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Old 01-12-2012, 08:28 AM   #51
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जैसे पत्थर की शिला घनरूप होती है, तैसे ही आत्मतत्त्व चैतन्यघन है | जैसे आकाश और शून्यता में कुछ भेद नहीं, तैसे ही ब्रह्म और जगत् में कुछ भेद नहीं | सब कल्पना परब्रह्मरूप है और ब्रह्म ही कल्पना रूप है | इस जड़ और चैतन्य में कुछ भेद नहीं | हे राजन्! जिसको जगत् शब्द से कहते हो वह ब्रह्मसत्ता ही है | न कुछ उत्पन्न हुआ है और न प्रलय होता है-सर्व ब्रह्म ही है | जैसे पहाड़ में पत्थर से इतर कुछ नहीं होता, तैसे ही यह जगत् ब्रह्मसत्ता से इतर कुछ नहीं | जैसे पाषाण की पुतली पाषाणरूप ही है, तैसे ही जगत् ब्रह्मरूप ही है एक सूक्ष्म अनुभव अणु से अनेक अणु होते हैं, जैसे एक पहाड़ से अनेक शिला होती है | हे राजन्! जो ज्ञानवान् पुरुष हैं उनको जगत् भासता है और जो अज्ञानी हैं उनको नाना प्रकार हो भासता है | जगत् कुछ वस्तु नहीं है परन्तु जबतक संकल्प है तब तक जगत् फुरता है | जैसे रत्नों का चमत्कार होता है, तैसे ही जगत् आत्मा का चमत्कार है और चैतन्य आत्मा के आश्रय अनन्त सृष्टियाँ फुरती हैं सो सृष्टि सब आत्मरूप हैं आत्मा से भिन्न कुछ वस्तु नहीं | जो जाग्रत पुरुष ज्ञानवान् हैं उनको ब्रह्मरूप ही भासता है और जो अज्ञानी हैं उनको नाना प्रकार का जगत् भासता है | हे राजन्! कई एक इसको शून्य कहते हैं कि शून्य ही है और कुछ नहीं, कई इसको जगत् कहते हैं और कई ब्रह्म कहते हैं |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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Old 01-12-2012, 08:28 AM   #52
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जैसा किसी को निश्चय होता है उसको वही रूप भासता है | आत्मरूपी चिन्ता मणि है जैसा जैसा संकल्प उसमें फुरता है तैसा तैसा ही भासता है | सबका अधिष्ठान ब्रह्मसत्ता है जैसा जैसा उसमें निश्चय होता है तैसा ही तैसा होकर भासता है और दृष्टा, दर्शन, दृश्य-त्रिपुटी जो भासती है सो भी ब्रह्म होकर भासती है द्वितीय कुछ वस्तु नहीं और जो कुछ जगत् भासता है वही अज्ञान है | हे राजन्! जबतक वासना नष्ट नहीं होती तबतक दुःख भी नहीं मिटते और जब वासना मिट जावे- तब सर्व जगत् ब्रह्मरूप अपना आप ही भासे और रागद्वेष किसी में नहीं रहे | जैसे स्वप्न में नाना प्रकार की सृष्टि भासती हैं जब पूर्व का स्वरूप स्मरण आता है तो सर्वरूप आप हो जाता है और रागद्वेष मिट जाता है, तैसे ही ज्ञानवान् को यह जगत् ब्रह्मरूप अपना आप भासता है और विकार से रहित होता है |
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Old 01-12-2012, 08:29 AM   #53
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पूर्व, अपूर्व और अपर को विचारना कि यह शुभ है और यह अशुभ है, अशुभ को त्याग करना यह गौण विचार है | जबतक पूर्वापर मन में रहता है तबतक जगत् में भटकता है और बाँधा रहता है, क्योंकि शुभ-अशुभ दोनों जगत् में है जब इनका विस्मरण हो जावे और सम्पूर्ण जगत् को भ्रममात्र जानकर आत्मपद में सावधान हो तब मुक्त होता है | इस जीव को अपनी वासना ही बन्धन का कारण है | जब तक जगत् में वासना होती है तबतक रागद्वेष उपजता है और उससे बँधा रहता है | जिनको जगत् के सुख दुःख में रागद्वेष की भावना नहीं उपजती और जिनकी वासना भी नष्ट होती है उनको यह जगत् ब्रह्मरूप अपना आप ही भासता है और जगत् में दुःखदायक कुछ नहीं भासता | उनको सब ब्रह्म ही भासता है |
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Old 01-12-2012, 08:29 AM   #54
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दशरथजी ने विपश्चित् से पूछा, हे भास, तुम चिरकाल पर्यन्त जगत् में फिरते रहे हो जिस प्रकार तुमने चेष्टा की है और जो देश, काल, पदार्थ देखे हैं सो सब ही कहो | भास बोले, हे राजन्! मैं जगत् को देखता फिरा हूँ और फिरता थक गया हूँ परन्तु देखने की जो इच्छा थी इस कारण मुझको दुःख नहीं हुआ है | जो कुछ मैंने चेष्टा की है और जो देखा है सो कहता हूँ | हे राजन्! मैंने बहुत जन्म धारे हैं , और बहुत बार मृतक हुआ हूँ; बहुत बेर शाप पाया है, ऊँच नीच जन्म धारे हैं और मर मर गया हूँ और बहुत ब्रह्माण्ड देखे हैं परन्तु यह सब अग्नि देवता के वर से देखे हैं | एक बार मैं वृक्ष हुआ और सहस्त्र वर्ष पर्यन्त फूल, फल, टास, संयुक्त रहा | जब कोई काटे तब मैं दुःखी होऊँ और मेरे हृदय में पीड़ा होवे |
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Old 01-12-2012, 08:29 AM   #55
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फिर वहाँ से शरीर छूटा तब मैं सुमेरु पर्वत पर सुवर्ण का कमल हुआ और वहाँ का जलपान किया | फिर एक देश में पक्षी हुआ और सौ वर्ष पक्षी रहकर फिर सियार हुआ और मुझे हस्ती ने चूर्ण किया इससे मृतक होकर फिर सुमेरु पर्वत पर सुन्दर मृग हुआ और देवता और विद्याधर मेरे साथ प्रीति करने लगे | कुछ काल में मरकर फिर देवताओं के वन में मञ्जरी हुआ और वहाँ देवियाँ और विद्याधरियाँ मुझको स्पर्श करें और सुगन्ध लें तब मैं देवताओं की स्त्री हुआ, फिर सिद्ध हुआ और मेरा वचन फुरने लगा, फिर मैंने और शरीर धारा और एक ब्रह्माण्ड लाँघ गया | इसी प्रकार कई ब्रह्माण्ड मैं लाँघ गया तब एक ब्रह्माण्ड में जो आश्चर्य देखा है सो सुनो | वहाँ मैंने एक स्त्री देखी जिसके शरीर में कई ब्रह्माण्ड थे | इससे मैं आश्चर्यवान् हुआ और देश काल क्रिया से पूर्ण कई त्रिलोकी देखीं |
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Old 01-12-2012, 08:30 AM   #56
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जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब दृष्टि आता है, तैसे ही मुझको उसमें जगत् भासे | तब मैंने उससे कहा, हे देवि! तुम कौन हो और यह तेरे शरीर में क्या है? देवी बोली, हे साधो! मैं शुद्ध चित््शक्ति हूँ और यह सब मेरे अंग मेरे में स्थित है | मेरी क्या बात पूछनी है-यह सब जगत् जो तू देखता है चिद्रूप है, चैतन्य से भिन्न और कुछ नहीं और सबमें ब्रह्माण्ड (त्रिलोकी) स्थित है जो अपना आप ही है | जो अपने स्वभाव में स्थित हैं उनको अपने ही में ये भासते हैं और जो स्वरूप में स्थित नहीं हैं उनको जगत् बाहर और आपसे भिन्न भासते हैं | हे राजन्! यह जगत् कुछ बना नहीं | जैसे स्वप्न की सृष्टि और गन्धर्वनगर भासता है, तैसे ही आत्मा में जगत् भासता है और जैसे जल में तरंग भासता है सो जलरूप है-तरंग कुछ भिन्न वस्तु नहीं होते, तैसे ही सब जगत् चिद्रूप में भासता है सो चैतन्य से भिन्न कुछ नहीं परन्तु जब स्वभाव में स्थित होकर देखोगे तब ऐसे ही भासेगा और जो अज्ञानदृष्टि से देखोगे तो नाना प्रकार का जगत् दृष्टि आवेगा |
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Old 01-12-2012, 08:30 AM   #57
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हे राजन्, दशरथ! जब इस प्रकार उस देवी ने मुझसे कहा तब मैं वहाँ से चला और आगे दूसरी सृष्टि में गया तो देखा कि वहाँ सब पुरुष ही रहते हैं, स्त्री कोई नहीं और पुरुष से पुरुष उत्पन्न होते हैं | उससे भी आगे और सृष्टि में गया तो वहाँ न सूर्य था, न चन्द्रमा था, न तारे थे, न अग्नि थी, न दिन था और न रात्रि थी | जैसे चन्द्रमा, सूर्य और तारों का प्रकाश होता है, तैसे ही सब अपने प्रकाश से प्रकाशते थे | उनको देखकर मैं आगे और सृष्टि में गया तो वहाँ क्या देखा कि आकाश ही से जीव उत्पन्न होकर आकाश ही में लीन होते हैं और इकट्ठे ही सब उपजते और इकट्ठे ही सब लीन हो जाते हैं, न वहाँ मनुष्य हैं, न देवता हैं, न वेद हैं, न शास्त्र हैं, न जगत् है-इनसे विलक्षण ही प्रकार है | हे राजन्! इस प्रकार मैंने कई सृष्टियाँ देखी हैं जो मुझको स्मरण आती हैं |
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Old 01-12-2012, 08:30 AM   #58
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आगे और सृष्टि में गया तो वहाँ क्या देखा कि सब जीव एक ही समान हैं न किसी को रोग है और न किसी को दुःख है-सब एक से गंगा के तीर पर बैठे हैं | हे राजन्! एक और आश्चर्य मैंने देखा है सो भी सुनो | एक सृष्टि में मैं गया तो वहाँ क्षीरसमुद्र मन्दराचल से मथा जाता था | एक ओर विष्णु भगवान् और देवता थे और मन्दराचल पर्वत रत्नों से जड़ा हुआ शेषनाग से रस्सी की नाईं लिपटा हुआ था, मथने के निमित्त दूसरी ओर दैत्य लगे थे बड़ा सुन्दर शब्द होता था | वहाँ वह कौतुक देखकर मैं आगे गया तो एक और सृष्टि देखी जहाँ मनुष्य आकाश में उड़ते फिरते थे और देवता की नाईं पृथ्वी पर बिचरते और वेदशास्त्र जानते थे | हे राजन्! एक और आश्चर्य मैंने देखा सो भी सुनो एक सृष्टि में मैं जा निकला तो वहाँ मन्दराचल पर्वत पर कल्पतरु का बन था और उसमें मदनका नाम एक अप्सरा रहती थी |
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Old 01-12-2012, 08:30 AM   #59
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वहाँ जाकर मैं सो रहा तो ज्यों ही रात्रि का समय आया कि वह अप्सरा मेरे कण्ठ में आ लगी तब मैंने जागकर उसको देखा और कहा कि हे सुन्दरी! तूने मुझको किस निमित्त जगाया? मैं तो सुख से सो रहा था | तब उस अप्सरा ने कहा कि हे राजन्! मैंने इस निमित्त तुझको जगाया है कि चन्द्रमा उदय हुआ है और चन्द्रकान्तमणि चन्द्रमा को देखकर स्रवेगी और नदी की नाईं प्रवाह चलेगा, ऐसा न हो कि उसमें तू बह जावे | हे राजन्, दशरथ! इस प्रकार उसने कहा ही था कि नदी का प्रवाह चलने लगा | तब वह अप्सरा उस प्रवाह को देखकर मुझे आकाश को ले उड़ी- और पर्वत के ऊपर जहाँ गंगा का प्रवाह चलता था उसके तट पर मुझको स्थित किया | सात वर्ष पर्यन्त मैं वहाँ रहकर फिर एक और ब्रह्माण्ड में गया तो देखा कि वहाँ तारा नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य कुछ भी न थे | उसको देखकर मैं और आगे गया | इसी प्रकार अनन्त ब्रह्माण्ड मैंने देखे! हे राजन्! ऐसा देश व ऐसी पृथ्वी, नदी और पहाड़ कोई न होगा जिसको मैंने न देखा हो और ऐसी चेष्टा कोई न होगी जो मैंने न की हो
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Old 01-12-2012, 08:30 AM   #60
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कई शरीरों के मैंने सुख भोगे हैं, कितनों के दुःख भोगे हैं और बन, कन्दरा और गुप्त स्थानों में फिरकर सब देखा परन्तु अग्नि देवता के वर को पाकर फिरता-फिरता मैं थक गया तो भी आगे ही चला गया और अनेक अविद्यक ब्रह्माण्ड भी देखे परन्तु अब उनका अन्त आया है कि यह जगत् भ्रममात्र है | मैंने शास्त्रों में सुना है कि यह जगत् है नहीं तो भी दुःख देता है | जैसे बालक को अपनी परछाहीं में वैताल भासता है, तैसे ही यह जगत् अविचार से भासता है और विचार किये से निवृत्त हो जाता है | एक आश्चर्य और सुनो कि एक ब्रह्माण्ड में मैं गया तो वहाँ महाआकाश था | उस महाआकाश से गिरकर मैं पृथ्वी पर आन पड़ा और वहा सो गया तब मैं महागाढ़ सुषुप्तिरूप हो गया और सब जगत् का मुझे विस्मरण हो गया जब वह गाढ़ सुषुप्ति क्षीण हुई तब एक स्वप्ना आया और उसमें तुम्हारा यह जगत् मुझको भासि आया | उसमें मुझको पहाड़, कन्दरा, देश और बहुत से गुप्त, प्रकट स्थान भासि आये | जहाँ केवल सिद्धों की गम थी वहाँ भी मैं गया और जहाँ सिद्धों की भी गम न थी वहाँ भी मैं गया | इस प्रकार अनेक जगत् मैंने देखे परन्तु आश्चर्य है कि स्वप्ने की सृष्टि प्रत्यक्ष जाग्रत की तरह दृष्टि आती थी और स्वप्ने के शरीर में पड़े भासते थे | इससे सब जगत् भ्रममात्र है और असत्य ही सत्य होकर दिखाई देता है | इस प्रकार देख कर मैं बड़े आश्चर्य में पड़ा हूँ |
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