26-01-2013, 09:27 PM | #51 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
(शायर इक़बाल) अनोखी वज़्अ है सारे ज़ मा ने से निराले हैं ये आशिक़ कौन सी बस्ती के यारब रहने वाले हैं इलाजे-दर्द में भी दर्द की लज्ज़त पे मरता है जो थे छालों में कांटे, नोके-सोज़न से निकाले हैं फला फूला रहे यारब चमन मेरी उमीदों का जिगर का खून दे दे कर ये बूटे मैंने पाले हैं न पूछो मुझ से लज्ज़त, खानुमां-बरबाद रहने की नशेमन सैंकड़ों मैंने बना कर फूंक डाले हैं उमीदे-हूर ने सब कुछ सिखा रखा है वाइज़ को ये हज़रत देखने में सीधे - सादे, भोले-भाले हैं. नोके-सोज़न = कांटे की नोक ***** |
26-01-2013, 09:30 PM | #52 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
ग़ ज़ ल
(शायर इक़बाल) तेरे इश्क़ की इन्तिहा चाहता हूँ मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ सितम हो कि हो वाद-ए-बेहिजाबी कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को कि मैं आपका सामना चाहता हूँ भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ. ***** |
26-01-2013, 09:31 PM | #53 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
चंद अशआर
(शायर: इक़बाल) मुझे रोकेगा तू ए नाखुदा क्या ग़र्क होने से कि जिनको डूबना है डूब जाते हैं सफ़ीनों में. मुहब्बत के लिए दिल ढूं ढ कोई टूटने वा ला ये वो मय है जिसे रखते हैं नाज़ुक आबगीनों में. बु रा समझूं उन्हें ऐसा तो हरगिज़ हो नहीं सकता कि मैं खुद भी तो हूँ ‘इक़बाल’ अपने नुक्ताचीनों में. ढूँढता फिरता हूँ अय इक़बाल अपने आपको आप ही गोया मुसाफिर आप ही मंजिल हूँ मैं. अच्छा है दिल के साथ रहे पासबाने-अक्ल लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे. मैं उनकी महफिले-इशरत से कांप जाता हूँ जो घर को फूंक के दुनिया में नाम करते हैं. ए ताइरे-लाहूती, उस रिज़्क से मौत अच्छी जिस रिज़्क से आती है परवाज़ में कोताही. ज़िन्दगी इन्सां की है मानिन्दे-मुर्गे-खुशनवां शाख पर बैठा,कोई दम चहचहाया, उड़ गया. तू ही नादां चंद कलियों पर कनाअत कर गया वरना गुलशन में इलाजे- तंगिए- दामां भी था. सफ़ीनों = नाव / आबगीनों = प्याला / नुक्ताचीनों = आलोचक / पासबाने-अक्ल = बुद्धि रुपी रक्षक / महफिले-इशरत = चमक दमक वाली महफ़िल / ताइरे-लाहूती = आत्माओं के लोक के पक्षी / कनाअत = सब्र / इलाजे- तंगिए- दामां = छोटे दामन का इलाज ***** Last edited by rajnish manga; 26-01-2013 at 10:03 PM. |
26-01-2013, 09:55 PM | #54 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
राम (शायर: इक़बाल)
लबरेज़ है शराबे-हकीक़त से जामे-हिन्द सब फ़लसफ़ी हैं खित्त-ए-मगरिब रामे-हिन्द यह हिंदियों के फ़िक्रे-फ़लक-रस का है असर रिफअत में आसमाँ से भी उंचा है बामे-हिन्द इस देह में हुए हैं हज़ारों मलक सरिश्त मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नामे-हिन्द है राम के वुजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़ अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द एजाज़ इस चिरागे-हिदायत का है यही रौशन-तर-अज़ सहर है ज़माने में शामे-हिन्द तलवार का धनी था, शुजाअत में फ़र्द था पाकीज़गी में, जोशे - मुहब्बत में फ़र्द था. ***** |
26-01-2013, 10:05 PM | #55 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
गज़ल
(शायर:जिगर मुरादाबादी) वो अदा-ए-दिलबरी हो, के नवा-ए-आशिकाना जो दिलों को फ़तह कर दे वही फ़ातहे ज़माना वो तेरा जवाल-ए-कामिल वो शबाब का ज़माना दिले दुश्मना सलामत दिले दोस्तां निशाना मेरे हमसफ़ीर बुलबुल तेरा मेरा साथ ही क्या मैं ज़मीर-ए-दश्त-ओ-दरिया, तू असीरे आशियाना वो मैं साफ़ क्यों न कह दूँ जो है फ़र्क तुझमे-मुझमे तेरा दर्द दर्द-ए-तन्हा मेरा ग़म ग़म-ए-ज़माना तेरे दिल के टूटने पर, है किसी को नाज़ क्या-क्या तुझे ए ‘जिगर’ मुबारक ये शिकस्त-ए-फातिहाना. ***** |
26-01-2013, 10:07 PM | #56 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
गज़ल
(शायर: अकबर इलाहाबादी) बहुत रहा है कभी लुत्फे यार हम पर भी गुज़र चुकी है ये फसले बहार हम पर भी उरुस-ए-दह्र को आया था प्यार हम पर भी ये बेसुवा थी किसी शब् निसार हम पर भी बिठा चुका है ज़माना हमें भी मसनद पर हुआ किये हैं जवाहर निसार हम पर भी उदू को भी जो बनाया है तुमने महरमे-राज़ तो फख्र क्या जो हुआ ऐतबार हम पर भी ख़ता किसी की हो लेकिन खुली जो उनकी जुबां तो हो ही जाते हैं दो एक वार हम पर भी हम ऐसे रिंद मगर ये ज़माना है वो गज़ब कि डाल ही दिया दुनिया का बार हम पर भी हमें बी आतिश-ए-उल्फत जला चुकी ‘अकबर’ हराम हो गई दोज़ख की मार हम पर भी |
26-01-2013, 10:10 PM | #57 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
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(शायर: अकबर इलाहाबादी) आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते खातिर से तेरी याद को ट लने नहीं देते सच है कि हमीं दिल को सँभलने नहीं देते किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते परवानों ने फानूस को देखा तो ये बोले क्यों हमको जलाते हो कि जलने नहीं देते हैरां हूँ किस तरह करूं अर्जे तमन्ना दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त हम वो हैं कि कुछ मुंह से निकलने नहीं देते गर्मी-ए-मुहब्बत में वो है आह से माने पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते. |
26-01-2013, 10:12 PM | #58 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
गज़ल
(शायर: अकबर इलाहाबादी) उम्र कब तक वफ़ा करेगी, ज़माना कब तक जफ़ा करेगा मुझे क़यामत की हैं उम्मीदें, जो कुछ करेगा ख़ुदा करेगा फ़लक जो बर्बाद भी करेगा, बुलंद इरादे मेरे रहेंगे जो ख़ाक हूँगा तो ख़ाक से भी सदा बगूला उठा करेगा ख़ुदा की पाक़ी पुकारता हूँ, हुआ करे नाखुशी बुतों को मेरी ग़रज़ कुछ नहीं किसी से, तो फिर मेरा कोई क्या करेगा जहाँ-ए-फ़ानी का हश्र ही को ख़याल कर मुस्तकिल नतीजा यहाँ तो पैहम यही तरद्दुद यही तगैय्युर हुआ करेगा अगरचे है दर्द-ओ-ग़म से मुज़तर यही है दर्द-ए-ज़बान-ए-‘अकबर’ ये दर्द जिसने दिया है हमको वही हमारी दवा करेगा ***** |
26-01-2013, 10:13 PM | #59 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
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(शायर: अकबर इलाहाबादी) दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ बा ज़ा र से गुज़रा हूँ ख री दा र नहीं हूँ ज़िंदा हूँ मगर ज़ीस्त की लज्ज़त नहीं बाक़ी हर चंद कि हूँ होश में हु शि या र नहीं हूँ इस खाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊंगा बेलौस साया हूँ फ़ क त नक्श बे-दीवार नहीं हूँ अफसुर्दा हूँ इबरत से दवा की नहीं हाजत ग़ म का मुझे ये जोअफ़ है, बीमार नहीं हूँ वो गुल हूँ खिज़ां ने जिसे बर्बाद किया है उलझूं किसी दामन से में वो ख़ार नहीं हूँ यारब मुझे महफूज़ रख उस बुत के सितम से मैं उसकी इनायत का तलबगार न हीं हूँ अफ्सुर्दगी-ओ-ज़ोफ़ की कुछ हद नहीं ‘अकबर’ काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीं हूँ. ***** |
26-01-2013, 10:18 PM | #60 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
गज़ल
(शायर: अकबर इलाहाबादी) दिल ज़ीस्त से बेज़ार है मालूम नहीं क्यों सीने में नफ़स बार है मालूम नहीं क्यों इकरार-ए-वफ़ा यार ने हर इक से किया है मुझसे ही बस इंकार है मालूम नहीं क्यों हंगामा-ए-महशर का तो मक़सूद है मालूम देहली में ये दरबार है मालूम नहीं क्यों इफ़्लास में मस्ती तो मुझे खुश नहीं आती साक़ी को ये इसरार है मालूम नहीं क्यों अन्दाज़ तो उश्शाक के पाए नहीं जाते ‘अकबर’ जिगर अफ़ग़ार है मालूम नहीं क्यों जीने पे तो जां अहल-ए—जहां देते हैं ‘अकबर’ फिर भी तुझे दुश्वार है मालूम नहीं क्यों. शब्दार्थ :- ज़ीस्त = जीवन / नफ़स = सांस / बार = भार / हंगामा-ए-महशर = प्रलय का हंगामा मक़सूद = उद्देश्य / इफ़्लास = गरीबी / इसरार = ज़िद उश्शाक = प्रेमी / अफ़ग़ार = घायल |
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