11-12-2011, 07:26 PM | #51 |
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Re: कतरनें
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी रचनाओं में स्त्री विमर्श को उठाया था आचार्य हजारी प्रसादी द्विवेद्वी की प्रेरणा से ब्रजभाषा के बजाय खड़ी बोली को काव्यभाषा का स्थान दिलाने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने उस काल में ही ‘स्त्री विमर्श’ को महत्वपूर्ण स्थान दिया और मानवीय मूल्यों को जीवन में उतारने पर बल दिया था। कवि प्रेम जन्मेजय कहते हैं कि आज के इस स्त्री विमर्श के युग से बहुत पहले ही मैथिलीशरण गुप्त ने इस पर चर्चा शुरू की थी और अपनी रचना ‘साकेत’ के माध्यम से लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला की पीड़ा को उजागर किया था। जन्मेजय ने कहा कि गुप्त की रचना में उर्मिला सामंती परिवेश में अपनी शिकायत रखती हैं और स्वाभिमान का परिचय देती हैं जबकि वाल्मीकि और तुलसीदास उर्मिला के दर्द को नहीं देख पाए । झांसी के चिरगांव में तीन अगस्त 1886 में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा घर में हुई। उन्होंने घर में हिंदी, बांग्ला और संस्कृति साहित्य का अध्ययन किया। मुंशी अजमेरी ने उनका मार्गदर्शन किया। बारह साल की अवस्था में उन्होंने ब्रजभाषा में कविता रचना शुरू कर दी। बाद में वह महावीर प्रसाद द्विवेद्वी के संपर्क में आए और उनकी कविताएं खड़ी बोली में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित होने लगीं। सन् 1919 में उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘रंग में भंग’ बाद में ‘जयद्रथ वध’ प्रकाशित हुआ। उन्होंने सन् 1914 में राष्ट्रीय भावनाओं से ओत प्रोत ‘भारत भारती’ का प्रकाशन किया और लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता छा गयी क्योंकि उन दिनों देश में आजादी का आंदोलन चल रहा था। स्वत: प्रेस स्थापित कर उन्होंने अपनी पुस्तकें छापनी शुरू कर दीं। उन्होंने महत्वपूर्ण कृति साकेत और अन्य ग्रंथ पंचवटी आदि 1931 में पूरे किए। सन् 1932 में उन्होंने यशोधरा लिखी। इसी समय वह महात्मा गांधी के संपर्क में आए और गांधीजी ने उन्हें राष्ट्रकवि की संज्ञा दी। सन् 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के तहत वह जेल गए। आगरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट की उपाधि से सम्मानित किया। आजादी के बाद उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया। सन् 1953 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सन् 1962 में ‘अभिनंदन ग्रंथ’ भेंट किया। हिंदू विश्वविद्यालय ने भी उन्हें डी लिट से सम्मानित किया। जन्मेजय कहते हैं कि साहित्य रचना में आज के व्यावासायिक दृष्टिकोण के विपरीत उनका लेखन कर्म जीवन मूल्य के प्रति समर्पित और वह राष्ट्रप्रेम के झंडाबरदार रहे। डॉ नगेंद्र के अनुसार मैथिलीशरण गुप्त सच्चे राष्ट्रकवि थे। महान साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में उनके काव्य के भीतर भारत की प्राचीन संस्कृति एक बार फिर तरूणावस्था को प्राप्त हुई। मैथिलीशरण गुप्त 12 दिसंबर, 1964 को चल बसे।
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12-12-2011, 10:37 PM | #52 |
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Re: कतरनें
पुण्यतिथि 13 दिसंबर पर
स्मिता पाटिल ने दिया समानांतर फिल्मों को नया आयाम भारतीय सिनेमा के नभमंडल में स्मिता पाटिल ऐसे ध्रुव तारे की तरह हैं, जिन्होंने अपने सशक्त अभिनय से समानांतर सिनेमा के साथ.-साथ व्यावसायिक सिनेमा में भी दर्शकों के बीच अपनी खास पहचान बनाई ! स्मिता पाटिल के उत्कृष्ट अभिनय से सजी फिल्में भूमिका, मंथन, चक्र, शक्ति, निशांत और नमकहलाल आज भी दर्शकों दिलों पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है। स्मिता पाटिल अभिनीत फिल्मों पर यदि एक नजर डालें, तो हम पायेगें कि पर्दे पर वह जो कुछ भी करती थीं, वह उनके द्वारा निभायी गयी भूमिका का जरूरी हिस्सा लगता था। 17 अक्तूबर 1955 को पुणे शहर में जन्मी स्मिता पाटिल ने अपनी स्कूल की पढाई महाराष्ट्र से पूरी की। उनके पिता शिवाजी राय पाटिल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे, जबकि उनकी मां समाजसेविका थी। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह मराठी टेलीविजन में बतौर समाचार वाचिका काम करने लगी। इसी दौरान उनकी मुलाकात जाने-माने निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल से हुई। श्याम बेनेगल उन दिनों अपनी फिल्म 'चरण दास चोर' बनाने की तैयारी में थे। श्याम बेनेगल को स्मिता पाटिल में एक उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने अपनी फिल्म 'चरण दास चोर' में स्मिता पाटिल को एक छोटी सी भूमिका निभाने का अवसर दिया। भारतीय सिनेमा जगत में 'चरण दास चोर' को ऐतिहासिक फिल्म के तौर पर याद किया जाता है, क्योंकि इसी फिल्म के माध्यम से श्याम बेनेगल और स्मिता पाटिल के रूप में कलात्मक फिल्मों के दो दिग्गजों का आगमन हुआ। श्याम बेनेगल ने स्मिता पाटिल के बारे मे एक बार कहा था, मैंने पहली नजर में ही समझ लिया था कि स्मिता पाटिल में गजब की स्क्रीन उपस्थिति है, जिसका उपयोग रूपहले पर्दे पर किया जा सकता है। फिल्म 'चरण दास चोर' हालांकि बाल फिल्म थी, लेकिन इस फिल्म के जरिये स्मिता पाटिल ने बता दिया था कि हिंदी फिल्मों मे खासकर यथार्थवादी सिनेमा में एक नया नाम स्मिता पाटिल के रूप में जुड़ गया है। इसके बाद वर्ष 1975 में श्याम बेनेगल द्वारा ही निर्मित फिल्म 'निशांत' में स्मिता को काम करने का मौका मिला। वर्ष 1977 स्मिता पाटिल के सिने कैरियर में अहम पड़ाव साबित हुआ। इस वर्ष उनकी 'भूमिका' और 'मंथन' जैसी सफल फिल्में प्रदर्शित हुयी। दुग्ध क्रांति पर बनी फिल्म 'मंथन' में दर्शकों को स्मिता पाटिल के अभिनय के नये रंग देखने को मिले। इस फिल्म के निर्माण के लिये गुजरात के लगभग पांच लाख किसानों ने प्रति दिन मिलने वाली अपनी मजदूरी में से दो-दो रूपये फिल्म निर्माताओं को दिये और बाद में जब यह फिल्म प्रदर्शित हुयी तो बॉक्स आफिस पर सुपरहिट साबित हुयी। वर्ष 1977 में स्मिता पाटिल की 'भूमिका' भी प्रदर्शित हुयी, जिसमें उन्होंने 30 -40 के दशक में मराठी रंगमच की अभिनेत्री हंसा वाडेकर की निजी जिंदगी को रूपहले पर्दे पर बखूबी साकार किया। फिल्म 'भूमिका' में अपने दमदार अभिनय केलिये वह राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित की गईं। मंथन और भूमिका जैसी फिल्मों मे उन्होंने कलात्मक फिल्मो के महारथी नसीरूदीन शाह, शबाना आजमी, अमोल पालेकर और अमरीश पुरी जैसे कलाकारो के साथ काम किया और सशक्त अदाकारी का जौहर दिखाकर अपना सिक्का जमाने में कामयाब हुईं। भूमिका से स्मिता पाटिल का जो सफर शुरू हुआ वह चक्र, निशांत, आक्रोश, गिद्ध, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है और मिर्च मसाला जैसी फिल्मों तक जारी रहा। वर्ष ।980 में प्रदर्शित फिल्म 'चक्र' में स्मिता पाटिल ने झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाली महिला के किरदार को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर दिया। इसके साथ ही फिल्म 'चक्र' के लिए वह दूसरी बार राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित की गईं। अस्सी के दशक में स्मिता पाटिल ने व्यावसायिक सिनेमा की ओर अपना रूख किया। इस दौरान उन्हें सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के साथ 'नमक हलाल' और 'शक्ति' जैसी फिल्मों में काम करने का अवसर मिला, जिनकी सफलता ने बाद स्मिता पाटिल को व्यावसायिक सिनेमा में भी स्थापित कर दिया। अस्सी के दशक में स्मिता पाटिल ने व्यावसायिक सिनेमा के साथ-साथ समानांतर सिनेमा से अपना सामंजस्य बिठाए रखा। इस दौरान उनकी सुबह, बाजार, भींगी पलकें, अर्द्धसत्य और मंडी जैसी कलात्मक फिल्में और दर्द का रिश्ता, कसम पैदा करने वाले की, आखिर क्यों, गुलामी, अमृत, नजराना और डांस डांस जैसी व्यावसायिक फिल्में प्रदर्शित हुईं, जिसमें स्मिता पाटिल के अभिनय के विविध रूप दर्शकों को देखने को मिले। वर्ष 1985 में स्मिता पाटिल की फिल्म 'मिर्च मसाला' प्रदर्शित हुई। सौराष्ट्र की आजादी के पूर्व की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'मिर्च मसाला' ने निर्देशक केतन मेहता को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई। सामंतवादी व्यवस्था के बीच पिसती औरत की संघर्ष की कहानी बयां करती यह फिल्म आज भी स्मिता पाटिल के सशक्त अभिनय के लिए याद की जाती है। वर्ष 1985 में भारतीय सिनेमा में उनके अमूल्य योगदान को देखते हुये वह पदमश्री से सम्मानित की गयी। हिंदी फिल्मों के अलावा स्मिता पाटिल ने मराठी, गुजराती, तेलगू, बंग्ला, कन्नड़ और मलयालम फिल्मों में भी अपनी कला का जौहर दिखाया । इसके अलावे स्मिता पाटिल को महान फिल्मकार सत्यजीत रे के साथ भी काम करने का मौका मिला। मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित टेलीफिल्म 'सदगति' स्मिता पाटिल अभिनीत श्रेष्ठ फिल्मों में आज भी याद की जाती है। लगभग दो दशक तक अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों के बीच खास पहचान बनाने वाली यह अभिनेत्री महज 31 वर्ष की उम्र में 13 दिसंबर 1986 को इस दुनिया को अलविदा कह गई। उनकी मौत के बाद वर्ष 1988 में उनकी फिल्म 'वारिस' प्रदर्शित हुई, जो स्मिता पाटिल के सिने कैरियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक है।
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13-12-2011, 07:19 PM | #53 |
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Re: कतरनें
लोकसेवा का संगीत सुनाते हैं उस्ताद अकबर खां
भारत की पश्चिमी सरहद पर रेतीले धोरों की धरती जैसलमेर कलाकारों की खान है, जहां विभिन्न विधाओं में माहिर एक से बढ़कर एक कलाकारों की सुदीर्घ श्रृंखला विद्यमान है। कलाकारों की इस खान में बहुमूल्य हीरा हैं - उस्ताद अकबर खां। बहत्तर साल के अकबर खां का उत्साह किसी युवा से कम नहीं है। आज भी वे कला और संस्कृति के लिए जीते हुए बहुत कुछ कर गुजरने के जज्बे के साथ जुटे हुए हैं। अकबर खां में वे सभी गुण हैं जो एक अच्छे कलाकार की पहचान होते हैं। कोमल भावनाओंं से भरे और दिल के साफ अकबर खां का सर्वस्पर्शी व्यक्तित्व हर किसी को प्रभावित किए बिना नहीं रहता। अकबर खां का मौलिक हुनर बचपन से ही झरने लगा था। निरंतर अभ्यास की बदौलत रियासत काल में दरबारी लोक गायक कलाकार के रूप में ख्याति पाने वाले अकबर खां उम्र के इस पड़ाव में भी लोक गायकी के प्रति समर्पित जीवन का पर्याय बने हुए हैं। ग्यारह जुलाई 1939 को जैसाण की सरजमीं पर पैदा हुए उस्ताद अकबर खां ’जैसलमेरी आलम खां’ आज कला जगत में जानी-मानी हस्ती हंै। साधारण साक्षर अकबर खां को संगीत का हुनर विरासत में मिला। संगीत की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा उन्हें पिता आरब खां से मिली। अकबर खां ने घर-परिवार चलाने के लिए शिक्षा विभाग में नौकरी की और वहीं से जमादार के रूप में सेवानिवृत्त हुए। राजकीय सेवा के साथ-साथ संगीत व संस्कृति जगत की सेवा तथा हमेशा कुछ न कुछ नया सीखने व करने का जो जज्बा यौवन पर रहा, वह आज भी पूरे उत्साह से लबरेज दिखाई देता है। वंश परम्परा से पारिवारिक लोक संगीत में दक्ष कलाकारों की श्रृंखला में जुड़े उस्ताद अकबर खां वास्तव में उस्ताद हैं जिनकी रगों में पीढ़ियों से सांगीतिक लहू बह रहा है। सन् 1973 में पहली बार मांगणियार गायकों का सम्मेलन आयोजित करने में अकबर खां की सराहनीय भूमिका रही। इस पर रूपायन संस्थान बोरुंदा की ओर से उन्हें सराहना पत्र भी भेंट किया गया। आकाशवाणी और दूरदर्शन के कई केन्द्रों से उस्ताद अकबर खां के कार्यक्रमों का प्रसारण हो चुका है। इसके साथ ही लोक चेतना, सामाजिक सरोकारों के कई कार्यक्रमों, योजनाओं, परियोजनाओं के जागरूकता कार्यक्रमों से जुड़े रहे अकबर खां ने अनगिनत स्कूलों व अन्य संस्थाओं में वार्ताओं, लोकगीत गायन, संगीतिक प्रस्तुतियों आदि के माध्यम से अपनी सशक्त व ऐतिहासिक भागीदारी का इतिहास कायम किया है। अद्भुत कला कौशल व माधुर्य से परिपूर्ण गायकी को लेकर प्रदेश तथा देश की कई हस्तियों व संस्थाओं द्वारा उन्हें सम्मानित व अभिनन्दित किया जा चुका है। लोक कला के संरक्षण व विकास में प्रशंसनीय सेवाओं के उपलक्ष में अकबर खां को स्वाधीनता दिवस -1999 के जिला स्तरीय समारोह में जिला प्रशासन की ओर से सम्मानित भी किया गया। इसी प्रकार जैसलमेर स्थापना दिवस पर 26 अगस्त, 1996 को कवि तेज लोक कला विकास समिति द्वारा उत्कृष्ट आलमखाना (राजगायक ) एवं अन्तर्राष्टÑीय ख्याति प्राप्त कलाकार के रूप में उन्हें सम्मानित किया गया। भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर में 28 अप्रेल 1979 को हुए राजस्थान लोकानुरंजन मेले में देवीलाल सामार ने उस्ताद अकबर खां का अभिनन्दन किया व लोक कला के उन्नयन, विकास व प्रचार-प्रसार में उनके बहुमूल्य योगदान की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। उस्ताद अकबर खां का बोध वाक्य है- ’जागो-जगाओ, काम की ज्योति जगाओ, सुस्ती, नशा, क्रोध हटाओ, देश बचाओ’, एक अकेला थक जाएगा, मिल कर बोझ उठाओ ।’ इस बोध वाक्य की उन्होंने बाकायदा मोहर बनवा रखी है जिसे वे पत्र व्यवहार में इस्तेमाल करते रहे हैं। माण्ड गायक उस्ताद अकबर खां को सन् 1996 में मांड सम्मान से नवाजा जा चुका है। उस्ताद अकबर खां देश की कई नामी हस्तियों के समक्ष अपनी गायकी का प्रदर्शन कर चुके हैं। स्व. ज्ञानी जैलसिंह, स्व. नीलम संजीव रेड्डी, एम. हिदायतुल्ला, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर सहित देश-विदेश की कई हस्तियों के समक्ष वे अपने फन की धाक जमा चुके हैं। हिन्दी फिल्म रुदाली, नन्हे जैसलमेर, लम्हे, कृष्णा, सात रंग के सपने, जोर, मीनाक्षी, रेशमा और शेरा, रजिया सुल्तान सहित कई भारतीय एवं विदेशी फिल्मों में उन्होंने अपनी लोक संगीत की शानदार प्रस्तुतियों का रिकार्ड बनाया है। यूनेस्को वर्ल्ड म्यूजिक वेबसाइट पर भी अकबर की प्रस्तुति समाहित है।
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18-12-2011, 04:42 PM | #54 |
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Re: कतरनें
विशेष बातचीत
कड़े इम्तहान से गुजरा, तब बने मिजाज वाले गीत : नीरज अठहत्तर की उम्र में भी वही जज्बा और आवाज में वही दम खम जो जवानी में हुआ करता था, पर हिन्दी फिल्मों के गानों और संगीत के लगातार गिरते स्तर पर गहरी चिन्ता और नाराजगी ही शायद नीरज को फिल्मी दुनिया से बांध कर नहीं रख सकी । इस मशहूर गीतकार ने जब फिल्म उद्योग का रूख किया, तो शुरूआत में सचिन देव बर्मन जैसे संगीतकारों ने उन्हें हर कसौटी पर कसा, लेकिन बाद में उन्हीं के साथ कई यादगार गीत भी उन्होंने किए। गोपालदास नीरज ने बताया, ‘‘मैं शायद उनके लिए (फिल्म उद्योग के लिए) अनफिट हो गया था । दूसरे सचिन देव बर्मन और शंकर-जयकिशन जैसे संगीतकारों के किसी न किसी कारण से फिल्मों में संगीत नहीं देने के बाद तो रूकने का मतलब ही नहीं था।’’ मुंबई फिल्म उद्योग में ‘ नीरज ’ के नाम से गीत लिखने वाले इस गीतकार का ‘‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’’ गीत देशभर में लोकप्रिय हुआ। राज कपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ के लिए लिखा गया ‘ऐ भाई जरा देख के चलो’ और ‘प्रेम पुजारी’ का ‘शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब’ गीत हर खासो आम की जुबां पर चढ़ गए। देव आनंद के निधन से काफी दु:खी नीरज ने उनके साथ बिताए दिनों को याद करते हुए कहा, ‘‘देव साहब नायाब शख्सियत थे। उन्होंने मुझे ब्रेक दिया। एस. डी. बर्मन से कहा कि एक बार इसे आजमा कर देखो तो बड़ी मुश्किल से बर्मन साहब ने मेरे गीतों को स्वीकार किया।’’ उन्होंने कहा कि देव साहब और बर्मन ने उनके साथ कई तरह के प्रयोग किए और बर्मन तो उन्हें अकसर इतनी कड़ी और आड़ी-तिरछी धुनें देते थे कि कई बार लिखना मुश्किल लगता था, लेकिन आखिर में निभा ले गया। नीरज ने बताया, ‘‘हिन्दी फिल्मों में राज कपूर ने भी गीत-संगीत को लेकर काफी प्रयोग किए। मेरा नाम जोकर के लिए जब ‘ऐ भाई जरा देख के चलो’ लिखा गया, तो उसमें पूरे जीवन का दर्शन था। ये दुनिया सर्कस है और हम सब जोकर। वो (ईश्वर) नचा रहा है।’’ उन्होंने कहा कि उस जमाने में कई बार हम गीतकार संगीत रचना में भी काफी मददगार होते थे । ‘‘ये काम बर्मन साहब के साथ खूब किया। वो मुझे घर बुला लेते थे और वहां बैठकर हमने कई यादगार गीत इंडस्ट्री को दिए।’’ ‘शर्मीली’ के ‘आज मदहोश हुआ जाए रे’ और ‘खिलते हैं गुल यहां’ जैसे यादगार गीत लिख चुके नीरज ने बताया कि आजकल का संगीत कानफोडू हो गया है और गीत के बोल तो समझिए, पता ही नहीं चलता कि कौन क्या कहना चाह रहा है और मकसद क्या है। उन्होंने कहा, ‘‘मैंने भी तोड़ मरोड़ के कई गीत लिखे, लेकिन भाषा के साथ कभी समझौता नहीं किया और सरल से सरल शब्द गीतों में फिट करने की कोशिश की, ताकि अनपढ़ आदमी को भी आसानी से समझ आ सके।’’ नीरज के गीतों को लता मंगेशकर, किशोर कुमार, मोहम्मद रफी और मन्ना डे सहित उस जमाने के सभी मशहूर फिल्मी गायकों ने सुर दिए। किशोर का गाया ‘फूलों के रंग से’ और ‘धीरे से जाना खटियन में’, लता का गाया ‘राधा ने माला जपी श्याम की’ और ‘रंगीला रे’, रफी का गाया ‘लिखे जो खत तुझे’ और मन्ना डे का गाया ‘ऐ भाई जरा देख के चलो’ कुछ ऐसे गीत इस फनकार ने लिखे हैं, जो वक्त की बंदिशों से परे हैं।
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18-12-2011, 07:07 PM | #55 |
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Re: कतरनें
19 दिसंबर को काकोरी के नायकों के शहादत दिवस पर विशेष
बिस्मिल, अशफाक : जीये वतन के लिए, मरे वतन के लिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास आजादी के मतवालों के एक से बढकर एक कारनामों से भरा पड़ा है । रामप्रसाद बिस्मिल तथा अशफाक उल्ला खान के नाम इसे और भी गौरवमय बना देते हैं। जंग ए आजादी की इसी कड़ी में 1925 में एक महत्वपूर्ण घटना घटी, जब नौ अगस्त को चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह सहित 10 क्रांतिकारियों ने लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया। इन जांबाजों ने जो खजाना लूटा, दरअसल वह हिन्दुस्तानियों के ही खून पसीने की कमाई थी, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा था। लूटे गए धन का इस्तेमाल क्रांतिकारी हथियार खरीदने और जंग ए आजादी को जारी रखने के लिए करना चाहते थे। इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से जानी गई। ट्रेन से खजाना लुट जाने से ब्रितानिया हुकूमत बुरी तरह तिलमिला गई और अपनी बर्बरता तेज कर दी। आखिर इस घटना में शामिल सभी क्रांतिकारी पकड़े गए, सिर्फ चंद्रशेखर आजाद हाथ नहीं आए। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (एचएसआरए) के 45 सदस्यों पर मुकदमा चलाया गया, जिनमें से रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। गोरी हुकूमत ने पक्षपातपूर्ण ढंग से मुकदमा चलाया, जिसकी बड़े पैमाने पर निन्दा हुई। डकैती जैसे अपराध में फांसी की सजा अपने आप में एक विचित्र घटना थी। फांसी के लिए 19 दिसंबर 1927 की तारीख मुकर्रर हुई, लेकिन राजेंद्र लाहिड़ी को इससे दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही गोंडा जेल में फांसी दे दी गई। रामप्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल और अशफाक उल्ला खान को इसी दिन फैजाबाद जेल में फांसी दी गई । जीवन की अंतिम घड़ी में भी इन महान देशभक्तों के चेहरे पर मौत का कोई भय नहीं था । दोनों हंसते हंसते भारत मां के चरणों में अपने प्राण अर्पित कर गए। काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारी उच्च शिक्षित थे। बिस्मिल जहां प्रसिद्ध कवि थे, वहीं भाषाई ज्ञान में भी निपुण थे। उन्हें अंग्रेजी, हिन्दुस्तानी, उर्दू और बांग्ला भाषा का अच्छा ज्ञान था। अशफाक उल्ला खान इंजीनियर थे। क्रांतिकारियों ने काकोरी की घटना को काफी चतुराई से अंजाम दिया था। इसके लिए उन्होंने अपने नाम तक बदल लिए थे। बिस्मिल ने अपने चार अलग अलग नाम रखे और अशफाक ने अपना नाम कुमारजी रखा था। इन दोनों वीरों की शहादत ने देशवासियों के मन में क्रांति की एक अजीब सी लहर पैदा कर दी थी।
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18-12-2011, 07:21 PM | #56 |
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Re: कतरनें
19 दिसंबर को गोवा मुक्ति दिवस पर
गोवा और दमन-दीव इस तरह हुए विदेशियों के चंगुल से मुक्त भारत को यूं तो 1947 में ही आजादी मिल गई थी, लेकिन इसके 14 साल बाद भी गोवा पर पुर्तगालियों का शासन था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन के बार-बार के आग्रह के बावजूद पुर्तगाली झुकने को तैयार नहीं हुए। उस समय दमन-दीव भी गोवा का हिस्सा था। पुर्तगाली यह सोचकर बैठे थे कि भारत शक्ति के इस्तेमाल की हमेशा निन्दा करता रहा है, इसलिए वह हमला नहीं करेगा। उनके इस हठ को देखते हुए नेहरू और मेनन को कहना पड़ा कि यदि सभी राजनयिक प्रयास विफल हुए, तो भारत के पास ताकत का इस्तेमाल ही एकमात्र विकल्प रह जाएगा। पुर्तगाल जब किसी तरह नहीं माना, तो नवम्बर 1961 में भारतीय सेना के तीनों अंगों को युद्ध के लिए तैयार हो जाने के आदेश मिले । मेजर जनरल के.पी. कैंडेथ को 17 इन्फैंट्री डिवीजन और 50 पैरा ब्रिगेड का प्रभार मिला। भारतीय सेना की तैयारियों के बावजूद पुर्तगालियों की हेकड़ी नहीं गई। भारतीय वायु सेना के पास उस समय छह हंटर स्क्वाड्रन और चार कैनबरा स्क्वाड्रन थे। गोवा अभियान में हवाई कार्रवाई की जिम्मेदारी एयर वाइस मार्शल एरलिक पिंटो के पास थी। सेना ने अपनी तैयारियों को अंतिम रूप देते हुए आखिरकार दो दिसंबर को गोवा मुक्ति का अभियान शुरू कर दिया। वायु सेना ने आठ और नौ दिसंबर को पुर्तगालियों के ठिकाने पर अचूक बमबारी की। सेना और वायु सेना के हमलों से पुर्तगाली तिलमिला गए। आखिरकार 19 दिसंबर 1961 को तत्कालीन पुर्तगाली गवर्नर मैन्यू वासलो डे सिल्वा ने भारत के सामने समर्पण समझौते पर दस्तखत कर दिए। इस तरह भारत ने गोवा और दमन दीव को मुक्त करा लिया और वहां पुर्तगालियों के 451 साल पुराने औपनिवेशक शासन को खत्म कर दिया। पुर्तगालियों को जहां भारत के हमले का सामना करना पड़ रहा था, वहीं उन्हें गोवा के लोगों का रोष भी झेलना पड़ रहा था। दमन-दीव पहले गोवा प्रशासन से जुड़ा था, लेकिन 30 मई 1987 में इसे अलग से केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। गोवा और दमन-दीव में हर साल 19 दिसंबर को मुक्ति दिवस मनाया जाता है। गोवा मुक्ति युद्ध में जहां 30 पुर्तगाली मारे गए, वहीं 22 भारतीय वीरगति को प्राप्त हुए। घायल पुर्तगालियों की संख्या 57 थी, जबकि घायल भारतीयों की संख्या 54 थी। इसके साथ ही भारत ने चार हजार 668 पुर्तगालियों को बंदी बना लिया था।
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19-12-2011, 05:36 PM | #57 |
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Re: कतरनें
शहादत दिवस पर
फांसी से पहले रोशन ने दो साल की जेल भी काटी थी काकोरी ट्रेन लूट कांड में आज के दिन ही इलाहाबाद में फांसी की सजा के पहले इस कांड के सबसे उम्र दराज सदस्य ठाकुर रोशन सिंह ने दो साल के कैद की सजा भी काटी थी। बरेली और शाहजहांपुर में असहयोग आन्दोलन चला रहे रोशन सिंह को बरेली में हुए गोलीकांड में दो साल के कैद की सजा दी गयी थी। उनका जन्म 22 जनवरी ।894 में शाहजहांपुर के नेवादा गांव में हुआ था । उनके पिता का नाम जगदीश सिंह उर्फ जंगी सिंह था । रोशन सिंह मिडिल तक शिक्षा पाने के बाद प्राइमरी स्कूल में शिक्षक हुए और बाद में मातृवेदी संस्था के सदस्य बने। शिरगंज, बिचपुरी, मैनपुरी एवं अन्य डकैतियों में उन्होंने सक्रिय भाग लिया। जब असहयोग आंदोलन चला, तो उनका यह शौर्य बल और चमक उठा। उन्होंने शाहजहांपुर और बरेली के गांवों में घूम घूमकर असहयोग का प्रचार किया। इन दिनों इसी सिलसिले में बरेली में गोली चली और उन्हें दो वर्ष की कडी कैद की सजा हुई। इसके बाद आजादी का यह दीवाना काकोरी ट्रेन डकैती में शामिल हुआ। काकोरी कांड में पकडे जाने वालों में रोशन सिंह ही शारीरिक दृष्टि से सबसे अधिक बलवान थे। वह एक अचूक निशानेबाज भी थे। न्यायाधीश हेमिल्टन ने पहले उन्हें पांच साल के कैद की सजा दी, जिसे बाद में फांसी की सजा में बदल दिया गया। उन्हें भारतीय दंड विधि संहिता की धारा 396 के तहत मौत हो जाने तक फांसी की सजा दी। साथ में यह भी कहा कि यदि अपील करना चाहे तो हफ्ते भर के अंदर अपील कर सकते हैं। रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनकर जैसे सबको काठ मार गया था। अन्याय की कल्पना तो की जा सकती थी, पर ऐसे अन्याय की कल्पना सपने में भी नहीं थी। अब रोशन सिंह ने सबको एक दूसरे का मुंह ताकते देखा, तो वे चौंके, क्योंकि उन्हें अंग्रेजी नहीं के बराबर आती थी। उन्होंने बगल में खड़े व्यक्ति से से पूछा कि फाइव इयर्स... फाइव इयर्स इससे आगे भी तो कुछ था, वह क्या था। उस व्यक्ति ने उनकी कमर में हाथ डालते हुए कहा, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल.और राजेन्द्र नाथ लाहिडी के साथ-साथ आपको भी फांसी मिली है, जबकि इनके वकील व साथियों का ख्याल था कि रोशन सिंह को फांसी की सजा नहीं मिलेगी। फांसी की खबर सुनकर रोशन सिंह एकदम उछल पडे। वह सबसे ज्यादा उम्र के थे, पर उनका अपराध सबसे हल्का था। सभी किंकर्तव्यविमूढ होकर उन्हें देख रहे थे। उस कर्मयोगी के तेजस्वी चेहरे पर स्वाभाविक शांति थी। वात्सल्य भरी दृष्टि से बिस्मिल, अशफाक और राजेन्द्र लाहिडी की ओर देखकर वे बोले, तुम लोग अकेले जाना चाहते थे न। फिर उन्होंने गोरे जज हेमिल्टन से हंसकर कहा, मुझे नया जीवन देने के लिए आपको धन्यवाद। आपने लडकों के सामने मेरी बुजुर्गी की लाज रख ली। फांसी दिए जाने के काफी समय पूर्व जेल में बांग्ला भाषा अच्छी तरह सीख लेने पर एक दिन बिस्मिल ने कहा, ठाकुर तुम्हें तो फांसी होने वाली है, बांग्ला सीखकर क्या करोगे। मुस्कारते हुए ठाकुर रोशन सिंह ने कहा, पंडितजी इस जन्म में नहीं, तो क्या अगले जन्म में भी कुछ काम न आएगी। जेल आकर रोशन सिंह लगभग मौन हो गए। जरूरत से ज्यादा न बोलते। मराठी का अखबार पढते और उसी में मस्त रहते। फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद एक दिन वकील ने आकर कहा आपकी अपील कर दी गई है। उत्तर मिला, कोई बात नहीं। फिर एक दिन जेल अधीक्षक ने कहा, आपकी अपील खारिज हो गई। फिर वही उत्तर था, कोई बात नहीं। फांसी के एक दिन पहले मिलने आए लोगों से उन्होंने कहा कि तुम लोग मेरी फिकर मत करो। भगवान को अपने सभी पुत्रों का ख्याल है। ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसम्बर 1927 को मलाका जेल, वर्तमान में इलाहाबाद का स्वरुपरानी नेहरू अस्पताल परिसर में फांसी दी गई थी। फांसी से पहले 13 दिसम्बर को अपने मित्र को एक पत्र लिखा। पत्र में लिखा गया, मेरी इसी सप्ताह के भीतर ही फांसी होगी। आप मेरे लिए हरगिज रंज न करें। मेरी मौत खुशी का प्रतीक होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना जरूरी है। मैं दो साल से बच्चों से अलग हूं। इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला, इससे मेरा मोह छूट गया और कोई कामना बाकी नहीं रही। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्मयुद्ध में प्राण देता है, उसकी वही गति होती है, जो जंगल में रहकर तपस्या करने वालों की होती है । जिदंगी जिंदा दिलों की जान ए रोशन । यूं तो लाखों पैदा होते हैं और फना होते हैं। फांसी वाले दिन यानी 19 दिसम्बर 1927 को रोशन सिंह मुस्कराते हुए हाथ में गीता लेकर मलाका जेल स्थित फांसीघर की ओर चल पडे और वंदेमातरम का उच्च नारा लगाते हुए भारत माता की जय का उद्घोष किया और ओम का स्मरण करते हुए फांसी पर झूल गए। देशप्रेम की वेदी पर इस वीर ने स्वयं को न्यौछावर कर दिया।
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19-12-2011, 05:54 PM | #58 |
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Re: कतरनें
20 दिसंबर कैरोलिंग दिवस पर विशेष
क्रिसमस का उल्लास झलकता है कैरल गीतों में दुनिया को शांति और अहिंसा का पाठ पढाने वाले प्रभु यीशु मसीह के जन्मदिन क्रिसमस से ठीक पहले उनके संदेशों को भजनों (कैरल) के माध्यम से घर घर तक पहुंचाने की प्रथा को विश्व के विभिन्न हिस्सों में ‘गो कैरोलिंग दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। क्रिसमस से ठीक पहले आज के दिन ईसाई धर्मावलंबी रंग बिरंगे कपड़े पहनकर एक दूसरे के घर जाते हैं और भजनों के माध्यम से प्रभु के संदेश का प्रचार प्रसार करते हैं। प्रभु की भक्ति में डूबे श्रद्धालुओं के समूह में भजन गायन का यह सिलसिला क्रिसमस के बाद भी कई दिनों तक जारी रहता है । कैरल एक तरह का भजन होता है जिसके बोल क्रिसमस या शीत रितु पर आधारित होते हैं । ये कैरल क्रिसमस से पहले गाये जाते हैं। ईसाई मान्यता के अनुसार कैरल गाने की शुरूआत यीशु मसीह के जन्म के समय से हुई । प्रभु का जन्म जैसे ही एक गौशाला में हुआ वैसे ही स्वर्ग से आये दूतों ने उनके सम्मान में कैरल गाना शुरू कर दिया और तभी से ईसाई धर्मावलंबी क्रिसमस के पहले ही कैरल गाना शुरू कर देते हैं। गो कैरोलिंग दिवस एक ऐसा मौका होता है जब लोग बडे धूमधाम से प्रभु यीशु की महिमा, उनके जन्म की परिस्थितियों, उनके संदेशों, मां मरियम द्वारा सहे गये कष्टों के बारे में भजन गाते हैं । प्रभु यीशु मसीह का जन्म बहुत कष्टमय परिस्थितियों में हुआ। उनकी मां मरियम और उनके पालक पिता जोजफ जनगणना में नाम दर्ज कराने के लिये जा रहे थे। इसी दौरान मां मरियम को प्रसव पीड़ा हुयी लेकिन किसी ने उन्हें रूकने के लिये अपने मकान में जगह नहीं दी। अंतत: एक दम्पती ने उन्हें अपनी गौशाला में शरण दी, जहां प्रभु यीशू मसीह का जन्म हुआ। भारत में भी यह दिन बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। नगालैंड, मिजोरम, मणिपुर समेत समूचे पूर्वोत्तर भारत में लोग विशेषकर युवा बेहद उत्साह के साथ टोलियों में निकलते हैं और रातभर घर-घर जाकर कैरल गाते हैं। कैरल गाने के बाद लोग गर्मागर्म चाकलेट और मीठा बिस्कुट खाते हैं।
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19-12-2011, 06:44 PM | #59 |
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Re: कतरनें
ठंड से बचने के लिये शराब का सहारा न लें रक्तचाप और दिल के रोगी
अचानक शुरू हुई कड़ाके की ठंड में उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारी से पीड़ित लोग थोड़ा एलर्ट रहें और शरीर को गर्म रखने के लिये दो पैग व्हिस्की या रम से दूर ही रहें तो उनकी सेहत के लिये अच्छा है । इस दौरान खान पान का तो बहुत ही ध्यान रखें और क्योंकि इस मौसम में जरा सी लापरवाही उनके लिये परेशानी का सबब बन सकती है और उन्हें अस्पताल में भर्ती होने पर मजबूर कर सकती है। डाक्टरों का मानना है कि इस समय पड़ रही ठंड उच्च रक्तचाप के मरीजों तथा दिल की बीमारी से ग्रस्त मरीजों के लिये परेशानी का कारण बन सकती है, इस लिये सर्दी से तो बचाव करें ही साथ ही साथ खान पान पर भी ध्यान दें और तेल और मक्खन से बने खादय पदार्थो से पूरी तरह बचें। उनका कहना है कि इसके अलावा इस मौसम में शराब का इस्तेमाल तो कतई न करें क्योंकि व्हिस्की और रम के दो पैग उस समय तो उनकी ठंड कम कर देंगे लेकिन इससे उनका ब्लड प्रेशर अचानक बढ जाएगा और ब्लड शुगर में भी अचानक बढोत्तरी हो जाएगी । इस मौसम में ऐसे रोगी एक बार अपने डाक्टर से मिल कर अपनी दवाओं पर जरूर चर्चा कर लें, ऐसा करना उनके लिये लाभप्रद ही होगा और हो सके तो डाक्टर के संपर्क में लगातार रहें । संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (पीजीआई) के कार्डियोलोजी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर सुदीप कुमार ने बताया कि सर्दियां बच्चों और बुजुर्गो के लिये तो खतरनाक होती ही हैं लेकिन उन लोगों के लिये सबसे अधिक परेशानी का कारण बनती है, जो कि उच्च रक्तचाप के मरीज हो या दिल की किसी बीमारी से पीड़ित हो । डाक्टरों के अनुसार कड़ाके की सर्दी में उच्च रक्तचाप के मरीजों के लिये सबसे बड़ी परेशानी यह है कि ठंड की वजह से पसीना नहीं निकलता है और शरीर में नमक (साल्ट) का स्तर बढ जाता है जिससे रक्तचाप बढ जाता है । पीजीआई के कार्डियालोजिस्ट प्रो कुमार ने बताया कि इसके अतिरिक्त सर्दी में ज्यादा काम न करने से शारीरिक गतिविधियां भी कम हो जाती हैं और लोग व्यायाम वगैरह से भी कतराते है, जिससे रक्तचाप बढने की संभावना बढ जाती है और फिर बढे हुये रक्तचाप के कारण उनमें ब्रेन स्ट्रोक का खतरा बढ जाता है । सर्दी के मौसम में खून की धमनियों में सिकुड़न की वजह से खून में थक्का जमने की संभावना बढ जाती है जो कि दिल के रोगियों के लिये परेशानी का कारण बनती है। ऐसे में इस तरह के रोगियों को सर्दी के मौसम में पराठे,पूरी और अधिक चिकनाई वाले खादय पदार्थो से बचना चाहिये क्योंकि सर्दी में दिल को आम दिनों की तुलना में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है जो कभी कभी उस पर भारी पड़ जाती है। वह कहते हैं कि लोगों के मन में एक गलतफहमी है कि सर्दी के दिनों में गर्म चीजें जैसे गुड़ से बनी गजक या तिल के लडडू आदि खाने से या व्हिस्की या रम के दो पैग गुनगुने पानी से लेने से सर्दी भाग जाएगी। उन्होने कहा कि ऐसा करने से आप को तुरंत तो गर्मी का एहसास हो जाएगा लेकिन आप का रक्तचाप और ब्लड शुगर बढ जाएगा जो आपके स्वास्थ्य के लिये काफी नुकसानदेह साबित हो सकता है और आपको अस्पताल में भर्ती होना पड़ सकता है । इसी कारण ठंड के मौसम में अस्पतालों के कार्डियोलोजी विभाग में अचानक मरीजों की संख्या में भारी इजाफा हो जाता है । संजय गांधी पीजीआई के डा सुदीप कहते हंै कि इस ठंड के मौसम में उच्च रक्तचाप और दिल के मरीज सुबह सुबह की मार्निंग वाक से बचें और हो सके तो शाम को वाक या एक्सरसाइज करें और कम से कम इतना जरूर करें कि वाक या एक्सरसाइज में आपके शरीर से पसीना निकलने लगे । इसके लिये जरूरी नहीं है कि आप खुले मैदान में जाये आप किसी हेल्थ क्लब या अपने घर में ही व्यायाम कर सकते हैं और अपने को चुस्त दुरूस्त रख सकते हैं । प्रो कुमार कहते हैं कि इसके अलावा सात या आठ घंटे की अपनी नींद जरूर पूरी करें क्योंकि नींद न पूरी होने से तनाव होता है और तनाव ब्लड प्रेशर बढने का एक बड़ा कारण है । सर्दी में अगर घर से काम के सिलसिले में बाहर निकलना ही है तो अपने शरीर और कानों को गर्म कपड़े से ढंक कर निकले, क्योंकि जरा सी लापरवाही आपके लिये परेशानी का कारण बन सकती है । उधर शहर के जिला सरकारी अस्पताल काशीराम अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डा डीपी मिश्रा ने माना कि सर्दियों के मौसम में उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारी के रोगियों की संख्या में इजाफा हुआ है लेकिन अस्पताल में ऐसे रोगियों के लिये चिकित्सा के सभी इंतजाम हैं और किसी भी रोगी को लौटाया नहीं जा रहा है ।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 20-12-2011 at 07:15 PM. |
20-12-2011, 07:16 PM | #60 |
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Re: कतरनें
पत्नी और बच्चों को भारतीय नागरिकता दिलाने को परेशान है एक पाकिस्तानी हिंदू
जालंधर ! पाकिस्तान के स्यालकोट के धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक हालात से बेजार होकर 16 साल पहले जालंधर आये एक हिंदू परिवार का 70 वर्षीय मुखिया खुद तो भारत का नागरिक है, लेकिन अपनी पाकिस्तानी पत्नी और बच्चों को भारतीय बनाने की जद्दो जहद में वर्षों से परेशान है। पाकिस्तान में बसे हिंदू, सिख और इसाई परिवार वहां के कट्टरपंथियों के जुल्मो सितम से परेशान होकर अकसर अपना घरबार छोड़कर अपने वतन लौट आने को मजबूर हो जाते हैं। इसी क्रम में मुल्क राज (70 ) अपनी पत्नी कमलावंती (64 ) तथा चार बेटे और चार बेटियों के साथ 1995 में अपना कारोबार और घरबार सब वहां छोड कर यहां आ गए थे। इस बारे में मुल्क राज ने बातचीत में कहा, ‘‘मैं अपने पूरे परिवार के साथ 1995 में यहां आ गया था। हम यहां जैसे तैसे अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। नागरिकता के संबंध में भारत सरकार द्वारा निर्धारित सभी शर्तों को पूरा करने के बाद हमने नागरिकता के लिए आवेदन किया। वर्ष 2009 में सरकार ने मुझे, मेरे दो बेटों और एक बेटी को नागरिकता दे दी, लेकिन पत्नी और अन्य बच्चों को नहीं दी।’’ उन्होंने रूंधे गले से कहा, ‘‘इस बुढापे में कागज दुरूस्त रखने के लिए मुझे बार बार दिल्ली जाना पड़ता है । सरकार ने मेरी पत्नी को नागरिकता नहीं दी है । हमारी एक ही गुजारिश है कि कमलावंती के साथ साथ बच्चों को भी नागरिकता दे दी जाए।’’ मुल्क राज ने कहा, ‘‘हम दस लोग आये थे और हमारे पास कुल आठ पासपोर्ट थे। दोनो छोटे बच्चे नाबालिग थे इसलिए उनका नाम उनकी मां के पासपोर्ट पर दर्ज है। मुझे हर वक्त यही चिंता लगी रहती है कि किसी तरह पूरे परिवार को भारत की नगरिकता मिल जाये । हमें अपने सभी दस्तावेज दुरूस्त करा कर रखने पडते हैं । बच्चों की शादी भी यहीं कर दी है । पोते भी हैं लेकिन चिंता एक ही बात की है कि पत्नी और अन्य बच्चे भारतीय हो जाएं।’’ मुल्क राज के साथ बैठी उनकी पत्नी कमलावंती का कहना है, ‘‘भगवान सब ठीक करेगा । वह हमारी जरूर सुनेगा और मुझे तथा हमारे बच्चों को यहां की नागरिकता जरूर मिलेगी । कम से कम बच्चों को नागरिकता मिल जाये तो मैं चैन से मर सकूंगी।’’ दूसरी ओर जालंधर में रह रहे पाकिस्तानी हिंदू परिवारों के लिए काम करने वाले भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता भगत मनोहर लाल ने कहा, ‘‘ मुल्क राज का परिवार ऐसा अकेला परिवार नहीं है। जालंधर में लगभग दो सौ ऐसे परिवार हैं। कई परिवार ऐसे हैं जिनमें पति को नागरिकता मिल गयी है तो पत्नी को नहीं । किसी परिवार में बच्चों को नागरिकता मिल गयी है तो उनके मातापिता को नहीं। केंद्र सरकार इन लोगों के साथ अन्याय कर रही है। सरकार को इन लोगों के बारे में एक बार जरूर सोचना चाहिए । ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि पति भारत में रहे और पत्नी पाकिस्तान में। वह वापस पाकिस्तान नहीं जाना चाहते हैं इसलिए उन्हें सरकार तत्काल नागरिकता दे।’’ भगत मनोहर लाल ने कहा, ‘‘आगामी 23 दिसंबर को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के समक्ष मैं इस मुद्दे को उठाउंगा और प्रयास करूंगा कि वह अपने स्तर पर इन लोगों की समस्या के समाधान में सहयोग दें ।’’ इस बारे में जालंधर के उपायुक्त प्रियांक भारती ने कहा, ‘‘नागरिकता के संबंध में आवेदन मिलने पर पुलिस की जांच के बाद तत्काल उसे गृह मंत्रालय भेज दिया जाता है। इस तरह के लंबित मामलों की मुझे कोई जानकारी नहीं है ।’’ उन्होंने कहा, ‘‘इस बारे में ब्यौरा मिलने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है । हालांकि, अगर ऐसा मामला है कि पत्नी को नागरिकता नहीं मिली है और पति को मिल गयी है और हमारे पास आकर वह अपना मामला रखते हैं तो मैं उसे दिल्ली भेज दूंगा ।’’ स्यालकोट से आए एक अन्य परिवार के मुखिया दिलीप कुमार (69) ने कहा कि हमारा पूरा परिवार एक ही दिन भारत आये था और हमें नागरिकता दे दी गयी है लेकिन हमारे परिवार के अन्य सदस्यों को नहीं। हम चाहते हैं कि सरकार हम पर रहम करे और हमें नागरिकता दे दे।’’ गौरतलब है कि मुल्क राज और दिलीप कुमार के पास अब भारतीय पासपोर्ट है, जबकि इनके परिजनों के पास नागरिकता नहीं मिलने के कारण अभी भी पाकिस्तान का पासपोर्ट है। कमलावंती से यह पूछे जाने पर कि सरकार अगर उन्हें भारत से जाने के लिए कहे, तो वह क्या करेंगी, उन्होंने कहा, ‘‘मैं अपने पति और बच्चों को छोड कर कहीं नहीं जाउंगी। अब तो इस बुढापे में केवल भगवान के यहां जाने के बारे में सोचती हूं।’’
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