06-08-2013, 02:54 AM | #51 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
नन्हीं उम्र, नन्हीं आंखें और उसमें पलने वाले बड़े-बड़े सपने। सपने जितने बड़े थे उससे कहीं बड़े थे उसके हौसले। गाजियाबाद की नौ साल की मासूम हिफ्जा बेग की जिसके कम्प्यूटर जैसे तेज दिमाग ने उसे न सिर्फ राष्ट्रपति पुरस्कार दिलाया, बल्कि उसका नाम आज लिम्का बुक आफ रिकार्ड में भी दर्ज है। हिफ्जा की यह उपलब्धि इसलिए भी और बड़ी हो जाती है क्योंकि उसके पिता एक मजदूर हैं, जो जैसे-तैसे हिफ्जा व उसके बड़े भाई राशिद का भरण-पोषण कर रहे हैं। हिफ्जा जब मात्र पांच साल की थी उस समय वह गांव के ही सरकारी पाठशाला में पढ़ाई कर रही थी। लेकिन उसका ज्ञान अपनी उम्र व साथ के बच्चों से कहीं आगे था। वह भारत के सभी प्रांतों के मुख्यमंत्री व राज्यपाल के नाम पलक झपकते में बता देती। इतना ही नहीं धीरे-धीरे उसे विश्व के तमाम देशों के राष्ट्रपति व उनकी राजधानी के नाम भी कंठस्थ हो गए। यहां तक कि लाखों की गणना भी बिना कैलकुलेटर व कागज पेन के हिफ्जा चुटकियों में कर दिखाती। हिफ्जा के पिता कज्जाफी बेग, जो मजदूरी कर परिवार का गुजारा करते हैं, को लगा कि उनकी बेटी अन्य बच्चों से कुछ आगे है। लेकिन परिवार की आर्थिक हालत ऐसी नहीं थी कि वो बच्ची को किसी अच्छे प्रतिष्ठित स्कूल में शिक्षा दिला पाते। ऐसे में उन्होंने जिला प्रशासनिक कार्यालयों व मीडिया में सम्पर्क कर अपनी बच्ची की प्रतिभा के बारे में बताया जो उसकी प्रतिभा को देखता तो दांतो तले उंगली दबा लेता था। बस, यहीं से हिफ्जा व उसके पिता की मेहनत रंग लाई और हिफ्जा की प्रतिभा को पहचान मिलने लगी। पिछले साल बाल दिवस पर हिफ्जा को राष्ट्रीय बाल पुरस्कार से सम्मानित किया। इसके अलावा प्रदेश के राज्यपाल और मुख्यमंत्री भी उसे सम्मानित कर चुके हैं। प्रतिभा के बलबूते ही आज हिफ्जा डासना स्थित एक प्रतिष्ठित इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ाई कर रही है। अपनी प्रखर बुद्धि व याददाश्त से लोगों को हक्का-बक्का कर देने वाली हिफ्जा ने लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड के लिए भी आवेदन किया, जिसमें वह अवार्ड की कसौटी पर खरी उतरी और वर्ष 2012 में उसका नाम इस रिकार्ड के लिए दर्ज कर लिया गया। वह बड़े होकर आइएएस बनकर देश की सेवा करना चाहती है। उसकी गरीबी के दिन भले ही गुजर गए हों लेकिन उस मुफलिसी का दर्द आज भी उसके दिल में जिंदा है। इसलिए वह कहती है कि जब कोई बच्चा पैसे की कमी के कारण अपना मनपसंद काम व पढ़ाई नहीं कर पाता तो उसे बहुत दुख होता है। इसलिए यदि वह आईएएस अधिकारी बन गई तो इस तरह के बच्चों की विशेष रूप से मदद करेगी।
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06-08-2013, 02:57 AM | #52 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
इंद्रा-सुनीता, नई दिल्ली
कैंसर को मात देकर फिर से जिंदगी को नए रूप में जीने वाली इंद्रा और सुनीता ने नई मिसाल कायम की है। आज ये दोनों कैंसर पीड़ितों की सहायता करती हैं।
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06-08-2013, 02:58 AM | #53 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
बनीं कैंसर मरीजों की ‘देवदूत’
हिम्मत रखने वालों की कभी हार नहीं होती। यह बात कैंसर से निजात पा चुकी इंद्रा जसूजा और सुनीता अरोड़ा पर पूरी तरह लागू होती है। कुछ सालों पहले कैंसर को मात देने के बाद आज इंद्रा और सुनीता लोगों को कैंसर के प्रति जागरूक कर रही हैं, ताकि उनकी तरह बाकी लोग भी कैंसर से बच सकें। स्कूल्स, कॉलेज तथा अस्पतालों में जाकर कैंसर अवेयरनेस के लिए काम करने वाली इंद्रा कैं सर होने से पहले ही इस काम से जुड़ चुकी थीं। बाद में इलाज के दौरान सुनीता उनके सम्पर्क में आर्इं। उस समय सुनीता ने कैंसर के बारे में काफी लिटरेचर भी पढ़ा और वह भी कैंसर पीड़ितों की मदद के बारे में सोच रही थीं। ऐसे में सुनीता इंद्रा के साथ जुड़ गर्इं और दोनों ने स्कू ल्स और अस्पतालों में जाकर काम करना, प्रशिक्षण लेना तथा कैंसर पीड़ितों की हौसला अफजाई करना शुरू कर दिया। कैंसर पीड़ितों के प्रति दया भावना भले ही खुद पीड़ा झेलने के बाद आई हो, पर इंद्रा पहले से ही एक मेंटल हॉस्पिटल में कार्यरत थीं। पहले वह किसी संस्था से जुड़ना नहीं चाहती थीं, इसलिए उन्होंने मानसिक रोगियों की देखभाल तथा उनकी काउंसलिंग का काम किया था। उन्होंने बाकायदा मेडिकल साइकोलॉजी में नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ न्यूरो साइंसेस, बेंगलूरु से कोर्स किया था। वहीं, सुनीता दिल्ली प्रशासन में स्कूल शिक्षिका थी और उन्हें लोगों का सहयोग करने में संतुष्टि मिलती थी। ऐसे में उन्होंने इस बीमारी से उबरने के बाद लोगों की मदद करना शुरू कर दिया। सुनीता का कहना है कि इस बीमारी में कीमोथैरेपी के बाद मरीज में बहुत कमजोरी आ जाती है, तब वह अपने आपको असहाय महसूस करने लगता है। उस समय उसे शारीरिक और मानसिक सम्बल भी चाहिए होता है। इस दर्द को इलाज की प्रक्रिया से गुजर चुका इंसान ही समझ सकता है। सुनीता लोगों की भावनाओं को समझते हुए यह करने की कोशिश करती हैं। छह साल पहले पति की मृत्यु के बाद से इंद्रा अकेली रहती हैं, पर उन्होंने खुद पर अकेलापन हावी नहीं होने दिया। वह हमेशा कैंसर पीड़ितों की सेवा में लगी रहती हैं। कहीं जागरुकता संदेश तो कहीं पर इनकी नि:स्वार्थ सेवा, कहीं जांच शिविर तो कहीं आॅपरेशन में सहयोग करने में व्यस्त रहती हैं। इंद्रा का कहना है कि 12 साल पहले मुझे कैंसर हो गाया था। कैंसर के प्रति जागरूक होने के कारण मैंने शुरू में ही डॉक्टर को दिखाया और आॅपरेशन करवाया, जिससे मुझे कैंसर से निजात मिल गई। वहीं, सुनीता को छह साल पहले पता चला कि उन्हें कैंसर है। उन्होंने भी सकारात्मक सोच के साथ इलाज करवाया और ठीक हो गर्इं।
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06-08-2013, 03:08 AM | #54 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
वीरेंद्र सिंह
न सुन सकते न बोल सकते हैं पर ताकत इतनी की किसी को भी पटकनी दे दें। पिता को देख पहलवानी का शौक ऐसा लगा की वीरेंद्र रजत और कांस्य पदक समेत कई पुरस्कार जीत चुके हैं।
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06-08-2013, 03:09 AM | #55 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
कुछ अलग ही है देश का यह पहलवान
गूंगा पहलवान के नाम से पहचाने जाने वाले वीरेंद्र सुबह 5.30 बजे छत्रसाल स्टेडियम के अखाड़े में अपने प्रतिद्वंद्वी को कभी पटखनी देते हैं तो कभी धोबी पछाड़। अब आप कहेंगे कि अगर वीरेंद्र पहलवान हैं तो जाहिर है कि अखाड़े में वो ये सब करते ही नजर आएंगे, लेकिन वीरेंद्र बाकी पहलवानों से जरा अलग हैं क्योंकि वह सुन बोल नहीं सकते। लेकिन गूंगा पहलवान ने अपनी इस अक्षमता को कभी अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया और मेहनत से विश्व स्तरीय खिलाड़ी बने। वीरेंद्र उर्फ गूंगा वर्ष 2005 मेलबोर्न डेफलंपिक्स में स्वर्ण पदकऔर वर्ष 2009 तायपेई डेफलंपिक्स में कांस्य पदक जीत चुके हैं। इसके अलावा वर्ष 2008 और 2012 वर्ल्ड डेफ रेसलिंग चैंपियनशिप (बधिरों की विश्व कुश्ती चैंपियनशिप) में भी वीरेंद्र रजत और कांस्य पदक जीत चुके हैं। गूंगा पहलवान बताते हैं कि उनके पिता की पहल पर उन्होंने पहलवानी की शुरूआत की। बचपन में वह अपने घर के आंगन में बैठे हुए थ। तभी जब बाहर से आए हुए उनके रिश्तेदार ने देखा कि उन्हें पैर में दाद हुआ है। उसी का इलाज कराने वो उन्हें दिल्ली ले आए जहां से उनकी कुश्ती की शुरुआत हुई। हालांकि वीरेंद्र खुद कहते हैं कि उन्हें पहलवानी का शौक घर के पास वाले अखाड़े से लगा जहां उनके पिता अजित सिंह भी पहलवानी करते थे। वर्ष 2002 में गूंगा ने दंगल लड़ने शुरू किए और फिर आगे बढ़ते-बढ़ते कई अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कामयाबी हासिल की। लेकिन इतनी बड़ी उपलब्धियों के बावजूद इन्हें अब तक सरकार से ज्यादा कुछ नहीं मिला। तब हताश और निराश वीरेंद्र को उनके पिता वर्ष 2011 में दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम ले आए। यहां कोच रामफल मान ने उन्हें ट्रेनिंग देनी शुरु की। रामफल कहते हैं कि वीरेंद्र बहुत अनुशासित पहलवान हैं और मैं तो कहता हूं कि आम पहलवानों के मुक ाबले इसमें ज्यादा दिमाग है। ये कामयाबी पाने के लिए अतिरिक्त प्रयास करते हैं। गूंगा अब 2013 बुलगारिया डेफलंपिक्स में हिस्सा लेने सोफि या जा रहे हैं जहां वो 74 किलोग्राम की श्रेणी में अपनी क्षमता का लोहा मनवाएंगे। खेल नीति में बदलाव के तहत अगर गूंगा मैडल जीतते हैं तो उन्हें दूसरे खिलाड़ियों के बराबर ही पैसा मिलेगा। वो कहते हैं कि मैं खुश तो हूं लेकिन दबाव में भी हूं क्योंकि पापा को मुझे लेकर काफी अरमान हैं। लेकिन मुझे खुद पर भरोसा है और मैं जीतकर ही आऊंगा। हालांकि गूंगा की जिंदगी पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बन रही है जिसका नाम है गूंगा पहलवान। इस फिल्म का निर्देशन कर रहे हैं विवेक चौधरी, मीत जानी और प्रतीक गुप्ता।
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26-08-2014, 03:31 PM | #56 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
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