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Old 20-05-2014, 12:46 PM   #41
Arvind Shah
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Default Re: लघुकथाएँ

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Originally Posted by rafik View Post
एक आदमी जंगल से गुजर रहा था

एक आदमी जंगल से गुजर रहा था । उसे
चार स्त्रियां मिली ।
उसने पहली से पूछा - बहन तुम्हारा नाम क्या हैं ?
उसने कहा -: "बुद्धि "!
तुम कहां रहती हो?
... उसने कहा-: मनुष्य के दिमाग में।
दूसरी स्त्री से पूछा - बहन तुम्हारा नाम क्या हैं ?
" लज्जा "।
तुम कहां रहती हो ?
उसने कहा-: आंख में ।
तीसरी से पूछा - तुम्हारा क्या नाम हैं ?
"हिम्मत"
कहां रहती हो ?
उसने कहा-: दिल में ।
चौथी से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ?
"तंदुरूस्ती"
कहां रहती हो ?
उसने कहा-: पेट में।
वह आदमी अब थोडा आगे बढा तों फिर उसे चार पुरूष मिले।
उसने पहले पुरूष से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ?
" क्रोध "
कहां रहतें हो ?
दिमाग में,
दिमाग में तो बुद्धि रहती हैं,
तुम कैसे रहते हो?
उसने कहा-: जब मैं वहां रहता हुं तो बुद्धि वहां से विदा हो जाती हैं।
दूसरे पुरूष से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं?
उसने कहां -" लोभ"।
कहां रहते हो?
आंख में।
आंख में तो लज्जा रहती हैं तुम कैसे रहते हो।
उसने कहा-: मेरे रहते लज्जा का कोई ठिकाना नहीं है
मै कुछ भी करवा सकता हूँ ..चोरी ,डकैती, हत्या आदि
तीसरें से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ?
जबाब मिला "भय"।
कहां रहते हो?
दिल में तो हिम्मत रहती हैं तुम कैसे रहते हो?
उसने कहा-: जब मैं आता हूं तो हिम्मत भाग जाती है ..!!
चौथे से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ?
उसने कहा - "रोग"।
कहां रहतें हो?
पेट में।
पेट में तो तंदरूस्ती रहती हैं,
उसने कहा-: तुम जैसे सहनशील व्यक्ति जब अपना संतुलन खो देते हो
तब मैं आता हूँ और तन्दरुस्ती को भगा कर तुम्हारे शरीर में राज
करता हूँ ...!!

nand kishor gupta
बहुत ही उत्तम और शिक्षाप्रद कथा ।
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Old 20-05-2014, 03:56 PM   #42
rafik
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Question Re: लघुकथाएँ

17 हाथी




सेठ घनश्याम दास बहुत बड़ी हवेली में रहता था। उसके तीन लड़के थे। पैसा, नौकर, चाकर, घोड़ा गाड़ी तो थी ही, मगर उसे अपने ख़ज़ाने में सबसे अधिक प्यार अपने 17 हाथियों से था। हाथियों की देखरेख में कोई कसर न रह जाए, इस बात का उसे बहुत ख़्याल था। उसे सदा यही फ़िक्र रहता था कि उसके मरने के बाद उसके हाथियों का क्या होगा। समय ऐसे ही बीतता चला गया और सेठ को महसूस हुआ कि उसका अंतिम समय अब अधिक दूर नहीं है।
उसने अपने तीनों बेटों को अपने पास बुलाया और कहा कि मेरा समय आ गया है। मेरे मरने के बाद मेरी सारी जायदाद को मेरी वसीयत के हिसाब से आपस में बाँट लेना। एक बात का ख़ास ख़्याल रखना कि मेरे हाथियों को किसी भी किस्म की कोई भी हानि न हो।
कुछ दिन बाद सेठ स्वर्ग सिधार गया। तीनों लड़कों ने जायदाद का बंटवारा पिता की इच्छा अनुसार किया, मगर हाथियों को लेकर सब परेशान हो गए। कारण था कि सेठ ने हाथियों के बंटवारे में पहले लड़के को आधा, दूसरे को एक तिहाई और तीसरे को नौवाँ हिस्सा दिया था। 17 हाथियों को इस तरह बाँटना एकदम असम्भव लगा। हताश होकर तीनों लड़के 17 हाथियों को लेकर अपने बाग में चले गए और सोचने लगे कि इस विकट समस्या का कैसे समाधान हो।
तभी तीनों ने देखा कि एक साधू अपने हाथी पर सवार, उनकी ही ओर आ रहा है। साधू के पास आने पर लड़कों ने प्रणाम किया और अपनी सारी कहानी सुनाई। साधू ने कहा कि अरे इस में परेशान होने की क्या बात है। लो मैं तुम्हें अपना हाथी दे देता हूँ। सुनकर तीनों लड़के बहुत खुश हुए। अब सामने 18 हाथी खड़े थे। साधू ने पहले लड़के को बुलाया और कहा कि तुम अपने पिता की इच्छा अनुसार आधे यानि नौ हाथी ले जाओ। दूसरे लड़के को बुलाकर उसने एक तिहाई यानि छ: हाथी दे दिए। छोटे लड़के को उसने बुलाकर कहा कि तुम भी अपना नौंवाँ हिस्सा यानि दो हाथी ले जाओ। नौ जमा छ: जमा दो मिलाकर 17 हाथी हो गए और एक हाथी फिर भी बचा गया। लड़कों की समझ में यह गणित बिलकुल नहीं आया और तीनों साधू महाराज की ओर देखते ही रहे। उन सब को इस हालत में देखकर साधू महाराज मुस्काए और आशीर्वाद देकर तीनों से विदा ले, अपने हाथी पर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में चले गए। इधर यह तीनों सोच रहे थे कि साधू महाराज ने अपना हाथी देकर कितनी सरलता और भोलेपन से एक जटिल समस्या को सुलझा दिया।


विजय विक्रान्त
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Old 20-05-2014, 04:34 PM   #43
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Default Re: लघुकथाएँ

कुत्ता [लघुकथा] - आशीष रस्तौगी

शाम का समय था। ठेकेदार साहब अपने घर पर बैठकर चाय का मजा ले रहे थे। तभी गेट पर घंटी बजी। दुबला-पतला एक व्यक्ति गेट पर खड़ा था। गेट खुला हुआ ही था।

“साहब, मुझे गुप्ताजी ने आपके पास भेजा है।” पूछने पर उसने बताया।

ठेकेदार ने उसे अन्दर बुला लिया। अन्दर पहुँचकर वह ठेकेदार से कुछ दूरी बनाते हुए जमीन पर बैठ गया।

“घरेलू कामकाज के लिए हम लोगों को एक नौकर की तलाश है। घर में सिर्फ तीन प्राणी हैं—मैं, मेरी पत्नी और विदेशी नस्ल का हमारा रूमी।”

जमीन पर बैठे आदमी की समझ में वह तीसरा प्राणी एकाएक ही नहीं आया कि कौन है। वह ठेकेदार से उसके बारे में पूछने ही वाला था कि सुती-सी कमर वाला एक कुत्ता वहाँ आया और उसे घूरता हुआ ठेकेदार के समीप सोफे पर बैठ गया।


“साहब, मेरे को घर का सारा काम आता है।” सारी बात समझकर व्यक्ति बोला।

“नाम क्या है तुम्हारा?” ठेकेदार ने उससे पूछा।

“जी, गरीबू।” वह बोला।

“तुम्हारे परिवार में कितने लोग हैं?”

“पाँच लोग हैं साहब—मैं, मेरी बीवी और तीन बच्चे…।”

ये बातें चल ही रही थीं कि गेट की घंटी पुन: बजी। देखा—ठेकेदार का एक अन्य मित्र सोहन सिंह घर में घुस रहा था। वह आया और उसी सोफे पर बैठकर कुत्ते से खेलने लगा।

“घर और बाजार का सारा काम करना होगा।” ठेकेदार गरीबू से बोला,“पगार तीन हजार रुपए महीना यानी कि सौ रुपए रोज। जिस दिन भी छुट्टी करोगे—सौ रुपया काट लिया जाएगा।”

“जी।” गरीबू ने गरदन हिलाई।

“आने-जाने वालों का भी पूरा ध्यान रखना होगा—मंजूर है?” ठेकेदार ने पकाया।

“जी।” उसने पुन: गरदन हिलाई।

“यार ऐसा ही एक पीस मैं भी घर में रखना चाहता हूँ।” बातचीत के बीच में ही सोहन सिंह ठेकेदार से बोला,“माहवार कितना खर्चा आ जाता होगा?”

“ठीक-ठाक चलता रहे तो यही करीब दस हजार…।” ठेकेदार बोला।

गरीबू की हसरत भरी नजरें ठेकेदार का जवाब सुनते ही रूमी पर जा टिकीं।




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Old 20-05-2014, 04:47 PM   #44
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Default Re: लघुकथाएँ

दाव पेंच [लघुकथा] - मुकेश पोपली


‘यह बहुत गलत बात है कि इतने सालों तक कल्*पतरु जी को मान्*यता ही नहीं दी गई, वह तो ईश्*वर के घर के वो अवतार हैं जो पृथ्*वी पर केवल कविता रचने के लिए ही आए हैं, मगर हम सबकी आंखों पर मोह-माया का पर्दा इस तरह पड़ा हुआ था कि हम अपने बीच में उपस्थित इस अवतार द्वारा रची गई लीला को पहचान ही नहीं पाए। आज इस समारोह में इनकी कविता के सम्*मान के यह क्षण इतिहास रच रहे हैं और आज का दिन साहित्*यकारों के लिए स्*वर्णिम दिन कहलाया जाएगा, मेरी ओर से इन्*हें बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं।’ तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मुख्*य अतिथि मेहता जी द्वारा कल्*पतरु जी को श्रीफल और एक लाख रुपए का चैक शॉल ओढ़ाकर प्रदान किया गया ।

कल तक कल्*पतरु के घोर विरोधी और बात-बात पर उनका अपमान करने वाले मेहता जी द्वारा तारीफों के पुल बांधे जाने से कल्*पतरु के अन्*य विरोधियों के साथ-साथ उनकी खास मित्र-मंडली भी हैरान थी ।

‘प्*यारे साथियो, पुरस्*कार कब्*जे में बर लेने के बाद इस मेहता को मैंने दस हजार रुपए में खरीद लिया और मनचाहा भाषण उसके सामने रख दिया,’ कल्*पतरु जी बंद कमरे में अपने खास दोस्*तों की जिज्ञासा शांत कर रहे थे, ‘इसके अतिरिक्*त हमारी समिति के सभी लेखकों की किताबों की खरीद के लिए भी उससे अनुशंसा प्राप्*त कर ली है, जिससे पिछले तीन वर्षों में छपी हम सबकी किताबें खरीद ली जाएंगी और प्रकाशक द्वारा रॉयल्*टी के तौर पर हम लोग तीस प्रतिशत कमीशन पाने के अधिकारी होंगे ।’

‘वाह-वाह’, ‘बहुत बढि़या’, जैसे जुमलों के बीच पुरस्*कार हथियाने और मेहता को खरीदे जाने की खुशी में जाम आपस में टकराने लगे थे ।’
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Old 21-05-2014, 03:32 PM   #45
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Old 11-07-2014, 06:52 AM   #46
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Default Re: लघुकथाएँ

17 हाथी
.......
इधर यह तीनों सोच रहे थे कि साधू महाराज ने अपना हाथी देकर कितनी सरलता और भोलेपन से एक जटिल समस्या को सुलझा दिया।
**
गरीब मजदूर के जूतों में सिक्के और कृतज्ञता के आँसू

रोचक तथा शिक्षाप्रद लघुकथाओं को पाठकों के साथ शेयर करने के लिये रफीक जी और बिंदु जी का हार्दिक धन्यवाद.
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Last edited by rajnish manga; 11-07-2014 at 08:43 AM.
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Old 11-07-2014, 02:53 PM   #47
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Old 14-07-2014, 05:40 PM   #48
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Default Re: लघुकथाएँ

अदभुत कथा- ईमानदारी
अदभुत कथा-

लिखने वाले व्यक्ति को तहे दिल से नमन.......कहानी कुछ यूँ है--------

.................................................. .......................................
इस साल मेरा सात वर्षीय बेटा दूसरी कक्षा मैं प्रवेश पा गया ....क्लास मैं हमेशा से अव्वल आता रहा है !

पिछले दिनों तनख्वाह मिली तो मैं उसे नयी स्कूल ड्रेस और जूते दिलवाने के लिए बाज़ार ले गया !

बेटे ने जूते लेने से ये कह कर मना कर दिया की पुराने जूतों को बस थोड़ी-सी मरम्मत की जरुरत है वो अभी इस साल काम दे सकते हैं!

अपने जूतों की बजाये उसने मुझे अपने दादा की कमजोर हो चुकी नज़र के लिए नया चश्मा बनवाने को कहा !

मैंने सोचा बेटा अपने दादा से शायद बहुत प्यार करता है इसलिए अपने जूतों की बजाय उनके चश्मे को ज्यादा जरूरी समझ रहा है !

खैर मैंने कुछ कहना जरुरी नहीं समझा और उसे लेकर ड्रेस की दुकान पर पहुंचा.....दुकानदार ने बेटे के साइज़ की सफ़ेद शर्ट निकाली ...डाल कर देखने पर शर्ट एक दम फिट थी.....फिर भी बेटे ने थोड़ी लम्बी शर्ट दिखाने को कहा !!!!

मैंने बेटे से कहा :बेटा ये शर्ट तुम्हें बिल्कुल सही है तो फिर और लम्बी क्यों ?

बेटे ने कहा :पिता जी मुझे शर्ट निक्कर के अंदर ही डालनी होती है इसलिए थोड़ी लम्बी भी होगी तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा.......लेकिन यही शर्ट मुझे अगली क्लास में भी काम आ जाएगी ......पिछली वाली शर्ट भी अभी नयी जैसी ही पड़ी है लेकिन छोटी होने की वजह से मैं उसे पहन नहीं पा रहा !

मैं खामोश रहा !!

घर आते वक़्त मैंने बेटे से पूछा :तुम्हे ये सब बातें कौन सिखाता है बेटा ?

बेटे ने कहा: पिता जी मैं अक्सर देखता था कि कभी माँ अपनी साडी छोड़कर तो कभी आप अपने जूतों को छोडकर हमेशा मेरी किताबों और कपड़ो पैर पैसे खर्च कर दिया करते हैं !

गली- मोहल्ले में सब लोग कहते हैं के आप बहुत ईमानदार आदमी हैं और हमारे साथ वाले राजू के पापा को सब लोग चोर, कुत्ता, बे-ईमान, रिश्वतखोर और जाने क्या क्या कहते हैं, जबकि आप दोनों एक ही ऑफिस में काम करते हैं.....

जब सब लोग आपकी तारीफ करते हैं तो मुझे बड़ा अच्छा लगता है.....मम्मी और दादा जी भी आपकी तारीफ करते हैं !

पिता जी मैं चाहता हूँ कि मुझे कभी जीवन में नए कपडे, नए जूते मिले या न मिले
लेकिन कोई आपको चोर, बे-ईमान, रिश्वतखोर या कुत्ता न कहे !!!!!

मैं आपकी ताक़त बनना चाहता हूँ पिता जी, आपकी कमजोरी नहीं !

बेटे की बात सुनकर मैं निरुतर था! आज मुझे पहली बार मुझे मेरी ईमानदारी का इनाम मिला था !!

आज बहुत दिनों बाद आँखों में ख़ुशी, गर्व और सम्मान के आंसू थे
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Old 14-07-2014, 05:44 PM   #49
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Default Re: लघुकथाएँ

प्रभु, तूने सही समय पर मुझे थाम लिया


एक नगर मे रहने वाले एक पंडित जी की ख्यातिदूर दूर तक थी पास ही के गाँव मे स्थित मंदिर के पुजारी का आकस्मिक निधन होने की वजह से उन्हें वहाँ का पुजारी नियुक्त किया गया था...
एक बार वह अपने गंतव्य की और जानेके लिए बस मे चढ़े उन्होंने कंडक्टर को किराए के रुपये दिए और सीट पर जाकर बैठ गए
कंडक्टर ने जब किराया काटकर रुपये वापस दिए तो पंडित जी ने पाया की कंडक्टर ने दस रुपये ज्यादा उन्हें दे दिए है।
पंडित जी ने सोचा कि थोड़ी देर बाद कंडक्टर को रुपये वापस कर दूँगा
कुछ देर बाद मन मे विचार आया की बेवजह दस रुपये जैसी मामूली रकम को लेकर परेशान हो रहे है आखिर ये बस कंपनी वाले भी तो लाखों कमाते है बेहतर है इन रूपयो को भगवान की भेंट समझकर अपने पास ही रख लिया जाए वह इनका सदुपयोग ही करेंगे।
मन मे चल रहे विचार के बीच उनका गंतव्य स्थल आ गया बस मे उतरते ही उनके कदम अचानक ठिठके उन्होंने जेब मे हाथ डाला और दस का नोट निकाल कर कंडक्टर को देते हुए कहा भाई तुमने मुझे किराए के रुपये काटने के बाद भी दस रुपये ज्यादा दे दिए थे।
कंडक्टर मुस्कराते हुए बोला क्या आप ही गाँव के मंदिर के नए पुजारी हो?
पंडित जी को हामी भरने पर कंडक्टर बोला मेरे मन मे कई दिनों से आपके प्रवचन सुनने की इच्छा है आपको बस मे देखातो ख्याल आया कि चलो देखते है कि मैं ज्यादा पैसे लौटाऊँ तो आप क्या करते हो, अब मुझे पता चल गया की आपके प्रवचन जैसा ही आपका आचरण है जिससे सभी को सिख लेनी चाहिए।
ये बोलकर कंडक्टर ने गाड़ी आगे बड़ा दी

पंडित जी बस से उतरकर पसीना-पसीना थे उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर भगवान से कहा है प्रभु तेरा लाख-लाख शुक्र है जो तूने मुझे बचा लिया मैने तो दस रुपये के लालच मे तेरी शिक्षाओ की बोली लगा दी थी पर तूने सही समय पर मुझे थाम लिया....!
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अदभुत कथा- ईमानदारी
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इस साल मेरा सात वर्षीय बेटा दूसरी कक्षा मैं प्रवेश पा गया ....क्लास मैं हमेशा से अव्वल आता रहा है !


माँ-बाप, बच्चो के पहले गुरू माने जाते, माँ-बाप जेसा आचरण करेगे बच्चे वैसा ही सिखगे
बहुत अच्छी कहानी प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद मित्र
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