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Old 10-01-2013, 03:19 PM   #41
arvind
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Default Re: सफलता की सीढ़ी।

सफ़ल होना है, तो सिर्फ़ लक्ष्य पर निगाह रखें

कुछ साल पहले तक ऐसा होता था कि संस्थान में काम करनेवाले मेरे सहयोगी अकसर मेरे पास दूसरे की शिकायत लेकर आते और कहते कि पता है वह आपके बारे में क्या कहता है..फ़िर पूरी बातें बताते. शुरू में तो मुझे बहुत गुस्सा आता था.

सोचता था कि कैसे लोग हैं, जो एक ही टीम में काम करने के बावजूद एक-दूसरे के बारे में दुष्प्रचार करते हैं. मैं बहुत चाहता कि इस तरह की बातें सुनने को न मिलें, लेकिन आये दिन ऐसा ही होता. एक दिन इसी मुद्दे पर सोच रहा था. सोच रहा था कि कैसे उन लोगों का मुंह बंद किया जाये, जो मेरे खिलाफ़ बातें करते हैं.

एक दार्शनिक की बात याद आ गयी कि आपका हर कदम आपके टारगेट की तरफ़ होना चाहिए. मुझे लगा, उन्हें चुप कराना मुझे टारगेट की तरफ़ नहीं, उससे अलग ले जायेगा. धीरे-धीरे मैंने ऐसी शिकायत लेकर आनेवालों की बातें सुनना ही बंद कर दिया और ध्यान टारगेट की तरफ़ रखा. राजा अभय सिंह का साम्राज्य दूर-दूर तक फ़ैला था.

राज्य में चारों तरफ़ समृद्धि और शांति थी. इसका कारण यह था कि अभय सिंह न्याय के प्रति सजग रह कर अपनी प्रजा की सुख-शांति व संपन्नता के लिए निरंतर सक्रिय रहता था. उसने अपने सभी मंत्रियों को स्पष्ट निर्देश दे रखे थे कि प्रजा के कल्याण की योजनाओं का अबाध रूप से संचालन किया जाये.

अभय समय-समय पर राज्याधिकारियों को राज्य के भ्रमण पर भी भेजता था, ताकि यह पता चल सके कि प्रजा संतुष्ट है अथवा नहीं. साथ ही यह भी पता चल जाये कि विकास कायाब र्की प्रगति कैसी है? एक दिन राजा अभय के गुरु उनसे मिलने आये.

अभय ने अपने गुरु का स्वागत किया और उनकी सेवा में जुट गया. गुरु ने अभय से कहा, मैंने तुम्हारे पूरे राज्य का भ्रमण किया है. भ्रमण के दौरान मैंने पाया कि लोग तुम्हारी न्यायप्रियता, निष्पक्ष व्यवस्था और विकास कायाब से संतुष्ट हैं.

परंतु कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो बेवजह तुम्हारे कायाब की निंदा करते हैं और तुम्हारे विरुद्ध गलत प्रचार भी करते हैं. गुरु की बात सुन कर अभय ने गंभीर होकर कहा-मैं एक बड़े साम्राज्य का शाक्तिशाली राजा हूं. प्रजा मेरा सम्मान करती है और मेरे न्याय व राज्य संचालन की सराहना करती है. मेरे एक इशारा करने मात्र से मेरी निंदा करनेवालों का मुंह बंद हो सकता है.

लेकिन गलत प्रचार और निंदा करनेवालों के प्रति सोचना और कार्रवाई करके समय नष्ट करना मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि प्रजा की सुख-समृद्धि के लिए कार्य करना मेरे लिए महत्वपूर्ण है.

अभय की बात सुन कर गुरु बहुत प्रसन्न हुए और बोले-सच्चा शासक वही है, जो हमेशा अपने लक्ष्य पर दृष्टि रखे. सदैव प्रजाहित में कार्य करने वाले शासक के निंदकों का मुंह स्वयं प्रजा ही बंद कर देती है. गुरु ने अभय को आशीर्वाद दिया और चले गये.

बात पते की

- एक अच्छा लीडर वही है, जो हर कदम उठाने से पहले इस बात पर विचार करे कि क्या उसके कदम टारगेट की तरफ़ बढ़ रहे हैं?
- लोग आपके बारे में क्या कहते हैं, यह आपके लिए महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि उनकी बातों को आप किस रूप में लेते हैं.
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Old 10-01-2013, 03:35 PM   #42
arvind
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Default Re: सफलता की सीढ़ी।

किसी से तुलना न करें मानिए कि आप खास हैं

इच्छा रखना अच्छी बात है, लेकिन अपनी इच्छाओं को लेकर कुंठित रहना और उसके पूरा न होने पर परेशान हो जाना गलत है. असल में संतुष्ट न होना मानव स्वभाव है. हालांकि एक सीमा तक संतुष्ट न होना प्रगति के लिए जरूरी भी है. लेकिन दूसरों की देखा-देखी नहीं.

श्री श्री रविशंकर भी कहते हैं कि जिंदगी में दुख सिर्फ़ इसलिए होते हैं, क्योंकि आप तुलना करते हैं. अपने पद और वेतन की तुलना दूसरों से, अपने संबंधों की तुलना अपने सीनियर से आदि.

असल में तुलना करने से इच्छाएं गलत शक्ल में जन्म लेने लगती हैं. तब लोगों को यही लगता है कि जैसे भी हो, इच्छाएं पूरी हो जायें. इसलिए इच्छाएं रखें, लेकिन उसे प्राकृतिक रूप से ही पूरा होने दें. इसके लिए मेहनत और समर्पण में कमी न करें. तब तक आपके पास जो कुछ है, उसमें संतुष्ट रहें और मानें कि आप खास हैं.

एक गरीब व्यक्ति एक महात्मा के पास गया और बोला, महाराज, मेरा अधिकतर जीवन गरीबी में गुजर गया. मैं भी वैभव व अमीरी में जीवन गुजारना चाहता हूं. कृपया मेरी मदद करें. व्यक्ति की बात सुन कर महात्मा मुस्करा दिये और बोले, कल तुम इसी समय मेरे पास आना और अपनी कोई भी एक इच्छा बताना. मैं उसे अवश्य पूरा कर दूंगा. यह सुन कर व्यक्ति खुश हो गया.

रात भर वह विचार करता रहा कि मैं महात्मा से कौन-सी इच्छा पूरी करने को कहूं? कभी वह सोचता कि वह महात्मा से कहेगा कि वह उसकी महल में रहने की इच्छा पूरी कर दें. महल में रहने से वह खुद ही सेठ बन जायेगा. फ़िर उसने सोचा, नहीं खाली महल से तो काम नहीं चलेगा. इससे अच्छा तो वह राजा बन जाये. राजा बनकर वह सब पर शासन करेगा और उसे धन-धान्य किसी भी बात की कोई कमी नहीं रहेगी.

किंतु तभी उसके मन में विचार आया कि राजा तो स्वयं प्रजा पर आश्रित होता है. यदि उसे प्रजा पसंद न करे तो वह रातोंरात जमीन पर आ जाता है. इसी उधेड़बुन में सुबह हो गयी. सुबह वह महात्मा के पास पहुंचा. महात्मा उसे देखकर मुस्कराते हुए बोले, हां भाई, बोलो, तुम्हारी कौन-सी इच्छा पूरी की जाये?

महात्मा की बात सुन कर वह व्यक्ति बोला, महाराज, रात भर मैं इसी उधेड़बुन में लगा रहा कि कौन-सी इच्छा पूरी करूं? लेकिन मुझे लगा कि एक इच्छा अनेक इच्छाओं को जन्म दे देती है. इसलिए सबसे अच्छी व मन को संतोष देनेवाली इच्छा तो आत्मसंतुष्टि है. इसलिए आप मेरी यही इच्छा पूरी कर दीजिए कि मेरे अंदर आत्मसंतोष रहे और कभी भी असंतोष की भावना मुझे गलत मार्ग पर चलने को प्रेरित न करे.

व्यक्ति की बात सुनकर महात्मा मुस्करा कर बोले तथास्तु. इसके बाद वह व्यक्ति संतुष्ट होकर अपने घर चला गया और मेहनत-मजदूरी करके अपना जीवन बिताने लगा.

- बात पते की
* ज्यादातर लोगों की जिंदगी में दुख सिर्फ़ इसलिए होते हैं, क्योंकि वे तुलना करते हैं. किसी से भी किसी भी मामले में तुलना कतई न करें.
* जब तक आपकी इच्छाएं पूरी नहीं हो जातीं, तब तक आपके पास जो कुछ है, उसी में संतुष्ट रहना सीखें.
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Old 10-01-2013, 03:51 PM   #43
arvind
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Default Re: सफलता की सीढ़ी।

उद्देश्य एक है, तो रास्ता भी एक होना चाहिए

आप अकेले ऑफ़िस का कितना काम कर सकते हैं? दो लोग साथ मिल कर कितना काम कर सकते हैं? और अगर पूरी टीम एक साथ हो जाये तो? निश्चित रूप से टीम के रूप में काम करना हमेशा बेहतर आउटपुट देता है, लेकिन टीम से टीम के रूप में काम करवाना बहुत आसान नहीं होता.

वजह, हर किसी का अलग माइंडसेट होता है, हर किसी का सोच अलग होता है, हर कोई अपने हिसाब से काम करना चाहता है. लेकिन समझदार लोग हमेशा टीम के हिसाब से, संस्थान के उद्देश्यों के साथ मिल कर काम करना चाहते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि व्यक्तिगत रूप से उनका प्रयास संस्थान के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नाकाफ़ी होगा.

टीम के साथ मिल कर काम करने से न केवल संस्थान को फ़ायदा होगा, बल्कि उनका भी विकास होगा. ज्यादातर युवा खुद के बारे में यही सोच रखते हैं कि काम करने का उनका तरीका टीम लीडर के काम करने के तरीके से ज्यादा अच्छा है. कई बार यह सही भी होता है, लेकिन अगर उद्देश्य एक है, तो उस तक पहुंचने का रास्ता भी एक होना चाहिए. वरना भटकने का डर हमेशा बना रहेगा.

दो भिखारी आपस में बड़े अच्छे मित्र थे. एक अंधा था और दूसरा लंगड़ा. दोनों मिल कर भीख मांगते. अंधा लंगड़े को अपनी पीठ पर चढ़ा कर इधर-उधर ले जाता और लंगड़ा भीख मांगता. इस तरह सालों से वे एक-दूसरे के पूरक थे. भीख अच्छी मिल जाती, जिसका एक भाग वे भगवान को चढ़ाना नहीं भूलते.

कुछ दिनों से दोनों में दुर्भावना पैदा हो गयी. दोनों में से कौन ज्यादा महत्वपूर्ण है..या भीख मिलने में किसका अधिक योगदान है..या कौन ज्यादा दयनीय है..इन बातों पर अक्सर विवाद होता रहता. अंधा कहता- भगवान तुझ पर अधिक मेहरबान था, जो तुझे अंधा नहीं बनाया..आंखों से अधिक महत्वपूर्ण कोई अंग नहीं. लंगड़ा कहता- भगवान तुझ पर ज्यादा कृपालु थे. अंधा होना चलेगा, पर..तू अगर लंगड़ा होता तब इसका दु:ख तुझे पता चलता.

बहस होती रहती थी कि किस की शारीरिक अपंगता अधिक दयनीय है. एक दिन भगवान को उन पर दया आ गयी और उन्होंने प्रकट हो कर कहा- भक्तों मैं तुमसे प्रसन्न हूं..दोनों एक-एक वर मांग कर अपने कष्ट दूर कर लो.

भक्तों ने वर मांगे, लेकिन भगवान उनकी मांग सुन कर अचंभित रह गये. जो लंगड़ा था उसने मांगा- प्रभु, मेरे अंधे मित्र को लंगड़ा भी कर दो. और अंधे ने कहा- मेरे लंगड़े मित्र को अंधा भी बना दो.

परिणाम यह हुआ कि अब दोनों अंधे होने के साथ-साथ लंगड़े भी हो गये. दोनों को अब भीख भी कम मिलती और जीना भी दूभर हो गया. दूसरों के प्रति दुर्भावना स्वयं के लिए भी कष्टकर होती है.

- बात पते की
* टीम से टीम के रूप में काम करवाना हमेशा ही बेहतर आउटपुट देता है.
* टीम में काम कर रहे हैं, तो खुद को बेहतर मानें, लेकिन सुपीरियर नहीं.
* समझदार लोग टीम के साथ मिल कर और संस्थान के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए काम करते हैं. इससे दोनों का फ़ायदा होता है.
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Old 10-01-2013, 04:04 PM   #44
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Default Re: सफलता की सीढ़ी।

हर कमेंट का जवाब देकर बड़े नहीं बन जायेंगे

रजनीश अक्सर मुझसे कहता कि अपने साथी को समझा दो, नहीं तो मेरे पास भी मुंह है, मैं भी ऐसे कमेंट कर सकता हूं, जैसे वह करता है. सिर्फ़ तुम्हारे कहने पर मैंने खुद को रोके रखा है. वरना अपने स्वाभिमान को इतना गिरा कर मैंने कभी काम नहीं किया है.

मैं उसकी बातों का यही जवाब देता था- देखो रजनीश, अगर उसकी आदत है इस तरह से बोलना तो क्या तुम भी उसे जवाब देकर उसी तरह बन जाओगे? फ़िर तुम्हारे और उसमें अंतर ही क्या रह जायेगा. और उससे बड़ी बात यह कि जवाब देकर क्या तुम बड़े बन जाओगे? मैं यह भी नहीं कहता कि तुम दब्बू बन कर उनकी सारी बातें सुनते रहो.

छोटी-छोटी बातों को इग्नोर करो, लेकिन बात जब बड़ी होने लगे, तो तुरंत सीनियर से बात करो. वह जरूर तुम्हारी बात समझेंगे. तुम्हारे लिए यह एक अच्छा मौका है कि तुम उनकी बातों को नजरअंदाज कर खुद को सहनशील बनाने की कोशिश करो.

यूनानी विचारक डायोजिनीज घुमक्कड़ स्वभाव के थे. वे अपना ज्यादातर वक्त घूमने-फ़िरने में बिताया करते थे. सुकरात के शिष्य थे और उनके विचारों से बेहद प्रभावित थे. वे उन्हीं की तरह लोगों की समस्याओं का समाधान करने की भरपूर कोशिश भी करते थे.

धीरे-धीरे डायोजिनीज की ख्याति भी दूर-दूर तक फ़ैलती जा रही थी. वे अपने व्यक्तित्व में सुधार के लिए लगातार प्रयासरत रहते थे. कभी फ़ूलों के पास जाकर उससे बातें करते तो कभी यों ही समुद्र के किनारे शांत मन से आंखें बंद कर ध्यान में लग जाते और अपने मन को नियंत्रित करने का प्रयास करते थे. एक दिन वह एक पत्थर की मूर्ति के पास गये और उससे बातें करते रहे.

एक युवक वहां से गुजर रहा था. डायोजिनीज जैसी हस्ती को एक पत्थर की मूर्ति से बातें करते देख वह हैरान रह गया. वह उनके पास जाकर बोला- महानुभाव, आपसे यह उम्मीद नहीं थी. हम लोग तो आपके व्यक्तित्व से प्रेरणा लेने का प्रयास करते हैं और आप ऐसी ओछी हरकत कर रहे हैं. एक मामूली पत्थर से बातें करने का आखिर क्या मतलब है? भला एक पत्थर क्या जवाब देगा? किसी पत्थर से आप शराफ़त से बातें करो या बदतमीजी से, वह तो शांत ही रहेगा.

युवक की बात सुनकर डायोजिनीज मुस्करा कर बोले-बिल्कुल सही कहा तुमने कि भला एक पत्थर क्या जवाब देगा? वह तो शांत ही रहेगा. तो मैं भी इस पत्थर से यही सीखने का प्रयास कर रहा हूं कि यदि मुझे कोई गालियां दे या अनुचित भाषा में बात करे तो मुझे इस पत्थर की तरह ही शांत रहना है. हर हाल में शांत बने रहना है. एक पत्थर से बेहतर यह सीख और कौन दे सकता है. कोई और हो तो मुझे भी बताओ. मैं उसके पास जाऊंगा. युवक डायोजिनीज की बात सुन कर दंग रह गया और मन ही मन उनकी साधना के प्रति नतमस्तक हो उठा.

- बात पते की
* ऑफ़िस में अगर कोई अनुचित भाषा में बात करता है, तो शांत रहने की ही कोशिश करनी चाहिए.
* छोटी-छोटी चुभनेवाली बातों को इग्नोर करना चाहिए, लेकिन जब बात बड़ी होने लगे, तो सीनियर को उसके बारे में जरूर बताना चाहिए.
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Old 10-01-2013, 04:11 PM   #45
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Default Re: सफलता की सीढ़ी।

जब काम करना ही है, तो मुस्कुरा कर क्यों न करें

ज्यादातर लोग ऑफ़िस में अपने काम से खुश नहीं रहते. कमाना जरूरी है और कमाने के लिए कुछ काम करना है, इसलिए काम करते हैं. यानी काम करना जरूरी है. फ़िर काम को बोझ समझ कर क्यों करें? बोझ समझ कर करेंगे, तो काम करने में न तो मजा आ पायेगा और न जितना आउटपुट दे सकते हैं, उतना दे पायेंगे.

अगर ऑफ़िस में किसी के पास ऐसा काम है, जिसमें उनका मन नहीं लगता, तो कोशिश करें उसी काम को खुशी के साथ करने का. इससे एक तो काम का दबाव नहीं रहेगा और दूसरा खुशी से काम करेंगे, तो अपना मैक्सिमम इनपुट देंगे और परिणामस्वरूप बेहतर आउटपुट आयेगा. सीधे शब्दों में कहें, तो जब काम करना ही है, तो क्यों न उसे अच्छे से करें. जब अपने घर-परिवार को देनेवाले समय से काट कर अपना समय ऑफ़िस को दे रहे हैं, तो क्यों न कुछ ऐसा किया जाये, जिसका फ़ायदा आपके कैरियर और परिवार दोनों को मिले.

और इसके लिए करना ही क्या है, बस जो भी काम करें, खुश हो कर करें, बोझ समझ कर नहीं.तब मैं और रजनीश दिल्ली में एक ही ऑफ़िस में काम करते थे. रजनीश अपने काम में माहिर था. बॉस जब उसे कुछ काम देते, तो उसे भरोसा रहता था कि वह समय पर पूरा कर लेगा. कोई परेशानी होगी, तो समय रहते पूछ भी लेगा. काम अच्छा करता था, इसलिए उसके पास काम ज्यादा भी थे. ऑफ़िस में काफ़ी व्यस्त रहता था. धीरे-धीरे व्यस्तता बढ़ती गयी. घर-बाहर के दायित्वों का निर्वाह करते-करते वह तनाव में रहने लगा.

ऑफ़िस में देर शाम घर लौटते आवश्यक काम भी नहीं कर पाता था. घर बाहर की व्यस्तताओं ने उसे कोल्हू का बैल बना कर रख दिया था. ऑफ़िस में सदा गंभीर बना रहता था. ऑफ़िस में सब लोग मजाक में कहते कि शादी के बाद तो रजनीश मुस्कुराना भूल गये हैं. उन्हें मुस्कुराए हुए मुद्दत हो गयी है.एक दिन शाम में हम लोग कनाट प्लेस में चाय पीने गये. हम अक्सर शाम को वहां जाया करते थे.

अचानक रजनीश की नजर चायवाले लड़के पर पड़ी. रजनीश ने मुझसे कहा, देखो कैसे खुश हो कर चाय बांट रहा है. हम जब भी इसके यहां चाय पीने आते हैं, हमेशा नमस्ते साब जी, कह कर स्वागत करता है. आखिर यह इतना खुश कैसे रहता है? रजनीश से रहा नहीं गया. उसने लड़के को पास बुलाया और पूछा- एक बात बताओ, तुम हमेशा इतना खुश कैसे रहते हो? लड़का बोला- पता नहीं बड़े साहब जी, बस मैं तो अपना काम खुशी और उत्साह से करता रहता हूं. चाय देते समय जब सब को नमस्ते करता हूं, तो उनका मुस्कान के साथ उत्तर देना मुझे आनंद दे जाता है. मैं अपने काम में पूरा आनंद उठाता हूं.एक अनपढ़ लड़के ने आज रजनीश को जीने की कला का एक प्रेरणास्पद पाठ पढ़ा दिया था.

बात पते की
- ऑफ़िस में आपके पास जो भी असाइनमेंट हो, उसे बोझ समझ कर पूरा न करें, नहीं तो आप बेस्ट नहीं दे पायेंगे.
-काम अगर खुशी के साथ करेंगे, तो काम बोझ नहीं लगेगा.
-खुद के काम के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखें.
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Old 10-01-2013, 04:30 PM   #46
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बॉस बनना है, तो पहले एक अच्छा वर्कर बनिये

बॉस जब भी आते तो रजनीश के सहयोगी की आदत थी कि वह बैठा ही रहता, न तो अभिवादन करता न कभी हाथ मिलाता. रजनीश ने एक दिन उससे पूछा, तो कहा, होगा बॉस, मैं नहीं मानता. किस मामले में मैं उससे कम हूं.

उसकी किस्मत थी, तो बन गया बॉस. मेरी बारी आयेगी, तो मैं भी बन जाऊंगा. रजनीश ने उसे बहुत समझाया, उससे कहा- कोई भी जो बॉस की कुर्सी पर बैठा है, उसका सम्मान तो करना ही चाहिए. सम्मान का मतलब यह नहीं कि उसके पीछे-पीछे लगे रहो, उसकी हर बात में हां में हां मिलाओ, लेकिन सामान्य शिष्टाचार फ़ॉलो करना ही चाहिए. बहरहाल, उसे बात नहीं माननी थी और वह नहीं माना. तीन साल पहले जब छंटनी हुई, तो सबसे पहले पिंक स्लिप उसे ही पकड़ाया गया.

प्रबंधन ने अपने कांफ़िडिसियल रिपोर्ट में लिखा कि इस समय हमें ज्यादा बॉसेस की जरूरत नहीं है, हमें एक अच्छा वर्कर चाहिए, ऐसे में कंपनी इन्हें अफ़ोर्ड नहीं कर सकती.यह उन दिनों की बात है जब महात्मा गांधी आगा खां पैलेस में कैद थे. महल को ही जेल का रूप दे दिया गया था. एक दिन जब गांधीजी सोकर उठे तो उन्होंने महसूस किया कि आज कुछ ज्यादा ही चहल-पहल हो रही है. उन्होंने कस्तूरबा से पूछा- आज क्या बात है? कोई गुपचुप तैयारी चल रही है क्या? कस्तूरबा ने कहा - मुझे तो कुछ पता नहीं, ये लोग क्या कर रहे हैं. पर कुछ खास बात है जरूर. यह सुन कर गांधीजी हंसे और बोले - तुम्हें सब पता है.

उन सभी को समझा दो कि वे अति उत्साह में कोई कार्यक्रम न बना लें. बिल्कुल साधारण ढंग से सब काम होना चाहिए. दरअसल, उस दिन दो अक्तूबर था. डॉ सुशीला नैयर, मीरा बहन आदि बापू का जन्मदिन कुछ अलग अंदाज में मनाने की तैयारी कर रही थीं. तभी गांधीजी को किसी ने बताया कि उन्हें जन्मदिन की बधाई देने के लिए जिले के कलेक्टर भी आनेवाले हैं. उन्होंने जेलर से तत्काल एक कुर्सी की व्यवस्था करने का निवेदन किया. डॉ नैयर ने पूछा- कुर्सी किसलिए? उसकी क्या आवश्यकता है? उस वक्त गांधीजी जमीन पर आसन जमाए बैठे थे.

उन्होंने कहा- जमीन पर बैठे रहने से मुझे कलेक्टर साहब के सम्मान में खड़े होने में कष्ट होगा. कुर्सी पर बैठा रहूंगा तो उठना सुविधाजनक होगा, इसलिए कुर्सी चाहिए. वहां खड़े गांधीजी के सहयोगियों ने कहा- बापू, आपके सामने कलेक्टर क्या चीज है? उसके सम्मान में आपको खड़ा होने की कोई आवश्यकता ही नहीं है. इस पर गांधीजी ने कहा- नहीं यह न्यायसंगत नहीं होगा. इस समय मैं जेल में एक मामूली कैदी हूं. राज्य के प्रतिनिधि कलेक्टर का सम्मान करना मेरा फ़र्ज है. बैठ कर उनसे बात करना शिष्टाचार नहीं होगा. गांधीजी ने अपने लिए कुर्सी मंगा ली. जब कलेक्टर आये तो गांधीजी उठ खड़े हुए. उन्होंने कलेक्टर से हाथ मिलाया और उन्हें धन्यवाद दिया.

-बात पते की-
-अपने सीनियर का हमेशा सम्मान करना चाहिए. ऐसा करने से आपको उनसे बहुत कुछ सीखने का मौका मिलेगा.
-सीनियर का सम्मान और सीनियर की चापलूसी दो अलग-अलग चीजें हैं. सीनियर का सम्मान सामान्य शिष्टाचार है.
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Old 10-01-2013, 04:39 PM   #47
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सपने देखना बंद न करें सपने ही सच होते हैं

महाशतक बनाने के बाद सचिन ने कहा कि सपने देखना जरूरी है. सपने ही इंसान को बड़ा बनाते हैं, इसलिए सपने देखना मत छोड़िए. कामयाबी के शिखर पर पहुंच कर भी सचिन ने सपने देखना बंद नहीं किया. सचिन का कहना है कि थको मत, रुको मत, मेहनत के साथ काम करते जाओ, बुलंदी अपने आप कदम चूमेगी. बचपन में हम सुनते थे कि जो पंछी जितनी ज्यादा ऊंचाई पर उड़ने के सपने देखता है, वह निर्भीक होकर ज्यादा ऊंचाई तक उड़ पाता है.

कॉलेज के फ़ाइनल इयर में हम सभी लोग सफ़लता के सपने देखते थे. कोई ऊंची नौकरी, कोई अच्छी पत्नी, बंगला, गाड़ी तो कोई व्यापार में सफ़लता के झंडे गाड़ने का सपना देखता. 15 साल बाद जब हम दोस्त फ़िर से मिले, तब हमें समझ में आया कि जो लोग उस समय बड़े सपने देखते थे, ज्यादातर वे लोग, आज बेहतर स्थिति में हैं. जब हमने याद किया, तो हमें महसूस हुआ कि उस समय ही हमें यह आभास हो गया था कि किसकी सफ़लता की संभावना ज्यादा है. दूसरे शब्दों में यदि कहें तो ऊंची सोच रखनेवाले ही आगे चल कर उन्नत स्थिति में दिखे.देश के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का मानना है कि जिंदगी में ऊंचा मुकाम पाना है, तो बड़े सपने देखना जरूरी है. उनके मुताबिक जो व्यक्ति सपने देखता है, वही उपलब्धियां भी हासिल करता है.

बिना सपनों के सफ़लता की कल्पना भी नहीं की जा सकती. हालांकि कुछ लोगों का यह भी कहना है कि सपने कभी सच नहीं होते, लेकिन यदि कामयाब लोगों की जिंदगी में झांक कर देखा जाये, तो यही बात सामने आती है कि उन्होंने बुलंदी पर पहुंचने का सपना देखा था, जिसे उन्होंने कड़ी मेहनत से सच साबित कर दिखाया. पश्चिमी देशों में तो हर साल 11 मार्च को ड्रीम डे मनाया जाता है. यह दिन यही सीख देती है कि सपने आगे बढ़ने की सीढ़ी हैं, बिना सपने देखे कोई आगे नहीं बढ़ सकता. अमेरिकी लेखक हैरी रिचर्डसन की पुस्तक ड्रीम्स फ़ॉर सक्सेस बेस्टसेलर में से है. पुस्तक में लिखा है कि सपने देखना सफ़लता की ओर चला गया हमारा पहला कदम है.

एक बार एक चेले ने अपने गुरु से पूछा कि मान लें कि मैं आपको आज एक सोने का सिक्का दूं या एक सप्ताह बाद एक हजार सिक्के दूं, तो आप क्या लेंगे? गुरु ने जवाब दिया, एक हजार सिक्के. चेला आश्चर्य में पड़ गया. चेले ने सोचा कि गुरु वर्तमान में लेने की जगह भविष्य में कैसे ले रहा है? तब गुरु ने शंका का समाधान किया कि जब कल्पना में ही लेना है, तो बड़ी चाह क्यों नही रखें.कितनी बढ़िया बात कही उन्होंने. कल्पना में बड़ी चाह के लिए न कोई दाम चुकाना पड़ता है और न ही उसमें कोई रिस्क होता है. फ़िर क्यों न अपने लिए बेहतर कल्पना करें. हम सब जानते हैं कि विचार ही वास्तविकता में बदलते हैं, फ़िर क्यों ना हम ऊंची सोच रखें, बड़े सपने देखें.
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अच्छा एक्सपेक्ट करते हैं, तो आपको भी अच्छा होना होगा

हर किसी में अच्छाई होती है और हर किसी में बुराई भी. असल में हम किसी को अच्छा या बुरा सिर्फ़ इस आधार पर कहते हैं कि सामनेवाला हमारे लिए अच्छा है या बुरा. अगर वह हमारे लिए अच्छा है, तो हम उसे अच्छा व्यक्ति कहते हैं और अगर वह हमारे लिए बुरा है, तो हम उसे बुरा व्यक्ति कहते हैं.

यह भी सच्चाई है कि कोई भी हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करता है, जैसा हम उसके साथ व्यवहार करते हैं. ज्यादातर लोगों की समस्या यही होती है कि वे सामनेवाले पर भरोसा नहीं कर पाते. बार-बार अविश्वास करने पर सामनेवाला भी भरोसा करना बंद कर देता है.

कई बार ऐसा होता है कि आप अगर किसी पर पूरी तरह भरोसा करते हैं, तो सामनेवाला भी आप पर उसी तरह भरोसा करता है. दूसरी तरफ़ आपने यह भी देखा होगा कि कोई अगर आप पर भरोसा नहीं करता है, तो आप चाह कर भी उस पर भरोसा नहीं कर पाते.

बहुत ही सामान्य-सी बात है, जिसका सामना हम सब प्रतिदिन करते हैं, इसके बावजूद हम सीखना नहीं चाहते. सीधी बात यह है कि अगर आप यह चाहते हैं कि सामनेवाला आपके प्रति ईमानदार रहे, आप पर भरोसा करे, तो आपको भी उसके प्रति ऐसा ही व्यवहार रखना होगा.बहुत पुरानी कथा है. किसी गांव में दो भाई रहते थे.

बड़े की शादी हो गयी थी. उसके दो बच्चे भी थे, लेकिन छोटा भाई अभी कुंवारा था. दोनों साझा खेती करते थे. एक बार उनके खेत में गेहूं की फ़सल पक कर तैयार हो गयी. दोनों ने मिल कर फ़सल काटी और गेहूं तैयार किया. इसके बाद दोनों ने आधा-आधा गेहूं बांट लिया.अब उन्हें ढोकर घर ले जाना बचा था.

रात हो गयी थी, इसलिए यह काम अगले दिन ही हो पाता. रात में दोनों को फ़सल की रखवाली के लिए खलिहान पर ही रुकना था. दोनों को भूख भी लगी थी. दोनों ने बारी-बारी से खाने की सोची. पहले बड़ा भाई खाना खाने घर चला गया.

छोटा भाई खलिहान पर ही रुक गया. वह सोचने लगा-भैया की शादी हो गयी है, उनका परिवार है, इसलिए उन्हें ज्यादा अनाज की जरूरत होगी. यह सोच कर उसने अपने ढेर से कई टोकरी गेहूं निकाल कर बड़े भाई वाले ढेर में मिला दिया.

बड़ा भाई थोड़ी देर में खाना खाकर लौटा. उसके बाद छोटा भाई खाना खाने घर चला गया. बड़ा भाई सोचने लगा-मेरा तो परिवार है, बच्चे हैं, वे मेरा ध्यान रख सकते हैं, लेकिन मेरा छोटा भाई तो एकदम अकेला है, इसे देखनेवाला कोई नहीं है.

इसे मुझसे ज्यादा गेहूं की जरूरत है. उसने अपने ढेर से उठा कर कई टोकरी गेहूं छोटे भाईवाले गेहूं के ढेर में मिला दिया. इस तरह दोनों के गेहूं की कुल मात्रा में कोई कमी नहीं आयी. हां, दोनों के आपसी प्रेम और भाईचारे में थोड़ी और वृद्धि जरूर हो गयी.

बात पते की

हम किसी को अच्छा या बुरा सिर्फ़ इस आधार पर कहते हैं कि वह हमारे लिए अच्छा है या बुरा.
अगर आप चाहते हैं कि सामनेवाला आपके प्रति ईमानदार रहे, आप पर भरोसा करे, तो आपको भी उसके प्रति ऐसा ही रहना होगा.
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Old 11-01-2013, 02:13 PM   #49
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कलाप्रेम और आत्मसंतोष से समझौता नहीं करें

बचपन में एक बार म्यूजिक टीचर आंखें बंद कर हारमोनियम बजा रहे थे. उनके कान साथी कलाकारों के वाद्यों पर थे. जब मैंने पूछा तो वे बोले केवल बजाना ही नहीं सुनना भी एक कला है. मुझे लगता है कि कलाकार की सच्ची तारीफ़ करना भी एक कला है. कविता सुन कर दाद देना भी एक कला है. लेख गंभीरता से पढ़ कर आत्मसात करना भी एक कला है.

हर एक के अंदर एक कलाकार अवश्य होता है. जरूरत होती है उसे संवारने की, उस पर मेहनत करने की. असल में हम जो भी काम करते हैं अपने अंदर की कला के कारण. हमारी कोशिश भी यही होनी चाहिए कि अपने काम में हम वह सब कुछ लगा दें, जितनी हमारी क्षमता है. आत्मसंतोष के स्तर तक.मैं और रजनीश तब साथ ही काम करते थे. मेरी छुट्टी थी. मैंने रजनीश से कहा, कि काम जल्दी खत्म कर लेना तो हमलोग प्रदर्शनी देखने जायेंगे.

उसने कहा- काम ज्यादा है और इसे करने में समय लगेगा. मैंने कहा- जल्दी-जल्दी खत्म कर लो. वैसे भी काम तुम करोगे और क्रेडिट तो किसी और को मिलना है. फ़िर क्या फ़ायदा इतनी मेहनत करने का. इसके जवाब में रजनीश ने जो मुझसे कहा, वह मुझे आज भी याद है. उसने कहा- मैं काम खुद के लिए करता हूं, किसी और के लिए नहीं. मैं जो काम करता हूं, उसमें मुझे मेरा संतोष चाहिए होता है. अगर मुझे लगता है कि इस काम में थोड़ा और मेहनत करने से यह अच्छा हो सकता है, तो मैं वह समय भी देता हूं. मेरे काम का कौन, कैसे क्रेडिट लेता है, मुझे इससे कोई मतलब नहीं.

मेरे लिए यह ज्यादा जरूरी है कि मैं जो भी काम करता हूं, उससे मुझे संतोष मिलता है. मुझे लगता है कि मैंने अपना 100 फ़ीसदी दिया. यही संतोष मुझे और बेहतर करने की प्रेरणा देता है. वैसे भी मैं अच्छा काम करूंगा, तो मेरे सीनियर और संस्थान को फ़ायदा तो बाद में मिलेगा, पहले तो इसका फ़ायदा मुझे मिलेगा. आज रजनीश मुंबई के एक मल्टीनेशनल कंपनी का जीएम है. आज भी उससे मिलता हूं, तो उसे यह बात जरूर याद दिलाता हूं.एक मूर्तिकार मंदिर के लिए बीस फ़ीट ऊंची बेहद खूबसूरत प्रतिमा बना रहा था. पास में ही हूबहू खूबसूरत प्रतिमा पड़ी हुई थी. किसी ने कलाकार से पूछा दो प्रतिमाएं लगेंगी? नहीं. फ़िर दूसरी क्यों? पहली डेमेज हो गयी.

व्यक्ति ने पहली मूर्ति को सब तरफ़ देखा, इसमें कहीं खोट नहीं दिखायी दी. फ़िर कहा, कान के पीछे देखें. व्यक्ति ने कान के पीछे देखा. एक खरोंच का निशान जो केवल गौर से देखने पर दिख रहा था. व्यक्ति ने कहा, बीस फ़ीट ऊपर तो किसी हाल में खरोंच नहीं दिखती. कलाकार ने जवाब दिया- मैं केवल धन नहीं बल्कि अपना संतोष भी चाहता हूं. यदि खरोंचवाली मूर्ति खड़ी हो जाती तो मुझे उसका मलाल जिंदगी भर रहता. कलाप्रेम और आत्मसंतोष से समझौता न करें.

-बात पते की
-हर एक के अंदर एक कलाकार अवश्य होता है, जरूरत होती है उसे संवारने की, उस पर मेहनत करने की.
-कोई भी काम करते समय हमारी यही कोशिश यही होनी चाहिए कि हम उसमें अपनी क्षमता का सौ फ़ीसदी दें.
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Old 11-01-2013, 02:17 PM   #50
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पहले ही न मानें कि संसाधनों की कमी का असर होगा

ज्यादा पुरानी बात नहीं है. लगभग दो साल पहले. रजनीश को नयी जिम्मेवारी के साथ कंपनी के सबसे पुरानी शाखा में भेजा गया. वहां कमान संभालते ही उसने नये सिरे से योजना बनानी शुरू की. एक सप्ताह बाद जब परफ़ॉरमेंस एनालिसिस हुआ, तो रिजल्ट पहले जैसा ही था. थोड़ा भी फ़र्क नहीं आया.

रजनीश को आश्चर्य हुआ, उसने टीम से पूछा कि ऐसा क्यों? जवाब मिला- सर, हमारे पास संसाधन नहीं हैं, जो हैं, वह भी अपडेट नहीं है, जिसके कारण काम जल्दी नहीं हो पाता. कई बार हेड ऑफ़िस में इसकी शिकायत की, लेकिन कोई रिस्पांस नहीं मिला.

फ़िर दूसरे सप्ताह, तीसरे सप्ताह और महीने के अंत में भी रिजल्ट अच्छा नहीं रहा. हर बार एक ही तरह का बहाना अलग-अलग तरीके से सुनने को मिलता. रजनीश भी इन बहानों से परेशान हो चुका था. पहले महीने उसकी परफ़ॉरमेंस अच्छी नहीं रही. अगले महीने उसने मीटिंग कर सभी से कह दिया कि मुझे लगता है कि हम पहले ही यह मान लेते हैं कि हम बेस्ट रिजल्ट नहीं दे पायेंगे, क्योंकि हमारे पास संसाधनों की कमी है.

अगर यह तय कर लें कि इन्हीं संसाधनों में हमें बेहतर आउटपुट देना है, तो हम बेहतर आउटपुट दे सकते हैं. कुछ दिनों के लिए यह तय मान लें कि हमें इसी संसाधन में काम करना है, तो क्या हमारी परफ़ॉरमेंस ऐसी ही रहेगी? बेहतर काम करना जरूरी है और बेहतर काम करवाना मेरी मजबूरी है. रजनीश की बातों का असर हुआ और अगले महीने उसने पिछले महीने की तुलना में 27 फ़ीसदी का ग्रोथ दिखाया.

आपने देखा होगा कि यदि कोई व्यक्ति जिंदगी के बारे में सकारात्मक सोच रखता है, अच्छा सोचता है तो उसकी जिंदगी अपने आप अच्छी होने लगती है. इसी तरह नकारात्मक सोचनेवाले लोगों की जिंदगी में परेशानियां, कठिनाइयां ज्यादा आने लगती हैं. जैसे ही समझ आये कि किसी प्रकार का निगेटिव विचार आ रहा है, तो हमें हमारा ध्यान अच्छी बातों की तरफ़ ले जाना चाहिए.

एक विद्वान ने एक भीड़ भरी जगह पर एक अच्छा चुटकुला सुनाया. सभी लोग जोर-जोर से हंसने लगे. थोड़ी देर बाद उसने वही चुटकुला सुनाया. लोग हंसे पर बहुत कम. ऐसा वह हर थोड़ी देर में करता. एक समय ऐसा आया कि कोई नही हंसा. विद्वान बोला, जब मैंने चार बार रिपीट होने के बाद वही जोक फ़िर से सुनाया तो कोई नही हंसा.

इसी तरह एक ही तरह के दुख व परेशानियां हमारी जिंदगी में बार-बार आती हैं और हम हर बार रोते हैं, परेशान हो जाते हैं. ऐसा करना बुद्धिमानी नहीं है. पहला तो यह कि एक ही तरह की परेशानी बार-बार आनी ही नहीं चाहिए. जब पहली बार आये, तभी उसका समाधान होना चाहिए और दूसरी बात यदि तुरंत समाधान नहीं हो सकता, तो खुद को उसी में ढाल लें. याद रखें कंपनियां परफ़ॉरमेंस में कमी आने पर संसाधनों की कमी का बहाना नहीं सुनतीं.

- बात पते की
* अगर आपके परफ़ॉरमेंस में कमी आती है, तो कंपनी संसाधनों की कमी का बहाना स्वीकार नहीं करती.
* पहले ही यह न मान लें कि संसाधन की कमी के कारण आप बेहतर रिजल्ट नहीं दे पायेंगे. प्रयास तो करके देखें.
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