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#511 |
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![]() कुछ नशा तेरी बात का है , कुछ नशा धीमी बरसात का है । हम तो कब से नशे में डूब जाने को तैयार बैठे है , इन्तेजार तो सिर्फ आपकी मुलाक़ात का है || |
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#512 |
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अब इन आँखों से ये मंजर देखे नहीं जाते,
रोते हुए लोग जलते हुए घर देखे नहीं जाते.. ये कैसी शक्ल बना दी है मेरे अंजुमन की खुदा, जितने लोग उतने ही खंजर देखे नहीं जाते.. अजीब सी तोहमत का मैं गवाह हुआ जाता हूँ, इतने मासूम से हाथो में ये पत्थर देखे नहीं जाते.. सब अपनी अपनी रोटी सेकने में लगे रहते हैं, किसी गरीब के जलते हाथ क्यूँकर देखे नहीं जाते.. कभी हिन्दू को भड़का दिया तो कभी मुस्लिम को, इन सफ़ेद पोशो के ये दोहरे तेवर देखे नहीं जाते.. |
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#513 |
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यहाँ कौन क्या चाहता है, कौन जाने,
यहाँ कौन क्या पाता है, कौन जाने. तालें हैं हर दिल पर, कौन सा ताला, कौनसी चाबीसे खुलता है, कौन जाने. मुंहमें राम, बगलमें छुरी छुपातें हैं, कौन कैसी चाल खेलता है, कौन जाने. हर गली में दुकानें हैं धोखाधड़ी की, कौन क्या क्या खरीदता है, कौन जाने. पत्थर दिल, कोमल दीखते हैं 'अख्तर', कौन कैसे मुखौटे लगाता है, कौन जाने. |
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#514 |
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इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है जो डर के नार-ए-दोज़ख़ से ख़ुदा का नाम लेते हैं इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है मगर जब शुक्र-ए-ने'मत में जबीं झुकती है बन्दे की वो सच्ची बन्दगी है इक शरीफ़ाना इत'अत है कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्दा हो जा ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा हो जा उठा लेती हैं लहरें तहनशीं होता है जब कोई उभरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना हो जा जोश मलीहाबादी |
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#515 |
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#516 |
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Tamanna le k ulfat ki mere aangan main wo aaya
MOHABBAT Rog hai Dil ka Usay yeh meine samjhaya Kaha us ne Mohabbat kar shareek-e-Gham bana MUJH ko Karonga Main Zamanay ki khushi se Aashna TUM ko Hua Majboor main yaro kiya Iqraar ulfat ka Laga di JAAN ki bazi samajh kar khel Qismat ka Hui Maloom phir Uski haqeeqat yeh Zamanay se Usay taskeen milti hai Kisi ka DIL dukhane se...! |
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#517 |
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‘सखी पिया को जो मैं न देखूं, तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां’
कि जिनमें उनकी ही रोशनी हो, कहीं से ला दो मुझे वो अंखियां दिलों की बातें दिलों के अंदर, जरा-सी जिद से दबी हुई हैं वो सुनना चाहें जुबां से सब कुछ, मैं करना चाहूं नजर से बतियां ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है सुलगती सांसें, तरसती आंखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियां उन्ही की आंखें, उन्ही का जादू, उन्ही की हस्ती, उन्ही की ख़ुशबू किसी भी धुन में रमाऊं जियरा, किसी दरस में पिरो लूं अंखियां मैं कैसे मानूं बरसते नैनो कि तुमने देखा है पी को आते न काग बोले, न मोर नाचे,न कूकी कोयल, न चटखीं कलियां. ‘सखी पिया को जो मैं न देखूं, तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां’ आमिर खुसरो |
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#518 |
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#519 |
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सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं ,सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं |
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से ,सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं | सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी,सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं | सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़ ,सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं | सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं,ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं | सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है ,सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं | सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें .सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं | सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं ,सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं | सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी ,सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं | सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है. सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं | सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं ,सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं | सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी ,जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं | सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में ,मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं | सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में, पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं | सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं ,के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं | वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं ,के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं | बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का,सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं | सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त ,मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं | रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं, चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं | किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे ,कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं| कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही ,अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं | अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ ,फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं | अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं,फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं | जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र,कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं | रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-खुराम कोई तो हो,सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं | तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता,यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं | ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में,जो लालचों से तुझे, मुझे जल के देखते हैं | यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे,हज़ार इक ही कालिब में ढल के देखते हैं | न तुझको मात हुई न मुझको मात हुई,सो अबके दोनों ही चालें बदल के देखते हैं | यह कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले,समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं | अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए,हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं| बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर,चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं | अहमद फ़राज़ |
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#520 |
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दिल की दिल को ख़बर नहीं मिलती
जब नज़र से नज़र नहीं मिलती सहर आई है दिन की धूप लिए अब नसीम-ए-सहर नहीं मिलती दिल-ए-मासूम की वो पहली चोट दोस्तों से नज़र नहीं मिलती जितने लब उतने उस के अफ़साने ख़बर-ए-मोतबर नहीं मिलती है मक़ाम-ए-जुनूँ से होश की रह सब को ये रह-गुज़र नहीं मिलती नहीं 'मुल्ला' पे उस फ़ुग़ाँ का असर जिस में आह-ए-बशर नहीं मिलती आनंद नारायण मुल्ला |
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