02-07-2013, 10:47 AM | #51 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
भारतीय वाङ्मय के तपस्वी, साधक, युगद्रष्टा महर्षि विश्वामित्र जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य पर विजय प्राप्त करने वाले वह महान नायक हैं जिनके जीवन चरित्र से प्रेरित होकर किसी भी वस्तु को पाना असंभव प्रतीत नहीं होता, विश्वामित्र जी भारतीय पुराण साहित्य का अद्वितीय चरित्र हैं इन्होंने नरेश रूप में राज्य विस्तार किया साधक के रूप में साधना को पाया राजर्षि पद से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया. इनके च्रित्र के आख्यान अनेक धर्म ग्रंथों में देखे जा सकते हैं रामायण, महाभारत एवं पुराणों आदि अनेक ग्रंथों में विश्वामित्र की कथा का विस्तार पूर्वक उल्लेख प्राप्त होता है, ब्रह्म-गायत्री-मन्त्र के मुख्य द्रष्टा तथा उपदेष्टा महर्षि विश्वामित्र ही हैं उन्हीं के द्वारा गायत्री मन्त्र प्राप्त हुआ है विश्वामित्र जी ने इसके अतिरिक्त अन्य जिन ग्रन्थों का प्रणयन भी किया, विश्वामित्रकल्प, विश्वामित्रसंहिता और ‘विश्वामित्रस्मृति उनके मुख्य ग्रन्थ हैं. |
02-07-2013, 10:49 AM | #52 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
विश्वामित्र जीवन वृतांत
विश्वामित्र का जीवन अनेकों मह्त्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी रहा उनके जीवन से अनेक तथ्य संबंधित रहे जैसे कीविश्वामित्र और वशिष्ठ का नन्दिनी को लेकर संघर्ष जब एक बार युद्ध विजय करके लौटते हुए विश्वामित्र जी मार्ग में वसिष्ठ ऋशि के आश्रम में रहकर उनका आतिथ्य ग्रहण करते हैं और वहां मौजूद कामधेनु से प्रभावित हो उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं परंतु वशिष्ठ जी उन्हें कामधेनु देने से मना कर देते हैं तब विश्वामित्र गाय को बलपूर्वक ले जाने लगते हैं, कामधेनु यह जानकर कि वसिष्ठ की इच्छा के बिना विश्वामित्र उन्हें अपने सैन्यबल से ले जाने का प्रयास कर रहे हैं तो वह वसिष्ठ से आज्ञा प्राप्त करके विश्वामित्र की सारी सेना को परास्त कर देती है. विश्वामित्र के सौ पुत्र भी वसिष्ठ से युद्ध करने के लिए आगे आते हैं जिन्हें वसिष्ठ भस्म कर देते हैं परास्त एवं लज्जित होकर विश्वामित्र ने अपने एक पुत्र को राज्य सौंपा कर भगवान शिव जी की तपस्या में लीन हो जाते हैं शिव उन्हें समस्त विद्या तथा शस्त्र का आशीर्वाद देते हैं और वह इन सब का उपयोग ऋषि वसिष्ठ को परास्त करने के लिए करते हैं परंतु ऋषि वशिष्ठ के समक्ष विश्वामित्र का क्षात्रबल परास्त हो जाता है गया और वह ब्राह्मणत्व की प्राप्ति के लिए तपस्या करने चले जाते हैं. ब्रह्मा जी उन्हें ब्राह्मण की उपाधि देते हैं परंतु विश्वामित्र उनसे कहते हैं कि अपनी तपस्या को मैं तभी सफल मानूंगा जब वशिष्ठ जी मुझे ब्राह्मण एवं ब्रह्मर्षि मान लेंगे अत: विश्वामित्र के कथन को देवताओं ने वशिष्ठ जी के समक्ष कहा उनकी तपस्या की कथा सुनकर वशिष्ठ जी विश्वामित्र के पास जाकर उन्हें ब्रह्मर्षि व ब्राह्मण स्वीकारते हैं. इसी प्रकार विश्वामित्र का राम को लेकर वन में राक्षसों के वध की भूमिका तैयार करना और विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा और विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजना जैसी अनेक कथाएं प्रचलित हैं. |
02-07-2013, 10:50 AM | #53 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
विश्वामित्र का क्षत्रिय स्वरुप
राम से मिथिला के राजपुरोहित शतानन्द जी विशेष रूप से प्रभावित हुये। शतानन्द जी ने कहा, "हे राम! आप बड़े सौभाग्यशाली हैं कि आपको विश्वामित्र जी गुरु के रूप में प्राप्त हुये हैं। वे बड़े ही प्रतापी और तेजस्वी महापुरुष हैं। ब्राह्मणत्व की प्राप्ति के पूर्व ऋषि विश्वामित्र बड़े पराक्रमी और प्रजावत्सल नरेश थे। प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे। ये सभी शूरवीर, पराक्रमी और धर्मपरायण थे। विश्वामित्र जी उन्हीं गाधि के पुत्र हैं। एक बार राजा विश्वामित्र अपनी सेना के साथ वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में गये। चूँकि उस समय वशिष्ठ जी ईश्वरभक्ति में लीन होकर यज्ञ कर रहे थे, विश्वामित्र जी उन्हें प्रणाम करके वहीं बैठ गये। यज्ञ क्रिया से निवृत होने पर वशिष्ठ जी ने विश्वामित्र जी का बहुत आदर सत्कार किया और उनसे कुछ दिन आश्रम में ही रह कर आतिथ्य ग्रहण करने का अनुरोध किया। इस पर यह सोच कर कि मेरे साथ विशाल सेना है और सेना सहित मेरा आतिथ्य करने में वशिष्ठ जी को कष्ट होगा, विश्वामित्र जी ने नम्रता पूर्वक विदा होने की अनुमति माँगी। किन्तु वशिष्ठ जी के अत्यधिक अनुरोध करने पर थोड़े दिनों के लिये राजा विश्वामित्र को उनका आतिथ्य स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ा। "राजा विश्वामित्र के आतिथ्य स्वीकार कर लेने पर वशिष्ठ जी ने कामधेनु गौ का आह्वान किया और उससे विश्वामित्र तथा उनकी सेना के लिये छः प्रकार के व्यंजन तथा समस्त प्रकार की सुविधाओं की व्यवस्था करने की प्रार्थना की। उनकी इस प्रार्थना को स्वीकार करके कामधेनु गौ ने सारी व्यवस्था कर दिया। वशिष्ठ जी के अतिथि सत्कार से राजा विश्वामित्र और उनके साथ आये सभी लोग बहुत प्रसन्न हुये। "कामधेनु गौ का चमत्कार देखकर विश्वामित्र के मन में उस गौ को प्राप्त कर लेने की इच्छा जागृत हुई और उन्होंने वशिष्ठ जी से कहा कि ऋषिश्रेष्ठ! कामधेनु जैसी गौ तो किसी वनवासी के पास नहीं वरन राजा महाराजाओं के पास ही शोभा देती है। अतः आप इसे मुझे दे दीजिये। इसके बदले में मैं आपको सहस्त्रों स्वर्ण मुद्रायें दे सकता हूँ। इस पर वशिष्ठ जी बोले कि राजन! यह गौ ही मेरा जीवन है और इसे मैं किसी भी कीमत पर किसी को नहीं दे सकता। |
02-07-2013, 10:51 AM | #54 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
"वशिष्ठ जी के इस प्रकार कहने पर विश्वामित्र ने बलात् उस गौ को पकड़ लेने की आज्ञा दे दी और सैनिकगण उस गौ को डण्डे से मार मार कर हाँकने लगे। कामधेनु गौ ने क्रोधित होकर अपना बन्धन छुड़ा लिया और वशिष्ठ जी के पास आकर विलाप करने लगी। वशिष्ठ जी बोले कि हे कामधेनु!मैं इस राजा को शाप भी नहीं दे सकता क्योंकि यह राजा मेरा अतिथि है और इसके पास विशाल सेना होने के कारण इससे युद्ध में भी विजय प्राप्त नहीं कर सकता। मैं अत्यन्त विवश हूँ। वशिष्ठ जी के इन वचनों को सुन कर कामधेनु ने कहा कि हे ब्रह्मर्षि! क्या एक ब्राह्मण के बल के सामने क्षत्रिय का बल कभी श्रेष्ठ हो सकता है? आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं एक क्षण में इस क्षत्रिय राजा को उसकी विशाल सेनासहित नष्ट कर दूँगी। कोई अन्य उपाय न देख कर वशिष्ठ जी ने कामधेनु को अनुमति दे दी।
"आज्ञा पाते ही कामधेनु ने योगबल से अस्त्र-शस्त्र सुसज्जित सैनिकों की एक सेना उत्पन्न कर दी और वह सेना विश्वामित्र की सेना के साथ युद्ध करने लगी। विश्वामित्र जी ने अपने पराक्रम से समस्त पह्नव सेना का विनाश कर डाला। इस पर कामधेनु ने सहस्त्रों शक, हूण, बर्वर, यवन और काम्बोज सैनिक उत्पन्न कर दिया। जब विश्वामित्र ने उन सैनिकों का भी वध कर डाला तो कामधेनु ने मारक शस्त्रास्त्रों से युक्त अत्यंत पराक्रमी योद्धाओं को उत्पन्न किया जिन्होंने शीघ्र ही राजा विश्वामित्र की सेना को गाजर मूली की भाँति काटना आरम्भ कर दिया। अपनी सेना का नाश होते देख विश्वामित्र के सौ पुत्र अत्यन्त कुपित हो वशिष्ठ जी को मारने दौड़े। परिणाम यह हुआ कि वशिष्ठ जी ने उनमें से एक पुत्र को छोड़ कर शेष सभी को भस्म कर दिया। "सेना तथा पुत्रों के नष्ट हो जाने से विश्वामित्र बड़े दुःखी हुये। अपने बचे हुये पुत्र का राजतिलक कर वे तपस्या करने के लिये हिमालय की कन्दराओं में चले गये। वहाँ पर उन्होंने कठोर तपस्या की और महादेव जी को प्रसन्न कर लिया। महादेव जी को प्रसन्न पाकर विश्वामित्र ने उनसे समस्त दिव्य शक्तियों के साथ सम्पूर्ण धनुर्विद्या के ज्ञान का वरदान प्राप्त कर लिया। |
02-07-2013, 10:52 AM | #55 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
"इस प्रकार सम्पूर्ण धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करके विश्वामित्र बदला लेने के लिये वशिष्ठ जी के आश्रम में पहुँचे वशिष्ठ जी को ललकार कर उन पर अग्निबाण चला दिया। अग्निबाण से समस्त आश्रम में आग लग गई और आश्रमवासी भयभीत होकर इधर उधर भागने लगे। वशिष्ठ जी ने भी अपना धनुष संभाल लिया और बोले कि मैं तेरे सामने खड़ा हूँ, तू मुझ पर वार कर। आज मैं तेरे अभिमान को चूर-चूर करके बता दूँगा कि क्षात्र बल से ब्रह्म बल श्रेष्ठ है। क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने एक के बाद एक आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, रुद्रास्त्र, ऐन्द्रास्त्र तथा पाशुपतास्त्र एक साथ छोड़ा जिन्हें वशिष्ठ जी ने अपने मारक अस्त्रों से मार्ग में ही नष्ट कर दिया। इस पर विश्वामित्र ने और भी अधिक क्रोधित होकर मानव, मोहन, गान्धर्व, जूंभण, दारण, वज्र, ब्रह्मपाश, कालपाश, वरुणपाश, पिनाक, दण्ड, पैशाच, क्रौंच, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, वायव्य, मंथन, कंकाल, मूसल, विद्याधर, कालास्त्र आदि सभी अस्त्रों का प्रयोग कर डाला। वशिष्ठ जी ने उन सबको नष्ट करके ब्रह्मास्त्र छोड़ने के लिये जब अपना धनुष उठाया तो सब देव किन्नर आदि भयभीत हो गये। किन्तु वशिष्ठ जी तो उस समय अत्यन्त क्रुद्ध हो रहे थे। उन्होंने ब्रह्मास्त्र छोड़ ही दिया। ब्रह्मास्त्र के भयंकर ज्योति और गगनभेदी नाद से सारा संसार पीड़ा से तड़पने लगा। सब ऋषि-मुनि उनसे प्रार्थना करने लगे कि आपने विश्वामित्र को परास्त कर दिया है। अब आप ब्रह्मास्त्र से उत्पन्न हुई ज्वाला को शान्त करें। इस प्रार्थना से द्रवित होकर उन्होंने ब्रह्मास्त्र को वापस बुलाया और मन्त्रों से उसे शान्त किया।
"पराजित होकर विश्वामित्र मणिहीन सर्प की भाँति पृथ्वी पर बैठ गये और सोचने लगे कि निःसन्देह क्षात्र बल से ब्रह्म बल ही श्रेष्ठ है। अब मैं तपस्या करके ब्राह्मण की पदवी और उसका तेज प्राप्त करूँगा। इस प्रकार विचार करके वे अपनी पत्नीसहित दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। उन्होंने तपस्या करते हुये अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवन-यापन करना आरम्भ कर दिया। उनकी तपस्या से प्रन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें राजर्षि का पद प्रदान किया। इस पद को प्राप्त करके भी, यह सोचकर कि ब्रह्मा जी ने मुझे केवल राजर्षि का ही पद दिया महर्षि-देवर्षि आदि का नहीँ, वे दुःखी ही हुये। वे विचार करने लगे कि मेरी तपस्या अब भी अपूर्ण है। मुझे एक बार फिर से घोर तपस्या करना चाहिये।" |
02-07-2013, 10:53 AM | #56 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
जब विश्वामित्र ने पाया ब्रह्मऋषि-पद
चारों तरफ ऋषियों के आश्रम थे। हर एक ऋषि की कुटिया फूल के पेड़ों और बेलों से घिरी थी। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपनी सहधर्मिणी अरुंधती से कह रहे थे, देवी! ऋषि विश्वामित्र के यहाँ जाकर जरा-सा नमक माँग लाओ। विस्मित होकर अरुंधती ने कहा- यह कैसी आज्ञा दी आपने? मैं तो कुछ समझ भी नहीं पाई। जिसने मुझे सौ पुत्रों से वंचित किया। कहते-कहते उनका गला भर आया। पुरानी स्मृतियाँ जाग उठीं। उन्होंने आगे कहा- मेरे बेटे ऐसी ही ज्योत्स्ना- शोभित रात्रि में वेद पाठ करते-फिरते थे। मेरे उन सौ पुत्रों को नष्ट कर दिया, आप उसी के आश्रम में लवण-भिक्षा करने के लिए कह रहे हैं? धीरे-धीरे ऋषि के चेहरे पर एक प्रकाश आता गया। अरुंधती और भी चकरा गई। उन्होंने कहा- आपको उनसे प्रेम है तो एक बार 'ब्रह्मर्षि' कह दिया होता। इससे सारा जंजाल मिट जाता और मुझे अपने सौ पुत्रों से हाथ न धोने पड़ते। ऋषि के मुख पर एक अपूर्व आभा दिखाई दी। उन्होंने कहा- आज भी विश्वामित्र क्रोध के मारे ज्ञान-शून्य हैं। उन्होंने निश्चय किया है कि आज भी वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि न कहे तो उनके प्राण ले लेंगे। उधर अपना संकल्प पूरा करने के लिए विश्वामित्र हाथ में तलवार लेकर कुटी से बाहर निकले। उन्होंने वशिष्ठ की सारी बातचीत सुन ली। तलवार की मूँठ पर से हाथ की पकड़ ढीली हो गई। सोचा, आह! क्या कर डाला मैंने! पश्चाताप से हृदय जल उठा। दौड़े-दौंडे गए और वशिष्ठ के चरणों पर गिर पड़े। इधर वशिष्ठ उनके हाथ पकड़कर उठाते हुए बोले - उठो ब्रह्मर्षि, उठो। आज तुमने ब्रह्मर्षि-पद पाया हैं। विश्वामित्र ने कहा - आप मुझे ब्रह्मविद्या-दान दीजिए। वशिष्ठ बोले अनंत देव (शेषनाग) के पास जाओ, वे ही तुम्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देंगे। विश्वामित्र वहाँ जा पहुँचे, जहाँ अनंत देव पृथ्वी को मस्तक पर रखे हुए थे। अनंत देव ने कहा, मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान तभी दे सकता हूँ जब तुम इस पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर सको, जिसे मैं धारण किए हुए हूँ। तपोबल के गर्व से विश्वमित्र ने कहा, आप पृथ्वी को छोड़ दीजिए, मैं उसे धारण कर लूँगा। अनंत देव ने कहा, अच्छा, तो लो, मैं छोड़े देता हूँ। और पृथ्वी घूमते-घूमते गिरने लगी। विश्वामित्र ने कहा, मैं अपनी सारी तपस्या का फल देता हूँ। पृथ्वी! रुक जाओ। फिर भी पृथ्वी स्थिर न हो पाई। अनंत देव ने उच्च स्वर में कहा, विश्वामित्र, पृथ्वी को धारण करने के लिए तुम्हारी तपस्या काफी नहीं है। तुमने कभी साधु-संग किया है? उसका फल अर्पण करो। विश्वामित्र बोले, क्षण भर के लिए वशिष्ठ के साथ रहा हूँ। अनंत देव ने कहा, तो उसी का फल दे दो। विश्वामित्र बोले, अच्छा, उसका फल अर्पित करता हूँ। और धरती स्थिर हो गई। तब विश्वामित्र ने कहा, देव! अब मुझे आज्ञा दें। अनंत देव ने कहा, जिसके क्षण-भर के सत्संग का फल देकर तुम समस्त पृथ्वी को धारण कर सके, उसे छोड़कर मुझसे ब्रह्मज्ञान माँग रहे हो? विश्वामित्र क्रुद्ध हो गए। उन्होंने सोचा, इसका मतलब यह है कि वशिष्ठ मुझे ठग रहे थे। वे वशिष्ठ के पास जा पहुँचे और बोले, आपने मुझे इस तरह क्यों ठगा? वशिष्ठ बोले, अगर मैं उसी समय तुम्हें ब्रह्मज्ञान दे देता तो तुम्हें विश्वास न होता। (श्री अरविंद रचित कथा का सारांश) |
25-07-2013, 10:34 PM | #57 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
असुरों के गुरू शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी का हठ
(वैशम्पायन जी ने जनमेजय को देवताओं और असुरों के मध्य युद्धों एवं कच के संजीवनी विद्या सीखने के बारे में बताया। इसी कथा के मध्य उन्होंने देवयानी और शर्मिष्ठा के कलह की कथा भी सुनाई।) सन्दर्भ: महाभारत, आदिपर्व बहुत दिनों पहले की बात है। उन दिनों देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ करते थे। एक बार उनके बीच बहुत ही भयानक युद्ध हुआ। उस युद्ध में देवताओं ने असुरों को बुरी तरह पराजित कर दिया। सारे असुर मारे गए। तब असुरों के गुरु शुक्राचार्य ने अपनी संजीवनी विद्या से सभी असुरों को जीवित कर दिया। उस समय असुरों के राजा वृषपर्वा हुआ करते थे। गुरु शुक्राचार्य राजा वृषपर्वा के राज्य में ही रहने लगे। राजा उनका बहुत सम्मान करते थे। शुक्राचार्य की एक बेटी थी। उसका नाम देवयानी था। असुरराज वृषपर्वा की भी एक बेटी थी। जिसका नाम शर्मिष्ठा था। उन दोनों की उम्र एक जैसी थी। उनके स्वभाव भी एक जैसे थे। दोनों ही उग्र थीं। और परस्पर एक दूसरे से ईर्ष्या करती थीं। उन्हें हमेशा ऐसा प्रतीत होता था कि वे दूसरे की तुलना में अधिक श्रेष्ठ हैं। इसलिए उनके बीच में मनमुटाव भी आम बात थी। एक दिन की बात है। देवयानी और शर्मिष्ठा अपनी सखियों के साथ किसी घने वन के एक तालाब में नहाने गए। उसी समय स्वर्ग के राजा इन्द्र उस वन से गुजर रहे थे। उन्होंने इन स्त्रियों को नहाते देखा तो उन्हें शरारत सूझी। अपनी माया से हवा बनकर इन्द्र ने उनके कपड़ों को आपस में मिला दिया। वे स्त्रियाँ जब तालाब से बाहर निकलीं, तो उन्हें पता नहीं चला कि किसके कपड़े कौन-से हैं। भूल से शर्मिष्ठा ने देवयानी के कपड़े पहन लिए। जब देवयानी ने यह देखा तो वह गुस्से से आगबबूला हो गई। ‘सुन, असुर की पुत्री, तुमने मेरे कपड़े कैसे पहन लिए? क्या तुम मेरी बराबरी करना चाहती हो?’ देवयानी ने जोर से कहा ताकि सभी सुन लें। दोनों अक्सर एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयत्न में लगी रहती थीं। ‘वाह री अकड़वाली, तेरे पिता तो प्रजा की तरह मेरे पिता की स्तुति करते हैं और तेरा इतना घमंड !’ शर्मिष्ठा भी कम नहीं थी। ‘देख अभी इसी समय मेरे कपड़े उतारकर दे दे। वरना बहुत बुरा होगा।’ देवयानी उसकी ओर झपटती हुई बोली। ‘अरे जा बहुत देखी तेरी जैसी। मैं राजकुमारी हूँ। तुझे किसी ने बताया नहीं कि राजा से बड़ा कोई नहीं होता। और सुन अगर मैंने तेरे कपड़े पहन ही लिए तो कोई अनर्थ नहीं हो गया। अगर तूने मेरे कपड़े को छुआ तो देखना।’ शर्मिष्ठा पैर पटकती हुई बोली। Last edited by rajnish manga; 26-03-2014 at 05:32 PM. |
25-07-2013, 10:37 PM | #58 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
शर्मिष्ठा का इतना कहना था कि देवयानी गुस्से से तिलमिला उठी। वह शर्मिष्ठा के कपड़े पकड़कर खींचने लगी। और दोनों में हाथापाई हो गई। तब मौका मिलते ही शर्मिष्ठा ने देवयानी को जोर से धक्का दे दिया। बगल में ही एक कुआँ था। देवयानी संभलते-संभलते भी उस कुएँ में जा गिरी। यह देख सारी लड़कियाँ भाग गईं। शर्मिष्ठा भी देवयानी को मरी समझकर वहाँ से भाग गई।
उस कुएँ में पानी नहीं था। इसलिए देवयानी को चोट तो आई, लेकिन उसकी जान बच गई। वह बहुत देर तक उसी कुएँ में बैठी रोती रही। उसी समय उसने निश्चय किया कि वह शर्मिष्ठा से इसका बदला अवश्य लेगी। सौभाग्य से उसी समय राजा ययाति शिकार खेलते-खेलते वन में पहुँचे। थकान और प्यास के मारे घोड़े से उतरकर कुएँ के पास गए। कुएँ में झाँका तो उसमें पानी नहीं था, लेकिन एक सुन्दर स्त्री रोती हुई बैठी थी। राजा ने पूछा - ‘सुन्दरी ! तुम कौन हो? इस कुएँ में क्या रही हो?’ देवयानी ने विनती के स्वर में कहा - ‘मैं महर्षि शुक्राचार्य की पुत्री हूँ। पैर फिसल जाने से कुएँ में गिर गई। मुझे बाहर निकाल दीजिए। आपका बड़ा उपकार होगा।’ ययाति ने उसे कुएँ से बाहर निकाल दिया। देवयानी को कुछ खास चोट नहीं थी। थोड़ी देर बातें कर ययाति शिकार पर निकल गए। देवयानी राजा की सुन्दरता पर मोहित हो गई। लेकिन कुछ बोल न सकी। उसने मन ही मन किसी उपयुक्त समय में बात करने का फैसला किया और घर की ओर चल पड़ी। उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ था। घर पहुँचते ही पिता से बोली -‘पिताजी, मैं अब इस नगर में नहीं रह सकती।’ ‘क्यों क्या बात हो गई? मेरी बेटी इतने गुस्से में क्यों है?’ शुक्राचार्य ने देवयानी के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा। शुक्राचार्य देवयानी से बहुत प्यार करते थे। उसकी हर बात मानते थे। इस प्रकार प्यार से पूछने पर देवयानी ने उन्हें पूरी घटना बता दी। शुक्राचार्य को लगा कि पूर्वजन्म के किसी कर्म के कारण ही उसकी पुत्री को दुख झेलना पड़ा होगा। अत: उसे तरह-तरह से समझाने लगे। लेकिन देवयानी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। ‘मैं यह सब कुछ नहीं जानती। मुझे उस नगर में नहीं रहना है, जहाँ मेरा और मेरे पिता का अपमान होता हो। अगर आप चलने के लिए राजी नहीं हुए तो मैं अभी इसी समय से खाना-पीना छोड़ दूँगी।’ देवयानी यह कहकर पैर पटकती हुई घर के अंदर चली गई। शुक्राचार्य के पास उसकी बात मानने के अलावा और कोई चारा न था। दूसरे ही दिन वे वृषपर्वा की सभा में गए और गुस्से से बोले -‘राजन् ! ये आपके राज्य कैसा अधर्म हो रहा है? वृषपर्वा चौंककर बोले – ‘ये आप कैसी बातें कर रहे हैं, मुनिवर? क्या हुआ जिसने आपको इतना क्रोधित कर दिया है?’ शुक्राचार्य ने सारी बातें बताकर कहा – -‘राजन्, अधर्म के साथ अधिक दिनों तक नहीं रहा जा सकता। पहले तुम लोगों ने बृहस्पति के पुत्र और मेरे शिष्य कच की हत्या का प्रयास किया। अब तुमलोगों ने मेरी ही पुत्री की हत्या का प्रयास किया। अब मैं यहाँ नहीं रह सकता। इसलिए तुम्हें छोड़कर जा रहा हूँ।’ असुरराज वृषपर्वा यह सुनकर काँप गए। उनके न रहने पर युद्ध में असुरों की हार निश्चित थी। वे क्षमा माँगते हुए गुरु शुक्राचार्य से रुकने का निवेदन करने लगे। लेकिन शुक्राचार्य नहीं माने। उन्होंने कहा कि जहाँ उनकी बेटी का तिरस्कार हो वहाँ उनका रहना संभव नहीं है। |
25-07-2013, 10:39 PM | #59 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
वृषपर्वा पूरी तरह से निराश हो गए। अंतिम आस लेकर देवयानी के पास गए।
‘बेटी, तुम जो भी चाहो माँग लो लेकिन यहीं रहो।’ राजा वृषपर्वा ने अपनी झोली फैलाकर देवयानी से भीख माँगी। देवयानी इसी अवसर की तलाश में थी। उसने पहले से ही योजना बना राखी थी। वह बोली -‘राजन् ! शर्मिष्ठा एक सहस्र दासियों के साथ मेरी सेवा करे। मैं जहाँ जाऊँ, वह मेरे पीछे-पीछे चले तो मैं और मेरे पिता आपके राज्य में रुक सकते हैं।’ वृषपर्वा खुशी-खुशी तैयार हो गया और उस दिन से शर्मिष्ठा देवयानी की दासी बनकर रहने लगी। देवयानी के मन को बहुत संतोष पहुँचा। एक दिन देवयानी अपनी दासियों और शर्मिष्ठा के साथ वन में खेलने के लिए गई। राजा ययाति भी उसी वन में घूम रहे थे। इन्हें देखकर परिचय जानने के लिए इनके पास आ गए। देवयानी राजा को देखकर बहुत खुश हुई। वह ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में थी, जब राजा से अपनी शादी की बात कर सके। उसने कहा - ‘राजन्, याद है आपको एक दिन आपने मेरी जान बचाई थी, जब मैं कुएँ में गिर पड़ी थी। उसी दिन से मैंने आपको अपना पति चुन लिया था। कृपया मुझे स्वीकार कीजिए।’ ‘लेकिन मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ। तुम एक ब्राह्मण कन्या हो और तुम्हारे पिता क्षत्रिय के साथ विवाह के लिए राजी नहीं होंगे।’ ययाति ने विनम्रता से कहा। देवयानी फिर भी हठ करती रही, लेकिन जब राजा ययाति नहीं माने तो वह उन्हें लेकर अपने पिता के पास गई। शुक्राचार्य बेटी के हठ के सामने झुक गए और उन्होंने विवाह की अनुमति दे दी। बड़े धूमधाम से दोनों का विवाह संपन्न हुआ। विवाह के बाद राजा ययाति देवयानी और शर्मिष्ठा के साथ अपने राज्य लौट गए। देवयानी अन्तःपुर में रही और शर्मिष्ठा के लिए सबसे बड़े बाग में एक घर बनवाया गया। दोनों ही सुख से रहने लगीं। कुछ समय बाद देवयानी के दो पुत्र हुए - यदु और तर्वसु। दोनों ही बालक राज निवास में पलने लगे। इस बीच एक दिन राजा ययाति बाग में टहलने गए तो शर्मिष्ठा के रूप को देखकर मोहित गए। शर्मिष्ठा भी राजा से प्यार करती थी। उस दिन के बाद दोनों छुप-छुपकर मिलने लगे। कुछ समय बाद शर्मिष्ठा के भी तीन पुत्र हुए - द्रुह्यु, अनु और पुरु। कई वर्षों के बाद एक दिन देवयानी और ययाति उसी बाग में टहलने निकले, जहाँ शर्मिष्ठा अपने बच्चों के साथ रहती थी। टहलते समय देवयानी ने उन बच्चों को देखा। उन अनजान बच्चों को बाग में देखकर वह हैरान रह गई। वे बहुत ही सुन्दर और बलवान् थे। उनका रंग-रूप राजा ययाति के जैसा था। यह जानने के लिए कि ये कौन हैं, देवयानी ने उन्हें अपने पास बुलाकर पूछा - ‘तुम्हारे माता-पिता कौन हैं?’ बच्चों ने इशारा कर कहा - ‘हमारी माँ का नाम शर्मिष्ठा है।’ |
25-07-2013, 10:40 PM | #60 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
देवयानी समझ गई कि वे राजा के ही पुत्र हैं। उसी क्षण उसने शर्मिष्ठा को बुरा-भला कहा और गुस्से से राजमहल पहुँची।
राजा को देखते ही वह बोली - ‘आपने मुझे अपना प्रिय नहीं माना और मेरी दासी को पत्नी के रूप में स्वीकार किया। यह आपने अच्छा नहीं किया। यह मेरा घोर अपमान है, अत: अब मैं यहाँ नहीं रह सकती। मैं अपने पिता के पास जा रही हूँ।’ यह कहकर देवयानी अपने पिता के पास चली आई। ययाति भी उसे मनाते हुए पहुँच गए। शुक्राचार्य ने जब यह सुना कि राजा ने देवयानी के साथ अन्याय किया है तो वे गुस्से से पागल हो गए। उन्होंने राजा को शाप दे दिया कि वह बूढ़ा हो जाए। उनके शाप देते ही राजा बूढ़े हो गये। इस घटना से राजा बहुत लज्जित हुए। उन्होंने गुरु शुक्राचार्य से क्षमा माँगी और शाप वापस लेने का आग्रह किया। शुक्राचार्य ने कहा - ‘मेरी बात झूठी नहीं हो सकती। लेकिन तुमने क्षमा माँगी है तो तुम्हें इतनी छूट देता हूँ कि तुम अपना बुढ़ापा किसी दूसरे को दे सकते हो।’ राजा ने देवयानी से भी क्षमा माँगी और उसे लेकर राजमहल आ गए। दूसरे ही दिन उन्होंने अपने सभी पुत्रों को अलग-अलग बुलाकर कहा - ‘तुम मेरे बेटे हो। अपने पिता की बात मानकर मेरा बुढ़ापा ले लो और अपना यौवन मुझे दे दो।’ लेकिन उनके चार बेटों ने उनकी नहीं सुनी। केवल पुरु ही ऐसा था, जो अपने पिता की बात मानने के लिए राजी हुआ। राजा ने पुरु को अपना बुढ़ापा देकर उसका यौवन ले लिया। समय बीतता गया। कई वर्षों तक राजा ययाति पुरु के दिए हुए यौवन से राज्य करते रहे और सुख भोगते रहे। एक दिन उन्होंने पुरु को बुलाकर उसे उसका यौवन लौटा दिया और उसे राजा बनाने की घोषणा कर दी। देवयानी के साथ सारी प्रजा हाहाकार कर उठी कि बड़े बेटे यदु के होते सबसे छोटे बेटे पुरु को राजा बनाना नियम के विरुद्ध था। तब ययाति ने कहा - ‘जो पुत्र अपने पिता की आज्ञा नहीं मानता वह पुत्र कहलाने योग्य नहीं है। पुत्र वही है, जो अपने माता-पिता की आज्ञा माने, उनका हित करे और उन्हें सुख दे। पुरु ने मेरी आज्ञा मानी और अपना यौवन तक मुझे दे दिया। इसलिए वही मेरा उचित उत्तराधिकारी है।’ प्रजा ने राजा की बात समझकर उनकी बात मान ली। शर्मिष्ठा का सिर गर्व से ऊँचा हो गया। ** |
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