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Old 01-03-2011, 12:11 PM   #51
Sikandar_Khan
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Originally Posted by bhuwan View Post
मित्र सिकंदर जी, बहुत अच्छी कहानियां प्रस्तुत की हैं.
मित्र भूवन जी
हार्दिक आभार
प्रयास करेँगे आगे भी आपके लिए कुछ ला सकेँ
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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Old 01-03-2011, 08:12 PM   #52
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दुख का कारण

एक व्यापारी को नींद न आने की बीमारी थी। उसका नौकर मालिक की बीमारी से दुखी रहता था। एक दिन व्यापारी अपने नौकर को सारी संपत्ति देकर चल बसा। सम्पत्ति का मालिक बनने के बाद नौकर रात को सोने की कोशिश कर रहा था, किन्तु अब उसे नींद नहीं आ रही थी। एक रात जब वह सोने की कोशिश कर रहा था, उसने कुछ आहट सुनी। देखा, एक चोर घर का सारा सामान समेट कर उसे बांधने की कोशिश कर रहा था, परन्तु चादर छोटी होने के कारण गठरी बंध नहीं रही थी।

नौकर ने अपनी ओढ़ी हुई चादर चोर को दे दी और बोला, इसमें बांध लो। उसे जगा देखकर चोर सामान छोड़कर भागने लगा। किन्तु नौकर ने उसे रोककर हाथ जोड़कर कहा, भागो मत, इस सामान को ले जाओ ताकि मैं चैन से सो सकूँ। इसी ने मेरे मालिक की नींद उड़ा रखी थी और अब मेरी। उसकी बातें सुन चोर की भी आंखें खुल गईं।
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Old 01-03-2011, 08:43 PM   #53
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शब्द

एक किसान की एक दिन अपने पड़ोसी से खूब जमकर लड़ाई हुई। बाद में जब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ, तो उसे ख़ुद पर शर्म आई। वह इतना शर्मसार हुआ कि एक साधु के पास पहुँचा और पूछा, ‘‘मैं अपनी गलती का प्रायश्चित करना चाहता हूँ।’’ साधु ने कहा कि पंखों से भरा एक थैला लाओ और उसे शहर के बीचों-बीच उड़ा दो। किसान ने ठीक वैसा ही किया, जैसा कि साधु ने उससे कहा था और फिर साधु के पास लौट आया। लौटने पर साधु ने उससे कहा, ‘‘अब जाओ और जितने भी पंख उड़े हैं उन्हें बटोर कर थैले में भर लाओ।’’ नादान किसान जब वैसा करने पहुँचा तो उसे मालूम हुआ कि यह काम मुश्किल नहीं बल्कि असंभव है। खैर, खाली थैला ले, वह वापस साधु के पास आ गया। यह देख साधु ने उससे कहा, ‘‘ऐसा ही मुँह से निकले शब्दों के साथ भी होता है।’’
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Old 01-03-2011, 11:31 PM   #54
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समाधान

एक बूढा व्यक्ति था। उसकी दो बेटियां थीं। उनमें से एक का विवाह एक कुम्हार से हुआ और दूसरी का एक किसान के साथ।

एक बार पिता अपनी दोनों पुत्रियों से मिलने गया। पहली बेटी से हालचाल पूछा तो उसने कहा कि इस बार हमने बहुत परिश्रम किया है और बहुत सामान बनाया है। बस यदि वर्षा न आए तो हमारा कारोबार खूब चलेगा।

बेटी ने पिता से आग्रह किया कि वो भी प्रार्थना करे कि बारिश न हो।

फिर पिता दूसरी बेटी से मिला जिसका पति किसान था। उससे हालचाल पूछा तो उसने कहा कि इस बार बहुत परिश्रम किया है और बहुत फसल उगाई है परन्तु वर्षा नहीं हुई है। यदि अच्छी बरसात हो जाए तो खूब फसल होगी। उसने पिता से आग्रह किया कि वो प्रार्थना करे कि खूब बारिश हो।

एक बेटी का आग्रह था कि पिता वर्षा न होने की प्रार्थना करे और दूसरी का इसके विपरीत कि बरसात न हो। पिता बडी उलझन में पड गया। एक के लिए प्रार्थना करे तो दूसरी का नुक्सान। समाधान क्या हो ?

पिता ने बहुत सोचा और पुनः अपनी पुत्रियों से मिला। उसने बडी बेटी को समझाया कि यदि इस बार वर्षा नहीं हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी छोटी बहन को देना। और छोटी बेटी को मिलकर समझाया कि यदि इस बार खूब वर्षा हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी बडी बहन को देना।
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Old 01-03-2011, 11:37 PM   #55
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दूरदर्शी

एक आदमी सोना तोलने के लिए सुनार के पास तराजू मांगने आया। सुनार ने कहा, ‘‘मियाँ, अपना रास्ता लो। मेरे पास छलनी नहीं है।’’ उसने कहा, ‘‘मजाक न कर, भाई, मुझे तराजू चाहिए।’’

सुनार ने कहा, ‘‘मेरी दुकान में झाडू नहीं हैं।’’ उसने कहा, ‘‘मसखरी को छोड़, मै तराजू मांगने आया हूँ, वह दे दे और बहरा बन कर ऊटपटांग बातें न कर।’’

सुनार ने जवाब दिया, ‘‘हजरत, मैंने तुम्हारी बात सुन ली थी, मैं बहरा नहीं हूँ। तुम यह न समझो कि मैं गोलमाल कर रहा हूँ। तुम बूढ़े आदमी सुखकर काँटा हो रहे हो। सारा शरीर काँपता हैं। तुम्हारा सोना भी कुछ बुरादा है और कुछ चूरा है। इसलिए तौलते समय तुम्हारा हाथ काँपेगा और सोना गिर पड़ेगा तो तुम फिर आओगे कि भाई, जरा झाड़ू तो देना ताकि मैं सोना इकट्ठा कर लूं और जब बुहार कर मिट्टी और सोना इकट्ठा कर लोगे तो फिर कहोगे कि मुझे छलनी चाहिए, ताकि ख़ाक को छानकर सोना अलग कर सको। हमारी दुकान में छलनी कहां? मैंने पहले ही तुम्हारे काम के अन्तिम परिणाम को देखकर दूरदर्शिता से कहा था कि तुम कहीं दूसरी जगह से तराजू मांग लो।’’

जो मनुष्य केवल काम के प्रारम्भ को देखता है, वह अन्धा है। जो परिणाम को ध्यान में रखे, वह बुद्धिमान है। जो मनुष्य आगे होने वाली बात को पहले ही से सोच लेता है, उसे अन्त में लज्जित नहीं होना पड़ता।
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Old 04-03-2011, 07:53 AM   #56
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दूरदर्शी

एक आदमी सोना तोलने के लिए सुनार के पास तराजू मांगने आया। सुनार ने कहा, ‘‘मियाँ, अपना रास्ता लो। मेरे पास छलनी नहीं है।’’ उसने कहा, ‘‘मजाक न कर, भाई, मुझे तराजू चाहिए।’’

सुनार ने कहा, ‘‘मेरी दुकान में झाडू नहीं हैं।’’ उसने कहा, ‘‘मसखरी को छोड़, मै तराजू मांगने आया हूँ, वह दे दे और बहरा बन कर ऊटपटांग बातें न कर।’’

सुनार ने जवाब दिया, ‘‘हजरत, मैंने तुम्हारी बात सुन ली थी, मैं बहरा नहीं हूँ। तुम यह न समझो कि मैं गोलमाल कर रहा हूँ। तुम बूढ़े आदमी सुखकर काँटा हो रहे हो। सारा शरीर काँपता हैं। तुम्हारा सोना भी कुछ बुरादा है और कुछ चूरा है। इसलिए तौलते समय तुम्हारा हाथ काँपेगा और सोना गिर पड़ेगा तो तुम फिर आओगे कि भाई, जरा झाड़ू तो देना ताकि मैं सोना इकट्ठा कर लूं और जब बुहार कर मिट्टी और सोना इकट्ठा कर लोगे तो फिर कहोगे कि मुझे छलनी चाहिए, ताकि ख़ाक को छानकर सोना अलग कर सको। हमारी दुकान में छलनी कहां? मैंने पहले ही तुम्हारे काम के अन्तिम परिणाम को देखकर दूरदर्शिता से कहा था कि तुम कहीं दूसरी जगह से तराजू मांग लो।’’

जो मनुष्य केवल काम के प्रारम्भ को देखता है, वह अन्धा है। जो परिणाम को ध्यान में रखे, वह बुद्धिमान है। जो मनुष्य आगे होने वाली बात को पहले ही से सोच लेता है, उसे अन्त में लज्जित नहीं होना पड़ता।
क्या? दिमाग की सोच थी
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Old 24-03-2011, 09:56 AM   #57
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किताबी कीड़े ना बने


एक छोटा सा गाँव था गाँव का नाम क्या था इससे हमारी कहानी का कोई लेना देना नहीं है | ये एक न्यायी राजा के राज्य का हिस्सा था | राज्य व राजा का नाम भी हमारी कहानी का हिस्सा नहीं है | अब चलते हैं मतलब की बात पर | इस गाँव में एक किसान के घर एक होनहार बालक का जन्म हुआ | किसान ने उसकी प्रतिभा को देखकर उसे काशी पढ़ने भेज दिया | समय बीतता गया और एक दिन वो बालक एक युवा आचार्य बनकर पुनः गाँव वापस आया |
एक दिन प्रातः काल आचार्य जी स्नानादि करने के पश्चात सूर्य-अर्घ्य दे रहे थे | अर्घ्य देते समय उन्होंने बुदबुदाते हुए प्रार्थना की-
“प्रीती बड़ी माता की, और भाई का बल ;
ज्योति बड़ी किरणों की, और गंगा का जल ||”
आचार्य जी का इतना कहना क्या के पास से गुजरती धोबन ने अपने गधे को एक जोरदार डंडा मारा और कहा -
“चल गधे ! एक गधे की बात को क्या सुनता है !” आस पास खड़े लोग हंस पड़े |

आचार्य जी ठहरे पढ़े-लिखे विद्वान और एक अदना सी धोबन ने खुले आम गधा कह कर अपमान कर दिया | अत्यंत मर्माहत से आचार्य ने ना कुछ खाया ना पिया दिन भर गुमसुम से एकान्तवास लिए सोचते रहे | जाने कब रात हुई, जाने कब फिर सुबह हुई पता ना चला | पौ फटने को थी तब तक कुछ निर्णय लेते हुए जल्दी से नित्य क्रियाओं से निवृत्त हुए और चल पड़े राजप्रासाद की ओर | दोपहर चढ़े आचार्य जी राजा के सम्मुख प्रस्तुत थे | राजा ने जब विद्वान का परिचय जाना तो ससम्मान आसान दिया और पधारने का कारण जानना चाहा | आचार्य जी ने अपनी पीड़ा कह सुनाई | राजा ने कहा “यदि उस गँवार नारी ने आपका असम्मान किया है तो उसे दंड जरूर मिलेगा |”
धोबन को राजदरबार में बुला-भेजा गया | दूसरे दिन फिर सभा लगी |
राजा ने धोबन से पूछा “क्या तुमने आचार्य जी को गधा कहा ? ”
धोबन ने जवाब दिया “नहीं सरकार मैं इतने बड़े विद्वान को भला गधा कैसे कह सकती हूँ |”
आचार्य जी बोले “क्या तुमने अपने गधे को मारते हुए ‘चल गधे ! एक गधे की बात को क्या सुनता है !’ नहीं कहा था |
धोबन : जी वो तो आपकी बात सुन के कहा था |
राजा : कौन सी बात ?
धोबन : आप आचार्य जी से ही पूछ लीजिए |
राजा : आचार्य जी क्या आप अपनी बात दोहराएँगे ?
आचार्य जी : “प्रीती बड़ी माता की, और भाई का बल ; ज्योति बड़ी किरणों की, और गंगा का जल ||
राजा : बात तो बिलकुल सही है | माँ से ज्यादा स्नेह किसी का नहीं हो सकता | भाई के समान कोई दूसरा बल नहीं होता | सूर्य की किरणों से ज्यादा कोई रौशनी नहीं दे सकता | और गंगा सा कोई जल संसार में नहीं | इसमें गधे जैसी कौन सी बात है | तुमने तो इस बात पर आचार्य जी को गधे के समान कह कर बड़ी मानहानि की |
धोबन : महाराज आचार्य जी की बात सिर्फ सत्य प्रतीत होती है परन्तु है नहीं |
राजा : अच्छा ! तो सही क्या है ?
धोबन : महाराज !
“प्रीति बड़ी त्रिया (स्त्री) की ; (क्योंकि बात अगर पिता और पुत्र में फंसे तो माँ पुत्र का कभी साथ नहीं देगी परन्तु पत्नी किसी भी हाल में साथ होगी)
और बाहों का बल | (जब बैरी अकेले में घेर लेगा तो भाई जब जानेगा तब जानेगा लेकिन वहाँ अपनी बाहों का बल ही काम आएगा )
ज्योति बड़ी नैनो की, (जब आँख ही ना हों तो क्या सूरज की किरणों की रौशनी और क्या अमावस का अँधेरा सब बराबर है )
और मेघा का जल | (गंगा जी पवित्र भले ही हैं लेकिन वे ना तो जन-जन की प्यास बुझा सकती हैं ना ही सभी खेतों में फसलों की सिंचाई कर सकती हैं)
बस यही सोच कर मैंने कहा ‘चल गधे ! एक गधे की बात को क्या सुनता है !’ क्योंकि इनका यह पुस्तकीय ज्ञान हमारे लिए सही बिलकुल भी मिथ्या है जिसकी जरूरत मेरे गधे को भी नहीं है |
राजा : आचार्य जी, अब आप क्या कहते हैं ?
आचार्य : महाराज मुझे इस बात की समझ आज हुई है कि सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान संपूर्ण ज्ञान नहीं होता | अभी बहुत कुछ शेष है जो मुझे अपने बुजुर्गों और व्यवहारिक जीवन का ज्ञान रखने वाले अनपढ़ परन्तु बुद्धिमान लोगों से सीखना शेष है |
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Last edited by Sikandar_Khan; 24-03-2011 at 10:08 AM. Reason: edit
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Old 01-04-2011, 09:25 PM   #58
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जैसा करे वैसा भरे

बात तो पुरानी ही है। एक बहू अपनी सास को टूटी कठौती में खाना देती थी। संयोग से एक दिन सास के हाथ से कठौती छूट गयी और फर्श पर गिर कर टूट गयी। बुढ़िया का बेटा उसी वक्त कहीं बाहर से घर आया। उसने अपनी माँ को कठौती टूटने पर एक जोर की डाँट लगाई। बुढ़िया इस मामूली से नुक्सान पर बेटे से झिड़की की उम्मीद न रखती थी। बेचारी रो पड़ी। उधर बहू बहुत खुश थी कि अच्छा हुआ, आज बेटे ने माँ की हरकतों को देख कर स्वयं ही उसे बुरा-भला कहा।

जब माँ ने बेटे से डाँटने की वजह पूछी तो उसने आँखे भर कर कहा- “माँ, मैंने तुम्हें उस कठौती के फूटने पर डाँटा क्योंकि तुमने कठौती नहीं एक परंपरा तोड़ दी। वह कठौती घर में तब तक रहनी चाहिए थी, जब तक मेरी पुत्रवधु घर न आ जाती। तुम्हारी बहू जिस तरह तुम्हें तुच्छता से खाना देती है, वह मेरी बहू भी देखती। और कल वह वही कठौती अपनी सास के लिए बरतती। उस समय मेरी पत्नी को सीख मिलती कि “जैसा करै वैसा भरै।”

कहते हैं, यह सारी बात उस समय उस आदमी की पत्नी भी सुन रही थी। उसे अपना दुःखपूर्ण भविष्य सामने नजर आ गया। बस फिर क्या था, उसी दिन से उसने सास के प्रति अपना व्यवहार ठीक कर लिया।
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कर्म के आगे खुद भगवान भी झुके




एक बार की बात है, भगवान और देवराज इंद्र में इस बात पर बहस छिड़ गई कि दोनों में से श्रेष्ठ कौन हैं? उनका विवाद बढ़ गया तब इंद्र ने यह सोचकर वर्षा करनी बंद कर दी कि यदि वे बारह वर्षों तक पृथ्वी पर वर्षा नहीं करेंगे तो भगवान पृथ्वीवासियों को कैसे जीवित रख पाएंगे।

इंद्र की आज्ञा से मेघों ने जल बरसाना बंद कर दिया। किंतु किसानों ने सोचा कि यदि यह लड़ाई बारह वर्षों तक चलती रही तो वे अपना कर्म ही भूल बैठेंगे। उनके पुत्र भी सब कुछ भूल जाएंगे। अतः उन्हें अपना कर्म करते रहना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने कृषि कार्य शुरू कर दिया। वे अपने-अपने खेत जोतने लगे।

तभी मिट्टी के नीचे छिपा कर मेढ़क बाहर आया और किसानों को खेती करते देख आश्चर्यचकित होकर बोला- “इंद्र देव और भगवान में श्रेष्ठता की लड़ाई छिड़ी हुई है। इसी कारण इंद्र देव ने बारह वर्षों तक पृथ्वी पर वर्षा न करने का निश्चय किया है। फिर भी आप लोग खेत जोत रहे हैं! यदि वर्षा ही न हुई तो खेत जोतने का क्या लाभ?”

किसान बोले-“मेढ़क भाई! यदि उनकी लड़ाई वर्षों तक चलती रही तो हम अपनी कर्म ही भूल जाएंगे। इसलिए हमें अपना कर्म तो करते ही रहना चाहिए।”

मेढ़क ने सोचा- ‘तो मैं भी टर्राता हूं, नहीं तो मैं भी टर्राना भूल जाऊंगा। तब वह भी टर्राने लगा।’ उसने टर्राना शुरू किया तो मोर ने भी इंद्र एवं भगवान के मध्य लड़ाई की बात कही। मेढ़क बोला-“मोर भाई! हमें तो अपना कर्म करते ही रहना चाहिए, चाहे दूसरे अपने कार्य भूल जाएं।

क्योंकि यदि हम अपने कर्म भूल जाएंगे तो आने वाली पीढ़ी को कैसे मालूम होगा कि उन्हें क्या कर्म करने हैं। अतः सबको अपना कर्म करने चाहिएं। फल क्या और कब मिलता है, यह ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए।” मेढ़क की बात सुनकर मोर भी पिहू-पिहू बोलने लगा।

देवराज इंद्र ने जब देखा कि सभी प्राणी अपने-अपने कार्य में लगे हैं तो उन्होंने सोचा कि ‘शायद इन्हें ज्ञात नहीं है कि मैं बारह वर्षों तक नहीं बरसूंगा। इसलिए ये अपने कर्म कर रहे हैं। मुझे जाकर इन्हें सत्य बताना चाहिए।’

यह सोचकर वे पृथ्वी पर आए और किसानों से बोले-“ये क्या कर रहे हो?”

किसान बोले- “भगवन! हमारा कर्म ही ईश्वर है। आप अपना कार्य करें अथवा न करें, हमें तो अपना कर्म करते ही रहना है।”

किसानों की बात सुन देवराज इंद्र ने अपनी जिस छोड़ते हुए बादलों को आदेश दिया कि वे पृथ्वी पर घनघोर वरसे।
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किसी गांव में मित्रशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था। एक बार वह अपने यजमान से एक बकरा लेकर अपने घर जा रहा था। रास्ता लंबा और सुनसान था। आगे जाने पर रास्ते में उसे तीन ठग मिले। ब्राह्मण के कंधे पर बकरे को देखकर तीनों ने उसे हथियाने की योजना बनाई।

एक ने ब्राह्मण को रोककर कहा, “पंडित जी यह आप अपने कंधे पर क्या उठा कर ले जा रहे हैं। यह क्या अनर्थ कर रहे हैं? ब्राह्मण होकर कुत्ते को कंधों पर बैठा कर ले जा रहे हैं।”ब्राह्मण ने उसे झिड़कते हुए कहा, “अंधा हो गया है क्या? दिखाई नहीं देता यह बकरा है।”
पहले ठग ने फिर कहा, “खैर मेरा काम आपको बताना था। अगर आपको कुत्ता ही अपने कंधों पर ले जाना है तो मुझे क्या? आप जानें और आपका काम।”

थोड़ी दूर चलने के बाद ब्राह्मण को दूसरा ठग मिला। उसने ब्राह्मण को रोका और कहा, “पंडित जी क्या आपको पता नहीं कि उच्चकुल के लोगों को अपने कंधों पर कुत्ता नहीं लादना चाहिए।” पंडित उसे भी झिड़क कर आगे बढ़ गया।

आगे जाने पर उसे तीसरा ठग मिला। उसने भी ब्राह्मण से उसके कंधे पर कुत्ता ले जाने का कारण पूछा। इस बार ब्राह्मण को विश्वास हो गया कि उसने बकरा नहीं बल्कि कुत्ते को अपने कंधे पर बैठा रखा है। थोड़ी दूर जाकर, उसने बकरे को कंधे से उतार दिया और आगे बढ़ गया।

इधर तीनों ठग ने उस बकरे को मार कर खूब दावत उड़ाई। इसीलिए कहते हैं कि किसी झूठ को बार-बार बोलने से वह सच की तरह लगने लगता है।

ये कहानी काफ़ी सही है ! यह हमे सीख देती है की हमे किसी भी अनजान की बातों पर जल्दी यक़ीन नही करना चाहिए.
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