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Old 06-01-2013, 09:56 AM   #41
bindujain
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Default Re: महान व्यक्तित्व {Great personality}

रामानुजन और प्रोफेसर हार्डी



उस समय भारतीय और पश्चिमी रहन सहन में एक बड़ी दूरी थी और इस वजह से सामान्यतः भारतीयों को अंग्रेज़ वैज्ञानिकों के सामने अपने बातों को प्रस्तुत करने में काफ़ी संकोच होता था। इधर स्थिति कुछ ऐसी थी कि बिना किसी अंग्रेज़ गणितज्ञ की सहायता लिए शोध कार्य को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था। उस समय रामानुजन के पुराने शुभचिंतक इनके काम आए और इन लोगों ने रामानुजन द्वारा किए गए कार्यों को लंदन के प्रसिद्ध गणितज्ञों के पास भेजा। पर यहां इन्हें कुछ विशेष सहायता नहीं मिली लेकिन एक लाभ यह हुआ कि लोग रामानुजन को थोड़ा बहुत जानने लगे थे। इसी समय रामानुजन ने अपने संख्या सिद्धांत के कुछ सूत्र प्रोफेसर शेषू अय्यर को दिखाए तो उनका ध्यान लंदन के ही प्रोफेसर हार्डी की तरफ गया। प्रोफेसर हार्डी उस समय के विश्व के प्रसिद्ध गणितज्ञों में से एक थे। और अपने सख्त स्वभाव और अनुशासन प्रियता के कारण जाने जाते थे। प्रोफेसर हार्डी के शोधकार्य को पढ़ने के बाद रामानुजन ने बताया कि उन्होंने प्रोफेसर हार्डी के अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर खोज निकाला है। अब रामानुजन का प्रोफेसर हार्डी से पत्रव्यवहार आरंभ हुआ। अब यहां से रामानुजन के जीवन में एक नए युग का सूत्रपात हुआ जिसमें प्रोफेसर हार्डी की बहुत बड़ी भूमिका थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जिस तरह से एक जौहरी हीरे की पहचान करता है और उसे तराश कर चमका देता है, रामानुजन के जीवन में वैसा ही कुछ स्थान प्रोफेसर हार्डी का है। प्रोफेसर हार्डी आजीवन रामानुजन की प्रतिभा और जीवन दर्शन के प्रशंसक रहे। रामानुजन और प्रोफेसर हार्डी की यह मित्रता दोनो ही के लिए लाभप्रद सिद्ध हुई। एक तरह से देखा जाए तो दोनो ने एक दूसरे के लिए पूरक का काम किया।

आरंभ में रामनाजुन ने 1912-13 के दौरान खुद विकसित किए अपनी 120 प्रमेयों की एक लम्बी सूची को अच्छे कागजों पर लिखकर एक पत्र के साथ कैंब्रिज विश्वविद्यालय के तीन प्रतिष्ठित प्रोफेसरों को भेजे, जिनमें से जी. एच. हार्डी (G.H.HARDY) ने रामानुजन के काम की तारीफ की और अपने अधीन अध्ययन के लिए उन्हें कैंब्रिज बुलाया। ये पत्र हार्डी को सुबह नाश्ते के टेबल पर मिले। इस पत्र में किसी अनजान भारतीय द्वारा बहुत सारे बिना उत्पत्ति के प्रमेय लिखे थे, जिनमें से कई प्रमेय हार्डी देख चुके थे। पहली बार देखने पर हार्डी को लगा कि रामानुजन की 10 पन्नों वाली गणित के 10 सूत्रों से भरी चिठ्ठी सब बकवास है। उन्होंने इस पत्र को एक तरफ रख दिया और अपने कार्यों में लग गए परंतु इस पत्र की वजह से उनका मन अशांत था। इस पत्र में बहुत सारे ऐसे प्रमेय थे जो उन्होंने न कभी देखे और न सोचे थे। उन्हें बार-बार यह लग रहा था कि यह व्यक्ति (रामानुजन) या तो धोखेबाज है या फिर गणित का बहुत बड़ा विद्वान। रात को 9 बजे हार्डी ने अपने एक शिष्य लिटिलवुड के साथ एक बार फिर इन प्रमेयों को देखा और आधी रात तक वे लोग समझ गये कि रामानुजन कोई धोखेबाज नहीं बल्कि गणित के बहुत बड़े विद्वान हैं, जिनकी प्रतिभा को दुनिया के सामने लाना आवश्यक है। वे अपने साथी लिटिलवुड और पत्नी एलिस के साथ मद्रास जा रहे एक युवा प्राध्यापक नेविल की मदद लेकर रामानुजन के बारे में और जानकारी जुटाने तथा अगर सम्भव हो, उन्हें कैम्ब्रिज बुलाने के लिए तत्पर हो उठते हैं। हार्डी का यह निर्णय एक ऐसा निर्णय था जिसने न केवल उनकी और उनके दोस्तों की बल्कि पूरे गणित-इतिहास की ही धारा बदल डाली।
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Old 06-01-2013, 10:01 AM   #42
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Default Re: महान व्यक्तित्व {Great personality}

Mahatma Gandhi



Born: October 2, 1869
Martyrdom: January 30, 1948.
Achievements: Known as Father of Nation; played a key role in winning freedom for India; introduced the concept of Ahimsa and Satyagraha.
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Old 07-01-2013, 07:52 AM   #43
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Default Re: महान व्यक्तित्व {Great personality}

आदमी वो महान है यारो,
उसकी बातों में जान है यारो।

मेघ से हमने दुश्मनी कर ली,
जबकि कच्चा मकान है यारो।

देश जंगल, शिकार जनमन है,
राजनीति मचान है यारो।

बेघरों को बंटेंगे घर कैसे,
बंद फाइल में प्लान है यारो।

रोज बोता है वो पैसों की फसल
वो गजब का किसान है यारो।

तीर तरकश में कम नहीं शाहिद,
किंतु टूटी कमान है यारो।



--शाहिद ‘समर’
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Old 07-01-2013, 08:12 AM   #44
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Default Re: महान व्यक्तित्व {Great personality}

अहिंसा के महान आत्मा का एक दुर्लभ चित्र ब्रिटिश सैनिक के रूप में.



मो.क.गाँधी एक वीर इंग्लिश सैनिक! बोअर युद्ध १८९९ दक्षिण अफ्रिका
क्या आप इस सैनिक को जानते है! क्या? आपने नही पहचाना?
अरे ये तो वो है जिनका जन्म दिवस आप आज मना रहे है! आप जानते है इनकी महानता इन्होने भारत वासीयो के मनमे अंग्रेजो के प्रती अहिंसा की भावना निर्माण की! क्या आप जानते है इनको?
ये बड़े महान अहिसवादी थे! इन्होने जिस बोअर युद्ध में (१८९९) एक अहिंसक (?) सैनिक का कार्य किया था वो अद्वितीय है!
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Old 07-01-2013, 08:14 AM   #45
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अहिंसा के महान आत्मा का एक दुर्लभ चित्र ब्रिटिश सैनिक के रूप में.





Mahatma Gandhi in the uniform of a sergeant as the leader of Indian Ambulance Corps. During the Boer War of 1899 and the Zulu Rebellion of 1906.
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Old 08-01-2013, 04:45 AM   #46
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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस



जिन लोगों ने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना सर्वस्व यहाँ तक कि प्राण तक न्यौछावर कर दिया, हम लोगों में अधिकतर लोग उनके विषय में, दुर्भाग्य से, बहुत कम जानते हैं। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भी उन महान सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों में से एक हैं जिनके बलिदान का इस देश में सही आकलन नहीं हुआ। देखा जाए तो अपनी महान हस्तियों के विषय में न जानने या बहुत कम जानने के पीछे दोष हमारा नहीं बल्कि हमारी शिक्षा का है जिसने हमारे भीतर ऐसा संस्कार ही उत्पन्न नहीं होने दिया कि हम उनके विषय में जानने का कभी प्रयास करें। होश सम्भालने बाद से ही जो हमें "महात्मा गांधी की जय", "चाचा नेहरू जिन्दाबाद" जैसे नारे लगवाए गए हैं उनसे हमारे भीतर गहरे तक पैठ गया है कि देश को स्वतन्त्रता सिर्फ गांधी जी और नेहरू जी के कारण ही मिली। हमारे भीतर की इस भावना ने अन्य सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों को उनकी अपेक्षा गौण बना कर रख दिया। हमारे समय में तो स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में यदा-कदा "खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी...", "अमर शहीद भगत सिंह" जैसे पाठ होते भी थे किन्तु आज वह भी लुप्त हो गया है। ऐसी शिक्षा से कैसे जगेगी भावना अपने महान हस्तियों के बारे में जानने की? अस्तु।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था।
उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माता का नाम प्रभावती था।
सुभाष चन्द्र बोस अपनी माता-पिता की 14 सन्तानों में से नौवीं सन्तान थे।
जानकीदास बोस को ब्रिटिश सरकार ने रायबहादुर का खिताब दिया था और वे चाहते थे कि उनका पुत्र आई.सी.एस. (आज का आई.ए.एस.) अधिकारी बने, इसलिए पिता का मन रखने के लिए सुभाष चन्द्र बोस सन् 1920 में आई.सी.एस. अधिकारी बने।
महज एक साल बाद ही अर्थात् सन् 1921 में वे अंग्रेजों की नौकरी छोड़कर राजनीति में उतर आए।
सन् 1938 में सुभाष चन्द्र बोस बोस कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। अध्यक्ष पद के लिए गांधी जी ने उन्हें चुना था और कांग्रेस का यह रवैया था कि जिसे गांधी जी चुन लेते थे वह अध्यक्ष बन ही जाता था क्योंकि हमने सुना है कि जो भी अध्यक्ष बनता था वह वास्तव में 'डमी' होता था, असली अध्यक्ष तो स्वयं गांधी जी होते थे और चुने गए अध्यक्ष को उनके ही निर्देशानुसार कार्य करना पड़ता था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों की कठिनायों को मद्देनजर रखते हुए सुभाष चन्द्र बोस चाहते थे कि स्वतन्त्रता संग्राम को अधिक तीव्र गति से चलाया जाए किन्तु गांधी जी को उनके इस विचार से सहमत नहीं थे। परिणामस्वरूप बोस और गांधी के बीच मतभेद पैदा हो गया और गांधी जी ने उन्हें कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटाने के लिए कमर कस लिया।
गांधी जी के विरोध के बावजूद भी कांग्रेस के सन् 1939 के चुनाव में सुभाष चन्द्र बोस फिर से चुन कर आ गए। चुनाव में गांधी जी समर्थित पट्टाभि सीतारमैया को 1377 मत मिले जबकि सुभाष चन्द्र बोस को 1580। गांधी जी ने इसे पट्टाभि सीतारमैया की हार न मान कर अपनी हार माना।
गांधी जी तथा उनके सहयोगियों के व्यवहार से दुःखी होकर अन्ततः सुभाष चन्द्र बोस ने 29 अप्रैल, 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।
तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सुभाषचन्द्र बोस को ग्यारह बार गिरफ्तार किया और अन्त में सन् 1933 में उन्हें देश निकाला दे दिया।
1934 में पिताजी की मृत्यु पर तथा 1936 में काँग्रेस के (लखनऊ) अधिवेशन में भाग लेने के लिए सुभाष चन्द्र बोस दो बार भारत आए, मगर दोनों ही बार ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर वापस देश से बाहर भेज दिया।
यूरोप में रहते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने सन् 1933 से ’38 तक ऑस्ट्रिया, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, फ्राँस, जर्मनी, हंगरी, आयरलैण्ड, इटली, पोलैण्ड, रूमानिया, स्वीजरलैण्ड, तुर्की और युगोस्लाविया की यात्राएँ कर के यूरोप की राजनीतिक हलचल का गहन अध्ययन किया और उसके बाद भारत को स्वतन्त्र कराने के उद्देश्य से आजाद हिन्द फौज का गठन किया।
नेताजी का नारा था "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा"।
18 अगस्त 1945 को हवाई जहाज से मांचुरिया की ओर जाते हुए व लापता हो गए तथा उसके बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये।
नेताजी की मृत्यु (?) आज तक इतिहास का एक रहस्य बना हुआ है?
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Old 09-01-2013, 05:51 PM   #47
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विवेकानंद क्या चाहते थे?


शिकागो में हुए पार्लियामेंट ऑफ रिलीजन्स में जब प्रत्येक धर्मावलंबी अपने-अपने धर्म को दूसरे धर्म से ऊपर दिखाने की चेष्टा कर रहा था तब विवेकानंद ने उनके इस शीतयुद्ध का निवारण एक छोटी-सी परंतु महत्वपूर्ण कहानी के द्वारFILE
ा किया।





बात 1867 की है। एक ट्यूटर उन दिनों कोलकाता के गौर मोहन मुखर्जी लेन स्थित मकान पर एक बालक को रोज पढ़ाने आते थे। तब न तो उन ट्यूटर को तथा न ही किसी अन्य को पता था कि यही बालक एक दिन विश्व-धर्म का प्रचार करेगा और युवा चेतना का एक अंतरराष्ट्रीय प्रतीक बनेगा। वैसे इस बालक की माता भुवनेश्वरी देवी को तब ही आभास हो चुका था, जब यह बालक उनकी कोख में पल रहा था कि यह संतान विश्व कल्याण के लिए ही उत्पन्न होगी। बचपन में इस बालक का नाम था नरेंद्रनाथ दत्त।

नरेंद्र के पिताजी अंगरेजी शिक्षा में दीक्षित, उदार, पश्चिमपरक तथा एक संपन्न वकील थे। धर्म के प्रति उनकी आस्था कम ही थी। इसके विपरीत नरेंद्र की मां सनातन आस्थाओं वाली धर्मपरायण महिला थी। पिता चाहते थे कि नरेंद्र भी उन्हीं का व्यवसाय अपनाकर जीवनयापन करे और इसी तारतम्य में उन्होंने उसे प्रेसीडेंसी कॉलेज तथा स्कॉटिश चर्च कॉलेज से स्नातक (बीए) करवाया। आगे उन्होंने कानून की पढ़ाई भी प्रारंभ कर दी थी, परंतु युवावस्था से ही उन्हें 'ईश्वर की खोज' की भी धुन सवार हो गई थी। यही धुन उन्हें एक प्रतिष्ठित वकील बनने की बजाय स्वामी रामकृष्ण परमहंस तक ले गई।

कालांतर में परमहंस के मुख्य शिष्य के रूप में संन्यास लेकर नरेंद्र ने विवेकानंद नाम ग्रहण किया। इसके पश्चात प्रारंभ हुई एक युवा की क्रांति अलख, जो डेढ़-दो दशक तक खोज, साधना, देशाटन, देशप्रेम आदि के रूप में गुजरते हुए समय से पूर्व अल्पकाल में बुझ गई, परंतु अपने पीछे छोड़ गई एक अनमोल धरोहर, एक परिवर्तन की, विश्व बंधुत्व की। यही क्रांति अलख पिछली एक शताब्दी से प्रत्येक युवा पीढ़ी के मार्गदर्शन व उत्प्रेरक का कार्य करती आ रही है। सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि जहाँ सौ वर्ष पुरानी अन्य बातें, पहलू व चीजें आज के दौर में लगभग अप्रासंगिक हो चुकी हैं, वहीं विवेकानंद का दर्शन न केवल आज भी उतना ही प्रासंगिक है वरन उस समय से भी आज ज्यादा सार्थक है।

आज हम कितने ही उन्नत होने के बावजूद आंतरिक रूप से खोखले होते जा रहे हैं। जाति, भाषा के आधार पर वैमनस्य, गिरते नैतिक प्रजातांत्रिक मूल्य तथा संस्कृति में हो रहे विराट व अटपटे परिवर्तन से निपटने के लिए अब पुनः युवा शक्ति को जागृत होना होगा। उसकी इस राह में स्वामी विवेकानंद का शाश्वत राष्ट्रवादी व देशप्रेमयुक्त अध्यात्म कारगर सिद्ध हो सकता है।

सन्* 1893 में शिकागो में हुए पार्लियामेंट ऑफ रिलीजन्स (धर्म संसद) में जब प्रत्येक धर्मावलंबी अपने-अपने धर्म को दूसरे धर्म से ऊपर दिखाने की चेष्टा कर रहा था तब विवेकानंद ने उनके इस शीतयुद्ध का निवारण एक छोटी-सी परंतु महत्वपूर्ण कहानी के द्वारा किया : एक कुएं में बहुत समय से एक मेंढक रहता था। एक दिन एक दूसरा मेंढक, जो समुद्र में रहता था, वहां आया और कुएं में गिर पढ़ा। 'तुम कहां से आए हो?' कूपमंडूप ने पूछा। 'मैं समुद्र से आया हूँ।' समुद्र! भला वह कितना बड़ा है? क्या वह मेरे कुएं जितना ही बड़ा है?' यह कहते हुए उसने कुएं में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलांग लगाई।

समुद्र वाले मेंढक ने कहा- 'मेरे मित्र, समुद्र की तुलना भला इस छोटे से कुएँ से किस प्रकार की जा सकती है?' तब उस कुएँ वाले मेंढक ने दूसरी छलाँग लगाई और पूछा, 'तो क्या समुद्र इतना बड़ा है?' समुद्र वाले मेंढक ने कहा- तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! क्या समुद्र की तुलना इस कुएँ से हो सकती है? अब कुएं वाले मेंढक ने चिढ़कर कहा- 'जा, जा, मेरे कुएं से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं है। झूठा कहीं का! अरे, इसे पकड़कर बाहर निकाल दो।

विवेकानंद की इस कथा का सार न केवल धर्म की संकीर्णता दूर करने वाला है वरन इसके पीछे युवाओं को भी एक संदेश है कि प्रत्येक संभावना का विस्तार ही (बगैर कूपमंडूकता के) जीवन का मूल उद्देश्य होना चाहिए।

विवेकानंद चाहते थे कि हर समाज स्वतंत्र हो, दूसरे समाज से विचारगत, आस्थागत समायोजन हो। भारत के विषय में उनका सोचना था कि एक तरफ तो हम निष्क्रिय रहकर प्राचीन गौरव के गर्व में फंस गए, दूसरी ओर हीनता की भावना में दब गए। तीसरे, सारी दुनिया से कटकर घोंघे में बंद हो गए। वे कहते थे कि जिस प्राचीन आध्यात्मिक शक्ति पर हम गर्व करते हैं, उसे अपने भीतर जगाना होगा। यह अभी हमारे भीतर नहीं है, केवल बाहरी है।

उन्होंने यह आह्वान युवाओं से किया था कि तुम ही यह कार्य कर दिखाओ। ये युवा ही हैं, जो इस समाज को आत्मशक्ति दे सकते हैं, संपूर्ण विश्व से गर्व से संवाद व संबंध स्थापित कर सकते हैं। इसके उपरांत ही हम स्वतंत्र हो पाएंगे व सामाजिक न्याय की अवधारणा समाज में स्थापित कर सकेंगे।

ये विचार आज कहीं अधिक उपयोगी हैं, जिससे हम उस राष्ट्र को फिर जीवित कर सकें जो विवेकानंद की कल्पनाओं का था। आवश्यकता है तो बस इतनी ही कि विवेकानंद के दर्शन का प्रसार युवाओं में एक आंदोलन की भांति हो।
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स्वामी विवेकानंद : प्रेरक प्रसंग


भ्रमण एवं भाषणों से थके हुए स्वामी विवेकानंद अपने निवास स्थान पर लौटे। उन दिनों वे अमेरिका में एक महिला के यहां ठहरे हुए थे। वे अपने हाथों से भोजन बनाते थे। एक दिन वे भोजन की तैयारी कर रहे थे कि कुछ बच्चे पास आकर खड़े हो गए।

उनके पास सामान्यतया बच्चों का आना-जाना लगा ही रहता था। बच्चे भूखे थे। स्वामीजी ने अपनी सारी रोटियां एक-एक कर बच्चों में बांट दी। महिला वहीं बैठी सब देख रही थी। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। आखिर उससे रहा नहीं गया और उसने स्वामीजी से पूछ ही लिया- 'आपने सारी रोटियां उन बच्चों को दे डाली, अब आप क्या खाएंगे?'

स्वामीजी के अधरों पर मुस्कान दौड़ गई। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा- 'मां, रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करने वाली वस्तु है। इस पेट में न सही, उस पेट में ही सही।' देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है।
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कबीर



कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। ये सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में महान होता है। कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। भारत में धर्म, भाषा या संस्कृति किसी की भी चर्चा बिना कबीर की चर्चा के अधूरी ही रहेगी।
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बिन्दु जी, हर पृष्ठ पर किसी ऐतिहासिक विभूति का चित्र और साथ में उनका जीवन वृत्त तथा कृतित्व. हर प्रसंग प्रेरणा से भरा हुआ और हर शब्द सागर सा गहरा. यह सूत्र अन्य सभी की तुलना में बहुत विशेष है खास तौर पर आज के ह्रासोन्मुख समाज को देखते हुए. इसके लिए जितने थेंक्स लिखूं कम हैं. बहुत बहुत धन्यवाद.
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