कैटरीना के पीठ पर एक चिन्ह था। मैंने पूछा कि यह ठप्पा है या टैटू। उसने मुस्करा कर कहा, ‘यह टैटू है। इसे मैंने अपने आप को चालिसवें जन्मदिन पर उपहार दिया है। अगले साल मैं पच्चास की हो जाउंगी। मैं नहीं समझ पा रही कि मैं अपने आप को क्या उपहार दूं।’कैटरीना को अपने लिये उपहार तय करने में देर नहीं लगी। हम लोग शाम को हाउस बोट पहुंचे तो वहां पर बनारसी साड़ियों का मेला लगा था। चारो तरफ साड़ियों फैली हुई थी। वह बोली, ‘मैं पच्चासिवें जन्म दिन के लिये साड़ी खरीद रहीं हूं पर तय नहीं कर पा रही हूं कि कौन सी लूं। क्या आप मेरी मदद करेंगे।’मुझे हरे रंग वाली साड़ी अच्छी लग रही थी। उसने वही ले ली। मुझे कैटरीना साहसी महिला लगीं। वह भारत अकेले आयीं हैं और कशमीर में पैदल ट्रेक कर रही थीं। फिर बोट पर ट्रेकिंग करने जा रहीं थीं। उसने मुझे फोटो दिखाये जिसमें वह घोड़े वालों या गाइड के घर में या फिर टेंट में रूकी। मेरे पूछने पर कि क्या वह यह सब, बिना अपने बच्चों के, अकेले आनन्द से कर पा रहीं हैं। उसने कहा, ‘मेरे बच्चे साहसी नहीं हैं, उन्हें इस तरह ट्रेक करने में मजा नहीं आता है। वे जरा सी गन्दगी से घबरा जाते हैं इसीलिए मैं उन्हें साथ नहीं लायी।’मुझे ट्रेकिंग अच्छी लगती है पर मुन्ने की मां को नहीं। जब मुन्ना साथ रहता था तब हम लोगों ने कई इस तरह के ट्रिप लिये थे पर अब नहीं। अकेले हिम्मत नहीं पड़ती है। कैटरीना से बात हो गयी है अगली बार जब वह भारत आकर ट्रेकिंग पर जायेंगी तब मैं भी साथ रहूंगा। अच्छा तो हम चलते हैं मैं १९७५ की गर्मी में कश्मीर आया था। यह मेरी दूसरी ट्रिप है और मेरी पत्नी की पहली। उस समय डल झील के बीचोबीच चार चिनार के पेड़ थे और प्लेटफार्म बनाकर एक रेस्ट्राँ चला करता था, इसमें कटी पतंग के एक गाने ‘अच्छा तो हम चलते हैं’ की शूटिंग हुयी थी। यह बहुत सुन्दर जगह थी। मुझे बताया गया कि अब यह बन्द हो गया है।हमारी हाउसबोट के बगल एक पेड़ था। उसमें चील दम्पत्ति ने अपना घोसला बना रखा था। उनके दो बच्चे भी थे। वे खाना लाकर उन्हें खिलाते थे। जब मैं उनकी फोटो ले रहा था तो वह चील मुझे घूर कर देख रही थी कि कहीं मैं उसके बच्चों को कुछ चोट न पहुंचा दूं। मुझे यहां जहीर आलम मालिश करने वाला मिला। वे बीकानेर के रहने वाले हैं और इनकी शादी भोपाल में हुयी है वहीं पर घर जमा लिया है। वहां इनकी Face to face नाम की बाल काटने की दुकान पुराने भोपल में है। साल में ४ महीने भोपल में और ८ महीने कश्मीर में रहते हैं। मैंने उनसे मालिश करवायी। मैंने इसके पहले कभी नहीं करवायी थी। समझ में नहीं आया कि अच्छी थी कि नहीं, पर २०० रूपये जरूर जेब से निकल गये। हमने पूथ्वी मां को अपने बच्चों से गिरवी ले रखा है यहां पर हाउसबोट का नगर बसा है लगता है श्रीनगर में आने वाला पर्यटक यहीं रूकता है नाव वाले फेरी लगाते रहते हैं। कोई ठण्डा बेच रहा है कोई जूता। कोई आपको जैकेट बेचना चाहता है तो कोई आपको गहने। उसी के बीच जीवन चल रहा है। यह सब डल झील को बर्बाद भी कर रहा है। मैं १९७५ में जून में श्रीनगर गया था मुझे याद नहीं पड़ता कि डल झील पर इतनी हाउसबोट थीं या नहीं। डल लेक भी बहुत साफ थी। इस बार गन्दी लगी। लोगों से पूछने पर पता चला कि यह सारी हाउसबोट अवैधानिक है। बहुत कुछ गन्दगी इन्हीं के कारण है। वहां के लोगों का कहना है,‘२५ साल पहले डल लेक की परिधि ३२ किलोमीटर थी। अब घटकर १६ हो गयी है। लोग इसे मिट्टी से पाटकर कब्जा करते जा रहे हैं। इसमें बदमाशी में राज्य सरकार भी भागीदार है। दो साल पहले जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय में लोकहित याचिका दाखिल की गयी जिसे कारण यह रोका जा सका और डल लेक में कुछ सफाई शुरू की गयी।’गोवा में भी हमने देखा कि न्यायपालिका के कारण वहां का समुद्रीतट बचा। दिल्ली में भी यदि प्रदूषण कम हुआ तो वह न्यायपालिका के कठोर कदमों के कारण। यह पूथ्वी मां हमें अपने पूर्वजों से नहीं मिली है इसे तो हमने अपने बच्चों से गिरवी ली है। यह हमारे ऊपर है कि हम इसे कैसे उन्हें वापस देते हैं। यह बात शायद केवल न्यायपालिका ही समझ पा रही है बाकी लोग तो शायद … लोग अक्सर न्यायपालिका के न्यायिक क्रिया-कलापों (Judicial activism) की आलोचना करते हैं पर यदि आप देखें तो बहुत जगह न्यायपालिका के कारण ही पर्यावरण बचा हुआ है । नेता ऎसे निर्णय नहीं लेते, जिससे उनके वोट बैंक में कमी आये। जय-जय शिवशंकर मैं, १९७५ की जून में एक महीने श्रीनगर रहा था। जिस घर में ठहरा था उसके बगल में पहाड़ी है उसके ऊपर शिवजी का मंदिर है। यह शंकराचार्य जी का मंदिर कहलाता है क्योंकि उन्होंने ही शिवलिंग की स्थापना की थी मैं तब कई बार पैदल उस मंदिर तक गया था। उस समय मंदिर में केवल हमी लोग होते थे। अब पक्की रोड बन गयी है और अन्त में २४० सीढ़ियां है। पहाड़ी रास्ते से जाने की इजाजत नहीं है। सब तरफ पुलिस का पहरा है। आप मंदिर तक कैमरा भी नहीं ले जा सकते हैं। इस मंदिर में ‘आपकी कसम’ फिल्म के गाने ‘जय-जय शिवशंकर’ के आधे भाग की शूटिंग हुयी है। इस बार जब हम लोग मंदिर पहुंचे तब वहां सैकड़ों लोग थे। बहुत भीड़ थी।कश्मीर के हरियाली और फूल श्रीनगर में जगह-जगह बाग हैं मुगल राज्य के समय के दो बाग निषाद और शालीमार अब भी पुराने समय की दास्तान बिखेर रहे हैं। निषाद बाग से हजरतबल मस्जिद दिखायी पड़ती है जिसमें कुछ साल पहले उग्रवादी घुस गये थे और मुश्किल से निकाले जा सके। श्रीनगर में चश्मेशाही है यहां पानी निकलता है। कहा जाता है कि इसमें औषधीय तत्व हैं: पीने से पीलिया तथा पेट की बीमारी दूर हो जाती है। मेरा पेट कुछ खराब चल रहा था। मैंने पानी पिया। यह मनोवैज्ञानिक कारण था या वास्तविक पर मेरे दस्त ठीक हो गये। कहा जाता है कि जवाहरलाल नेहरू के पीने के लिये पानी यहां से जाता था। श्रीनगर में परी महल भी है इसे शाहजहां के लड़के दाराशिकोह ने सूफी संतों के रहने और अध्ययन के लिये बनवाया था। कहा जाता है कि इसका नाम पीर महल था सरकार ने इसका नाम परी महल कर दिया है। सरकार के मुताबिक परियां पवित्र जगह जाती हैं, यहां पवित्र आत्मायें रहती थीं – इसलिये इसका नाम परी महल रख दिया गया। मालुम नहीं, क्या सच है – इस समय तो इसमें न सूफी सन्त रहते हैं न ही परियां – इसमें पैरा मिलिट्री वालों ने कब्जा जमा लिया है। श्रीनगर में एक नया १८ होल का अन्तरराष्ट्रीय गोल्फ कोर्स बना है परी महल से पूरा दिखायी पड़ता है। यह बहुत सुन्दर है। तारीफ करूं क्या उसकी जिसने तुझे बनाया कश्मीर में सबसे अच्छी बात यह लगी कि बहुत कम महिलायें बुरका पहने दिखायी पड़ीं। मैं केरल और हैदराबाद भी जाता रहता हूं। वहां पर ज्यादा महिलायें बुरका पहने दिखायी पड़ती हैं बनिस्बत कश्मीर के। महिलायें व लड़कियां सर पर स्कार्फ लगाये, स्मार्ट और सुन्दर लगती हैं; देखने में भी अच्छा लगता है। काला बुरका जैसे सुन्दरता पर कालिख पोत दी गयी हो। समार्ट और प्यारी युवतियों को देख कर, मुझे शम्मी कपूर के द्वारा फिल्म कश्मीर की कली में शर्मीला टैगोर के लिये गाया यह गाना याद आया, |
17-07-2014, 04:15 PM | #49 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
सिक्किम के पाँच खज़ाने
अस्त्युत्तरस्याम् दिशि देवतात्मा हिमालयोनाम नगाधिराजः पूर्वापरौ तोयनिधीवगायः सितः पृथिव्या इव मानदण्डः।। - कालिदास, कुमारसम्भव भारत के उत्तर में देवता के समान पूजनीय हिमालय नाम का विशाल पर्वत है। वह पूर्व और पश्चिम के समुद्रों तक फैला हुआ ऐसा लगता है मानो वह पृथ्वी को नापने तौलने का मानदण्ड है। सिक्किम की प्राकृतिक संरचना एक सुदृढ क़िले के समान है। इस की पश्चिम (नेपाल) सीमा पर सिंहलीला, उत्तरी (तिब्बत) पर चोमियोमों, पूर्व (तिब्बत तथा भूटान) सीमा पर दोख्या नाम की पर्वत श्रंखलाएं हैं, और दक्षिण दिशा में भारत की ओर तीस्ता नदी की घाटी उसका मुख्य द्वार है। इसकी चौडाई पूर्व_पश्चिम मे लगभग 65 किलोमीटर है और लंबाई उत्तर-दक्षिण दिशा मे 100 किलोमीटर है। तीन तरफ ऊंचे पहाडों से घिरा होने के कारण सिक्किम के दक्षिण द्वार से जब मानसून पानी से लडी हवायें ले जाता है तब वे इस छोटे से क्षेत्र में लगभग 630 सेंटीमीटर की वर्षा प्रतिवर्ष करती हैं। यदि हम तीस्ता के पठार से बढना शुरू करें तो पहले हमें उष्ण कटिबंधीय पौधे और वृक्ष जैसे, आम, नीम, कटहल आदि मिलेंगे। फिर लगभग 7000 फुट की ऊंचाई चढने पर समशीतोष्ण कटिबंधीय वृक्ष जैसे, चीड, स्प्रूस (एक प्रकार का देवदार) बांज या बलूत (ओक), मैग्नोलिया आदि मिलेंगे और 10 हजार फुट की ऊंचाई चढने पर आल्पीय (अल्प पर्वत सदृश्य) मखमली घास, जिसमें रंग-बिरंगे विभिन्न किस्म के फूल जैसे प्रिम्यूला, ब्लूजैन्शियन, सैक्सीफ्राज, ईडलवाइस आदि खिले मिलेंगे। फिर तिब्बती, ठंडा मरुस्थली पठार और फिर कंचनजंगा की अनंतकालीन बर्फ। इसी तरह पक्षियों और अन्य जंतुओं की विविधता भी मिलती है। विश्व में अन्यत्र इतनी वानस्पतिक तथा जलवायु की विविधता पाने के लिए कुछ हजार किलोमीटर की यात्रा तय करनी पडेग़ी, जबकि सिक्किम में मात्र 50-60 किमी की यात्रा यथेष्ट होगी। मैंने गौर किया कि जिस तरह छोटे से सिक्किम में विश्व के पाँचों प्रकार के वानस्पतिक प्रकार मिल जाते हैं और इतनी विभिन्नता लिए हुए, एक साथ मेल जोल से रह रहे हैं कुछ वैसे ही हम लोगों की संस्था सोसायटी ऑव नेचर फोटोग्राफर्स है जिसमें सारे भारत के लोग हैं अपनी अपनी विभिन्नता लिए किन्तु जब आपस में मिलते हैं तो कितनी समानताएं - सोचने में, मूल्यों में, जीवन दर्शन में - मिलती हैं। कंचनजंगा का नाम मैंने सुन रखा था और लगता था कंचनजगा जैसे सिक्किम का पर्यायवाची है। कंचनजगा की ऊंचाई 282216 फुट मानी जाती है। (हिमालय की चोटियां अभी भी बढ रही हैं) और विश्व की सबसे ऊंची चोटी में इसका स्थान तीसरा है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कंचनजंगा का सिक्किम की संस्कृति में विशेष महत्त्व है। लेप्चा भाषा में कंचनजगा का सही उच्चारण खाँगचेंदजोंगा है और इसका अर्थ है, 'हिम के पाँच अनंत खजाने'। क्योंकि कंचनजंगा मे 5 चोटियां हैं और ये 5 खजाने स्वर्ण जैसे बहुमूल्य खनिज, औषधियां, अस्त्र शस्त्र, वस्त्र और धर्मग्रंथ हैं। कंचनजंगा को सिक्किम लोग अपने प्रिय रक्षक देवता (देवी नहीं) के रूप में मानते हैं और उनकी यह श्रध्दा इतनी गहरी है कि 1955 के ब्रितानी पर्वतारोही दल को उन्होंने कंचनजंगा पर इस शर्त पर चढने की अनुमति दी थी वे उसके शिखर पर नहीं चढेंग़े और इसलिए वह दल शिखर से 5 फुट नीचे तक जाकर ही वापस लौटा। ये पांच खजाने साधारण आदमी की मुख्य आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। इसका अर्थ यही समझा जाना चाहिए कि प्राकृतिक और पारस्थितिकी (इकोलॉजी) की दृष्टि से सिक्किमी लोग हजारों वर्ष पहले सिक्किम की समृध्दि के लिए कंचनजंगा का महत्त्व समझ गए थे और उसका सम्मान करते आए हैं। यदि इन खजानों को मैं आधुनिक नाम देने की धृष्टता करूं तो वे क्रमशः इस प्रकार होंगे : प्राकृतिक सौंदर्य, वनस्पति और आर्किड, इलायची, शांतिप्रिय लोग, धर्मग्रंथ।
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17-07-2014, 04:15 PM | #50 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
सन् 1848 मे एक प्रसिध्द अंग्रेज वनस्पतिज्ञ, जॉन डॉल्टन हुक्कर ने सिक्किम आकर न केवल यहां के प्राकृतिक दृश्यों का आनंद उठाया, वरन यहां की बहुत सारी अनुपम और बाकी विश्व में न मिलने वाली वनस्पतियों और आर्केडों को वे सिक्किम से बाहर ले गए और उनका प्रचार यूरोप में अधिक हुआ। जॉन हुकर वही थे जिनकी मूल्यवान सलाह चार्ल्स डार्विन ने अपने मानव विकास सिध्दांत के लिए ली थी। विश्व में सबसे पहले लेख का जिसमें कि एवरेस्ट चोटी का जिक्र किसी विदेशी ने किया हो, श्रेय संभवतः इन्हीं डॉ ज़ॉन डाल्टन हुकर को मिलेगा। सन 1848 में उन्होंने कंचनजंगा पर्वत श्रृंखला पर घूमते हुए पश्चिम की दिशा में एक बहुत ही भव्य ऊंची चोटी देखी जोकि वहां से लगभग एक सौ पच्चीस किलोमीटर थी और उन्होंने अपनी डायरी में नोट किया कि वह चोटी हिमालय पर्वत श्रृंखला के उस क्षेत्र की चोटियों में सबसे ऊंची और भव्य है तथा नेपाली लोग उसे 'त्सुन्याओं' के नाम से पुकारते हैं।
वैज्ञानिक सर्वेक्षण की त्रिकोणमितीय पध्दति से हिमालय की चोटियों की परिशुध्द स्थिति एवं ऊंचाई मापने का कार्य भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने 1849-1885 में किया था। तथा 1856 में ही गणना से सिध्द हुआ कि 29028 फुट ऊंची चोटी सबसे ऊंची चोटी है। श्री एवरेस्ट ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग में 1816 से कार्य करना प्रारम्भ किया था, तथा 1830-1843 तक भारतीय सर्वेक्षण विभाग के सर्वोच्च पद पर रहे। दृष्टव्य है कि श्री एवरैस्ट को, जिन्होने यह वैज्ञानिक त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण पध्दति का शुभारम्भ कराया था, सम्मान देने के लिये उनकी सेवा निवृत्ति के तेरह वर्षों बाद उनके सम्मान में सर्वोच्च शिखर को उनका नाम दिया गया। हम लोग जलपाईगुडी 25 दिसंबर 1987 को सुबह 11 बजे ही पहुंच गए थे और लगभग 12 बजे वहां से सिक्किम नेशनल ट्रांसपोर्ट की बस से गंतोक के लिए चल पडे। ग़ंतोक जाने की सडक़ तीस्ता नदी (सिक्किम की गंगा) के किनारे-किनारे ही चलती है। यात्रा के शुरू में हम लोगों को अपने गर्म पुलोवर उतार देने पडे क्योंकि दिसंबर के महीने में भी, उस समय बडी ग़र्मी लग रही थी और हम ठंडी हवा के साथ-साथ मनोरम दृश्यों का आनंद ले रहे थे। प्रारंभ में इस सडक़ के दोनों तरफ वनों में शाल के वृक्षों की अधिकता थी और बीच-बीच में सागोन, अश्वपत्र, आम, नीम, आदि ऊष्ण-कटिबंधीय वृक्षों के तनों पर एपीफाइट (उपरिरोही) फर्न (पुष्पहीन वनस्पति) पायल या बाजूबंद की तरह सजे हुए थे और कहीं-कहीं भाग्यवान तनों पर भव्य रंग रूप वाले ऑर्किड शोभायान थे। शाल का जंगल घना होता है। और वह बडा साफ और प्रकाशवान रहता है, क्योंकि राजसी तथा 'शालीन' वृत्ति का शाल वृक्ष बेलों, झाडियों और लताओं आदि को अपने पास पनपने का प्रोत्साहन नहीं देता है। थोडी दूर चलने पर और थोडी ऊंचाई पर जाने पर जंगल अधिक घना हो जाता है और उनमें बेलों लताओं और दूसरे उपरिरोही तथा परजीवी पौधों की संख्या बढ ज़ाती है। सडक़ की वह यात्रा जिसमें एक तरफ तीस्ता का प्रवाहमान शुध्द जल मन को आह्लादित करता है और दूसरी तरफ वृक्षों की हरीतिमा मन को हर लेती है, ॠषिकेश से बद्रीनाथ के दृश्यों की याद दिलाती है। किन्तु यहाँकी वनस्पति में अधिक विविधता है, विशेषकर प्रारंभ में ऊष्ण कटिबंधीय पौधे और वृक्ष अधिक है। अभी सिक्किम की सीमा, शायद बारह-पन्द्रह किमी होगी कि, पश्चिम की ओर दार्जिलिंग जाने वाली सडक़ मिली थी। दार्जिलिंग में भी आकर्षण है, किन्तु वह रहस्य नहीं जे 'गन्तोक' नाम में है। आगे चलने पर सीमा से आठ-दस किमी पहले पूर्व की ओर जाती एक सडक़ मिली - जो कलिम्पोंग जाती है। कलिम्पोंग, इस क्षेत्र में अपने पुष्पों के लिये बहुत विख्यात है, तथा आधुनिक भागमभाग से बचा हुआ भी। रंगपो एक छोटा शहर है, जो पश्चिम बंगाल और सिक्किम की सीमा पर स्थित है। रंगपो पहुंचते-पहुंचते चार बज चुके थे और अब हवा में थोडी ठंडक और बढ ग़ई थी, इसलिए सिक्किम प्रवेश करते हुए हमने अपने पुलओवर पहन लिए। यहां पर शराब की दुकानें बहुत हैं, शराब पर कर भी कम है। बौध्द लोग धार्मिक कृत्यों के साथ मद्यपान भी करते हैं। किन्तु ऊधम या शोर मचाने वाले शराबी बहुत कम देखे। वैसे तो पहाड क़ी चढाई-उतराई बहुत पहले शुरू हो गयी थी, किन्तु रंगपो के बाद घुमाव ज्यादा हैं और यहां की वनस्पति अब बदलकर समशीतोष्ण कटिबंधीय हो गई थी। शाल और सागोन आदि के स्थान पर बलूत (ओक), देवदारु (स्प्रूस) आदि आने शुरू हो गये थे। इस सडक़ पर यात्रा करते समय एक बात और ध्यान में आई, वह यह कि यहां पर ट्रेफिक कम है और गांवों के आस-पास भी लोग जरा कम ही नजर आते हैं क्योंकि वनों के साथ सुखी सहस्तित्व रखते हुए घनी आबादी का रहना मुश्किल ही है। सिक्किम में बर्फीले पहाडों के बावजूद लगभग 12 प्रतिशत जंगल हैं किन्तु अब चाय तथा नारंगी की खेती बढाने के लिए कृष्य जमीन का प्रतिशत भी धीरे-धीरे बढता जा रहा है।
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