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![]() नयी दिल्ली। भारत की युवा पीढ़ी अपने दोस्तों, सहयोगियों से संपर्क करने के लिए फेसबुक जैसे सोशल नेटवर्क और मोबाइल उपकरण के जरिए संचार के आयाम बदल रही है। यह बात साफ्टवेयर निर्यातक टीसीएस के एक सर्वेक्षण में कही गई है। टीसीएस द्वारा 12,300 उच्च माध्यमिक स्कूलों में किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक 85 फीसद छात्रों ने कहा कि वे फेसबुक का उपयोग करते हैं, जबकि 79 फीसद ने कहा कि उनके पास मोबाइल फोन है। इस सर्वेक्षण के मुताबिक 40 फीसद से ज्यादा छात्रों ने कहा कि वे इंटरनेट के लिए अपने मोबाइल फोन (2009 में यह आंकड़ा सिर्फ 12 फीसद था) का उपयोग करते हैं और करीब 14 फीसद ने कहा कि वे टैबलेट पीसी का उपयोग करते हैं जिससे एक नए रुझान का पता चलता है। करीब 34 फीसद छात्रों ने कहा कि वे आईटी क्षेत्र में करियर को तरजीह देंगे जिसके बाद इंजीनियरिंग (30 फीसद), चिकित्सा (11 फीसद) और मीडिया (7.5 फीसद) का स्थान है।
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गर्भावस्था के दौरान फ्लू होना बच्चों के लिए हो सकता है लाभकारी
मॉन्ट्रियल। गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को फ्लू का संक्रमण होने से प्रसव से पूर्व और बाद में उनके बच्चों के स्वास्थ्य की रक्षा भी हो सकती है। इस सप्ताह ‘अमेरिकन जर्नल आफ पब्लिक हेल्थ’ में प्रकाशित एक नए अध्ययन में कनाडा के ओंटारियो प्रांत के आंकड़ों का उपयोग कर यह दावा किया गया है। ये आंकड़े वर्ष 2009-10 के दौरान फैली ‘स्वाइन फ्लू’ महामारी के दौरान गर्भवती हुई उन महिलाओं के स्वास्थ्य के तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित हैं जिन्होंने एच1एन1 का टीका लिया था और जिन्होंने यह टीका नहीं लिया था। इस अवधि में पूरी दुनिया में 14,000 से अधिक लोग स्वाइन फ्लू की वजह से मौत के शिकार हुए थे। अध्ययनकर्ता ने लिखा है, हमारे परिणाम बताते हैं कि एच1एन1 टीके की दूसरी या तीसरी तिमाही में टीकाकरण का सम्बंध महामारी के दौरान भ्रूण एवं नवजात शिशु के स्वास्थ्य के बारे में नतीजों में सुधार से था। बहरहाल, उन्होंने यह भी कहा है कि भविष्य में और अध्ययनों से इन नतीजों की पुष्टि करना जरूरी है।
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कैल्शियम की गोलियों से दिल को खतरा
लंदन। जो बुजुर्ग अपनी हड्डियों को मजबूत करने के लिए कैल्शियम की गोलियों का सहारा लेते हैं। वास्तव में वे अपने लिए हृदयाघात का खतरा बढ़ा रहे हैं। एक नए अध्ययन में यह बात सामने आई है। हांलाकि विशेषज्ञों का कहना है कि ओस्टियोपोरेसिस के शिकार लोगों को कैल्शियम से दूर रहने की सलाह देना गैर जिम्मेदाराना होगा है। दुनिया भर में लाखों लोगों को ओस्टियोपोरेसिस से लड़ने के लिए कैल्शियम की गोली लेने की सलाह दी जाती है। परंतु ज्यूरिख यूनिवर्सिटी और हीडलबर्ग स्थित जर्मन कैंसर शोध संस्थान का कहना है कि ये गोलियां सुरक्षित और असरदार नहीं हैं। शोधकर्ताओं ने 23980 लोगों का अध्ययन किया और पाया कि कैल्शियम की गोलियों का सहारा लेने वालों को दिल के दौरे की संभावना दोगुनी हो जाती है। जो लोग इन गोलियों को नहीं लेते थे उन 15959 लोगों में 851 को दिल का दौरा पड़ा। वहीं सप्लेमेंट्स लेने वालों को 86 प्रतिशत संभावना बढ़ जाती है।
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वैज्ञानिकों ने डीएनए को जिंदा हार्ड ड्राइव में तब्दील किया
वाशिंगटन। यह साइंस फिक्शन थ्रिलर फिल्म की कल्पना लग सकती है, लेकिन वैज्ञानिकों का दावा है कि उन्होंने एक ऐसा तरीका खोज निकाला है, जिससे जिंदा कोशिकाओं को हार्डड्राइव में तब्दील किया जा सकेगा। स्टैंफोर्ड यूनीवर्सिटी के स्कूल आफ इंजीनियरिंग एंड मेडिसीन के अनुसंधानकर्ताओं ने कई प्रयासों के बाद अंतत: डीएनए के भीतर डिजिटल सूचना को बार-बार एन्कोड करने, भंडारण करने और उसे मिटाने की तरीका खोज निकाला। अनुसंधान का नेतृत्व करने वाले जेरोम बोनेट ने कहा कि सूचनाओं को कोशिकाओं में रखने का भविष्य के अध्ययनों में काफी वृहद प्रयोग हो सकते हैं। उन्होंने कहा, ‘यह उन प्रक्रियाओं का अध्ययन करने का साधन है, जिसमें आपको कोशिकाओं का इतिहास पता लगाने की जरुरत पड़ती है।’ अनुसंधान का हिस्सा रहे टॉन सबसूनटॉर्न ने कहा, जीवविज्ञान में अधिकतर प्रश्न इतिहास को लेकर होते हैं। उन्होंने कहा, ‘आप पूछते हैं, ये कोशिका क्यों कैंसर कोशिका बन गई? और ये कोशिका क्यों एक सामान्य कोशिका रही?’
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टिन्निटस के इलाज में नई चिकित्सा कारगर
पेरिस। टिन्निटस के इलाज में नई चिकित्सा कारगर हो सकती है जो विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों को मिलाकर ईजाद की गई है। टिन्निटस एक ऐसी बीमारी है जिसमें कान के अंदर रोगी को आवाज महसूस होती रहती है। इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति की जिन्दगी काफी परेशानी भरी होती है। लैंसेंट पत्रिका के अनुसार नई चिकित्सा में मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण और आॅडियो थेरैपी शामिल है। यह पद्धति व्यक्ति की परेशानी को कम करती है और मस्तिष्क को दूसरी चीजों पर केंद्रित कर देती है जिससे कि ध्यान आवाज पर केंद्रित नहीं हो। डच अनुसंधानकर्ताओं ने इस पद्धति का 245 वयस्कों पर प्रयोग किया। 12 महीने बाद रोगियों की स्थिति में 33 प्रतिशत सुधार देखा गया।
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अर्जेन्टीना में छोटी बांहों वाले डायनासोर के अवशेष पाए गए
ब्यूनस आयर्स। अर्जेन्टीना में विशेषज्ञों ने जुरासिक काल के डायनासोरों की एक नई प्रजाति के अवशेष ढूंढेþ हैं। एक शीर्ष पालीओंटोलॉजिस्ट ने कहा कि ये डायनासोर अपने पिछले पैरों पर खड़े रहते थे और इनके बांहें छोटी होती थीं। पालीओंटोलाजिस्ट डिएगो पोल ने बताया कि ये डायनासोर क्रेटासियस काल में दक्षिणी गोलार्द्ध में पाई जाने वाली सबसे आम प्रजातियां थीं। ये एबेलीसोरस परिवार के जीव थे। यह समय 7 करोड़ से दस करोड़ साल पहले का था। पोल ने कहा कि हालांकि जो जीवाश्म हमें मिले हैं वह 17 करोड़ साल पुराने हैं। अपने पूर्वजों के विपरीत छह मीटर लंबे इन डायनासोरों की बांहें और पंजे अपेक्षाकृत छोटे थे। इससे पता चलता है कि ये डायनासोर अपने खाने के लिए केवल अपने दांत प्रयोग करते थे। अबेलीसौरी डायनासोर के अवशेष केवल दक्षिणी गोलार्द्ध में पाए गए हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि हो सकता है कि उस समय पृथ्वी पर मौजूद विशालकाय मरूस्थल ‘पांगिया’ एक भौगोलिक बाधा बना हो जिससे ये जीव उत्तर की तरफ नहीं आ पाए। ये जीवाश्म ब्यूनस आयर्स के दक्षिणपश्चिम में लगभग 1,800 किलोमीटर की दूरी पर स्थित चुबुत प्रांत में स्थित कोंडोर पहाड़ी पर पाए गए।
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शर्करा के स्तर की निगरानी के लिए रंग बदलने वाले कॉन्टैक्ट लेंस
लंदन। वैज्ञानिकों ने एक रंग बदलने वाला कॉन्टैक्ट लेंस ईजाद किया है जो आपकी आंसू में शर्करा के सही मात्रा का पता लगा सकता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इससे शर्करा का स्तर जानने के लिए बार-बार खून निकालकर की जाने वाली जांच से छुटकारा मिल जाएगा। ओहियो की अकरोन विश्वविद्यालय की एक टीम द्वारा बनाए गए यह लेंस शर्करा की पहचान कर सकते हैं और पलक झपकते ही सूचना दे सकते हैं। अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि अगर शर्करा का पाचन सही तरीके से नहीं हो रहा है और शरीर में उसकी मात्रा जमा हो रही है तो लेंस अपना रंग बदल लेंगे। ‘डेली मेल’ की खबर के अनुसार, प्रमुख अनुसंधानकर्ता डॉक्टर जून हू का कहना है, ‘यह स्कूल में उपयोग होने वाले पीएच पेपर की तरह काम करता है। उनका कहना है, शर्करा के अणु लिटमस परीक्षण के दौरान प्रोटॉन की तरह ही काम करते हैं । जिसके कारण लेंस अपना रंग बदल लेते हैं।
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अब मशीन कराएगी डॉल्फिन से आपकी बात
वाशिंगटन। वैज्ञानिकों ने एक ऐसी नई डॉल्फिन स्पीकर मशीन विकसित की है, जिसके जरिए आप इन समझदार डॉल्फिनों से बात कर सकते हैं। दरअसल डॉल्फिन ध्वनि के एक ऐसे माहौल में रहती है, जो हमारे आसपास की ध्वनियों से काफी अलग है। वे ध्वनि तरंगों के उतार चढ़ावों में बारीक अंतर को भी पहचान सकती हैं और सुन भी सकती हैं। इन डॉल्फिनों की अपनी आवाजें बहुत कम आवृति (20 किलोहर्टज से भी कम) की भी हो सकती हैं और बहुत ज्यादा आवृति (150 किलोहर्टज से भी ज्यादा) की भी। ये आवृतियां इंसान के सुनने की क्षमता से काफी अलग हैं। इसके अलावा डॉल्फिनें आपस में बातचीत के लिए, आसपास का माहौल जांचने के लिए और अंधेरे समुद्र में शिकार करने के लिए कुछ विशेष ध्वनियां भी निकालती हैं। डॉल्फिनों से जुड़े श्रवण सम्बंधी शोधों का मुख्य फोकस डॉल्फिनों की आवाजों और उनकी सुनने की क्षमताओं को रिकॉर्ड करने पर रहता है। कुछ ऐसे प्रयोग किए जा चुके हैं लेकिन ऐसे स्पीकर मिलना काफी मुश्किल है जो कि बहुत कम आवृति से लेकर बहुत अधिक आवृति तक की एक बड़ी रेंज पर काम कर सके, जैसा कि डॉल्फिनें करती हैं। अब जापान के वैज्ञानिकों ने एक प्रोटोटाइप डॉल्फिन मशीन का विकास किया है जो कि इन जीवों की आवाजों की पूरी रेंज पर काम कर सके। टोक्यो जलीय विज्ञान और तकनीक विश्वविद्यालय के प्रमुख शोधकर्ता यूका मिशिमा ने लाइव साइंस को बताया कि मैं खुश हूं अगर हम इन डॉल्फिन स्पीकरों की मदद से डॉल्फिनों से बात कर सकें। इन डॉल्फिन स्पीकरों का परीक्षण अभी नहीं हुआ है। मिशिमा और उनके साथी कुछ वैज्ञानिकों के साथ मिलकर इन स्पीकरों पर काम करने की योजना बना रहे हैं। हांग कांग में हुई अकोस्टिकल सोसाइटी आॅफ अमेरिका की बैठक में शोधकर्ताओं ने बताया कि इस मशीन का उद्देश्य है कि कुछ आवाजों की श्रेणियां संप्रेषित की जाएं फिर वापस आई ध्वनियों को रिकॉर्ड किया जाए। इससे यह पता लगाया जा सकेगा कि डॉल्फिनें आखिर कहती क्या हैं? इससे मानव और डॉल्फिन के बीच संवाद भी संभव होगा। सारासोता के न्यू कॉलेज आॅफ फ्लोरिडा के हेइदी हर्ले, जो कि इस शोध में शामिल नहीं थे, उनका कहना है, हम लोग इसके बारे में बहुत कम जानते हैं कि डॉल्फिनें अपनी खुद की आवाजों में भेद कैसे करती हैं? इस पर हमें और अध्ययन करने की जरूरत है। इस अध्ययन में यह मशीन मददगार हो सकती है। यह मशीन मानव और डॉल्फिन के बीच अनुवादक मशीन बनेगी कि नहीं, इस बात पर हर्ले का मानना है कि इतने बड़े दावे करने से पहले अभी बहुत से बोधात्मक और श्रवणात्मक विश्लेषण करने की जरूरत है।
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अच्छी नींद क्यों जरूरी है...
लंदन। आपने कभी सोचा कि अच्छी नींद लेने के बाद आप खुद को तरोताजा क्यों महसूस करते हैं? वैज्ञानिकों की माने तो ऐसा होने की वजह यह है कि सोते समय दिमाग अधिक जानकारियां ग्रहण करने के लिए खुद को तैयार करता है। ‘यूनिवर्सिटी विसकॉनसिन मेडिसन’ के शोधकर्ताओं के मुताबिक जब व्यक्ति को अच्छी नींद नहीं आती तो उसका दिमाग नई और अधिक सूचनाओं को ग्रहण नहीं कर पाता। इस स्थिति में व्यक्ति चिड़चिड़ा और अक्षम महसूस करता है। समाचार पत्र ‘डेली मेल’ के मुताबिक मनोचिकित्सक गिउलियो टोनोनी ने कहा कि नींद के समय दिमाग की गतिविधियां मजबूत हो जाती हैं और यह इस बात का संकेत है कि मस्तिष्क अनावश्यक बातों को बाहर निकाल देता है। उन्होंने कहा कि नींद के जरिए आप इस बात के लिए एक कीमत अदा करते हैं कि अगले दिन आपका दिमाग तरोताजा होगा, जिसमें बहुत कुछ नया ग्रहण किया जा सकेगा। टोनोनी ने कहा कि अभी इस बात को लेकर कोई सहमति नहीं बनी है कि जानवरों को नींद लेने की जरूरत क्यों पड़ती है। अभी इसको लेकर कुछ अलग निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।
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मादा ओरंगउटान में होती है विलंब से जवान होने की रहस्यमय शक्ति
लंदन। मादा सुमात्राई ओरंगउटान में जवानी की दहलीज पर कदम रखने की उम्र बढ़ाने की अद्भुत शक्ति होती है। वह 10 साल तक जवानी की दहलीज पर कदम रखने से परहेज करती हैं और तब तक वह इतना शक्तिशाली हो जाती हैं कि नर ओरंगउटान की धौंसपट्टियों का सामना कर सकें। तकरीबन 15 साल की उम्र तक नर ओरंगउटान प्रजनन के लिए तैयार होता है, लेकिन अब भी उसे मादा ओरंगउटान को आकर्षित करने के लिए मांसपेशियां विकसित करना होता है। यूनिवसिर्टी आफ साउथ फ्लोरिडा की अनुसंधानकर्ता गौरी प्रधान के नेतृत्व में अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप की मादा ओरंगउटान 10 साल तक जवानी टाल सकती हैं। यह चीज अन्य वानर जाति में नहीं देखी जाती।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 27-05-2012 at 12:37 AM. |
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